Saturday, June 4, 2016

स्त्री के बदलते चेहरे –- प्रभाखेतान का उपन्यास ‘अपने - अपने चेहरे’ के संदर्भ में

आलेख
स्त्री के बदलते चेहरे - प्रभाखेतान का उपन्यास अपने - अपने चेहरेके संदर्भ में

-          सिजी सी.जी.

आज नारी सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक दायरों की जकड़ से निकलकर स्वतंत्र अस्तित्व को परिभाषित करने में सल हुई है। स्त्री शक्ति का पर्याय है। महज उसे अपने आप को समझने की देरी है। पुरुष तो उसे सिर्फ भोग्य मानता है। असल में वह हर समाज, घर परिवार के लिए भाग्य है। एक ऐसा भाग्य जिसमें उज्ज्वल भविष्य एवं उत्कृष्ट कल की संभावना है। पुरुष भी इससे परिचित है कि उसका घर, परिवार सबकुछ स्त्री के हाथों सुरक्षित है, फिर भी स्त्री के निस्वार्थ प्रेम एवं त्याग को नज़र अन्दाज़ करना ही उसे पसन्द है। यह सब कुछ उसका कर्तव्य माना जाता है। जब कभी वह उस घेरे से निकलने की कोशिश की है तब कभी उसे अपमानित एवं आरोपित होना पड़ा है। पुरानी स्त्री को पुरुषसत्तात्मक नियम मंज़ूर थी। वह परिवार की खुशी की खातिर अपनी खुशियाँ, इच्छाएँ, स्वास्थ्य सब त्यागने में उत्सुक थी। बदले में उसे कुछ नहीं मिलता। हृदय है, मस्तिष्क है, सोचविचार कर भी सकती है फिर भी मशीन को तरह जीने के लिए मज़बूर। ऐसी बदतर जिन्दगी से, वाहियात भरी जिन्दगी से स्त्री को छुटकारा पाना है। उनकी भी अपनी ख्वाबों भरी, ख्वाहिशों भरी दुनिया है। उसे सहेजने में उसे आज़ादी देनी है। स्त्री अपने आप में पूर्ण है। मगर स्त्री बिना पुरुष का कोई अस्तित्व ही नहीं। इस पुरुष प्रधान समाज ने उसे स्त्री को बिना जीने की शिक्षण नहीं दिया है। हर वक्त उसकी ज़रूरतो की पूर्ति के लिए वह स्त्री की मदद माँगते है। अब वह घर के काम के लिए महज स्त्री की बाट नहीं जोह सकते, उस पर भी उसको आत्मनिर्भर होना है, जिसप्रकार स्त्री घर के बाहर अपनी स्थिति जमाई है उसप्रकार पुरुष को घरेलू कामों में पारंगत होना है।
प्रभाखेतान के शब्दों में विवाह एक ओवर डेट्ड संस्थाहै। आज की नारी या आनेवालीच पीठी में इसका उतना महत्व नहीं रहेगा। स्त्री जितनी आत्मानिर्भर एंव अधिकार संपन्न होगी उतना ही वह विवाह की जंजीरो से मुक्ति चाहेगी। घर संभालना, बच्चें का पालन-पोषण, पैसा कमाना सब में सक्षम है तो उसके जीवन में पुरुष की भूमिका गौण होती जाएगी ही। अब स्त्री, पुरुष में, एक साथ, दोस्त ढूँढेंगी वैवाहिक जीवन में पति का शासन नहीं स्वीकारेगी। पुरुष के दर्प और अधिकार मनोभाव अब आत्मनिर्भर स्त्री सहने के लिए तैयार नहीं। उसके मालिकाना व्यवहार से उत्पीड़ित एंव त्रसित जिन्दगी स्त्री को मंज़ूर नहीं। पति-पत्नी के बीच में प्रेम नहीं, निकटता नहीं तो एक छत के नीचे समझौता भरी जिन्दगी जीने से कोई प्रयोजन नहीं।
