Saturday, August 29, 2015

समकालीनता का कहानीकार उदय प्रकाश की कहानी ‘...और अंत में प्रार्थना’ में जीवनमूल्यों की परिकल्पना

आलेख
समकालीनता का कहानीकार उदय प्रकाश की कहानी ...और अंत में प्रार्थना में जीवनमूल्यों की परिकल्पना
रमा एस. मेनोन*
जीवनमूल्य
जीवन निरंतर गतिशील प्रक्रिया है। मानव तो सामाजिक जीव है। इसलिए समाज में ही उनका जीवन संभव है। मनुष्य और समाज एक दूसरे के पूरक तथा अंत संबंधी है। आदर्श-अस्तित्व ही जीवनोपयोगी और अनुकरणीय होते हैं। इनकी जीवनोपयोगिता और सहज अनुकरणीयता के कारण-जीवन व्यवस्था के आदर्श बोधकतत्व अथवा घटक ही जीवन मूल्य के रूप में माने जाते हैं। जीवन के उच्चतर मूल्य तो आध्यात्मिक है। जैसे... सत्यम् शिवम् सुन्दरम्। आध्यात्मिकता से संबंधित सारी क्रियाएँ आदर्शोन्मुख होते हैं। मानवीयता का सत्य कल्याणकारी और सुन्दर होते हैं। विद्वान लोग मानव मूल्य को हमेशा आदर्श के रूप में मानते हैं क्योंकि यथार्थ में उन्हें कभी ग्रहण नहीं किया जा सकता है। आचार्यों का मत है कि जीवनमूल्य अनुभूति से संबंधित है। अतः एवं जीवनमूल्य हमेशा वैयक्तिक धरातल पर अंकुरित होते हैं। बाद में समाज के द्वारा इसकी सर्वस्वीकृति हो जाते हैं।
जीवनमूल्य मानव के वैयक्तिक और सामाजिक-दोनों प्रकार के व्यवहारों को नियंत्रित करते हैं। जो भी तत्व मानव मात्र की भलाई के लिए है, आनंददायक है। वह सब जीवनमूल्यों की श्रेणी में आ जाते हैं।
आचार्यों के अनुसार पुरुषार्थ जीवनमूल्यों का पर्याय माने जाते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-भारतीय दर्शन में जीवन का आधार हैं। लेकिन धर्म, अर्थ और काम मोक्ष की प्राप्ति के साधन हैं। और मोक्ष मानवीय जीवन का अंतिम साध्य या लक्ष्य है। अतः एव धर्म, अर्थ और काम को जीवनमूल्यों की श्रेणी में रखना उचित है। लेकिन मोक्ष तो साध्य है। इसलिए यह जीवनमूल्य के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता। लक्ष्य मूल्यों का उत्पादन है। मूल्यों को मनुष्य की मानवीय कामना भी माने जा सकते हैं।
जीवनमूल्य मानव के सामूहिक विवेक, निर्णय और आस्था से उत्पन्न दृष्टिकोण है जो मनुष्य मात्र को अन्य जीवधारियों से अलग करते हुए व्यवस्थित जीवन जीने में संलग्न करता है। आचार्यों के अनुसार जीवनमूल्य हमारे आदर्श होते हैं। यथार्थ में उन्हें कभी ग्रहण नहीं किया जा सकता। वर्तमान जीवन में बदलते जीवनमूल्यों की झलक हमें देखने को मिलते हैं। जीवनमूल्य मानव के वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकार के व्यवहारों को नियंत्रित करते हैं। जो भी तत्व मानवमात्र की भलाई के लिए है वह आनंददायक है। वह सब जीवनमूल्यों की श्रेणी में आ जाते हैं। इसका नतीजा है उदय प्रकाश की कहानी "....और अंत में प्रार्थना"
और अंत में प्रार्थना’ नामक कहानी की कथावस्तु इस प्रकार है - डॉ. दिनेश मनोहर वाकणकर की उम्र अड़तालीस साल की हैं। उनकी पत्नी ज्योत्सना वाकणकर है। डॉक्टर का सिर गंजा है। उनका शरीर भारी है। थुल थुल और गोल मटोल। उनकी पत्नी द्वारा बुनी हुर्ह जालीदार सूती टोपी पहनना वे पसंद करते हैं। चार बेटियाँ भी हैं। वे तो बहुत धार्मिक विचारवाला व्यक्ति है। इसलिए बेटियों का नाम प्रार्थना के आधार पर है - जैसे पूजा, उपासना, प्रार्थना और तपस्या।
डॉ. वाकणकर अच्छे चिकित्सक भी है। वह भी लगनशील, कर्तव्यपरायण, निःस्वार्थ; ईमानदार, ज़िम्मेदार, नियम और नैतिकता के पुजारी, शोषण का विरोधकरनेवाला, असहाय लोगों का पक्षधर, स्वदेशी चीज़ों के प्रति प्रेम रखनेवाला, उच्च विचारोंवाला आदमी भी है। ये सब इनकी खूबियाँ हैं। यहाँ तक कि विरोधी धर्म के लोगों का भी आदर पाते थे।
बचपन में ही पिता का आज्ञाकारी पुत्र था। सब काम निष्ठा से किया करते थे। पढ़ाई में हमेशा अव्वल दर्जे का छात्र था। वे नितिन प्रताप सिंह नामक छात्र से प्रभावित हुए। उनसे उन्होंने दुनियादारी सीखी। बड़े होने पर पूणे मेडिकल सयन्स कॉलेज से एम.बी.बी.एस. पास की। बाद में उन्होंने एम.डी. भी हासिल की। चिकित्सा विज्ञान के कुछ अंतर्राष्ट्रीय जर्नलस में उनके करीब पन्द्रह शोध लेख प्रकाशित हुए हैं। वे मेडिकल सयनस को रोगों के सामने शक्तिहीन मानते हैं। उनका कहना है कि जिस तरह देश या समाज में होते परिवर्तनों के सामने राजनीतिशास्त्र की कोई शक्ति ही नहीं रह गयी है, ठीक उसी प्रकार ही मेडिकल सयन्स भी रोगों का मुकाबला करने में असमर्थ रह गया है।
पिता के व्यक्तित्व का उनपर ज़ोर से प्रभाव पड़ा। उनके उनुसार ईश्वर अशक्त मनुष्यों की असहायता और विकलता का आर्तनाद है। ईश्वर को ईश्वर के रूप में बहुत कम लोग मानते हैं। ईश्वर को शैतान के रूप में बदलना बहुत से लोग जानते हैं - यही उनका कहना है।
