Thursday, June 30, 2011

अंडमान में ''बदलते दौर में साहित्य के सरोकार'' विषय पर संगोष्ठी



अंडमान में ''बदलते दौर में साहित्य के सरोकार'' विषय पर संगोष्ठी







अंडमान में 'सरस्वती सुमन' के लघु कथा विशेषांक का विमोचन और ''बदलते दौर में साहित्य के सरोकार'' विषय पर संगोष्ठी

अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्टब्लेयर में सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था ‘चेतना’ के तत्वाधान में स्वर्गीय सरस्वती सिंह की 11 वीं पुण्यतिथि पर 26 जून, 2011 को मेगापोड नेस्ट रिसार्ट में आयोजित एक कार्यक्रम में देहरादून से प्रकाशित 'सरस्वती सुमन' पत्रिका के लघुकथा विशेषांक का विमोचन किया गया. इस अवसर पर ''बदलते दौर में साहित्य के सरोकार'' विषय पर संगोष्ठी का आयोजन भी किया गया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में श्री एस. एस. चौधरी, प्रधान वन सचिव, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, अध्यक्षता देहरादून से पधारे डा. आनंद सुमन 'सिंह', प्रधान संपादक-सरस्वती सुमन एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में श्री कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवाएँ, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, डा. आर. एन. रथ, विभागाध्यक्ष, राजनीति शास्त्र, जवाहर लाल नेहरु राजकीय महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर एवं डा. जयदेव सिंह, प्राचार्य टैगोर राजकीय शिक्षा महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर उपस्थित रहे.

कार्यक्रम का आरंभ पुण्य तिथि पर स्वर्गीय सरस्वती सिंह के स्मरण और तत्पश्चात उनकी स्मृति में जारी पत्रिका 'सरस्वती सुमन' के लघुकथा विशेषांक के विमोचन से हुआ. इस विशेषांक का अतिथि संपादन चर्चित साहित्यकार और द्वीप समूह के निदेशक डाक सेवा श्री कृष्ण कुमार यादव द्वारा किया गया है. अपने संबोधन में मुख्य अतिथि एवं द्वीप समूह के प्रधान वन सचिव श्री एस.एस. चौधरी ने कहा कि सामाजिक मूल्यों में लगातार गिरावट के कारण चिंताजनक स्थिति पैदा हो गई है । ऐसे में साहित्यकारों को अपनी लेखनी के माध्यम से जन जागरण अभियान शुरू करना चाहिए । उन्होंने कहा कि आज के समय में लघु कथाओं का विशेष महत्व है क्योंकि इस विधा में कम से कम शब्दों के माध्यम से एक बड़े घटनाक्रम को समझने में मदद मिलती है। उन्होंने कहा कि देश-विदेश के 126 लघुकथाकारों की लघुकथाओं और 10 सारगर्भित आलेखों को समेटे सरस्वती सुमन के इस अंक का सुदूर अंडमान से संपादन आपने आप में एक गौरवमयी उपलब्धि मानी जानी चाहिए.

युवा साहित्यकार एवं निदेशक डाक सेवा श्री कृष्ण कुमार यादव ने बदलते दौर में लघुकथाओं के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि भूमण्डलीकरण एवं उपभोक्तावाद के इस दौर में साहित्य को संवेदना के उच्च स्तर को जीवन्त रखते हुए समकालीन समाज के विभिन्न अंतर्विरोधों को अपने आप में समेटकर देखना चाहिए एवं साहित्यकार के सत्य और समाज के सत्य को मानवीय संवेदना की गहराई से भी जोड़ने का प्रयास करना चाहिये। श्री यादव ने समाज के साथ-साथ साहित्य पर भी संकट की चर्चा की और कहा कि संवेदनात्मक सहजता व अनुभवीय आत्मीयता की बजाय साहित्य जटिल उपमानों और रूपकों में उलझा जा रहा है, ऐसे में इस ओर सभी को विचार करने की जरुरत है.

संगोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए डा. जयदेव सिंह, प्राचार्य टैगोर राजकीय शिक्षा महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर ने कहा कि साहित्य के क्षेत्र में समग्रता के स्थान पर सीमित सोच के कारण उन विषयों पर लेखन होने लगा है जिनका सामाजिक उत्थान और जन कल्याण से कोई सरोकार नहीं है । केंद्रीय कृषि अनुसन्धान संस्थान के निदेशक डा. आर. सी. श्रीवास्तव ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि आज बड़े पैमाने पर लेखन हो रहा है लेकिन रचनाकारों के सामने प्रकाशन और पुस्तकों के वितरण की समस्या आज भी मौजूद है । उन्होंने समाज में नैतिकता और मूल्यों के संर्वधन में साहित्य के महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला । डा. आर. एन. रथ, विभागाध्यक्ष, राजनीति शास्त्र, जवाहर लाल नेहरु राजकीय महाविद्यालय ने अंडमान के सन्दर्भ में भाषाओँ और साहित्य की चर्चा करते हुए कहा कि यहाँ हिंदी का एक दूसरा ही रूप उभर कर सामने आया है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि साहित्य का एक विज्ञान है और यही उसे दृढ़ता भी देता है.

अंडमान से प्रकाशित एकमात्र साहित्यिक पत्रिका 'द्वीप लहरी' के संपादक डा. व्यास मणि त्रिपाठी ने ने साहित्य में उभरते दलित विमर्श, नारी विमर्श, विकलांग विमर्श को केन्द्रीय विमर्श से जोड़कर चर्चा की और बदलते दौर में इसकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया. उन्होंने साहित्य पर हावी होते बाजारवाद की भी चर्चा की और कहा कि कला व साहित्य को बढ़ावा देने के लिए लोगों को आगे आना होगा। पूर्व प्राचार्य डा. संत प्रसाद राय ने कहा कि कहा कि समाज और साहित्य एक सिक्के के दो पहलू हैं और इनमें से यदि किसी एक पर भी संकट आता है, तो दूसरा उससे अछूता नहीं रह सकता।

कार्यक्रम के अंत में अपने अध्यक्षीय संबोधन में ‘‘सरस्वती सुमन’’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक डाॅ0 आनंद सुमन सिंह ने पत्रिका के लघु कथा विशेषांक के सुन्दर संपादन के लिए श्री कृष्ण कुमार यादव को बधाई देते हुए कहा कि कभी 'काला-पानी' कहे जानी वाली यह धरती क्रन्तिकारी साहित्य को अपने में समेटे हुए है, ऐसे में 'सरस्वती सुमन' पत्रिका भविष्य में अंडमान-निकोबार पर एक विशेषांक केन्द्रित कर उसमें एक आहुति देने का प्रयास करेगी. उन्होंने कहा कि सुदूर विगत समय में राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तमाम घटनाएं घटी हैं और साहित्य इनसे अछूता नहीं रह सकता है। अपने देश में जिस तरह से लोगों में पाश्चात्य संस्कृति के प्रति अनुराग बढ़ रहा है, वह चिन्ताजनक है एवं इस स्तर पर साहित्य को प्रभावी भूमिका का निर्वहन करना होगा। उन्होंने रचनाकरों से अपील की कि वे सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखकर स्वास्थ्य समाज के निर्माण में अपनी रचनात्मक भूमिका निभाएं। इस अवसर पर डा. सिंह ने द्वीप समूह में साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए और स्व. सरस्वती सिंह की स्मृति में पुस्तकालय खोलने हेतु अपनी ओर से हर संभव सहयोग देने का आश्वासन दिया।

कार्यक्रम के आरंभ में संस्था के संस्थापक महासचिव दुर्ग विजय सिंह दीप ने अतिथियों और उपस्थिति का स्वागत करते हुए आज के दौर में हो रहे सामाजिक अवमूल्यन पर चिंता व्यक्त की । कार्यक्रम का संचालन संस्था के उपाध्यक्ष अशोक कुमार सिंह ने किया और संस्था की निगरानी समिति के सदस्य आई.ए. खान ने धन्यवाद ज्ञापन किया। इस अवसर पर विभिन्न द्वीपों से आये तमाम साहित्यकार, पत्रकार व बुद्धिजीवी उपस्थित थे.

दुर्ग विजय सिंह दीप
संयोजक- 'चेतना' (सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था)
उपनिदेशक- आकाशवाणी (समाचार अनुभाग)
पोर्टब्लेयर -744102

Sunday, June 26, 2011

सुरेंद्र प्रताप सिंह स्मृति समारोह, 2011


सुरेंद्र प्रताप सिंह स्मृति समारोह, 2011


आधुनिक भारतीय पत्रकारिता के महानायक सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी एस.पी. की 14वीं बरसी पर उन्हें याद करते हुए दिल्ली में एक कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। इस दौरान कॉरपोरेट मीडिया से बाहर, मास मीडिया के जो महत्वपूर्ण प्रयोग हो रहे हैं, उस बारे में बातचीत की जाएगी। आप जरूर आएं।


विषय : वैकल्पिक मीडिया की संभावनाएं


वक्ता: अचला शर्मा- बीबीसी से पुराना रिश्ता रहा


आनंद स्वरूप वर्मा- फिल्मकार और संपादक, ‘समकालीन तीसरी दुनिया’


जगदीश यादव- फोटो संपादक, इन दिनों वाल-न्यूजपेपर के कुछ अनूठे प्रयोग कर रहे हैं


आशीष भारद्वाज- न्यू मीडिया की संभावनाओं को लेकर सशंकित हैं


संचालन और बीज वक्तव्यः डॉ. आनंद प्रधान- मीडिया विश्लेषक


स्थान – अमलतास हॉल, इंडिया हैबिटेट सेंटर, लोधी रोड, नई दिल्ली

तारीख- 27 जून, 2011
समय- शाम 6.30 बजे


आयोजक- मीडियाखबर डॉट कॉम
संपर्क- pushkar19@gmail.com, 9999177575

बेटियाँ



बेटियाँ





-अशोक जांगड़ा





ओस की बूंदों सी होती हैं बेटियाँ !

