Saturday, February 28, 2009

विंडोज़ और मैं

यदि विंडोज़ नहीं होता...

- डॉ. सी. जय शंकर बाबु

यदि विंडोज़ नहीं होता, मैं इस कदर सक्रिय न होता
यदि विंडोज़ नहीं होता, मैं इस कदर सफल नहीं होता...


यदि विंडोज़ नहीं होता, मैं इस तरह भारतीय भाषाओं में कंप्यूटर इंटरनेट के माध्यम से कुछ कहने में सफल नहीं होता, इसलिए मैं अपनी सफलता इस कहानी को भी विश्व में बहुप्रचलित एक भारतीय भाषा के माध्यम से कहना उचित समझता हूँ ।


जब 12 वर्ष की आयु में सातवीं की पढ़ाई के दौरान कंप्यूटर नाम की चीज़ के बारे में सुनने का मौका मुझे मिला, उसे देखने के लिए मन ललायित हो उठा । मगर मेरे गांव तक उसके पहुँचने में और बारह साल की प्रतीक्षा करनी पड़ी । इससे पहले ही जिला मुख्यालय स्थित औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान में कंप्यूटर उपलब्ध होने तथा वहाँ इसमें प्रशिक्षण से संबंद्ध कोर्स चालू होने की बात सुनते ही मैंने अपना आवेदन भर दिया । मगर दुर्भाग्य से मुझे प्रवेश नहीं मिला । मगर मैं उसी संस्थान में मोटर गाडियों की मरम्मत से संबंधित प्रशिक्षण हासिल किया । उन दिनों में मैंने तय किया कि जब तक कंप्यूटर मेरे गांव तक पहुँच जाएगा, मुझे उसके भरपूर उपयोग की योजना बनानी है । जैसे ही गांव में कंप्यूटर पहुँचने की बात मैंने सुनी, उसी दिन उसे देखे बिना नहीं रह पाया । कंप्यूटर को देखते ही उसके अनुप्रयोगों को सीखने पुनः इच्छा जागृत हुई । इस हेतु मैंने अपने कष्ट की कमाई से चार हजार रुपए शुल्क भी प्रशिक्षण संस्थान के मालिक को चुकाया । उन दिनों में सामाजिक सेवा कार्यां में मेरी काफ़ी व्यस्तता बनी रहती थी । शुल्क जमा करने के बाद एक सप्ताह भर ही मैंने कंप्यूटर के विकास संबद्ध इतिहास की जानकारी हासिल की और कंप्यूटर पर डिस्क ऑपरेटिंग सिस्टम का थोड़ा-सा प्रशिक्षण हासिल किया । इसी बीच मुझे एक दक्षिण एशियाई युवा शिविर में शामिल होने हेतु नागालैंड जाना पड़ा । लगभग एक महीने की यात्राओं के बाद जब मैं पुनः अपना गाँव लौटा तब मेरे पास उतना समय नहीं रहा कि मैं अपना कंप्यूटर प्रशिक्षण जारी रख सकूँ । कंप्यूटर केंद्र के मालिक से ही मैंने जानकारी हासिल की कि उस समय विंडोज़ 3.1 नामक संस्करण में विडोज़ सॉफ़्टवेयर का भी प्रशिक्षण शुरू किया गया है । लेकिन मेरे पास समय की कमी से मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ । उन्हीं दिनों में मैं लगातार सोच रहा था कि मानवीय मूल्यों के प्रचार हेतु तथा भारतीय भाषाओं के