समकालीन विलक्षण प्रतिभा प्रभाखेतान की अधूरी आत्मकथा का अंश है अपने अपने चेहरे, एक अविवाहिता किन्तु एक विवाहित पुरुष से आजीवन प्रेम करनेवाली स्त्री के विद्रोह की गाथा है। यह प्रभाजी का घनी मारवाड़ी व्यावसायिक जगत् के आंतरिक जीवन का यथार्थ चित्रण करनेवाला श्रेष्ठ उपन्यास है। रमा और राजेन्द्र गोयनका के बीच अठारह साल का अंतराल है। वह रमा को एक दोस्त की दर्जा ही दे पाता है। समाज से डरकर वह न ही रमा से शादी करता है न उसे मान - सम्मान। समाज बिना सिन्दूर के औरत - मर्द का हर शिश्ता नापाक एंव गलत मानते है। समाज की स्वीकृति के लिए मांग में सिन्दूर भरना ज़रूरी है। रमा, गोयनका परिवार के लिए पूर्ण आहुति देती है। बाप-बेटे, पतिपत्नी, माँ बेटी सभी शिश्तों के बीच के अंतराल को मिटाने में वह कार्यरत रहती है। इसके कथानक को पढ़कर हेमा जायस्वाल कहती है कि यह उपन्यास एक अमीर परिवार में होनेवाली समस्याओ को दर्शात है, ऐसा लगता है, मानो प्रभाजी ने हमारी कहानी लिख मारी हो’’1 इस उपन्यास में प्रभाजी ने स्त्री की नियति को एक दूसरे पहलु में परिभाषित किया है। हर स्त्री के अन्दर एक दबी चीख है, उसको प्रत्यक्ष लाने प्रभाजी सफल हुए है। रमा चुटकी भर सिन्दूर में विश्वास नहीं रखती। माँग में सिन्दूर और बीच में प्यार नहीं तो ऐसे रिश्ते निभाना बहुत दर्दनाक होगा। रमा अपने दूसरी औरत की संज्ञा को नकारती है। उसके मन मे वह पहली औरत ही है। स्त्री का अस्तित्व पुरुष में नहीं, उसकी अपनी सार्थकता है। रमापात्र द्वारा प्रभाजी यह बताने की कोशिश की है कि विवाह, पति, बच्चे से हटकर भी स्त्री का अस्तित्व है। रमा एक निष्ठ होकर अपना सारा दायित्व निभाती है। चाहे समाज की नज़रों में वह दूसरी औरत है। वह अपने आप को पहला दर्जा देती है। कभी-कभी सामाजिक रूढ़ियों से उत्पीड़ित, हारती, टूटती है। मगर वह कभी अपने प्रेम को नहीं छोड़ती। अपने आत्म-सम्मान पर जब भी ठेस पहूँचा तब वह अपना विद्रोह भरी वाणी सुनाई। रमा अपने प्यार के खातिर घरपरिवार सब छोड़ने की हिम्मत जुटती है। अलग-अलग रहकर मिस्टर गोयनका के बच्चों को और घर को संभालती है। यहाँ बाईस साल की रमा, घर एंव समाज के सामने अपना विद्रोह भरा रूप लेकर खड़ी नज़र आती है। वह सेचती है वह प्यार तो एक बार करती है, बस एक बार। एक ही पुरुष से। कभी शादी से पहले, कभी शादी के बाद, इसके बाद तो वह अपने आप को झेलना सीखती है2