खुरदरा हो स्पर्श तो रोती हैं बेटियाँ !!



रौशन करेगा बेटा बस एक ही वंश को !

दो - दो कुलों की लाज ढोतीं हैं बेटियाँ !!


कोई नहीं है दोस्तों एक दूसरे से कम !

हीरा अगर है बेटा तो मोती हैं बेटियाँ !!


काँटों की राह पर खुद चलती रहेंगी !

औरों के लिए फूल ही बोती हैं बेटियाँ !!


विधि का है विधान या दुनिया की है रीत !

क्यों सबके लिए भार होती हैं बेटियाँ !!


धिक्कार है उन्हें जिन्हें बेटी बुरी लगे !

सबके लिए बस प्यार ही संजोती है बेटियाँ

Friday, June 24, 2011

कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, क्षेत्रीय कार्यालय, वडोदरा में हिंदी कार्यशाला का आयोजन

चित्र में क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त श्री एम. मधिअलगन (बीच में बैठे हैं), क्षेत्रीय आयुक्त -2 श्री एस. के सुमन (दाएं तरफ़ बैठे हैं, पांडिच्चेरी विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफ़ेसर डॉ. सी. जय शंकर बाबु (बाएं तरफ़ बैठे हैं) और कार्यशाला के प्रतिभागी हैं ।

Thursday, June 23, 2011

नवगीत: टेसू तुम क्यों?....


टेसू तुम क्यों?....



संजीव वर्मा 'सलिल'


*


टेसू तुम क्यों लाल हुए?...
*
टेसू तुम क्यों लाल हुए?
फर्क न कोई तुमको पड़ता
चाहे कोई तुम्हें छुए.....
*
आह कुटी की तुम्हें लगी क्या?
उजड़े दीन-गरीब.
मीरां को विष, ईसा को
इंसान चढ़ाये सलीब.
आदम का आदम ही है क्यों
रहा बिगाड़ नसीब?
नहीं किसी को रोटी
कोई खाए मालपुए...
*
खून बहाया सुर-असुरों ने.
ओबामा-ओसामा ने.
रिश्ते-नातों चचा-भतीजों ने
भांजों ने, मामा ने.
कोशिश करी शांति की हर पल
गीतों, सा रे गा मा ने.
नहीं सफलता मिली
'सलिल' पद-मद से दूर हुए...
*

नवगीत/दोहा गीत:
पलाश...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बाधा-संकट हँसकर झेलो
मत हो कभी हताश.
वीराने में खिल मुस्काकर
कहता यही पलाश...
*
समझौते करिए नहीं,
तजें नहीं सिद्धांत.
सब उसके सेवक सखे!
जो है सबका कांत..
परिवर्तन ही ज़िंदगी,
मत हो जड़-उद्भ्रांत.
आपद संकट में रहो-
सदा संतुलित-शांत..

शिवा चेतना रहित बने शिव
केवल जड़-शव लाश.
वीराने में खिल मुस्काकर
कहता यही पलाश...
*
किंशुक कुसुम तप्त अंगारा,
सहता उर की आग.
टेसू संत तपस्यारत हो
गाता होरी-फाग..
राग-विराग समान इसे हैं-
कहता जग से जाग.
पद-बल सम्मुख शीश झुका मत
रण को छोड़ न भाग..

जोड़-घटाना छोड़,
काम कर ऊँची रखना पाग..
वीराने में खिल मुस्काकर
कहता यही पलाश...
****

धर्म का बाजार या बाजार का धर्म

धर्म का बाजार या बाजार का धर्म


- श्यामल सुमन


कई बर्षों का अभ्यास है कि रोज सबेरे सबेरे उठकर कुछ पढ़ा लिखा जाय क्योंकि यह समय मुझे सबसे शांत और महफूज लगता है। लेकिन जब कुछ पढ़ने लिखने के लिए तत्पर होता हूँ तो अक्सर मुझे दो अलग अलग स्थितियों का सामना अनिवार्य रूप से करना पड़ता हैं।

पहला - टी०वी० के कई चैनलों में धार्मिक प्रवचन सुनना जिसमें विभिन्न प्रकार के "धार्मिकता का चोला पहने" लोगों के "अस्वादिष्ट" प्रवचनों को सुनना शामिल है। इसके अतिरिक्त कसरत (योग भी कह सकते), हमेशा एक दूसरे के विपरीत भबिष्य फल बताने वाली "तीन देवियों" द्वारा राशिफल से लेकर शनि का भय दिखाते हुए लगभग "शनि" (मेरी कल्पना) जैसे ही डरावने वेश-भूषा धारण किए महात्मा की "संत-वाणी" भी सुननी पड़ती है, जिनके बारे में अभी तक नहीं समझ पाया हूँ कि वो कुछ समझा रहे हैं या धमकी दे रहे हैं। वो भी ऊँची आवाज में। अगर टी०वी० का "भोल्युम" कम करूँ तो सुमन (श्रीमती) जी कब "शनि-सा" व्यवहार करने लगे अनुमान लगाना कठिन है।

और दूसरा काम - बाजार खुलते खुलते मुझे दुकान पर पहुँच जाना पड़ता है क्योंकि पहले से कोई न कोई काम मेरे लिए "गृह-स्वामिनी" द्वारा निर्धारित किया जाता है ताकि मैं लेखन जैसे "बेकार" काम से अधिक से अधिक दूर रह सकूँ। दुकान में भी पहुँते ही वही देखता हूँ कि सेठ जी "मुनाफा" कमाने से पूर्व भगवान को खुश करने लिए "निजी धार्मिक अनुष्ठान" में कुछ देर तल्लीन रहते हैं। निस्सहाय खड़ा होकर सारे कृत्यों को देखना मेरी मजबूरी है क्योंकि पूजा के बाद जबतक दुकान से कोई नगदी खरीदारी न हो, उधार वाले को प्रायः ऐसे ही खड़ा रहना पड़ता है। कभी कभी तो नगदी खरीददारी वाले ग्राहक का भी इन्तजार करना मेरी विवशता बन जाती है और आज मेरी यही विवशता मेरे इस लेख के लिए एक आधार भी है।

देश में कई प्रकार के उद्योग पहले से स्थापित हैं जो अपनी नियमित उत्पादकता के कारण हमारे देश की आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ बने हुए है और जिसकी वजह से हमारी सुख-सुविधा एवं समृद्धि में लगातारिता बनी हुई है। हाल के कुछ बर्षों कई नए प्रकार के "अनुत्पादक उद्योगों" के नाम उभर कर बहुत तेजी और मजबूती से देशवासी के सामने आये हैं एवं जो लगातार समाज को बुरी तरह से खोखला कर रहा है। उदाहरण के लिए - अपहरण-उद्योग, नक्सल-उद्योग, राजनीति-उद्योग इत्यादि। इसी कड़ी में एक और उद्योग की ठोस और "सनातनी उपस्थिति" से इन्कार करना मुश्किल है और वो है "धर्म का उद्योग"।

अभी तक जितने भी ज्ञात-अज्ञात मुनाफा कमाने के संसाधन और क्रिया कलाप हैं उसमें धर्म सर्वोपरि है। साईं बाबा के साथ साथ कई कई बाबाओं के "बिना श्रम के अर्जित" सम्पत्तियों का मीडिया द्वारा उपलब्ध कराये गए ब्योरे के आधार पर यह कहना किसी के लिए भी कठिन नहीं है। इस उद्योग की बिशेषता यह है कि इसको स्थापित करने में कोई खास शुरुआती खर्च नहीं है - बस फायदा ही फायदा। केवल आपके वस्त्र "धार्मिकता" के आस पास दिखते हों। कभी कभी "लच्छेदार-भाषा" और लोक लुभावन "व्यावसायिक-मुस्कान" के साथ पाप-पुण्य का "भय" दिखाते हुए चुटकुलेबाजी करने का भी हुनर आप में होना चाहिए और इन सब के लिए कोई खास "प्रारम्भिक पूँजी" की आवश्यकता तो पड़ती नहीं है।

बाला जी का मंदिर हो या चिश्ती का दरगाह, आप जहाँ भी जाइये तो उस स्थल से बहुत पहले ही आपके आस पास किसी न किसी तरह "धार्मिक एजेन्टों" का अस्वाभाविक अवतार हो जाता है जो आपके पीछे हाथ धो कर पड़ जाते हैं और अपने को उस "सर्वशक्तिमान" का सच्चा दूत बताते हुए उनसे "डाइरेक्ट साक्षात्कार" या "पैरवी" कराने का वादा तब तक करते रहते हैं जब तक आप उसके "वश" में न हो जाएं या डाँट न पिलावें। फिर शुरु होता है पैसा ऐंठने का एक से एक "चतुराई भरा कुचक्र" जिससे निकलना एक साधारण आदमी के लिए मुशकिल ही होता है। सबेरे सबेरे भगवान की आराधना करने के बाद ये एजेन्ट भगवान के ही नाम पर खुलेआम "मुनाफा" कमाने के लिए कई प्रकार के जायज(?) नाजायज जुगत में तल्लीन हो जाते हैं जिसके शिकार अक्सर वे सीधे-सादे साधारण इन्सान होते हैं जो बड़ी कठिनाई से पैसे का जुगाड़ करके अपने आराध्य का दर्शन करने आते हैं।