डॉ. वाकणकर अच्छे चिकित्सक के साथ साथ आर एस एस के प्रमुख कार्यकर्ता भी है। डॉ. वाकणकर ने वर्षों इस संगठन के माध्यम से परिवर्तन की कामना की थी। लेकिन इस प्रयत्न में वे अपने को द्वंद्व और द्रुविधा में पड़े पाते। वे अपने व्यक्तित्व को निखारने की कोशिश में रत थे। चिकित्सा के क्षेत्र में हो रहे गरीबों एवं पिछड़े वर्गों के प्रति शोषण के खिलाफ़ वे कार्य करते रहे। इसी कारण अपने सहकर्मियों से भी उन्हें पृथकता का अनुभव करना पड़ा।
ऐसा बोलबाला था कि गरीब बीमारों को घटिए किसिम की वह भी जो अवधि के बाद की दवा दिया करते थे। इसमें फंगस भी थे। ऐसी दवा के इनजक्शन लेने से दमे का बीमार हरिवंश पंड़ित उर्फ थुकरा महाराज की मृत्यु हुर्इ। इसके खिलाफ़ इनसानियत के नाते उन्होंने अधिकारियों तक शिकायत दर्ज किया। लेकिन झूठे सादिशों के फलस्वरूप अधिकारी लोगों ने उन्हें ही मौत के ज़िम्मेदार के रूप दोषी ठहराया। बाद में कोतमा नामक गाँव में राजनीति के षड़यंत्रों से न्याय की लड़ार्इ में पुलीस द्वारा गोली चलाने से तौफीक अहम्मद की मृत्यु हुर्इ। उसके पोस्टमार्टम रिपेर्ट बदलवाने की धमकी का उन्होंने सच्चार्इ के हथियार से सामना किया।
गाँव में लोगों को कंडामिनेटड पानी ही पेय पानी के रूप में मिलते थे। हैजे से लोगों की मृत्यु हो जाती थी। हैजै से पीड़ित बीमारों की सुरक्षा के लिए उन्होंने अधिकारियों के मनोभाव में परिवर्तन कर डाला। यहाँ तक कि सद्रुद्देश्य से की गर्इ उनकी कोशिशों ने मंत्री की आँखें खोल दीं। अंत में मानसिक द्वंद्व के कारण उनका रक्तचाप ऊँचा उठा। इसी दौरान मस्तिष्क की मृत्यु हुर्इ।
कहानीकार उदय प्रकाश ने अपनी और अंत में प्रार्थना’ की भूमिका में ऐसा लिखा है कि स्वातंत्र्योत्तर भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर केवल सत्ताकामी, राजनीतिज्ञों, भ्रष्ट-नौकरशाही तथा छल-छद्म के बल से अपराधियों का तंत्र विकसित है। उन्होंने इसकी चिंता की अभिव्यक्ति और अंत में प्रार्थना’ नामक कहानी में की है।
आजकल लोग विदेशी चीज़ें ही ज़्यादा पसंद करते हैं। लेखक ने स्वदेशी चीज़ों के प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट करने का श्रम किया है। देश की प्रगति के लिए एवं आर्थिक रूप से भी स्वावलंबी होना ज़रूरी बन गया है। बेरोज़गारी आज की भीषण समस्या बन गर्इ है। लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देने से एक हद तक इसका हल निकाल सकते हैं। कहानी --- और अंत में प्रार्थना’ में कहानीकार उदय प्रकाश जी डॉ. वाकणकर एवं उनकी पत्नी ज्योत्सना के द्वारा इसकी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। जैसे डॉ. वाकणकर अपनी पत्नी द्वारा बुनी गर्इ जालीदार सूती टोपी पहनना पसंद करते हैं। इस प्रकार स्वदेशी चीज़ों के प्रति प्रेम रखने की भावना हमारे अंदर जगाने की कोशिश लेखक ने की है।
यह ज़रूरी नहीं कि लोग जितना विज्ञान पर भरोसा रखते हैं उतना धर्म पर। लेकिन कहानी का मुख्य पात्र धर्म पर आस्था रखनेवाला आदमी है। डॉ. वाकणकर तो पूरे परिवार को भी धार्मिकता की रास्ते से आगे बढ़ाना चाहते हैं। यहाँ तक कि अपनी चार बेटियों के नाम भी - जैसे पूजा, उपासना, प्रार्थना और तपस्या जो धार्मिकता के धरातल पर रखना उन्होंने उचित समझा। डॉक्टर होने पर भी उनका उस परम अदृश्य शक्ति पर पूरा भरोसा है। र्इश्वर तो इस जगत का नियंता माने जाते हैं। इस तरह पाठकों के मन में भी धार्मिकता की श्रेष्ठ भावना पैदा करने का श्रम लेखक ने किया है। उनके अनुसार "र्इश्वर अशक्त मनुष्यों की असहायता और विकलता का आर्तनाद है।"1
एक चिकित्सक एक ज़िम्मेदार नागरिक भी होता है। डॉक्टर ने यह उचित समझा कि अपने विज्ञान के ज़ोर से रवास्थ्य की दृष्टि से एवं उससे भी सौगुना बुनियादी ज़रूरतों से वंचित जनता को भी उसी गड्ढे से ऊँचा उठाना अपनी ज़िम्मेदारी है। "मध्यप्रदेश और उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण, अपर्याप्त और विकृत आहार एवं कंड़ामिनेटड पानी के पीने से पैदा होनेवाले कुछ अब तक अपरिभाषित त्वचा रोगों पर उन्होंने महत्वपूर्ण काम किया है।"2 इस तरह एक स्वस्थ पीढ़ी के सृजन का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व उठाने का महानकार्य उन्होंने बिना किसी आदेश से किया। वे पिछड़े हुए सामाजिक दशा में सुधार लाना चाहते थे।