प्रसार हेतु एक पत्रिका का प्रकाशन किया जाना चाहिए । इस सोच को आखिर जब कार्यान्वित करना मैंने तय किया तब तक विंडोज़ 95 संस्करण मार्केट में उपलब्ध होने की जानकारी मुझे मिली । युग मानस के नाम से हिंदी पत्रिका के प्रकाशन की मैंने योजना बनाई । मेरे गांव में (गुंतकल, आंध्र प्रदेश) न हिंदी के कंपोजिंग की सुविधा थी, न ही ऑफ़सेट मुद्रण की । आखिर मैंने तय किया कि खुद कंप्यूटर पर ही अक्षरांकन (कंपोजिंग) करके हैदराबाद से ऑफ़सेट मुद्रण करवाऊँ । इस हेतु कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्र के मालिक से मालिक से मैंने अनुरोध किया कि वह विंडोज़ अद्यतन संस्कर खरीदे, साथ ही एडोब पेजमेकर एवं हिंदी श्री लिपि सॉफ़्टवेयर भी । उन दिनों में उन्हें इन सॉफ़्टवेयरों की ख़रीद हेतु काफ़ी पैसे की लगाने पढ़े थे । मैंने उन्हें आश्वस्त किया था कि मैं अपने द्वारा जमा किया गया चार हजार रुपए का शुल्क वापिस नहीं मांगूगा और साथ ही पत्रिका प्रकाशन का काम शुरू करते ही लगातार उनके कंप्यूटर को काम दूँगा जिससे कि उन्हें आय का एक स्थाई स्रोत बन जाए । आखिर वे मान गए और मेरे लिए आवश्यक तमाम साफ़्टवेयरों की खरीद की । मगर इन पर हिंदी में काम करने के लिए मुझे कोई नहीं मिल पाने से स्वयं मैंने ही वह काम शुरू किया । करके सीखना, क्रिया द्वारा सीखना, ग़लतियों से सीखना आदि प्रक्रियाओं के दौर से गुजरते हुए मैंने विडोज़ प्लैटफार्म आधारित एडोब पेजमेकर पर युग मानस पत्रिका का अक्षरांकन शुरू किया । इस रूप में युग मानस के प्रकाशन के समय विडोज़ 95 से जो मेरा परिचय हुआ, उसका क्रम बना रहा, आगे 98, एक्सपी, विस्टाज़ तक के संस्करणों की ख़ूबियों का लाभ उठाने का सौभाग्य मुझे मिला । युग मानस में मैंने अपने संपादकीयों के माध्यम से इस समस्या की ओर संकेत दिया था कि हिंदी के समक्ष मानक फांट की समस्या होने के कारण उसे पठनीयता एवं परिवर्तनीयता जैसी समस्याओं से गुजरना पड़ रहा है । इसी बीच विंडोज़ ने भारतीय भाषाओं के लिए अनुकूलन की प्रक्रिया भी शुरू कर दी । यह भारतीय भाषाओं के विकास के लिए निश्चय ही एक क्रांतिकारी पहल थी । विंडोज़ अब भारतीय भाषाओं के लिए पूरे समर्थन के साथ उपलब्ध है । जब यह सुविधा नहीं थी, मैंने तय किया था कि प्रौद्योगिकी की पढ़ाई करके खुद ऐसे फांट की खोज करूँ । मगर मेरी जरूरत को विंडोज़ ने पूरी कर दी है । यूनिकोड आधारित फांटों का उपयोग करते हुए तमाम प्रमुख भारतीय भाषाओं को विंडोज में स्थान मिल जाने से मुझे बड़ी खुशी हुई ।