और बाजार में क्या होता है? बिल्कुल यही दृश्य, यही कारोबार। सारे के सारे दुकानदार अपना दुकान खोलते ही अपने अपने आराध्य की आराधना करते हैं और फिर शुरू हो जाता है अधिक से अधिक मुनाफा कमाने का जुगाड़। एक लक्ष्य मुनाफा बटोरना है चाहे जो करना पड़े। इनके भी मुख्य शिकार वही "आम आदमी" हैं जो अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़ी मुश्किल से बाजार का रूख कर पाते हैं वो भी सिर्फ जीने भर की जरूरतों के लिए।

कोई धर्म-सथल हो या बाजार, सब जगह की "नीति और रीति" एक है। यदि चलतऊ भाषा में कहा जाय तो अधिक से अधिक अपने ग्राहकों को "छीलना" अर्थात मुनाफा कमाना। इसके लिए वे आमतौर पर वाकचातुर्यता की चासनी में लपेट कर झूठ और कई प्रकार के तिकड़म का सहारा लेते हैं। मजे की बात है कि दोनों (धर्म-स्थल और बाजार)जगहों में ये सारे फरेब भगवान की "आराधना" के बाद ही शुरू होता है मानो भगवान से "इजाजत" लेकर। और "बेचारे" भगवान का क्या दोष? वे तो पत्थर के हैं। क्या कर सकते हैं? सब चुपचाप देखते रहते हैं सारे अन्याय को। आखिर उन्हीं के "परमिशन" से तो शुरू किया जाता है यह कातिल खेल।

वैश्वीकरण के बाद अपने देश में बाजारवाद पर बहुत चर्चाएं हुईं। इसकी अच्छाई और बुराई पर भी। लेकिन मेरे जैसा मूरख यह अभी तक नहीं समझ पाया कि बाजार अपना धर्म निभा रहा है या धर्म ही एक बाजार बन गया है और हठात् ये पंक्तियाँ निकल आतीं हैं कि-


बाजार और प्रभु का दरबार एक जैसा
सब खेल मुनाफे का आराधना ये कैसी?

पूरी गज़ल का लिन्क ये http://manoramsuman.blogspot.com/2011/05/blog-post_09.html है

Tuesday, June 21, 2011

क्या रंग लाएगा शिष्टाचार का भ्रष्टाचार से संघर्ष

क्या रंग लाएगा शिष्टाचार का भ्रष्टाचार से संघर्ष

-प्रो. बृजकिशोर कुठियाला

भ्रष्टाचार के विरोध में उठी जनमानस की आवाज को जिस प्रकार से वर्तमान राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था ने कुचला है वह अप्रत्यक्षित था। अन्ना हजारे देश के विशिष्ठ और नगरीय जनता की आवाज को लेकर उठे। उनके साथ कुछ और भी प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सहयोग किया। कुटिलता से सरकार ने अन्ना हजारे की टीम को लुभाया और आन्दोलन टाय-टाय फिस हो गया। वार्ता के चक्रों में फंसाकर कुछ राजनेताओं ने तो स्थापित प्रतिष्ठा वाले अन्ना हजारे की छवि को भी धूमिल करने का प्रयास किया।

बाबा रामदेव की आवाज में निम्न मध्यवर्ग और ग्रामीण जनता की पीड़ा और विरोध शामिल था। भ्रष्टाचार की व्यापकता और उसकी विराटता से आम आदमी न केवल क्षुब्ध है बल्कि कुछ कर गुजरने की इच्छा भी रखता है। श्रीमती गांधी ने भी जयप्रकाश के नेतृत्व में युवा आन्दोलन को कुचलने का प्रयास किया था। जिसके कारण से भारत के प्रजातन्त्र के स्वर्णिम इतिहास में 19 महीने का एक काला अध्याय जुड़ा।

कुटिल परन्तु सफल प्रयास यह भी हुआ कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आन्दोलन एक- दूसरे के सहयोगी नहीं बन पाये। दोनों ही व्यक्ति राजनीति के गठजोड़ के दांवपेच के खिलाड़ी नहीं है। परन्तु दूसरे पाले में ऐसे ही लोग सक्रिय और मुखर हैं जिनका राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन झूठ, धोखे और ईर्ष्या का उदाहरण है। भ्रष्टाचार को रोकने, अपनी सम्पत्ति को देश में वापस लाने और सड़ी हुई व्यवस्था को बदलने के लिये आन्दोलन तो उठेंगे ही परन्तु इनका सूत्रपात राजनीति नहीं करेगी, क्योंकि जो व्यक्ति उस शाखा को काटता है जिस पर वह स्वयं बैठा है उसे शेखचिल्ली कहा गया है। हमारे राजनीतिक कार्यकर्ता सब कुछ हो सकते है, परन्तु वह मूर्ख नहीं है। इसलिये व्यवस्था परिवर्तन का कार्य तो नागरिक समाज को ही करना होगा।

नागरिक समाज के समक्ष भी प्रश्न रणनीति का उठना चाहिए। भ्रष्ट व्यवस्था को समाप्त करने का आन्दोलन तर्क संगत है परन्तु क्या नागरिक समाज विकल्प प्रस्तुत करने की स्थिति में है ? भ्रष्टाचार का सबसे परिचय है परन्तु इसके स्थान पर जिस शिष्टाचार को लाना चाहते है उसकी रचना और कल्पना हमारे पास नहीं है। आम आदमी को यह समझ में नहीं आता कि भ्रष्ट व्यवस्था द्वारा स्थापित लोकपाल की संस्था भ्रष्टाचार को कैसे समाप्त कर सकती है। केन्द्र में और राज्य सरकारों में विजिलेन्स आयोग और आर्थिक अपराधों से निपटने के लिये अनेक संस्थाएं है, वे कितनी कारगर हैं यह प्रश्न हर आन्दोलनकारी के मन में है। बाबा रामदेव भी व्यवस्था में परिवर्तन की बात तो करते हैं परन्तु नई व्यवस्था की आसानी से समझ में आने वाली परिकल्पना या मॉडल उनके पास नहीं है।

आज भारतीय समाज तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है पहला भाग संख्या में छोटा परन्तु बहुत अधिक प्रभावी है जो न केवल भ्रष्ट है परन्तु बेईमानी और अपराध से ही विकास करने की प्रक्रिया पर उसे पूरा विश्वास है। दुर्भाग्य से समाज का अत्यन्त सूक्ष्म यह भाग ही देश को चलाता है।

एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो भ्रष्ट तो नहीं है परन्तु शिष्टाचारी भी नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर वे भ्रष्ट व्यवस्था के साथ भी हो लेते हैं और मन ही मन उसका विरोध भी करते हैं। लाइसेन्स जल्दी बने इसके लिये रिश्वत दे देते है, टैफिक का चालान हो तो चालान की जगह रिश्वत दे कर बचने में उन्हे कोई बुराई नहीं लगती। परीक्षा में अध्यापक को सिफारिश करना उन्हें उचित लगता है और बिजली की चोरी करना वह अपना अधिकार मानते है। कहा जाये तो यह वर्ग भ्रष्ट नहीं है परन्तु शिष्टाचारी भी नहीं है। इस समूह को हम छद्म शिष्टाचारी की संज्ञा दे सकते है।

आशा की किरण इस भयानक काली रात में यह दिखाती है कि भारतीय जनता का एक वर्ग न केवल भ्रष्टाचार के विरोध में मुखर है परन्तु अपने व्यवहार से वह शिष्टाचारी भी है। सूचना प्रौद्योगिकी की बड़ी संस्था के प्रमुख की यह छवि है कि उन्होंने अपने संस्था को आज अन्तरराष्ट्रीय स्तर का बनाया है और उन्होंने कभी भी कानून को नहीं तोड़ा है रिश्वत नहीं दी है और गुड प्रेक्टिसेसअर्थात् आदर्श व्यवहार का पालन किया है। आज का पढ़ा-लिखा युवा वर्ग अधिकतर शिष्टाचारी है उसे अपने सामने ऐसे अवसर दिखते है जिनमें वह आदर्श सामाजिक व्यवस्था में रहते हुए भी वह आगे बढ़ सकता है। आगे बढ़ने के लिये वह पीछे के द्वार, ’लाइन जम्पिंगऔर विशिष्ट देखभाल के शाटर्कट्स वह नहीं लेता। यह वर्ग देश और समाज के भविष्य के लिये चिंतित दिखता है और भ्रष्टाचार को निपटाने के लिये न केवल प्रयास परन्तु त्याग करने के लिये भी तत्पर है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के हाल ही में हुए आयोजनों से यह बात स्पष्ट होती है कि जब देश का शिष्टाचारी वर्ग आन्दोलित होगा तो छद्म शिष्टाचारियों का बड़ा हिस्सा उनके साथ आयेगा क्योंकि इन छद्म शिष्टाचारियों के मन में भी भ्रष्टाचार और अनाचार के प्रति विपरीत भाव है वे समाज की आदर्श व्यवस्थाओं और नैतिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं परन्तु उनका पालन करने का साहस नहीं कर पाते। मौका मिलने पर और विश्वसनीय नेतृत्व द्वारा प्रोत्साहित करने पर वे शिष्टाचार के संरक्षक बनकर ऊभर सकते है।