प्रभाजी ने इसमें दूसरी औरत को मिलनेवाले, दूसरे दर्र्जे से उत्पन्न विद्रोह का चित्रण किया है। यहाँ प्रभाजी स्त्री की प्रतिरोधी स्वरूप को उजागर करने की कोशिश की है। रमा मिस्टर गोयनका का पूरा व्यापार संभालती है। व्यावसायिक जगत में अपना एक स्थान भी हासिल करती है। उसे मालूम है समाज मे अपनी मर्ज़ी चलाने के लिए सबसे पहले आर्थिक निर्भरता की ज़रूरी है। वह कभी भी अपने हिस्से की पैसा मिस्टर गोयनका से मांगती नहीं। अपनी पूरी कमाई उस परिवार की खुशी के खातिर गंवाती है। पत्नी से परे है यहाँ रमा का स्थान। इन दोनों के रिश्ते में प्यार है, जस्पात है, विश्वास भी है। शायद विवाह के बन्धन में भी सब को यह नहीं मिलता उसका निस्वार्थ प्यार देखकर स्वंय मिस्टर गोयनका की पत्नी भी उस पर तरसती है और पति से कहती है हिम्मत तो आपकी नहीं है कि, सीधे समाज का सामना करें। कमज़ोर तो आप है, उससे शादी क्यों नहीं कर लेते? पर अपको हिम्मत होनी चाहिए हाँ मैं तलाकतलाक नहीं देने की। राजा पांडू की दो पत्नियाँ कुंति और माद्री कैसे मिलकर रहती थी।3 यहाँ सरला भी रमा के समर्पण पर भावुक हो जाती है। डॅा. अमर ज्योति लिखती है कि अपने-अपने चेहरे में रमा को सहपत्नी का स्थान प्राप्त है। जो विवाह संस्था को नकारते हुए भी अपना कर्तव्य निभाती है4 रमा हर बुरे समय और संकट में मिस्टर गोयनका और उसके परिवार के साथ दे कर, धन या अधिकार की मांग न कर, सच्चा प्यार प्रकट करती है।
प्रभाजी यहाँ रमा के माध्यम से यह दर्शाती है कि आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी, स्वावलंबी आर्थिक निर्भर स्त्री को अपने मन मर्ज़ी से जीने का अधिकार है। दकियानूसी, परंपरावादी रूढ़ीवादी सामजिक सभ्यता उसे ठेस नहीं पहूँचा सकती। उसका स्थान निचले पायदान में नहीं बल्कि प्रतिष्ठित ऊँचे स्तर पर होना चाहिए। मोम की तरह खुद पिघलकर दूसरों को जिलने में खुश होने की नियति को उसे नकारना है। समाज ने नैतिकता के दोहरे मानदण्ड सिर्फ स्त्री के लिए गढ़ा गया है। रमापात्र पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था पर प्रहार करती है। इस व्यवस्था में स्त्री के विरुद्ध एंव पक्ष में लड़नेवाले एंव सज़ा देनेवाला पुरुष है। यहाँ वह इस व्यवस्था के प्रति अपना प्रतिरोधीस्वर सुनाती है। रमा, पूरी शक्ति समेट कर इस व्यवस्था के विरुद्ध खड़ी नज़र आती है। एक मज़बूत, ताकतवार आत्मनिर्भर, स्वावलंबी स्त्री बनकर इस व्यवस्था के विरुद्ध लड़ने की ताकत जुट पायी है। वह विवाह संस्था को नकार कर, दूसरी नहीं, पहली स्त्री बनकर, अपने चेहरे के साथ सभ कर्तव्य निभाकर स्वाभिमानी बनकर खड़ी नज़र आती है। वह कहती है जिस संबन्ध का कोई नाम नहीं, उस संभंध को समाज में ले आने से फायदा? मेरी अलग आइडेंटिटी रहने दीजिए।5