अब मैं अपने कार्य के लिए इन सुविधाओं का भरपूर उपयोग करना ही नहीं इनके आधार पर वेब साइट भारतीय भाषाओं में बनाना, ई-मेल, चाटिंग आदि के लिए भारतीय भाषाओं का अधिकाधिक इस्तेमाल करना शुरू कर दिया । विंडोज में भारतीय भाषाओं के उपयोग की सुविधा उपलब्ध होने के बावजूद इसकी जानकारी अधिकांश लोगों में नहीं होने के कारण पठनीयता एवं परिवर्तनीयता की समस्यावाले पुराने सॉफ़्टवेयरों का ही प्रचलन को देखते हुए मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ । तब मैंने यह प्रण किया कि मुझे अब इस दिशा में भी प्रचार-प्रसार अवश्य करना है । तब से लेकर आज तक मैं दो सौ से अधिक प्रशिक्षण कार्यक्रम भारत के विभिन्न भागों में आयोजित कर चुका हूँ । भारतीय भाषाओं के विकास के लिए विंडोज का भरपूर उपयोग करने की ओर लोगों को प्रवृत्त करना भी भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार संबंधी मेरी गतिविधियों का अभिन्न अंग बन गया है । अब मेरे मन में विडोज़ के प्रति जो भी कृतज्ञता भाव है, उसकी अभिव्यक्ति मैं विडोज़ के प्रचार-प्रसार के द्वारा करने का मौका मुझे मिल रहा है । विंडोज़ के कारण इंटरनेट में भारतीय भाषाओं के विकास का सपना साकार हो रहा है, इसके लिए विंडोज के समस्त टीम बधाई के पात्र है । विंडोज़ के साथ मेरा आजीवन संबंध बना रहेगा ।

चूँकि भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार के कार्य में विंडोज मेरे लिए सहायक रहा है, अतः मैं अपनी सफलता की यह कहानी भी एक प्रमुख भारतीय भाषा में ही कह रहा हूँ । भविष्य में इसे अन्य भाषाओं में भी अनुवाद करके प्रस्तुत करने की कोशिश मैं अवश्य करूँगा ।

Thursday, February 26, 2009

कविता

संगोष्ठी

- डॉ. जयप्रभा सी.एस., प्राध्यापिका,


महाराजास कालेज, एरणाकुलम ।


संगोष्ठी - 1
हम तब और अब
कांपते हैं । किंतु
वे नहीं ।
जब किया इस पर विचार
तब उसने कहा,
तुम कांपते हो,
वे कांपते नहीं,
मैं आती तक नहीं ।
संगोष्ठी – 2
भाग एक
आतंकवाद पर भाषण
किसी आतंक से कम नहीं,
शब्द, अस्पष्ट... बम वर्षा सम,
किंतु विचार स्वस्थ ।
कोई लिखते हैं,...... क्या?
कोई सुनते हैं, ..... क्या?
कोई ऊँघते हैं, ..... क्यों?
मैं ने उससे पूछा –
कब होगा यह खतम?
क्यों? – उसने पूछा
क्योंकि पेट में चूहे दौड़ रहे हैं ।
तब हमने लिया निर्णय,
यही है शिक्षा*
(*मलयालम में शिक्षा का अर्थ है दंड)
संगोष्ठी-2
भाग दो
अशोक ने किया था प्रण
आगे से किसी चींटी तक को नहीं मारेंगे
उन्होंने किया इसका पालन
चींटी तो क्या, किसी को नहीं मारा
समय बीतता गया....
अब,
चींटी और मनुष्य को मारते हैं –
एक ही अंदाज़ से ।

Tuesday, February 17, 2009

दिव्या माथुर जी की तीन कविताएँ

शैतान

शैतान का पिता है झूठ
लम्बा चौड़ा और मज़बूत
सच है गांधी जैसा कृशकाय
बदन पे धोती लटकाए!

औकात

जानते हुए कि
वह झूठ बोल रहा है
सब चुपचाप सुनते रहे
जानते हुए कि
मैं सच बोल रही हूँ
किसी ने मेरी न सुनी
बात सच या झूठ की नहीं
औकात की है!
अर्थी

इसने रुलाया कितनों को
इसे रुलाने की
हिम्मत नहीं है
झूठ की अर्थी
खुशी से उठाएं
सच को उठाने को
कँधा नहीं है.