देश में अनेक अन्ना हजारे और बाबा रामदेव हैं। अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन ऐसे है जो केवल मात्र शिष्टाचार का ही संस्कार देते हैं। ऐसे संगठनों का प्रभाव भारतीय जीवन के हर पहलू पर पड़ रहा है। एक बड़ा कारण यह भी है कि भारत के नागरिक को सत्य, अहिंसा और नैतिकता का पाठ हजारों वर्षों से विरासत में मिला है। इसलिये भारत में ईमानदारी को श्रेष्ठ नीति नहीं माना गया है (ओनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी) परन्तु एक अनपढ़ ग्रामीण भारतीय को भी बचपन से ही बताया जाता है कि धर्म का पालन अनिवार्य है और धर्म के पालन के लिए सत्य का आचरण अनिवार्य है। जैसा कि 1974-75 में हुआ था एक बार फिर देश में छोटे-छोटे आन्दोलन उठेंगे और मिलकर एक विराट आन्दोलन बनेगा जो अभारतीय और अव्यवहारिक व्यवस्था को परिवर्तित करेगा। आवश्यकता वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था के रखवालों से बेहतर रणनीति बनाने की है। इसके लिये अनेक हजारे और अनेक रामदेव मिलकर प्रयास करेंगे। शिष्टाचारी समाज के हर सज्जन व्यक्ति को अन्ना और बाबा बनना पड़ेगा।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)

Saturday, June 18, 2011

"योगासन" नहीं "वोटासन"

"योगासन" नहीं "वोटासन"


-श्यामल सुमन


जब से कलम घिसने "सारी" - अब तो कहना होगा "की बोर्ड" घिसने का रोग लगा है, सबेरे ५ बजे उठ जाता हूँ। ठीक उसी समय "पत्नी- कृपा" से वो चैनल खुल जाता है जहाँ रामदेव बाबा योगासन की बात पूरे जोश में बता रहे होते हैं। टी०वी० को "फुल वाल्यूम" के साथ खोला जाता है ताकि वो दूसर कमरे में भी काम करें तो उन्हें सुनने में कोई कठिनाई न हो। आदरणीय रामदेव जी के प्रति उनकी भक्ति मेरे परिचतों के बीच सर्वविदित है। मुझे भी लाचारी में सुनना ही पड़ता है क्योंकि "आई हैव नो अदर च्वाईश एट आल"। वैसे मुझे भी बाबा रामदेव के प्रति कोई विकर्षण नहीं है।

मेरी पत्नी पान बहुत खाती है और बाबाजी प्रतिदिन इन बुराईयों से कोसों दूर रहने की ताकीद करते रहते हैं। पत्नी की "रामदेवीय भक्ति" से प्रभावित होकर बहुत विनम्रता मैंने उनसे पूछने का दुस्साहस किया कि जब बाबा पान, गुटखा आदि खाने से इतने जोर से मना करते हैं और आप इतने श्रद्धाभाव और प्रभावी (शोर करके) ढंग से उन्हें रोज सुनतीं हैं, फिर ये पान क्यों खातीं हैं? मेरे सौभाग्य से उन्हें उस दिन गुस्सा नहीं आया और उनके पास कोई जवाब भी नहीं था अपनी आदत की विवशता के अतिरक्त।

जिस तरह से एक चावल की जाँच से पूरी हाँडी में भात बनने या न बनने का पता चल जाता है, ठीक उसी तर्ज पर मैं क्या कोई भी सोचने पर विवश हो जायेगा कि बाबा की सभाओं में उनकी बातों को समर्थन करने वाले क्या ऐसे ही लोग अधिक हैं? जो पान, गुटखा, शराब, खैनी, कोल्ड ड्रींक्स आदि छोड़कर प्रतिदिन योगासन करने के वादे के साथ हाथ उठाकर रामदेव जी के आह्वान का प्रत्यक्षतः समर्थन तो करते हैं पर व्यवहार में नहीं।

फिर याद आती है विगत दिनों भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए उनके द्वारा चलाए गए "भारत स्वाभिमान आन्दोलन" तहत उनके हुंकार की। वही भीड़ और वही समर्थन (किंचित नकली) की जिसके दम पर उन्होंने रामलीला मैदान में अनशन के नाम पर हजारों की भीड़ इकट्ठा कर ली। फिर शासक वर्ग की मिमियाहट, बाद में रात में अचानक आक्रामक रूख की भी याद आती है जिसे "मीडिया" के सौजन्य से पूरे देश ने देखा और सुना। लोगों ने यह भी देखा सुना कि जो बाबा सबेरे में "राह कुर्बानियों की न वीरान हो - तुम सजाते ही रहना नये काफिले" जोर जोर से गा रहे थे, वही रात में जान बचाने के लिए मंच से कूदे और "स्त्री-वस्त्र" तक भी धारण करना पड़ा उन्हें। देखते ही देखते "राह कुर्बानियों" की एकाएक वीरान हो गयी। खैर----

शासकीय पक्ष के व्यवहार के क्या कहने? दिन में "पुष्प" से स्वागत औुर रात में "कटार" से वार। वाह क्या सीन था? "क्षणे रूष्टा - क्षणे तुष्टा"। क्या कहा जाय इस नाटकीय मोड़ को? शायद पाकिस्तानी तानाशाह भी इतनी जल्दी, वो भी एकदम विपरीत दिशा में, अपना विचार बदलने में शर्म महसूस करेंगे। एकाएक सत्ता पक्ष के लोगों को महाभारत के संजय की तरह "दिव्य दृष्टि" मिली और बाबा रामदेव "आदरणीय" से "महाठग" के रूप में अवतरित हो गए। सत्ता पक्ष ने "दिग्विजयी मुद्रा" में इसकी घोषणा भी शुरू कर दी और यह क्रम अब भी चल ही रहा है। पता नहीं कब तक चलेगा?

चाहे अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव - दोनों ने देश की नब्ज को पहचाना और ज्वलन्त मुद्दे भी उठाये जिसका कुल लब्बोलुआब भ्रष्टाचार ही रहा। पता नहीं "भ्रष्टाचार का मुद्दा" अब कहाँ चला गया? अब तो मुद्दा "सरकार बनाम रामदेव और अन्ना" के अहम् की टकराहट की ओर मुड़ गया है जो देश के स्वस्थ वातावरण के लिए किसी भी हाल में ठीक नहीं। गाँव की पान दुकान से लेकर दिल्ली तक जिसे देखो सब बहस में भिड़े हुए हैं। मजे की बात है कि सब भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं मगर भ्रष्टाचार अंगद के पाँव की तरह अडिग है।

जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत समझदारी है वर्तमान सरकार के वर्तमान रुख को मैं अंग्रेजी हुकूमत की "फोटोकापी" से कम नहीं देख पाता। जब हालात ऐसे हैं तब क्या गाँधीवादी कदम और क्या आध्यामिक योगासन? क्या सरकार पर कोई असर पड़ेगा? "सत्ता सुन्दरी" की आगोश में जकड़े ये मदहोश लोग क्या जानेंगे आम आदमी की पीड़ा और विवशता? वैसे भी वातानुकूलित कमरे में दुख कम दिखाई पड़ते होंगे। तो फिर सवाल उठता है कि क्या यूँ ही चुप रहा जाय? नहीं बिल्कुल नहीं। ये अंग्रेज भी नहीं हैं जो इन्हें मार-पीट के भगाया जा सके। फिर उपाय क्या है?

योगासन की दिशा में बाबा रामदेव के द्वारा किये गए कार्य को देश कभी नहीं भुला सकता। उन्होंने जन जागरण का जो काम किया है वह अतुलनीय है। लेकिन ये सत्ताधारी "गाँधीवाद" और "योग - आध्यात्म" की भाषा कहाँ समझ रहे हैं। ये तो सिर्फ "वोट" की भाषा समझते हैं और अन्ना और रामदेव के पास जबरदस्त जन-समर्थन भी है।

अतः बाबा जी आपने बहुत योगासन सिखाया और आगे भी सिखायें। लेकिन एक सलाह है कि उसके साथ साथ यहाँ की सीधी सादी जनता को "वोटासन" के "रहस्य" और "उपयोगिता"भी सिखायें ताकि इन बेलगाम सत्ताधीशों के होश अगले चुनाव तक ठिकाने आ जाए। वैसे मुझे यह भी मालूम है बाबा - मेरे जैसे कम "घास-पानी" वाले लोगों की बात पर कौन तबज्जो देगा। जय-हिन्द।