जिस तरह हंस नीर-क्षीर विवेचन का काम आसानी से करता है उसी तरह प्रकृति की हर बातों में भलाई एवं बुराई निहित है। यहाँ हंस के समान हितकारी कार्य को स्वीकार करना ज़िम्मेदार नागरिक अपना कर्तव्य मानता है। चिकित्सा में डॉ. वाकणकर ने जो दर्शन देखा उसमें शरीर का बीमार हिस्सा बुराई का प्रतीक है। जिस तरह सड़े हुए चीज़ पृथक किये जाते हैं ताकि बाकी के हिस्से भी न सड़े जाएँ, उसी तरह शरीर के किसी हिस्से को चीरफाड़ द्वारा काट कर अलग कर देने शरीर के उस हिस्से की मृत्यु होती है। डॉ. वाकणकर के अनुसार "जो हिस्सा अलग काटा जाता है; वह मर जाता है और मूर्ख मरीज़ को देखे जो यह नहीं समझ पाता कि यह मरनेवाला हिस्सा उसके अपने शरीर का ही हिस्सा है। यह उसके शरीर की ही एक मृत्यु है।"3 चिकित्सा में भी दर्शन की संभावना देखनेवाले डॉ. वाकणकर का चित्र कहानीकार ने शब्दों से खींचा है।
विज्ञान का उपयोग मानवराशि का सत्यानाश करने के लिए प्रयुक्त करने की प्रवृत्ति सब कहीं देखने को मिलते हैं। कहानी में ऐसा कहा गया है कि "वे कहते है कि सैनिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, जैवरसायन या टेक्नोलजी का ज़्यादातर प्रयोग मनुष्यों की हत्या के लिए होता आया है। भौतिकी, इलक्ट्रोनिक्स, गतिकी और अंतरिक्ष विज्ञान या नाभिकीय क्षेत्र में लगातार होनेवाले अनुसंधान के फलस्वरूप अब हम ज़्यादा व्यापक, अधिक प्रभावी और अपेक्षाकृत आसान तरीके से हत्याएँ कर सकते हैं।"4 असल में विज्ञान का प्रयोग हितकारी आविष्कारों एवं खोजों के लिए होना चाहिए न कि विनाश के लिए। विज्ञान द्वारा ज़्यादातर रूप में मानवीय मूल्यों का ह्रास होना आजकल मामूली सी बात बन गई है। रासायनिक उर्वरकों का उपयोग आजकल निर्मम रूप से मानवराशि के सत्यानाश के लिए हो रहा है। कण्ड़ामिनेटड़ पानी पीने के कारण त्वचा की बीमारी से लोग पीड़ित है। हैजे की बीमारी से भी लोगों की मृत्यु हो रही है।
मानव प्रकृति का शोषण करने में उत्सुक रहता है। डॉ. वाकणकर जो इस कहानी का मुख्य पात्र है- इससे दुःखी है। वे मन ही मन मायूस दिखाई देते हैं। हर चीज़ की तरह मानव को भी वे प्रकृति का अंग मानते हैं। जैसे "विड़ंबना सिर्फ़ इतनी-सी है कि मनुष्य भी अंततः किसी कीड़े, पदार्थ, पेड़ या नदी की तरह एक प्राकृतिक चीज़ ही है।"5 डॉ. वाकणकर के द्वारा प्रकृति प्रेम जगाने में कहानीकार का यत्न सराहनीय है।
ईश्वर की अनुकूलता किसी भी कार्य की सफलता के लिए आवश्यक है। कहानी में डॉ. वाकणकर ने ईश्वर की अस्मिता को पहचाना। जिस तरह औषधी से बीमारों को तस्सल्ली मिलता है उसी तरह असहाय एवं अशक्त लोगों के लिए सहारा बनकर ईश्वर की उपस्थिति, मन के कष्टों को कम करने में हमेशा सहायता देती है। "जैसे उनके अनुसार ईश्वर अशक्त मनुष्यों की असहायता और विकलता का आर्तनाद है।"6 नौकरी के क्षेत्र में ईश्वर में आस्था रखना काम की सफलता के लिए अनिवार्य माना जाता है।
लोग तो एकदम आत्मकेंद्रित बन गए हैं। अधिकांश लोग स्वार्थी एवं मतलबी बन गए हैं। लेकिन कहानी में डॉ. वाकणकर मानते हैं कि ईश्वर ही मानव को सहिष्णुता से युक्त जीव रखते हैं। तभी वे दूसरों की परेशानियाँ समझ सकते हैं एवं कष्टों से मुक्ति दे सकते हैं। "ईश्वर मरीज़ की पीड़ा, यंत्रणा चीख और मृत्यु को पारलौकिक परिभाषा देकर उसकी सहिष्णुता को बढ़ाता है।"7 कहानी द्वारा उदय प्रकाश जी यह बताना चाहते हैं कि अच्छे चिकित्सक में भी सहिष्णुता की भावना का होना ज़रूरी है। डॉ. वाकणकर की पत्नी भी ज़्यादा सहिष्णुता का भाव रखनेवाली नारी चेतना का प्रतीक है।
ईश्वर की ईश्वरीयता को पहचाने बिना लोग पाशविक प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख हो रहे हैं। ईश्वरीयता के अभाव में मानव शैतान का गुलाम बन जाते हैं। ईश्वर हमें सही राह दिखाते हैं। समाज में जो बुराइयाँ या पाशविक प्रवृत्तियाँ बढ़ रही है, वे सब ईश्वरीयता के अभाव में हो रही है। लूट पाट, हत्या डकैती, मानव पर अत्याचार जैसी करतूतें इसका नतीजा है। "ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि गुलामी सिर्फ शैतान से करवाई जा सकती है। ईश्वर और शैतान के बीच वे अपने लिए शैतान को इसलिए चुनते हैं क्योंकि वह आज्ञाकारी होता है।"8 कहानीकार यह भी बताना चाहते हैं कि यह इस तरह है कि सैकिल के पहिए के ऊपर सैकिल का फ्रेयिम लगाने से ही वह सैकिल के रूप में काम आयेगा। इस उदाहरण के द्वारा ईश्वरीयता के महत्व की खोज उदय प्रकाश जी ने किया है।