Monday, February 16, 2009

कविता

पसंद


- श्यामल सुमन

हाल पूछा आपने तो, पूछना अच्छा लगा।
बह रही उल्टी हवा से, जूझना अच्छा लगा।।

दुख ही दुख जीवन का सच है, लोग कहते हैं यही।
दुख में भी सुख की झलक को, ढ़ूँढ़ना अच्छा लगा।।

हैं अधिक तन चूर थककर, खुशबू से तर कुछ बदन।
इत्र से बेहतर पसीना, सूँघना अच्छा लगा।।

रिश्ते टूटेंगे बनेंगे, जिंदगी की राह में।
साथ अपनों का मिला तो, घूमना अच्छा लगा।।

घर की रौनक जो थी अब तक, घर बसाने को चली।
जाते जाते उसके सर को, चूमना अच्छा लगा।।

कब हमारे, चाँदनी के बीच बदली आ गयी।
कुछ पलों तक चाँद का भी, रूठना अच्छा लगा।।

दे गया संकेत पतझड़, आगमन ऋतुराज का।
तब भ्रमर के संग सुमन को, झूमना अच्छा लगा।।

Sunday, February 15, 2009

तेलुगु कहानी

बाघिन का दूध


तेलुगु मूल – पोट्लूरु सुब्रह्मण्यम

हिंदी अनुवाद – वी. वेंकटेश्वरा

हैदराबाद स्थित उस निजी संस्था का मुख्यालय दिल्ली में है । भारत के सभी राज्यों की राजधानियों में उस संस्था की शाखाएँ हैं ।
हैदराबाद शाखा के प्रबंध-निदेशक हैं पचास वर्षीय त्यागराजु, जिनकी सेना से सेवानिवृत्ति के बाद इस संस्था में नियुक्ति हुई है । उनकी सत्यनिष्ठा और अनुशासन के कारण लोग उन्हें ‘टाइगर राजु’ कहते हैं ।
उस दिन मुख्यालय से एक विशेष पत्र मिला है । उसमें सूचित किया गया है कि भुवनेश्वर शाखा के प्रबंध-निदेशक श्री भटनागर दिसंबर महीने में सेवानिवृत्त होने वाले हैं तथा जनवरी में नए प्रबंध-निदेशक की तैनाती होनी है । उस पद के लिए योग्य उम्मीदवार के चयन के लिए मुख्यालय से अध्यक्ष ने सभी प्रबंध-निदेशकों को पत्र भेजा है कि वे अपने अधीन काम करनेवाले निदेशकों की कार्यकुशलता के बारे में गोपनीय रिपोर्ट भेजें । सभी प्रबंध निदेशकों से रिपोर्ट मिलने के पश्चात उन पर विचार किया जाएगा और योग्य व्यक्ति को भुवनेश्वर में तैनात किया जाएगा ।
टाइगर राजु के अधीन निदेशक के पद पर कार्यरत रामकृष्णा अत्यंत निष्ठावान, विनय-संपन्न और चुस्त आदमी है । इसमें कोई शक नहीं है कि वह प्रबंध-निदेशक के पद के लिए अत्यंत योग्य है । इतने से उसे संबंध में वीर-शूर-विक्रमार्क के रूप में गोपनीय रिपोर्ट भेजी नहीं जा सकती । कोई एक परीक्षा लेनी है । उस परीक्षा में यदि वह उत्तीर्ण हो जाएगा तो उसका नाम विचारार्थ भेजा जाएगा । टाइगर राजू के मस्तिष्क में एक उपाय सूझा ।
टाइगर ने इंटरकम से रामकृष्णा को बुलाया । स्प्रिंग डोर खोलकर अंदर प्रविष्ट होते हुए मिलटरी अंदाजे में रामकृष्णा ने अभिवादन किया तत्पश्चात् ‘जी हुजूर’ के तर्ज पर विनम्रतापूर्वक हाथ बांधकर खड़ा हुआ । उसकी विनम्रता देखकर प्रबंध-निदेशक हमेशा मुग्ध हो जाते हैं ।