Thursday, June 9, 2011

अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि






हिंदी प्रेमी रुक्माजी अमर हैं




-डॉ. सी. जय शंकर बाबु







रुक्माजी राव ‘अमर’ दक्षिण भारत के अधिकांश हिंदी प्रेमियों के लिए सुपरिचित हैं । ‘रुक्माजी’, ‘अमरजी’, ‘रावजी’, ‘राव साहब’…. कितने ही नामों से उन्हें संबोधित करते हैं उनके हितैषी । दि.9 जून, 2011 की शाम हैदराबाद में रुक्माजी के आकस्मिक निधन की खबर से उनके तमाम हितैषी, पाठक, साहित्यकार, पत्रकार, मित्र व हिंदी प्रेमी अत्यंत दुखी हैं ।
दि.2.12.1926 को कर्नाटक के बल्लारी में रुक्माजी का जन्म हुआ था । ‘अमर’जी 1946 से मद्रास महानगर में हिंदी प्रचार कार्य में संलग्न रहे हैं । ये बहुमुखी प्रतिभा वाले साहित्यकार हैं । रंगमंच के अभिनय से लेकर निर्देशन में इनकी प्रतिभा उल्लेखनीय है । कवि, नाटककार एवं निबंधकार के रूप में रुक्माजी ने हिंदी साहित्य जगत को कई कृतियाँ समर्पित की हैं । इनकी काव्य कृतियों (कविता संकलन) में ‘नया सूरज’, ‘खुली खिड़कियों का सूरज’, ‘धड़कन’, ‘तन्हाई में’, ‘रोशनी में’, ‘केवल तुम्हारे लिए’ (गीत), ‘अपने अपने अलग शिखर’, ‘बहुतेरे’ (तमिल से हिंदी में अनुवाद), ‘अपने अपने सपने’, ‘यादों के सायें’, ‘कगार पर’, ‘मुस्कुराने दो चाँद को’, ‘कितने आकाश’, ‘प्यार का आलम’ (ग़ज़ल) आदि शामिल हैं । ‘चिंतन के क्षण’ एवं ‘चिंतन के पल’ इनके निबंध संग्रह हैं । इनके अलावा ‘आईने के सामने’ (व्यंग्य), ‘सुहाना सफर’ (बाल उपन्यास), ‘अनुभूतियों के दायरे’ (समीक्षा), ‘सुहाना सफर’ (बाल उपन्यास), ‘बादलों की ओट में’ (एकांकी संग्रह), ‘पर्वतों की परतें ’ (साक्षात्कार) आदि इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं । हिंदी प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में ये काफ़ी सक्रिय हैं । आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों से भी इनकी रचनाएँ प्रसारित हुई हैं । इनके साहित्य पर कुछ शोध कार्य भी संपन्न हुए हैं । इनके प्रदेयों पर इन्हें कई उल्लेखनीय सम्मान-पुरस्कार प्राप्त हुए हैं जिनमें उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, आचार्य आनंद ऋषि साहित्य निधि आदि द्वारा प्रदत्त पुरस्कार उल्लेखनीय हैं ।
रुक्माजी से मेरा परिचय लगभग दो दशक पुराना है । हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘युग मानस’ का संपादन व प्रकाशन गुंतकल (आंध्र प्रदेश) से आरंभ करने से पूर्व ही मैंने उनकी कई रचनाएँ पढ़ी थी । ‘युग मानस’ में समय-समय पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित करने का सौभाग्य मुझे मिला था । ‘युग मानस’ के अक्तूबर – दिसंबर, 1997 के अंक में उनका एक साक्षात्कार प्रकाशित किया था । डॉ. राजेंद्र परदेसी ने ‘युग मानस’ के लिए वह साक्षात्कार लिया था ।
रुक्माजी बहुभाषी थे । मराठी उनकी मातृभाषा थी । कन्नड प्रदेश बेल्लारी में जन्म लेने के कारण सहजतः कन्नड और तेलुगु मातृभाषावत बोल लेते थे । तमिल प्रदेश स्थाई निवास बनाने के कारण तमिल और मलयालम भी वे बोल लेते थे । हिंदी की पढ़ाई व तदनंतर हिंदी प्रचार आंदोलन से जुड़ जाने के कारण वे हिंदी के विशिष्ट विद्वान व साहित्यकार के रूप में विख्यात हुए । 1946 में गांधीजी जब चेन्नई में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में गए थे, तब उनके भाषणों से प्रेरित होकर रुक्माजी हिंदी प्रचार आंदोलन से जुड़ गए । कालांतर में काफ़ी समय तक वे हिंदी प्रचारक संघ, चेन्नई के अध्यक्ष के रूप में चेन्नई महानगर में हिंदी प्रचार-प्रसार में पूरी तन्मयता के साथ जुड़े रहे हैं । अध्यापक, कवि, नाटककार, मंच संचालक, बाल रचनाकार के रूप बहुआयामी प्रतिभा के धनी रुक्माजी ने अपने बचपन, पढ़ाई के दिन व जीवन के विभिन्न मोड़ों संबंध साक्षात्कार के दौरान इस प्रकार बताया है – “मेरा जन्म 2 दिसंबर 1926 में कौल बाजार, बल्लारी – कर्नाटक में हुआ । मेरे माता-पिता धर्मपरायण थे । मेरे पिता रईस और कपड़ा व्यापारी थे । वे भावसार क्षत्रिय समाज के कोषाध्यक्ष थे । नाथ पंथियों का हमारे यहाँ आगमन हुआ करता था । नाथपंथियों से बाबा मच्छेंद्रनाथ तथा गुरु गोरखनाथ इत्यादि की कथा-कहानियाँ बड़े चाव से सुना करता था । धार्मिक वातावरण के कारण मेरे हिय मे सेवा-सुश्रुषा व श्रद्धा-भक्ति का भाव उत्पन्न हुआ । प्रारंभ से मेरे मन में नाटक के प्रति रुझान व संगीत के प्रति अभिरुचि रही । प्रख्यात कन्नड़भाषी गुब्बी वीरण्णा एवं तेलुगुभाषी राघवाचारी (बल्लारी राघव के नाम से ख्यात) के पौराणिक तथा ऐतिहासिक नाटकों को देखने जाया करता था । शनै-शनै मेरे मन में अभिनय के प्रति चाह गहराने लगी । बाल कलाकार के रूप में अभिनय करने का अवसर भी उपलब्ध हुआ । आगे चलकर मेरे नाटक के दीवानेपन ने मद्रास जैसे हिंदी विरोधी माहौल में अनेक मित्र पैदा किए । मैं कुंदनलाल सहराल और पंकज मल्लिक के फिल्मी गाने गुनाया करता था यदा-कदा सभा-समारोहों में वंदेमातरण एवं प्रर्थना गीत के लिए आमंत्रित करता था । सन् 1937 में मद्रास राज्य में श्री राजगोपालाचारी (राजाजी) मुख्य मंत्री के प्रयत्न से स्कूलों में हिंदी अनिवार्य रूप से लागू हो गई । एक बार हिंदी प्रतियोगिता में मुझे बाल गंगाधर तिलक की जीवनी पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हुई । स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है पंक्ति ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया । आगे चलकर मेरी राष्ट्रीय भावनाओं को बल प्रदान किया । 9 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी सहित अनेक नेताओं की गिरफ्तारी का समाचार देश भर में बिजली की तहर फैल गया । मुनिसिपल हाईस्कूल के हम 15 छात्र तिरंगा झंडा और गांधीजी का चित्र लेकर नारे लगाते हुए शहर में घूमने लगे और जब हम लोगों ने टीपूसुल्तान के किल पर झंडा फहराया तो पुलीस ने हमें गिरफ्तार कर कारावास भेज दिया । यह मेरे जीवन का प्रथम मोड़ है । जिसने मुझे राष्ट्र की राजनैतिक गतिविधियों से परिचय कराया । मेरे जीवन का द्वितीय मोड़ और भी रोमांचक रहा । सन् 1946 में मैं राष्ट्रभाषा विशारद का छात्र था । दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा मद्रास के संस्थापक अध्यक्ष बापूजी सभा की रजत जयंती के सिलसिले में सम्मिलित होने हेतु मद्रास पधारे । उस समय स्वयं सेवक के रूप में बापूजी से भेंट हुई । उनके आदेश पर सक्रिय रूप से हिंदी प्रचार कार्य में संलग्न रहने का संकल्प लिया । सभा के प्रधान मंत्री मोटूरि सत्य नारायण एवं नगर संगठन श्री के. आर. विश्वनाथजी हिंदी नाटक को हिंदी प्रचार का सशक्त माध्यम मानते थे । उनके सहयोग व प्रोत्साहन से मद्रास महानगर के प्रेक्षागृहों में हिंदी नाटकों में अभिनय, निर्देशन-संगीत निर्देशन का अवसर उपलब्ध हुआ । मोटी तौर पर तब तक मैं गांधीजी के सिद्धांतों से प्रभावित हो गया था । मेरी पत्नी बंग्ला भाषी, मेरे बड़े जामाता तमिल भाषी, छोटा दामाद अनुसूचित जाति के तेलुगु भाषी व मेरी पुत्र वधू ईसाई है । परिवार में आपस में हम लोग हिंदी में ही वार्ताला करते हैं । मद्रास सरकार द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों को भेंट दी गई ज़मीन, पेंशन तथा केंद्र सरकार के पेंशन तथा मुफ़्त रेल यात्रा की सुविधा प्राप्त करने का प्रयास मैंने नहीं किया । मेरी दृष्टि में महान देश भक्त एवं बलिदानियों के त्याग के समक्ष यह तुच्छ त्याग महा सिंधु में बिंदु के समान है । इस का कुछ श्रेय मेरी श्रीमती को भी है ।”
रक्माजी 22 वर्ष की आयु से लगातार लिखते रहें । 85 वर्ष की आयु में निधन से एकाध माह पूर्व भी उनका एक कविता संकलन ‘दुःख में रहता हूँ मैं सुख की तरह’ नाम से प्रकाशित हुआ है । इससे स्पष्ट है, वे अपनी युवा वस्था से हिंदी अध्यपन, प्रचार-प्रसार व लेखन से जुड़े रहे । उनकी पहली रचना (एक गीत) हिंदी में मद्रास सरकार द्वा प्रकाशित द्वैमासिक पत्रिका दक्खिनी हिंदी के मार्च-अप्रैल, 1948 के अंक में प्रकाशित हुआ था । अगे चलकर लगातार वे कविताएं, एकांकी, बाल साहित्य, शोधपरक लेख आदि लिखते रहे । चेन्नई के प्रतिष्ठित मद्रास क्रिस्टियन कालेज में हिंदी पढ़ाते रहे हैं । उनके छात्र कई क्षेत्रों में विख्यात हुए हैं । जिनमें कई नामी चिकित्सक, सिनेमा अभिनेता व राजनेता भी हुए हैं । लगभग 55 वर्ष चेन्नई में हिंदी प्रचार कार्य में वे सक्रिय योगदान देते रहे हैं ।
‘युग मानस’ की ओर से 1999 में जब मैंने गुंतकल (आंध्र प्रदेश) एक सप्ताह का हिंदी रचनाकार शिविर का आयोजन किया था, तब शिविर के निदेशक की जिम्मेदारी मैंने रुक्माजी को सौंप दी थी । उन्होंने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभायी और शिविर के पश्चात अपने जन्मस्थान बल्लारी गए जहाँ उनके रिश्तेदार भी थे । चालीस साल बाद अपने जन्मस्थान जाने का अवसर शिविर के बहाने मिलाने का बयान उन्होंने उस समय दिया था ।
रुक्माजी चेन्नई में हिंदी प्रचार आंदोलन, लेखन, प्रकाशन व पत्रकारिता स्वयं जुड़े रहे और इस क्षेत्र से संबंधित कई संस्मरणों को निधि उनकी अनूठी संपत्ति थी । उनके देहांत से मद्रास हिंदी आंदोलन के इतिहास के एक महत्वपूर्ण सबूत को हिंदी जगत ने खो दिया है । कर्मठ अध्यपक व साहित्यकार के रूप में सामाजिक सेवा में सदा सक्रिय रुक्माजी का अंतिम दशक का जीवन कई समस्याओं से ग्रस्त था । परिवार के सदस्यों के साथ मन-मुठाव, स्वास्थ बिगड़ना आदि की वजह से वे काफ़ी चिंतित थे । इसके बावजूद दूर-दूर अपने मित्रों के यहाँ आया-जाया करते थे । मेरे व मेरे परिवार के सदस्यों के साथ रुक्माजी का आत्मीय संबंध रहा है । कोयंबत्तूर में मेरे कार्यकाल के दौरान दो बार लगभग दो-तीन सप्ताह मेरे यहाँ बिताए । विगत दो दशकों के दौरान लिखे मुझे लिखे गए उनके आत्मीय पत्र मेरे लिए बड़े दरोहर हैं । रुक्माजी सदा कई संस्मरणों के सच्चे प्रवक्ता के रूप में अपने मित्रों को सुनाया करते थे । उनसे मद्रास महानगर के हिंदी प्रचार, पत्रकारिता व साहित्यिक गतिविधियों के इतिहास के संबंध में कई संस्मरण मुझे सुनने का सौभाग्य मुझे मिला है ।
अपने छात्रों, मित्रों, पाठकों से सदा आत्मीयता के साथ संपर्क बनाए रखने वाले रुक्माजी के तमाम हितैषी उनके निधन के संबंध में विश्वास करने के तैयार नहीं है । यही उनके प्रति सबकी आत्मीयता है । हिंदी जगत कर्मठ हिंदी सेवी रुक्माजी के लिए ऋणी है । ‘अमर’ के नाम से वे लगभग छः दशक लेखन में सक्रिय रहे हैं । ‘अमर’ के नाम से लिखते रहे हैं और अपने पाठकों व हितैषियों के दिल में वे सदा अमर हैं ।

