दिव्या माथुर जी की तीन कविताएँ
ज़ुबान
सिर पर चढ़ के
बोलता है झूठ यही सोच के
ख़ामोश हूँ मैं
इसका क़तई ये अर्थ न लो
कि मेरे मुँह में
ज़ुबान नहीं!
बचाव
कचहरी में बड़े बड़े झूठ
एक छोटे से
सच के सामने
सिर झुकाए खड़े थे
बाहर सबसे नज़रें चुराता
सच छिपता छिपाता
अपने बचने का
रस्ता ढूँढ रहा था ।
जंगल
शक और झूठ
बो दिये उसने मेरे मन में
खर पतवार से लगे वे बढ़ने
अब तो बस जंगल ही जंगल है
बाहर जंगलजंगल मन में!
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