“मिस्टर रामकृष्णा ! मुझे पाव लीटर दूध चाहिए, बाघिन का दूध” प्रबंध-निदेशक ने मुस्कान को अपनी मूंछों के पीछे छिपाते हुए कहा ।
“जी हुजूर !” रामकृष्णा विनम्रतापूर्वक स्वर में बोला । उसमें कोई घबराहट नहीं थी ।
“मिस्टर रामकृष्णा चिड़ियाघर जाकर दुहने से काम नहीं चलेगा । किसी जंगल की बाघिन का दूध चाहिए, समझे” गंभीरता से कहा ।
“जी हुजूर ! जंगल की बाघिन का दूध ले आऊँगा ।” रामकृष्णा ने विश्वासपूर्ण स्वर में जबाव दिया ।
“ठीक है, बेस्ट ऑफ लक ! दिन में दफ़्तर का काम संभालो और रात में बाघिन के दूध के लिए कोशिश करो । एक हफ़्ते का समय देता हूँ, आगे बढ़ो” टाइगर जी ने आशीर्वाद दिया ।
रामकृष्णा लौटकर अपने कमरे में बैठकर सोचता रहा । उसे टाइगर जी से डर है, साथ ही उसमें पदोन्नति की उत्कट इच्छा भी है । उसे मालूम था कि भुवनेश्वर के प्रबंध-निदेशक सेवानिवृत्त होने वाले हैं और यहाँ से अच्छी रिपोर्ट जाती तो पदोन्नति जरूर मिलेगी । लेकिन बाघिन का दूध लाना बगल वाली गली में फैन्सी स्टोर से दूध बिस्कुट लाने जितना आसान नहीं है । जान की बाज़ी लगानी पड़ेगी । कुछ भी हो, टाइगर राजु क्यों टाइगर का ही दूध चाहता है ?
इतने में उसके दिमाग़ में एक उपाय सूझा । इंटरकम से उसने सहायक निदेशक को अपने कमरे में बुलाया ।
सहायक निदेशक भजगोविंदम ने कमरे में पहुँचकर निदेशक को प्रणाम कर उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठा ।
“न जाने क्यों, मेरा मन कहता है कि आपको पदोन्नति मिलने वाली है”, रामकृष्णा ने यों ही कहा ।
“पहले आपको पदोन्नति मिल जाए सर, तभी तो मैं आपकी कुर्सी पर बैठ पाऊँगा”, भजगोविंदम ने चालाकी दिखायी ।
“यह बात छोड़ो भजगोविंदम । मुझे पाव लीटर दूध चाहिए, बाघिन का दूध । ले आ सकते हो क्या”
“यह क्या बड़ी बात है सर ! आप मेरे सुपीरियर हैं । आपके कहने पर भी न निभाने की कोई बात होती है ? मैं अभी लाऊँगा ।” भजगोविंदम ने बड़ी आसानी से कहा ।
बाए हाथ का खेल जैसा बतानेवाले भजगोविंदम की ओर आश्चर्य से देखते हुए उन्होंने संदिग्ध स्वर में कहा, “मगर मैं तो चाहता हूँ बाघिन का दूध... ”
“मुझे मालुम है सर । न तो चिड़ियाघर की बाघिन का, न ही किसी सर्कस कंपनी की बाघिन का । शहर से किसी भी दिशा में तीन घंटे सफ़र करें तो जंगल में पहुँच सकते हैं । जंगल में कहीं छिपकर बच्चों वाली बाघिन को पकड़कर उसका दूध ले आऊँगा । मेरे दादा परदादा बाघ, शैर का शिकार खेलते थे । उनका ख़ून अभी भी मुझमें बह रही है । बाघिन मेरे सामने बिल्लियों की तरह पड़ी रहती है सर ।”
“गुड ! अब आप जा सकते हैं, हाँ एक हफ़्ते की अवधि ही..”, रामकृष्णा ने चेताया ।