Tuesday, June 7, 2011

कविताएँ - कांच के टुकड़े


कांच के टुकडे


डॉ.बशीर/Dr.S.Basheer
प्रबंधक (राजभाषा)/Manager (OL)
हिन्‍दुस्‍तान पेट्रोलियम कार्पोरेशन/HPCL
दक्षिणांचल/South Zone


1. हम भरे बाजार में दिल में
दीप जलाकर बैठे हैं ।
जो चाहे तो, घर को रोशन कर लें
वर्ना घर को राख में बदल डाले

2. हमें अपने घावों पर ‘मरहम’
लगाने की फुर्सत नहीं,
चिराग बन जलते जा रहे हैं
हवा की कोशिश रही, हमें बुझा डाले
फिर भी तुम्‍हारे आंसू देखकर ‘मर हम’ गये ।


3. कितने गर्दिशों से मैंने अपने को बचा रखा था
तेरे सलूक ने हमें चक्रव्‍यूह में फंसा दिया ।
अब निकलने की बात कौन सोचें ......... !
मरने के तरीके ढूंढ रहे हैं ।


4. उनकी यादों में हम झूम झूम के
पागल से, देवदास बन गये
आंसू पी-पीकर थक कर सो गये
लड़खड़ाते चलते गये
हालात देख जमाना कहता है कि
लो फिर से पीकर आ गया है ।


5. आदमी रोते हुए पैदा होता
जिंदगी भर शिकायत करते जीता
दौड-धूप में खुद के आंसू पीता
पछताते हुए मर जाता ।


6. जिद की भी होती है कुछ हद
न होता जिसका कोई मकसद
अति हो तो जीवन होता बर्बाद ।
खामखाह होता जंगे-फसाद ।



7. प्‍यार एक सागर
जिसकी न कोई गहराई
जिंदगी एक ज़हर है
उसकी की न कोई रिहाई ।

8. कामयाबी का जल तेरी प्‍यास बुझाएगा
आज नहीं तो कल, नहीं कोई मुश्किल
अभी दूर नहीं तेरी मंजिल
आंधियां हैं बेशुमार तेरी राह पर,
मिलेंगे कई बुझ दिल
फिर भी आशा का आकाश दीप
तू जलाते रहना ।
आगे बढ़ते जाना
कारवा बनाते जाना ।

9. कामयाबी के लिए खुद करना मेहनत
खुदा तो सिर्फ कोरा कागज़ देता
खुद को उसमें रंगीन तस्‍वीर बनाना है
अपनी तकदीर को सज़ाना है ।



10. जहां में जमीन ज़ायदाद कमा लों
ऐशो आराम कर लो
मौज मस्‍ती मना लों ।
झूमो, नाचों, गावो, खाओ प्‍यारे ।
बस इतना याद करना
कबर में, सेफ लाकर नहीं होते ।


11. नज़रे बने तो नज़ारे बने
हुस्‍न बने तो दीवाने बने
बुतों के लिए बुत खाने बनें
प्‍यार करने वालों के लिए पागल खाने बने ।


12. तूफान में कस्‍ती को किनारे भी मिलते हैं ।
गर्दिशों को कई सितारे भी मिलते हैं ।
आंसूओं को सहारे भी मिलते हैं
दुनियां में सबसे प्‍यारी न्‍यारी यारी है जिंदगी ।
इससे भी खूब सूरत दिलदार मिलते हैं ।



13. हमेशा उसके होठों पर
मुस्‍कान की तितलियां नज़र आती रहीं
लोग समझ लेते हैं कि मस्‍तमौला है बिंदास है
लेकिन कितने लोगों से देखा है कि
पत्‍थर के सीने सभी चश्‍में निकलते है ।


14. मकसदे मिराज हो फिर भी
सबके साथ हाथों में हाथ,
कदम से कदम मिलाकर चल
शोहरत तेरे कदम चमेगी
मेंहदी तेरी जरूर रंग लायेगी
फूल सा खिल, तेरों से मिल
तेरी राह पर काटें है उन पर चलकर गुलाब खिलाना
कभी अपना मनोबल खोना
सदा आगे बढ़ते जाना ....... चलते जाना
जरूर अपने मकसदे-ए-मंजिल को पाना ।

कविता - मगर आँख में नीर है

मगर आँख में नीर है


-श्यामल सुमन


कंचन चमक शरीर है
मगर आँख में नीर है

जिसकी चाहत वही दूर में
कैसी यह तकदीर है

मिल न पाते मिलकर के भी
किया लाख तदबीर है

लोक लाज की मजबूती से
हाथों में जंजीर है

दिल की बातें कहना मुश्किल
परम्परा शमसीर है

प्रेम परस्पर न हो दिल में
व्यर्थ सभी तकरीर है

पी कर दर्द खुशी चेहरे पर
यही सुमन तस्वीर है

यह बेदिल दिल्ली का लोकतंत्र है देख लीजिए !










यह बेदिल दिल्ली का लोकतंत्र है देख लीजिए !