देश की गरिमा को बढ़ावा देना देशवासियों का कर्तव्य है। हमें ऐसे कार्यों में लगा रहना चाहिए जिससे देश की गरिमा बढ़ाए जाएँ। लेकिन आजकल आतंकवाद जैसे छिद्र एवं हिंसात्मक प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं। कहानी का पात्र डॉ. वाकणकर जिन्हें विज्ञान की पढ़ाई से ज्ञान मिलने पर भी वेदों, पुराणों और उपनिषदों का पर्याप्त ज्ञान है। अपने पिता से प्रेरणा पाकर उन्होंने इन सब का अध्ययन किया। उनका कहना है कि "हर पिता की तरह वे भी महान थे। और उन्हीं से प्रेरित होकर बालक वाकणकर ने लगातार पढ़ाई - लिखाई में अपना मन लगाया। वेदों, पुराणों और उपनिषदों का अध्ययन किया।"9 कहानीकार हमें इस बात की याद दिलाने की कोशिश में है कि देश की गरिमा को बढ़ावा देना देशवासियों का कर्तव्य है।
बच्चे एवं नौजवान - बुज़ुर्गों की यंत्रणा से असंतुष्ट है। वे यह नहीं समझते हैं कि इन सब में इनकी भलार्इ है। आज्ञाकारी पुत्र हर पिता के लिए गर्व की बात है। कहानी का पात्र डॉ. वाकणकर पिता का आज्ञाकारी पुत्र था। वे पिता के हर आदेश एवं उपदेश का पालन करने में बचपन से ही ध्यान देते थे। पिता द्वारा सुनाई जाती श्लोकों को वे ध्यान से सुना करते थे। जैसे काक दृष्टि, बकध्यानम, श्वान निद्रा तथैव च। बाद में डॉ. वाकणकर के विद्यार्थी-जीवन के लिए यह श्लोक नींव बन गया। कहानीकार नई पीढ़ी के नौजवानों को यह संदेश देना चाहते हैं कि आज्ञाकारी होना ज़िंदगी की सफलता के लिए अतिआवश्यक है।
हर व्यक्ति के लिए उज्वल भविष्य की संभावना है। लेकिन सच यह है कि व्यक्ति स्वयं इसमें रुचि रखने पर ही इसकी सफलता पा सकती है। कहानी के डॉ. वाकणकर ऐसा ही एस व्यक्ति है। उनमें अपने भविष्य की चिंता है। भविष्य की उद्भावना हम में जगाने का प्रयास कहानीकार द्वारा किया गया है। उनके अनुसार जिसमें अपने भविष्य की चिंता है वही समाज में ही नहीं ज़िंदगी में भी कुछ हासिल कर सकता है।
नेतागिरी का गुण वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रगति के लिए आवश्यक है। उसमें वैयक्तिक लाभ से भी ज़्यादा सामाजिक लाभ निहित है। व्यक्तित्व को निखारने में एवं इसके द्वारा समाज के लिए उपयुक्त नागरिक बनने में यह भावना सहायता देती है। आजकल के छात्रों के सम्मुख प्रेरणादायक एवं आदर्श व्यक्तित्व के रूप में कहानीकार ने डॉ. वाकणकर के चरित्र का चित्रण किया है। प्रतिभाशाली, लगनशील, परिश्रमी और अनुशासनप्रिय चरित्र है डॉ. वाकणकर का।
ज़िन्दगी में अकेलापन अभिशाप माने जाते हैं। अकेलापन दो तरह की मानी जाती है। जैसे परिस्थितिजन्य और हृदय के चुनाव के फल स्वरूप उत्पन्न अकेलापन। हर किसी काम के लिए निकले तो भिन्न मत के लोग होंगे। परिस्थितिजन्य अकेलेपन की यह नतीजा निकलती है कि सीधा - सादा सोचनेवाला लोग हमेशा अकेला पड़ जायेगा। कहानीकार यह दिखाना चाहते है कि डॉ. वाकणकर का जिस माहौल में जीते हैं, उसमें सीधे सादे लोग दूसरों से पृथक बन जाते थे। उनकी पत्नी ज्योत्सना वाकणकर भी इस प्रकार का अकेलापन महसूस करती है जो हृदय के चुनाव के पलस्वरूप में उत्पन्न हुआ हो। परिस्थितियाँ मानव की विवशता है। मानव परिस्थितियों का शिकार बन गया है। जैसे "डॉ. वाकणकर को भी उनके शुभ चिंतकों ने सलाह दी कि वे आदर्शवादी न बनें, अपनी सरकारी नौकरी का लाभ उठाएँ और इस बीच ग्वालियार या ललितपुर में अपनी पत्नी के नाम से नर्सिंगहोम खोल लें। उनके जैसे सज्जन और ईमानदार को फ़ैनान्स करनेवाले बहुतेरे मिल जाएँगे।"10 जो हितकारी एवं समाजानुकूल कार्य करते हैं उनकी उपेक्षा की जाती है। जो समाज विरोधी कार्य करता है उनकी तारीफ़ की जाती है। दुनिया इस तरह बदल गयी है कि ऐसे कायपलट से नैतिक मूल्यों का हनन हो रहा है। कहानीकार डॉ. वाकणकर जैसे पात्र को समाजोपयोगी कार्य करने के प्रतिनिधित्व करनेवाला रखना चाहते हैं। जैसे "बाकी सारे लड़कों की अपनी अलग दुनियायें थीं। और उन दुनियाओं के दरवाज़ें डॉ. वाकणकर के लिए बंद थे।"11 यहाँ तक हुआ कि अस्पताल में डॉ. वाकणकर का बॉयकोट हुआ।
अपनी बेटियों के लिए दहेज से ज़्यादा शिक्षा की ज़रूरत डॉ. वाकणकर मानते थे। समता समाज का अधिकार है। लेकिन उच्चवर्ग के लोग जो शोहदों से निकलते हैं हमेशा उनका आदर किया जाता है। जो मध्य एवं निम्नवर्ग से निकलते शरीफ लोग हैं उनका तिरस्कार किया जाता है। उदय प्रकाश जी नितिन प्रताप जैसे उच्चवर्ग के प्रतिनिधि को मिलनेवाली मान्यताओं एवं सुविधाओं की ओर इशारा करते हैं। समाज में व्याप्त भेदभाव का चित्रण करना कहानीकार का उद्देश्य है। समता का अधिकार दिलाने के चरित्र द्वारा एक तरह के समर्पण की भावना उनमें मिलते  हैं। अधिकारी वर्ग तक अपनी परेशानियाँ पहुँचाने से भी गाँव की जनता वंचित रह जाती है।
सहज व्यक्तित्व की भावना आजकल नहीं के बराबर है। सब दिखावा का व्यवहार करना पसंद करते हैं। लोग मुखौटे पहने हैं। अपनी सहजता के साथ व्यक्तित्व का संरक्षण डॉ. वाकणकर जैसे लोगों को करना चाहिए। कहानीकार यह याद दिलाना चाहते हैं कि मानव का प्राकृतिक या सहज होना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।