भजगोविंदम ने ठीक कहते हुए सिर हिलाकर सीधा अपनी कुर्सी पर जा बैठा । मांगने वाले के लिए बोलने वाला हमेशा बदतर ही तो लगता है, अतः उसने बज़र दबाकर अनुभाग अधिकारी को अपने कमरे में बुलाया ।
अभिवादन करके अनुभाग अधिकारी नीलकंठम खड़े होकर ही बोला, “फरमाइए सर, क्या काम है”
“यार, मुझे पाव लीटर बाघिन का दूध चाहिए ।
“जी, अभी ले आऊँ ! या कल भी लाने पर भी चलेगा”
“समझ गया ! मैं बाघिन का दूध कह रहा हूँ”
“जी, हाँ ! सर, मैंने भी बाघिन का दूध ही कहा” और भी जोर से जवाब दिया नीलकंठम ने ।
नीलकंठम की क्षमता पर भजगोविंदम को भरोसा है । उसने सोचा कि यदि नीलकंठम बाघिन का दूध ले आता भी है तो चकित होने की जरूरत नहीं है । उसने रामकृष्णा की बातें दोहराई । “ठीक है, सर”, कहते हुए नीलकंठम अपने अनुभाग में वापस चला गया ।
सहायक अनुभाग अधिकारी पुल्लय्या अपने कानों को साफ करने में तल्लीन था । नीलकंठम उसके पास जाकर कहा, “चलो पुल्लय्या चाय पीकर आएंगे ।”
पुल्लय्या उसी मुद्रा में उठ खड़ा हुआ । दोनों कैंटीन पहुँचे । चाय के पैसे नीलकंठम ने दिया और पुल्लय्या से कहा, “एक जरूरी काम आया है, पुल्लय्या ! तुम मेरे चेले हो, इसलिए यह काम तुझे सौंपना चाहता हूँ ।
पुल्लय्या झट से बोला एक हफ्ते में ले आना है पाव लीटर बाघ का दूध । बस, यही न !”
“तो तुझे ज्योतिषी भी मालुम है क्या ?” आश्चर्य से पूछा नीलकंठम ने ।
“नहीं सर, मैं अपनी मैच-बाक्स की तलाश में आपके कमरे में आया तो पता चला कि आप सहायक निदेशक के यहाँ गए हुए हैं । उधर चला आया और खिड़की से आपकी बातें सुन पड़ीं । बुरा मत मानिए ।”
“ठीक है, इस बारे में तुम क्या सोचते हो ।”
“सोचने के लिए क्या है आप यह बात भूल जाइए ।”
“भूल जाऊँ तो मेरी पदोन्नति”
“मैंने बाघ के दूध की बात भूल जाने को कहा, न कि पदोन्नति की बात । एक हफ्ते के अंदर दूध आपकी मेज पर रहेगा”, पुल्लय्या ने आश्वासन दिया ।
दोनों के अनुभाग में लौट आते ही चपरासी आदेय्या पुल्लय्या के यहाँ आ पहुँचा । वह अपने लड़के को चपरासी की नौकरी दिलाने के चक्कर में था ।
“सर, मेरे बेटे को चपरासी की नौकरी दिलाने के बारे में क्या आपने अनुभाग अधिकारी से बात की है ?” आदेय्या ने हाथ जोड़कर सवाल किया।
“रिक्ति नहीं है, फिर भी... ”
“सर, कुछ रास्ता है तो बता दीजिए”, आदेय्या ने अनुरोध किया ।
“तुम एक काम करोगे तो मुझे पदोन्नति मिलेगी । तुम तो स्नातक हो, पच्चीस साल की सर्वीस भी है । तुझे मेरी जगह तैनात कर देंगे और नौकर का पद रिक्त हो जाएगा । वह पद तुम्हारे बेटे को दिलाने की जिम्मेदारी मैं लूँगा ।”