सत्याग्रह के दमन से नहीं खत्म होंगें सवाल



-संजय द्विवेदी















यह तय मानिए कि यह आखिरी संघर्ष है, इस बार अगर
समाज हारता है तो हमें एक लंबी गुलामी के लिए तैयार हो जाना चाहिए। यह गुलामी सिर्फ
आर्थिक नहीं होगी, भाषा की भी होगी, अभिव्यक्ति की होगी और सांस लेने की भी
होगी।












दिल्ली में बाबा रामदेव और उनके सहयोगियों के साथ जो कुछ हुआ, वही दरअसल हमारी राजसत्ताओं का असली चेहरा है। उन्हें सार्थक सवालों पर प्रतिरोध नहीं भाते। अहिंसा और सत्याग्रह को वे भुला चुके हैं। उनका आदर्श ओबामा का लोकतंत्र है जो हर विरोधी आवाज को सीमापार भी जाकर कुचल सकता है। दिल्ली की ये बेदिली आज की नहीं है। आजादी के बाद हम सबने ऐसे दृश्य अनेक बार देखे हैं। किंतु दिल्ली ऐसी ही है और उसके सुधरने की कोई राह फिलहाल नजर नहीं आती। कल्पना कीजिए जो सरकारें इतने कैमरों के सामने इतनी हिंसक, अमानवीय और बर्बर हो सकती हैं, वे बिना कैमरों वाले समय में कैसी रही होंगी। ऐसा लगता है कि आजादी, हमने अपने बर्बर राजनीतिक, प्रशासनिक तंत्र और प्रभु वर्गों के लिए पायी है। आप देखें कि बाबा रामदेव जब तक योग सिखाते और दवाईयां बेचते और संपत्तियां खड़ी करते रहे, उनसे किसी को परेशानी नहीं हुयी। बल्कि ऐसे बाबा और प्रवचनकार जो हमारे समय के सवालों से मुठभेड़ करने के बजाए योग, तप, दान, प्रवचन में जनता को उलझाए रखते हैं- सत्ताओं को बहुत भाते हैं। देश के ऐसे मायावी संतों, प्रवचनकारों से राजनेताओं और प्रभुवर्गों की गलबहियां हम रोज देखते हैं। आप देखें तो पिछले दस सालों में किसी दिग्विजय सिंह को बाबा रामदेव से कोई परेशानी नहीं हुयी और अब वही उन्हें ठग कह रहे हैं। वे ठग तब भी रहे होंगें जब चार मंत्री दिल्ली में उनकी आगवानी कर रहे थे। किंतु सत्ता आपसे तब तक सहज रहती है, जब तक आप उसके मानकों पर खरें हों और वह आपका इस्तेमाल कर सकती हो।
सत्ताओं को नहीं भाते कठिन सवाल :
निश्चित ही बाबा रामदेव जो सवाल उठा रहे हैं वे कठिन सवाल हैं। हमारी सत्ताओं और प्रभु वर्गों को ये सवाल नहीं भाते। दिल्ली के भद्रलोक में यह गंवार, अंग्रेजी न जानने वाला गेरूआ वस्त्र धारी कहां से आ गया? इसलिए दिल्ली पुलिस को बाबा का आगे से दिल्ली आना पसंद नहीं है। उनके समर्थकों को ऐसा सबक सिखाओ कि वे दिल्ली का रास्ता भूल जाएं। किंतु ध्यान रहे यह लोकतंत्र है। यहां जनता के पास पल-पल का हिसाब है। यह साधारण नहीं है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को नजरंदाज कर पाना उस मीडिया के लिए भी मुश्किल नजर आया, जो लाफ्टर शो और वीआईपीज की हरकतें दिखाकर आनंदित होता रहता है। बाबा रामदेव के सवाल दरअसल देश के जनमानस में अरसे से गूंजते हुए सवाल हैं। ये सवाल असुविधाजनक भी हैं। क्योंकि वे भाषा का भी सवाल उठा रहे हैं। हिंदी और स्थानीय भाषाओं को महत्व देने की बात कर रहे हैं। जबकि हमारी सरकार का ताजा फैसला लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सर्विसेज की परीक्षा में अंग्रेजी का पर्चा अनिवार्य करने का है। यानि भारतीय भाषाओं के जानकारों के लिए आईएएस बनने का रास्ता बंद करने की तैयारी है। ऐसे कठिन समय में बाबा दिल्ली आते हैं। सरकार हिल जाती है क्योंकि सरकार के मन में कहीं न कहीं एक अज्ञात भय है। यह असुरक्षा ही कपिल सिब्बल से वह पत्र लीक करवाती है ताकि बाबा की विश्वसनीयता खंडित हो। उन पर अविश्वास हो। क्योंकि राजनेताओं को विश्वसनीयता के मामले में रामदेव और अन्ना हजारे मीलों पीछे छोड़ चुके हैं। आप याद करें इसी तरह की विश्वसनीयता खराब करने की कोशिश में सरकार से जुड़े कुछ लोग शांति भूषण के पीछे पड़ गए थे। संतोष हेगड़े पर सवाल खड़े किए गए, क्योंकि उन्हें अन्ना जैसे निर्दोष व्यक्ति में कुछ ढूंढने से भी नहीं मिला। लेकिन निशाने पर तो अन्ना और उनकी विश्वसनीयता ही थी। शायद इसीलिए अन्ना हजारे ने सत्याग्रह शुरू करने से पहले रामदेव को सचेत किया था कि सरकार बहुत धोखेबाज है उससे बचकर रहना। काश रामदेव इस सलाह में छिपी हुयी चेतावनी को ठीक से समझ पाते तो उनके सहयोगी बालकृष्ण होटल में मंत्रियों के कहने पर वह पत्र देकर नहीं आते। जिस पत्र के सहारे बाबा रामदेव की तपस्या भंग करने की कोशिश कपिल सिब्बल ने प्रेस कांफ्रेस में की।
बिगड़ रहा है कांग्रेस का चेहरा :
बाबा रामदेव के सत्याग्रह आंदोलन को दिल्ली पुलिस ने जिस तरह कुचला उसकी कोई भी आर्दश लोकतंत्र इजाजत नहीं देता। लोकतंत्र में शांतिपूर्ण प्रदर्शन और धरना देने की सबको आजादी है। दिल्ली में जुटे सत्याग्रहियों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था कि उन पर इस तरह आधी रात में लाठियां बरसाई जाती या आँसू गैस के गोले छोड़ जाते। किंतु सरकारों का अपना चिंतन होता है। वे अपने तरीके से काम करती हैं। यह कहने में कोई हिचक नहीं कि इस बर्बर कार्रवाई से केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी प्रतिष्ठा गिरी है। एक तरफ सरकार के मंत्री लगातार बाबा रामदेव से चर्चा करते हैं और एक बिंदु पर सहमति भी बन जाती है। संभव था कि सारा कुछ आसानी से निपट जाता किंतु ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी कि सरकार को यह दमनात्मक रवैया अपनाना पड़ा। इससे बाबा रामदेव का कुछ नुकसान हुआ यह सोचना गलत है। कांग्रेस ने जरूर अपना जनविरोधी और भ्रष्टाचार समर्थक चेहरा बना लिया है। क्योंकि आम जनता बड़ी बातें और अंदरखाने की राजनीति नहीं समझती। उसे सिर्फ इतना पता है कि बाबा भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं और यह सरकार को पसंद नहीं है। इसलिए उसने ऐसी दमनात्मक कार्रवाई की। जाहिर तौर पर इस प्रकार का संदेश कहीं से भी कांग्रेस के लिए शुभ नहीं है। बाबा रामदेव जो सवाल उठा रहे हैं, उसको लेकर उन्होंने एक लंबी तैयारी की है। पूरे देश में सतत प्रवास करते हुए और अपने योग शिविरों के माध्यम से उन्होंने लगातार इस विषय को जनता के सामने रखा है। इसके चलते यह विषय जनमन के बीच चर्चित हो चुका है। भ्रष्टाचार का विषय आज एक केंद्रीय विषय बन चुका है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसे दो नायकों ने इस सवाल को आज जन-जन का विषय बना दिया है। आम जनता स्वयं बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। राजनीतिक दलों और राजनेताओं से उसे घोर निराशा है। ऐसे कठिन समय में जनता को यह लगने लगा है कि हमारा जनतंत्र बेमानी हो चुका है। यह स्थिति खतरनाक है। क्योंकि यह जनतंत्र, हमारे आजादी के सिपाहियों ने बहुत संघर्ष से अर्जित किया है। उसके प्रति अविश्वास पैदा होना या जनता के मन में निराशा की भावनाएं पैदा होना बहुत खतरनाक है।
अन्ना या रामदेव के पास खोने को क्या है :
बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसी आवाजों को दबाकर हम अपने लोकतंत्र का ही गला घोंट रहे हैं। आज जनतंत्र और उसके मूल्यों को बचाना बहुत जरूरी है। जनता के विश्वास और दरकते भरोसे को बचाना बहुत जरूरी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारे राजनीतिक दल अगर ईमानदार प्रयास कर रहे होते तो ऐसे आंदोलनों की आवश्यक्ता भी क्या थी? सरकार कुछ भी सोचे किंतु आज अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जनता के सामने एक आशा की किरण बनकर उभरे हैं। इन नायकों की हार दरअसल देश के आम आदमी की हार होगी। केंद्र की सरकार को ईमानदार प्रयास करते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करते हुए दिखना होगा। क्योंकि जनतंत्र में जनविश्वास से ही सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। यह बात बहुत साफ है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के पास खोने के लिए कुछ नहीं हैं, क्योंकि वे किसी भी रूप में सत्ता में नहीं हैं। जबकि कांग्रेस के पास एक सत्ता है और उसकी परीक्षा जनता की अदालत में होनी तय है, क्या ऐसे प्रसंगों से कांग्रेस जनता का भरोसा नहीं खो रही है, यह एक लाख टके का सवाल है। आज भले ही केंद्र की सरकार दिल्ली में रामलीला मैदान की सफाई करके खुद को महावीर साबित कर ले किंतु यह आंदोलन और उससे उठे सवाल खत्म नहीं होते। वे अब जनता के बीच हैं। देश में बहस चल पड़ी है और इससे उठने वाली आंच में सरकार को असहजता जरूर महसूस होगी। केंद्र की सरकार को यह समझना होगा कि चाहे-अनचाहे उसने अपना चेहरा ऐसा बना लिया है जैसे वह भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी संरक्षक हो। क्योंकि एक शांतिपूर्ण प्रतिरोध को भी अगर हमारी सत्ताएं नहीं सह पा रही हैं तो सवाल यह भी उठता क्या उन्हें हिंसा की ही भाषा समझ में आती है ? दिल्ली में अलीशाह गिलानी और अरूँधती राय जैसी देशतोड़क ताकतों के भारतविरोधी बयानों पर जिस दिल्ली पुलिस और गृहमंत्रालय के हाथ एक मामला दर्ज करने में कांपते हों, जो अफजल गुरू की फांसी की फाईलों को महीनों दबाकर रखती हो और आतंकियों व अतिवादियों से हर तरह के समझौतों को आतुर हो, यहां तक कि वह देशतोड़क नक्सलियों से भी संवाद को तैयार हो- वही सरकार एक अहिंसक समूह के प्रति कितना बर्बर व्यवहार करती है।
बाबा रामदेव इस मुकाम पर हारे नहीं हैं, उन्होंने इस आंदोलन के बहाने हमारी सत्ताओं के एक जनविरोधी और दमनकारी चेहरे को सामने रख दिया है। सत्ताएं ऐसी ही होती हैं और इसलिए समाज को एकजुट होकर एक सामाजिक दंडशक्ति के रूप में काम करना होगा। यह तय मानिए कि यह आखिरी संघर्ष है, इस बार अगर समाज हारता है तो हमें एक लंबी गुलामी के लिए तैयार हो जाना चाहिए। यह गुलामी सिर्फ आर्थिक नहीं होगी, भाषा की भी होगी, अभिव्यक्ति की होगी और सांस लेने की भी होगी। रामदेव के सामने भी रास्ता बहुत सहज नहीं है,क्योंकि वे अन्ना हजारे नहीं हैं। सरकार हर तरह से उनके अभियान और उनके संस्थानों को कुचलने की कोशिश करेगी। क्योंकि बदला लेना सत्ता का चरित्र होता है। इस खतरे के बावजूद अगर वे अपनी सच्चाई के साथ खड़े रहते हैं तो देश की जनता उनके साथ खड़ी रहेगी, इसमें संदेह नहीं है। बाबा रामदेव ने अपनी संवाद और संचार की शैली से लोगों को प्रभावित किया है। खासकर हिंदुस्तान के मध्यवर्ग में उनको लेकर दीवानगी है और अब इस दीवानगी को, योग से हठयोग की ओर ले जाकर उन्होंने एक नया रास्ता पकड़ा है। यह रास्ता कठिन भी है और उनकी असली परीक्षा दरअसल इसी मार्ग पर होनी हैं। देखना है कि बाबा इस कंटकाकीर्ण मार्ग पर अपने साथ कितने लोगों को चला पाते हैं ?