मित्रता चरित्र की बुनियाद डालती है। हर किसी की पहचान उसके मित्रों या संगत द्वारा संभव हो सकता है। कहानीकार नितिन प्रताप सिंह जैसे पात्र से डॉ. वाकणकर का घनिष्ठ संबंध रखना चाहते हैं जिससे वे दुनियादारी समझ सकें। "गाँव का यह अनुभव उनकी स्मृति में गहराई से कहीं स्थिर हो गया था। नितिन प्रताप सिंह से उसकी दोस्ती घनी होती गई थी।"12 इस प्रकार जीवन में मित्रता के महत्व को उजागर करना कहानीकार चाहते हैं।
जीवन के प्रति बेफिक्र रहना आसान बात नहीं है। गाँव के लोग ऐसे अनुभवों से गुज़र रहे हैं कि वे निश्चिंत रहें। गाँव के बालक भी बेफिक्र रहने की आदी हैं। मानसिक संतुलन के लिए यह बात ज़रूरी भी है। आजकल के लोग छोटी सी बात को लेकर तनाव या मानसिक संघर्ष महसूस करते हैं। यहाँ तक कि द्वंद्व के कारण मानसिक संतुलन भी खो बैठते हैं। कहानीकार गाँव के बालकों के द्वारा हमें निश्चिंत रूप से व्यवहार करने का उपदेश देते हैं। निश्चिंतता को ज़िंदगी का अंग बनाना चाहिए।
हम ऐसी परिस्थिति से गुज़र रहे हैं कि वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में आर्थिक रूप से पतन हो रहा है। ऐसी दशा में सुधार अनिवार्य बन गया है। आर्थिक पतन का कारण यह है कि आमदनी को देखे बिना लोग सुख - सुविधाएँ बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन कहानी का पात्र डॉ. वाकणकर चिकित्सक बन जाने के बाद भी यातायात के रूप में सिर्फ स्कूटर को ही चुनते हैं।
आम तौर पर धन की लालसा में अतिरिक्त धन कमाना मामूली सी बात बन गयी है। सरकारी अस्पतालों के चिकित्सक या तो छुट्टी लेकर निजी तौर पर सेवा करने के लिए उत्सुक रहते हैं या काम के समय भी अतिरिक्त शुल्क लेकर धन कमाते हैं। लेकिन अपवाद के रूप में कहानीकार ने डॉ. वाकणकर के चरित्र का चित्रण किया है। डॉ. वाकणकर ने गरीब जनता की सेवा के लिए अपने स्वार्थ की पूर्ति या इच्छा पर कुठाराघात किया है। अपनी आशाओं को कुरबान करने को भी वे तैयार हो जाते हैं। "वे कभी किसी मरीज़ से निजी फीस नहीं लेते थे।"13 उनकी कर्तव्य परायणता भी सराहनीय है। कहानीकार यह ध्यान दिलाना चाहते हैं कि हर नागरिक को निःस्वार्थ रूप से अपने कर्तव्यों को निभाना चाहिए। ऐसे ही हमें भी देश की सेवा करनी चाहिए।
गरीब एवं निम्नवर्ग हमेशा शोषण का शिकार बन जाते हैं। यहाँ तक कि चिकित्सा के क्षेत्र में भी वे शोषण का शिकार बन जाते हैं। घटिया दिलवाला चिकित्सक इस स्तर तक पहुँचते कि अपने बीमार के लिए मौत का खेल मोल लेने के लिए भी तैयार हो जाते हैं। और अंत में प्रार्थना’ नामक कहानी का मुख्य पात्र डॉ. वाकणकर को भी ऐसे माहौल में काम करते चिकित्सकों का सामना करना पड़ा। निरीह बीमारों की ज़िन्दगी से अपनी कमाई बढ़ाने में ऐसे लोग उत्सुक रहते हैं। पात्र हरिवंश पंड़ित उर्फ थुकरा महाराज जो गरीब ब्राह्मण है जिनकी मृत्यु इस प्रकार के शोषण का नतीजा है। डॉ. वाकणकर जैसे निष्ठावान लगनशील तथा ईमानदार पात्र के द्वारा शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाना कहानीकार उचित समझता है। डॉ. वाकणकर जैसे लोग कायदे कानून का सहारा लेकर शोषण का विरोध करना समीचीन मानते हैं।
वफ़ादार लोग अक्सर दुनियादारी नहीं समझ सकते हैं। बेवफ़ा लोग वफ़ादार को भी अपने दल में लगाना चाहते हैं। गरीबों की सेवा करने वाले चिकित्सकों को हमेशा धमकियाँ झेलना पड़ता है। कहानी का पात्र डॉ. वाकणकर ऐसी हालतों से गुज़रते हैं। "एक दो डॉक्टरों ने डॉ. वाकणकर को सुधारने की कोशिश भी की।"14 नैतिक मूल्यों के पतन की ओर कहानीकार हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। साथ साथ हमें याद दिलाते हैं कि हमें वफ़ादार नागरिक का जीवन बिताना चाहिए। चिकित्सक हो तो डॉ. वाकणकर जैसे वफ़ादार चिकित्सक के रूप में नाम कमाना चाहिए। डॉ. वाकणकर जैसा पात्र अनैतिकता के खिलाफ़ आवाज़ उठानेवाला है। साथ साथ वे नियम एवं नैतिकता के पूजारी भी है। हमें अपने मनोभाव में वाँछनीय परिवर्तन लाने का वक्त आ गया है। ऐसा कहानीकार का मत है।
गांधीजी द्वारा अपनाए गये अहिंसा के तत्व का आजकल तिरस्कार हो रहा है। कहानीकार उदय प्रकाश जी ने अपनी कहानी ‘...और अंत में प्रार्थना’ में इसका उल्लेख किया है। लोग अपने अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए हिंसा के मार्ग को अपनाने को भी तैयार रहते हैं। यहाँ मानव के मन में अहिंसा की भावना कायम रखना कहानीकार समयानुकूलित एवं उचित समझते हैं।