“रास्ता खुल गया, साब ! बताइए क्या करना है, मैं अपनी जान भी दे सकता हूँ ।”
“जान देने की ज़रूरत तो नहीं बै, बस पाव लीटर बाघिन का ले आओ”
आदेय्या सहसा कांप उठा ।
“नौकरी मिलना मुश्किल है न, आदेय्या !” यह कह कर पुल्लय्या फाइल देखने लगा ।
आदेय्या ने एक ही मिनट में निर्णय ले लिया, बाघ का दूध ले आने का वादा किया, उससे संबंधित नियम-विनियम की जानकारी हासिल कर ली ।
हर व्यक्ति अपने अधीनस्था अधिकारी जिम्मेदारी सौंपकर खुद बफिकॅ रह गया ।
आदेय्या ने कोई प्रयत्न नहीं किया । “भीख न भी दो, मगर कुत्ते को बांधकर रखो” - पुल्लय्या के प्रति उसके मन में यही विचार मंडराता रहा । वह बेटे की नौकरी की खातिर प्राण-त्याग करने के पक्ष में नहीं था । एक सप्ताह की अवधि के आखिरी दिन सबेरे वह बिस्तर पर लेटा हुआ था । छत की ओर देख रहा था और लड़के के भविष्य के बारे में सोच रहा था । इतने में देखा कि दीवार पर एक बिल्ली अपनी संतान के साथ आहिस्ता-आहिस्ता चल रही है । तुरंत उसका दिमाग काम करने लगा । बिल्ली और बाघ एक ही जाति के जानवर हैं । बिल्ली को यदि सेवेंटी एम.एम. में ब्लो-अप करे तो वह बिल्कुल बाघ-सा दीख पड़ेगा । खैर, बिल्ली का दूध ले जाएं तो किसको पता चलेगा ?
घर पर और कोई नहीं था । परिवार के अन्य सदस्य अपने-अपने काम पर बाहर गए हुए थे । आदेय्या ने छोटे से प्याले में दूध डाला और बिल्ली को बुलाया । वह दूध पीने लगी । आदेय्या ने दरवाजे बंद कर दिए । हाथ में एक लोटा लेकर बिल्ली के थनों से दूध दुहने लगा । बिल्ली ने उस पर टूट पड़ा और अपने पैने नाखूनों से पंजा मारा । फिर भी आदेय्या ने अपना काम जारी रखा । उसने बिल्ली को तभी छोड़ा, जब उसको लगा कि पर्याप्त दूध मिल गया है ।
आदेय्या ने सोचा कि सहायक अनुभाग अधिकारी पंखे के नीचे आराम से बैठकर मुझे बिल्ली से कटवाया । वह दूध को एक बोतल में डाला और उसे बंद करके रखा । घावों को पोंछे बिना सीधा दफ़्तर जा पहुँचा ।
कार्यालय समय से एक घटा पहले ही आकर आदेय्या की प्रतीक्षा में बैठा था पुल्लय्या । घायल आदेय्या के हाथ में दूध का बोतल देखते ही उसका चेहरा खिल उठा । बोतल अपने हाथ में लेते हुए कहा, “वाह आदेय्या तुमने कमाल कर दिया !”
“सर, बाघ को पकड़ने काफी कष्ट भोगना पड़ा । रोज रात को जंगल जाता था, पेड़ों पर छिपकर रहता था । आज सुबह बाघ अपनी संतान को दूध पिला रही थी । पेड़ से कूदकर जान हथेली पर रखकर मैंने उससे खूब लड़ी और दूध ले आया ।” कहते कहते थक गया आदेय्या ।
“आदेय्या, तुम जाओ, घावों पर पट्टी बांध लो”, पुल्लय्या ने सौ रुपए का नोट उस बेचारे को दिया । आदेय्या लंगडाते हुए चला गया ।