सारत: प्रभाजी ने इस उपन्यास मे दूसरी औरत की अन्तर्द्वद्व, पीड़ा से ग्रसित नारी की, मगर उससे हार कर नहीं, विद्रोह कर अपनी एक स्वतंत्र अलग दुनिया खड़ा करती है। उस पायदान में खड़ी होकर वह अपनी अस्तित्व एंव अस्मिता की रक्षा करने में सफल होती है। पुरुष समाज के विरूद्द आवाज़ उठाकर अपनी एक पहचान बनाती है। प्रभाजी के शब्दों में मेरी समझ में सती का अर्थ है शक्ति। ऐसी शक्ति जो नया विकल्प, नयी व्यवस्था, नया सच बनाने की क्षमता रखती हो। सती का अर्थ एक पुरुष की होकर रहना नहीं बल्कि वास्तविक सति तो जो आरोपित सचों को उठाकर फेंकने की क्षमता रखती हो।6
समकालीन परिवेश की नारी को अनेक वैयक्तिक समस्याओं से उत्पीड़ित होना पड़ता है। आधुनातन युग के परिवर्तित परिवेश में पली नारी के जीवन में भी नविनता तथा व्यावहारिकता का प्रभाव पड़ता है। इस द्वद्व भरी युग में जीती उत्पीड़ित स्त्री महज संवेदनशील ही नहीं बल्कि व्यावहारिक तथा अपने को पुरुष के समकक्ष बनाने में सफ़ल है। विद्रोही स्त्री को कठिन से कठिन, बदत्तर परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। ऐसी जिल्लत भरी जिन्दगी से लड़ते-लड़ते स्त्री सशक्त एंव दबंग बनती गयी। उनका व्यक्तित्व भी सशाक्त होती गयी। स्त्री को अपने को दोयम दर्ज से पहले दर्जे पर खड़ी करनी है। उसे अपनी दोगली जिन्दगी को नकारना है। जिस-जिस खुशियों से उसे वंचित रहना पड़ा वह सब उसे हृदयंगम करना है। हर स्त्री को अपने खुद का चेहरा लेकर जीना है। उसे मुखौटे की ज़रूरत नहीं। जहाँ वह अपना अस्तित्व एंव अस्मिता को अपनी मरजी के हिसाब रख सकती है वहाँ वह सुरक्षित एंव कामयाब रहेगी। ऐसे एक समाज की परिकल्पना करनी है जहाँ स्त्री स्वेच्छा से, अपने सोच-विचार से व्यावहारिक दुनिया में कदम बढ़ा सके। वहाँ उसका स्थान वस्तु नहीं व्यक्ति मानते है। कुण्ठा ग्रस्त, पीड़ित, दबित, दमित जिन्दगी की तहत से परे मानित, सम्मानित, स्वतन्त्र विहरित दुनिया प्राप्त हो। प्रभाजी की हर नायिका स्त्री जाति के लिए प्रेरणादायक रही है। हमेशा उनकी दृष्टि स्त्री की हर समस्याओं के समाधान में रही है। प्राभाजी स्त्री के सामने एक प्रतिष्ठित दुनिया स्थापित करना चाहती थी। उसमें वे सफल एवं साकार भी हुई है।
संदर्भ सूचि
1. अपने अपने चेहरे फलैप से
2. अपने अपने चेहरे –– डॉ. प्रभाखेतान
3. अपने अपने चेहरे –– डॉ. प्रभाखेतान –– पृ.सं.45
4. हिन्दी महिला उपन्यासकार और नारीवादी दृष्टि –– डॉ. अमर ज्योति –– पृ.सं.67
5. अपने अपने चेहरे –– डॉ. प्रभाखेतान –– पृ.सं.65
6. महिला उपन्यासकार –– डॉ. मधुसिंधु –– पृ.सं.70
सहायक ग्रन्थ
1. अपने अपने चेहरे –– प्रभाखेतान
2. प्रभाखेतान के सहित्य मे नारी विमर्श –– डॉ. कामिनी तिवारी
3. प्रभाखेतान के औपन्यासिक संसार –– डॉ. उषाकीर्ति राणावत
4. हिन्दी उपन्यास का इतिहास –– प्रो. गोपालराय
5. प्रभाखेतान के उपन्यासों में नारी –– डॉ. अशोक मराठे
6. समकालीन महिला हिन्दी उपन्यासकारों के उपन्यासों में नारी जीवन –– डॉ. लताकुमारी के