प्यार से वंचित मानव हमेशा अकेलापन महसूस करता है। कहानीकार का पात्र डॉ. वाकणकर छात्रावस्था में तथा बाद में उनकी पत्नी ज्योत्सना वाकणकर अपने पति के व्यस्त चिकित्सा सेवा के जीवन के कारण हमेशा प्यार से वंचित रह जाती है।
रिश्तों में बदलाव या दरार आज की संस्कृति एवं सभ्यता का नतीजा है। लेकिन इतने व्यस्त चिकित्सक होने पर भी रिश्ते बनाये रखने में डॉ. वाकणकर ने वक्त निकाला। पत्नी के रिश्तेदारों से मिलने के लिए वे दो बार एल.टी.ए. लेकर महाराष्ट्र गए। ‘...और अंत में प्रार्थना’ नामक कहानी के द्वारा विघटते मानवीय संबंधों के सिलसिले में रिश्तों के महत्व को पहचानने का उपदेश कहानीकार करना चाहते हैं।
कहानी में बेटियाँ बड़ी होने पर उनकी शादी की बात सोचकर माँ ज्योत्सना वाकणकर परेशान हैं। लेकिन डॉ. वाकणकर निश्चिंत है। यहाँ दहेज एक समस्या बन गयी है। माँ की आकाक्षा एवं भविष्य के प्रति व्यकुलता का चित्रण कहानीकार ने किया है। अंत में पति के प्रति पत्नी ज्योत्सना का प्रेम घृणा में बदल गया। "ज्योत्सना वाकणकर रोने लगी थीं। उनके मन में पहली बार एक ऐसी खीझ पैदा हो रही थी जो धीरे धीरे अपने पति के प्रति घृणा में बदली जा रही थी।"15 लेकिन 
और एक माहौल में पत्नी के रूखे चेहरे को देखकर डॉ. वाकणकर के मन में पत्नी के प्रति गहरा प्यार और सहानूभूति पैदा हुई।

संस्कृतिक रूप से संपन्न देश की गणना अच्छे देशों में की जाती है। लेकिन कहानी में कोतमा नामक गाँव के गुप्ता और उनकी पत्नी रीतू - दोनों सांस्कृतिक एवं नैतिक रूप से पतित मानव के प्रतीक हैं।
सांप्रदायिकता की भावना कभी कभी लोगों को अंधा बना देते हैं। कहानी में इकतीस साल का तौफीक अहम्मद छात्रों के हड़ताल को रोकना चाहता था। यह बाद में पुलीस द्वारा चलाई गयी गोली से शहीद बन गया। लेकिन राजनीतिक सादिशों से इस पर पर्दा डालने के लिए प्रशासनिक वर्गों द्वारा कोशिशें की गईं। लेकिन डॉ. वाकणकर जैसे पात्र इससे सहमत नहीं थे। उन्होंने भ्रष्टाचार से बचने के लिए पोस्टमार्टम के काम से दूर रहना चाहा। अंत में साम्प्रदायिक दंगे के शिकार का श्रेय तौफीक को देने के षड़यंत्र के आगे डॉ. वाकणकर ने पोस्टमोर्टम रिपोर्ट में मृत्यु का कारण पुलीस द्वारा गोली चलाने से लिखा - जो सच था।
राजनीतिक सत्ता का दुरुपयोग करने वाले लोगों के सामने डॉ. वाकणकर जैसे पात्र को सच्चाई की नींव पर गर्व से स्थापित करने का प्रयास कहानीकार उदय प्रकाश जी ने किया है।
उपसंहार
मानवीय मूल्यों के एहसास के साथ साथ कर्तव्यों के बारे में भी जानकारी इस कहानी द्वारा मिलती है। ज्ञान एवं संवेदना के धरातल पर रची गई कहानी है यह। विपरीत परिस्थितियों से गुज़रने पर भी डॉ. वाकणकर सिर नहीं झुकते हैं। इतना ही नहीं कहानी की आदि से लेकर अंत तक उनकी अजेयता है। उनकी इनसान के रूप में निष्ठा, ईमानदार और अपने सिद्धांतों से अड़िग रहने की ज़िद्द तथा उनके सामने सत्ता भी निष्प्रभ हो जाने की बात दिखाई देती है। "सत्ता राजनीति अलगाव की राजनीति है।"16 ‘...और अंत में प्रार्थना’ नामक उदय प्रकाश जी की कहानी "यथार्थ को एक नया विजय देनेवाली कहानी है। यह मध्यवर्गीय लोगों के अपने यथार्थ से टकराने की कहानी है। पूरी कहानी में डॉ. वाकणकर उलझन और दुविधा का शिकार है।"
संदर्भ सूची :
1.  उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 104
2.  उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 103
3.  उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 103
4.  उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 104
5.  उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 104
6.  उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 104
7.  उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 104
8.  उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 105
9.  उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 106
10. उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 106
11. उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 113
12. उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 107
13. उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 112
14. उदय प्रकाश ‘...और अंत में प्रार्थना’ -- वाणी प्रकाशन, प्रथम   संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 113
15. डॉ. सुरेश अगरवाल "उत्तर आधुनिकता और उदय प्रकाश का   साहित्य" -- चिंतन प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2006 -- पृ.सं. 168-  169.