(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

श्यामल सुमन की दो कविताएँ


श्यामल सुमन की दो कविताएँ

सम्वेदना ये कैसी?

सब जानते प्रभु तो है प्रार्थना ये कैसी?
किस्मत की बात सच तो नित साधना ये कैसी?

जितनी भी प्रार्थनाएं इक माँग-पत्र जैसा
यदि फर्ज को निभाते फिर वन्दना ये कैसी?

हम हैं तभी तो तुम हो रौनक तुम्हारे दर पे
चढ़ते हैं क्यों चढ़ावा नित कामना ये कैसी?

होती जहाँ पे पूजा हैं मैकदे भी रौशन
दोनों में इक सही तो अवमानना ये कैसी?

मरते हैं भूखे कितने कोई खा के मर रहा है
सब कुछ तुम्हारे वश में सम्वेदना ये कैसी?

बाजार और प्रभु का दरबार एक जैसा
बस खेल मुनाफे का दुर्भावना ये कैसी?

जहाँ प्रेम हो परस्पर क्यों डर से होती पूजा
संवाद सुमन उनसे सम्भावना ये कैसी?

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रीति बहुत विपरीत

जीवन में नित सीखते नव-जीवन की बात।
प्रेम कलह के द्वंद में समय कटे दिन रात।।

चूल्हा-चौका संग में और हजारो काम।
इस कारण डरते पति शायद उम्र तमाम।।

झाड़ु, कलछू, बेलना, आलू और कटार।
सहयोगी नित काज में और कभी हथियार।।

जो ज्ञानी व्यवहार में करते बाहर प्रीत।
घर में अभिनय प्रीत के रीति बहुत विपरीत।।

बाहर से आकर पति देख थके घर-काज।
क्या करते, कैसे कहे सुमन आँख में लाज।।
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Sunday, June 5, 2011

माखनलाल पत्रकारिता विवि में प्रवेश हेतु आवेदन की अंतिम तिथि आज


भोपाल,4 जून,2011। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में शैक्षणिक सत्र 2011-12 में संचालित होने वाले विभिन्न पाठ्यक्रमों के लिए प्रवेश हेतु आवेदन करने की अंतिम तिथि 5 जून,2011 है। अंतिम तिथि रविवार को होने के बावजूद भी विश्वविद्यालय के भोपाल में एमपी नगर स्थित परिसर में आवेदन पत्र प्रातः 9 बजे से सायं 6 बजे तक स्वीकार किए जाएंगें। साथ ही विश्वविद्यालय के खंडवा और नोयडा परिसरों में भी यह व्यवस्था की गयी है। आवेदक आवेदन शुल्क नकद जमा कर विवरणिका एवं आवेदन पत्र प्राप्त कर सकते हैं। प्रवेश परीक्षा 12 जून,2011 को आयोजित होगी। विश्वविद्यालय द्वारा मीडिया मैनेजमेंट, विज्ञापन एवं विपणन संचार, मनोरंजन संचार, कॉर्पोरेट संचार तथा विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी संचार में एम.बी.ए. पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। 2 वर्षीय स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के अंतर्गत एम.जे. (पत्रकारिता स्नातकोत्तर), एम.ए.-विज्ञापन एवं जनसंपर्क, एम.ए.-जनसंचार, एम.ए.-प्रसारण पत्रकारिता, एम.एससी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं । तीन वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रमों के अंतर्गत बी.ए.-जनसंचार, बी.एससी.- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, बी.एससी.-ग्राफिक्स एवं एनीमेशन, बी.एससी.-मल्टीमीडिया तथा बी.सी.ए. पाठ्यक्रम संचालित हैं। एक वर्षीय पाठ्यक्रम के अंतर्गत विडियो प्रोडक्शन, वेब संचार, पर्यावरण संचार, योगिक स्वास्थ्य प्रबंधन एवं अध्यात्मिक संचार तथा भारतीय संचार परंपराएँ तथा पीजीडीसीए जैसे स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त एमसीए तथा बी.लिब. पाठ्यक्रम भी चल रहे हैं। मीडिया अध्ययन में एम.फिल. तथा संचार, जनसंचार, कंप्यूटर विज्ञान तथा पुस्तकालय विज्ञान में पीएच.डी. हेतु आवेदन आमंत्रित किये गए हैं। यह प्रवेश प्रक्रिया विश्वविद्यालय के भोपाल, नॉएडा एवं खंडवा स्थित परिसरों के लिए है। प्रवेश हेतु प्रवेश परीक्षा का आयोजन 12 जून 2011 को भोपाल, कोलकाता जयपुर, पटना, रांची, लखनऊ, खंडवा तथा दिल्ली/नोएडा केन्द्रों पर किया जायेगा। अधिक जानकारी विवरणिका और आवेदन पत्र हेतु दिनांक 16-22 अप्रैल 2011 के “रोजगार समाचार” तथा “एम्प्लोयेमेंट न्यूज़” एवं दिनांक 18-24 अप्रैल 2011 के “रोजगार और निर्माण” में प्रकाशित विज्ञापन देखें अथवा विश्वविद्यालय की वेबसाइट www.mcu.ac.in पर लागऑन करें या किसी भी परिसर में पधारें अथवा फोन करें 0755-2553523 (भोपाल), 0120-4260640 (नोएडा), 0733-2248895 (खंडवा)।विश्वविद्यालय के सभी पाठ्यक्रम रोजगारोन्मुखी हैं एवं मीडिया के क्षेत्र में रोजगार के बेहतर अवसर उपलब्ध कराते हैं।

(पुष्पेंद्रपाल सिंह)
निदेशकः जनसंपर्क,
मोबाइलः 9425543499