पुल्लय्या ने बोतल को एक बक्स में रखा, अच्छी तरह उसका पैकिंग किया । उसे लेकर सीधे अनुभाग अधिकारी के कमरे में घुस गया ।
“माइ गॉड, बाघिन का दूध ले आए हो !” तुम मेरे चेले हो, मैं धन्य हो गया”, पुल्लय्या नीलकंठम ने पुल्लय्या को गला लगाया ।
“सर, बहुत मुश्किल से मिला । घने अंधेरे में, भयंकर जंगल में, आधे दर्जन आदमियों को साथ लेकर गया । गुफा में संतान को दूध पिला रही बाघ को बांधकर उसका दूध ले आया । बड़ी रकम खर्च करना पड़ा ।”
“खर्च की बात छोड़ो, मैं तुम्हारे साहस की तारीफ़ करता हूँ । मजे में काम करते रहो कि शीघ्र ही तरक्की हो जाएगी ।” नीलकंठम ने जवाब दिया ।
पुल्लय्या के चले जाने के बाद नीलकंठम ने उस पैकेट को और भी अच्छे ढंग से पैक किया । उसे लेकर सहायक निदेशक भजगोविंदम के यहाँ पहुँचा ।
“मैंने कहा था न सर, बाघ गा दूध ले आना मेरे लिए बाएं हाथ का खेल है । जैसा कहा, वैसा कर दिया” गर्व भरे स्वर में बोला ।
“वेरी गुड मिस्टर नीलकंठम ! तुम्हारी यह सहायता मैं हमेशा याद रखूँगा । मान लो कि तरक्की मिल गई”, नीलकंठम से हाथ मिलाकर उससे पैकेट ले लिया भजगोविंदम ।
उस पैकेट को ढंग से सजाकर, उस पर मोटे अक्षरों में सुंदर लिखावट में लिखा – ‘टाइगर मिल्क’ । एक ट्रे में रखा । ट्रे लेकर निदेशक से मिलने गया ।
“सर, मैंने कहा था न ! मेरे पूर्वज मशहूर शिकारी थे । हमारी फैमिली ‘टाइगर फैमिली’ है । एक खूँकार बाघ को मैंने बिल्ली बना दिया । उसके बच्चों को एक पेड़ से बांधकर आराम से चार लीटर दूध दुह लिया । घर में पौने चार लीटर रखा, यहाँ पाव लीटर ले आया हूँ ।” यह कहकर उसने रामकृष्णा की मेज पर ट्रे रखा दिया ।
“गुड मिस्टर भजगोविंदम, निर्धारित अवधि के अंदर दूध ले आए हो । गॉड ब्लेस यू ।”
रामकृष्णा की बातों से संतुष्ट होकर भजगोविंदम चला गया ।
निदेशक रामकृष्णा ने उस पैकेट पर हरे रंग का वेल्वेट कपड़ा ढक दिया । प्रबंध निदेशक के सामने खड़ा हुआ ।
सामने वाले कैलेंडर में अंकित तारीख देखकर प्रबंध निदेशक महोदय ने गंभीर स्वर में कहा, “बाघ का दूध है न, उधर रखकर चलो ।”
रामकृष्णा उसे मेज पर रखकर चला गया ।
बड़े अधिकारी द्वारा सौंपा गया काम दुष्कर होने पर, बहाना किए बिना, “हाँ सर” का सकारात्मक रूख अपनाना एक अच्छे कर्मचारी का गुण है । “हाँ” कहते ही आधा काम पूरा हो जाता । रामकृष्णा परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया, यह दूध बाघ का हो अथवा बंदर का, इससे मेरा कोई मतलब नहीं है” प्रबंध निदेशक ने घंटी बजायी ।
मुँह पर, हाथों पर पट्टी बंधा हुआ चपरासी आदेय्या अंदर आया । “उस पैकेट को बाहर फेंक दो । सावधान रहो कि कोई न देखे ।”
“जी हुजूर”, आदेय्या ट्रे लेकर चला गया ।

***