16. डॉ. देवकी नंदन महाजन "समकालीन कहानीकार उदय प्रकाश" --    विद्या प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2012 -- पृ.सं. 136
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* रमा एस मेनोन, कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. एस.आर. जयश्री के निर्देशन में शोधरत है।

Tuesday, August 25, 2015

मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास 'बेतवा बहती रही' में उर्वशी-पार्श्वीकृत नारी

मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास 'बेतवा बहती रही' में
उर्वशी-पार्श्वीकृत नारी
-         रिजा जे.आर.*

हिंदी साहित्य में बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दौर में नारी चेतना का उदय हुआ है। नारी चेतना में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक क्षेत्र में दबी नारी का विरोध और उसके बाहर आने का प्रयास भी है। समकालीन हिंदी उपन्यास में महिला लेखन को विशेष दर्जा दिया गया है। अपने वर्ग एवं जाति की अनूठी अभिव्यंजना द्वारा लेखिकाओँ ने अलग पहचान हासिल की है। लेखिकाओं ने नारी जीवन पर ही नहीं, उनकी तमाम संवेदनाओं को व्यक्त करने में भी पुरुषों से ज्यादा सफलता पायी गयी है।
मैत्रेयी पुष्पा के सन् 1993 में प्रकाशित उपन्यास है 'बेतवा बहती रहीं'। यह उपन्यास 1995 में उत्तरप्रदेश साहित्य संस्थान द्वारा प्रेमचन्द सम्मान से पुरस्कृत है। इस पुरुष प्रधान समाज में नारी को चाहे वह गाँव में रही या शहरों में, कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी लेखनी द्वारा स्त्री के प्रति होनेवाले खिलाफ संघर्ष घोषित किया है। इस उपन्यास के शीर्षक द्वारा मैत्रेयी जी हमें यह संदेश देती है कि जिसप्रकार नदी बहती हुई गंदगी को साफ करती हुई आगे बहती है उसी प्रकार स्त्री भी जीवन में दुखों और बुरे विचारों को छोड़कर अच्छे विचारों का रोपण करके आगे बढ़ती रहती है। आधुनिकता की दृष्टि से देखें तो यह सच है।
बुंदेलखंड के आँचलिक परिप्रेक्ष्य में यह उपन्यास लिखा गया है। यह प्रेम, वासना, घृणा, हिंसा से भरी एक हृदय द्रावक अछूती कहानी है। पूरे एक अंचल की व्यथा कथा! अर्वशी की यह कथा उसी की क्या, किसी भी ग्रामीण कन्या की व्यथा हो सकती है। विपन्नता का अभिशाप-शोषण और सनातन संघर्ष। एक विवश यातनामय नरकीय जीवन! उर्वशी, दाऊ और उदय इस क्षयग्रस्त समाज में निरंतर ढ़हने को अभिशप्त रहे। सिरसा गाँव, वहाँ उर्वशी ब्याहकर आयी थी। अशिक्षा इस गाँव का शाप है। "बेतवा के किनारे जंगल की तरह उगी मैली बस्तियाँ। भाग्य पर भरोसा रखनेवाले दीन हीन किसान। शोषण के सपत प्रवाह में डूबा समाज। एक अनोखा समाज, अनेक प्रश्नों, प्रश्न चिह्नों से घिरा।"1
यह उपन्यास संपूर्ण नारी जाति का प्रतिबिंब होता है। उर्वशी राजगिरी गाँव के एक साधारण परिवार की कन्या है। घर में पिता, माँ भाई अजीत है। पिताजी ने उर्वशी को नहीं पढ़ाया। केवल भैया को ही पढ़ाया। वह वन विभाग में नौकरी करता है। मीरा उर्वशी की अंतरंग सहेली है। वह गाँव के प्रमुख बरजोरसिंह की पुत्री है। बरजोरसिंह स्वार्थी आदमी है। अपने हित के लिए कुछ भी करने में वे न हिचकते। उदय और विजय मीरा के भाई हैं। विजय खेती देखता और उदय बाहर का आना जाना। दोनों भाइयों ने  काम बाँटकर सुभीता कर लिया था। एक खेतों को जुतवा-सिंचवाकर पुख्ता करता तो दूसरा खाद और उन्नत बीज की व्यवस्था करता।
कन्या होने पर उर्वशी के विवाह कराने का दायित्व अजीत को न था। वह चतुर था। किसी बूढ़े अमीर व्यक्ति से शादी कराना ही उसकी इच्छा थी। लेकिन नाना कर्ज लेकर सिरसा गाँव के सर्वदमन नामक वकील के साथ उर्वशी की शादी बहुत धूम धाम से करते हैं। विवाह के बाद भी वह अपने समाज कार्य नहीं भूलती। उर्वशी का दाम्पत्य जीवन सुखपूर्ण था। लेकिन एक अपाघात में सर्वदमन की मृत्यु हो जाती है। उर्वशी की जिंदगी फिर अंधकार से भरी थी। उसे अपने पुत्र देवेश के साथ वैधव्य भोगना पड़ता है।
सर्वदमन की मृत्यु के बाद वहाँ के बैरागी का जीवन दर्शन बदल गया। "दुर्गुणों के सम्मोहन को त्याग देना ही तो बैराग है। लालसा लोभवृत्ति और वासनामयी कामी इच्छाओं का दमन क्या साधुवृत्ति नहीं? अहं का नाश ही सच्चा सन्यास है।" "यह बैरागी ने तब जाना जब वे संसार को अनछुआ छोड़कर मृत्यु की ओर खिंच चले जा रहे थे।"2
बरजोरसिंह चंदनपुर के प्रधान बन गए। अजीत को डाँग की लकड़ी चोरी-छुपे, बेचने-पकडने के अपराध में नौकरी से सस्पेंट किया जाता है। उर्वशी एक बार फिर अनाथ हो गयी। अपनी ओर से भाई का स्नेह देखकर वह स्वयं बिस्वित थी। अजीत उर्वशी को राजगिरी बुलाकर मीरा के पिता बरजोरसिंह के साथ शादी कराना चाहता है। उसके मन में भाई के इस कुकर्म के विरुद्ध खिलाफ करने की इच्छा थी। लेकिन वह असहाय थी। वह बेतवा नदी के कगार पर पानी को देखती रही-- "ओ बेतवा माइया अब किसी पर आस विशवास नहीं, अपना माँ जाया भाई ही दुसमन बन बैठा तो अब कहाँ ठौर ... जहाँ कहीं गयी दो घड़ी चैन से नकट सकीं। प्रश्नों के लिए पल पल भारी ... समेट माँ मेरे पाप - पुन्न।"3
उर्वशी ने आत्महत्या करने के लिए नदी में छलाँग लगा दी। वहाँ आयी नाव के मल्लाह ने उसकी रक्षा की। अजीत बरजोरसिंह के साथ उर्वशी की शादी करवा देता है। उर्वशी को अपने घर की सौतेली माँ बनकर आ जाती देखकर मीरा स्तब्ध रह जाती है। अपने इकलौते बेटे देबेश के प्यार से वंचित होकर उर्वशी पति के घर पाँव रखती है। मीरा सर्वदमन के दोस्त राघवेन्द्र से शादी करके चली जाती है। अब उर्वशी निर्जीव यंत्र के समान जीवन बिताने लगी। मिरा को अपने घर में देखकर उर्वशी प्रकम्पित हो उठती है। सहसा चेतना शून्य देह में संवेदना का तीव्र संचार। "रोम रोम उससे लिपट जाने को आतुर। अपमान उसका, उर्वशी का या...इस धरती पर जन्मी हर औरत का ... पता नहीं, भीतर कोई शिला भारी होती जा रही थी दम घोटने को।"4
उर्वशी का आगमन बरजोरसिंह को अच्छा लगा। लेकिन अपनी बीमारी की खबर जानकर उनका भीतर का शंकालू जाग उठता है। उर्वशी के सौंदर्य से वह आशंकित हो जाता है। उर्वशी की विपत्ति ही उनका लक्ष्य है।
भाई अजीत और बूढ़े बरजोरसिंह की कुटिल षड़यंत्र में उर्वशी तिलमिल हो जाती है। फिर वह अपने प्रथम पति की याद में अपना जीवन आगे बिनाती रहती है। विजय मिरगी के रोग से मर जाता है। विजय की विधवा किशोरी देवरानी के आगे का जीवन दुविधा में पड़ गया। उसको संभालना उर्वशी का दायित्व है। बचपन से ही जिह्वा पर अंकुश रखने का अभ्यस्त उर्वशी बरजोरसिंह के बेटे उदय के विवाह के संदर्भ में वाक पटु बन जाती है। उर्वशी किशोरी देवरानी का विवाह उदय के साथ करा देती है। उसकी प्रतिक्रिया कठिन थी। उर्वशी बरजोरसिंह के सामने चुनौती बनकर आगे हो जाती है। बरजोरसिंह विद्रोही के रूप में अवसर पाकर उर्वशी को धीमा जहर देते हैं। इसके फलस्वरूप वह किडनी फेलियर की अवस्था में हो जाती है। उर्वशी की अन्तिम इच्छा के अनुसार उनको सिरसा गाँव में उदय, मीरा, बैरागी आदि लोग ले जाते हैं। बेतवा के निर्मल जल में धीरे-धीरे उर्वशी की कंचन काया समा जाती है।
भारतीय समाज में प्रचलित रूढ़ एवं जड़ जाति प्रथा के कारण विशिष्ट एक ही जातियों में विवाह की परंपरा प्रचलित हुई। जिससे नारी के जीवन में अनेकानेक त्रासदियों, पीड़ाओँ और बिड़म्बनाओं का निर्माण हुआ है। "पुत्र ने पिता को एक फटकार में चुपकर दिया। निपट कोरा कन्यादान लेने के लिए कोई राजी नहीं दिख पड़ा तो अजीत ने जल्दी ही दूसरा रास्ता घर लिया ... वर खोजते मारे-मारे फिरे और उर्वशी के जीवन सुख के लिए ऋण का बोझ सिर पर घर ले ... इसे बुद्धिमानी नहीं समझते थे वे।"5
हमारी संस्कृति में स्त्री के बारे में स्वतन्त्र विचार नहीं किया गया है। उसके जीवन के बारे में जो कुछ विचार किया गया है, वह पुरुषों के दृष्टिकोण से हमेशा होता ही रहता है। स्त्री के सुख के लिए वर खोजने फिरने की तैयारी भाई ने की क्योंकि वह जानता है कि उर्वशी सब सह ले सकती है और वह विद्रोह नहीं कर सकती है। कुलशील मर्यादा में स्त्री को चुप्पी साधे बैठना पड़ता है। इस उपन्यास की उर्वशी पार्श्वीकृत एवं संवेदनशील नारी है। मानवतावाद, सहिष्णुता, भाईचारा, विश्वास, सहनशीलता, करुणा, दया, क्षमा, शांति आदि गुणों से वह परिपूर्ण है।
समकालीन उपन्यासकारों में सुपरिचित मैत्रेयी पुष्पा जी का उपन्यास 'बेतवा बहती रही' हाशिए पर छोड़े गए अशरण नारी की संत्रास, कुंठा, पीड़ा, यंत्रणा, अस्मिता आदि को द्योनितत करता है। इसमें चित्रित केंद्र पात्र उर्वशी आज के समाज के सम्मुख रख गया आइना है।
संदर्भ सूची :
1. बेतवा बहती रही -- मैत्रेयी पुष्पा -- आवरण पृष्ठ से
2. वही -- पृ.सं. 67
3. वही -- पृ.सं. 113
4. वही -- पृ.सं. 123
5. वही -- पृ.सं. 25
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*रिजा जे.आर. कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. एस.आर. जयश्री के निर्देशन में शोधरत है।