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सिजी सी.जी. (शोधार्थी) कर्पगम विश्वविद्यालय कोयम्बत्तूर तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावति अम्मा (हिन्दी विभाग) के निर्देशन में शोधरत है।

Thursday, June 2, 2016

‘दिव्या’ –- चरित्र-चित्रण

आलेख

दिव्या- चरित्र-चित्रण
-         बी. सत्यवाणी*
उपन्यास के शिल्प विधान में पात्र-योजना और उनके चरित्रांकन का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। कुछ उपन्यासकारों ने इस तत्व को कथावस्तु से भी अधिक महत्व दिया है।
उपन्यास मनुष्य की यथार्थताओं से बना एक घर है। इसलिये जब भी किसी ने इसके निर्माण के लिए लेखनी उठायी तो वह पात्रों और उनके चरित्र-चित्रण की समस्या से न बच सका।
यशपाल ने व्यक्तिगत और वर्गगत दोनों ही प्रकार के चरित्र प्रस्तुत किये हैं। उनके पात्र-चयन का क्षेत्र समाज के तीनों – उच्च, मध्यम और निम्न वर्ग रहे हैं, फिर भी उन्हें मध्यम वर्ग के पात्रों के चरित्रांकन में विशेष सफलता मिली है।
दिव्या आलोच्य उपन्यास की धुरी है। उसके नाम पर कृति का नामकरण पूर्णतया सार्थक है। दिव्या सागल के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कुल महापंडित देवशर्मा की प्रपौत्री है। वह तो रूप-सौन्दर्य और यौवन का आगार ही है।
माता-पिता के वात्सल्य से वंचिता किशोरी :
ुर्भाग्य की बात है कि दिव्या के बचपन में ही उसके माँ-बाप का देहान्त हो गया था। इसलिये उसके कार्य-कलापों पर ध्यान रखने वाला कोई नहीं रहा। फिर भी सब की प्यारी-दुलारी थी। धर्मस्थ की प्रपौत्री होने के कारण विशेष आदर और स्नेह की पात्र थी। लेकिन यह आदर और स्नेह उसके लिये अभिशाप सिद्ध हुआ। इस आदर और स्नेह का अनुचित लाभ उठाकर वह गुप्त रीति से पृथूसेन से मिलती-जुलती रही जिससे अवैध गर्भ-धारण करना पडता है।
उत्कृष्ट कलाकत्री : नृत्याभिनय में उसकी दक्षता देखकर उपन्यास के तीनों प्रमुख पात्र-पृथूसेन, मारिश और रुद्रधीर उस पर आकृष्ट हो जाते हैं। वह मद्र की सर्वश्रेष्ठ कला कत्री घोषित हो जाती है। जनपद कल्याणी मल्लिका उसको अपनी पुत्री समझती थी। उसे सरस्वती का अंश मानते हुए कहा करती थी पुत्री! तुम्हीं मेरी आशा हो मेरी आत्मा की संतति, दैव ने मेरी रुचि को छीन लिया। तुम्हें देखकर मैं उसे भूल रही थी और तुम इतनी निष्ठुर हो। वत्से! मेरा न सही, वीणापाणि देवी सरस्वती के कोप का भय करो। x x x x x  x x । देवी की उपेक्षा और निरादर करने से देवी के अभिशाप का पात्र बनना पड़ता है। देवी ने अपना अंश तुम्हें अर्पित किया है।[1]
अपने स्वभाव की सरलता और सांसारिक छल-छद्मों के प्रति अनभिज्ञता के कारण वह दास विक्रेता प्रतुल के जाल में फँस जाती है। उसकी सरलता और समर्पण शीलता का परिचय इस तथ्य से मिलता है कि वह पृथूसेन की सपत्नी ही नहीं, दासी भी बनने को तैयार हो जाती है। वह कहती है— मैं सीरो के साथ सख्य भाव से सपत्नीत्व स्वीकार करूँगी।[2]
भाग्य – प्रवंचिता :
यह तो दिव्या का सब से बड़ा दुर्भाग्य है कि वह पृथूसेन को पति न बना सकी। इतना ही नहीं अपना सतीत्व भी उसे समर्पित किया। फलतः वह अवैध पुत्र को जन्म देती है। अपने दुर्भाग्य को कोसने वाली दिव्या का स्वगत कथन बड़ा मार्मिक है— मेरे लिये अब शरण कहाँ है? यदि पृथ्वी फटकर अपने गर्भ में आश्रय दे देती! वह त्राण पाने के लिये उत्पन्न नहीं हुई, इसलिये तो उसे जन्म देनेवाली माँ भी उसे पृथ्वी पर छोड अन्तर्धान हो गयी। संसार भर में जिसे उसने अपना समझा वही उसकी प्रवंचना कर रहा है।[3]
धाय दासी के रूप में दिव्या पुरोहित चक्रधर के शोषण का पात्र भी बन जाती है। वह आचार्य रुद्रधीर द्वारा कुलीनता का तर्क देकर सागल की जनपदकल्याणी होने के अधिकार से वंचित कर दी जाती है।
अत्यधिक वात्सल्य मयी माता :
यद्यपि दिव्या अवैध पुत्र की माँ बन जाती है तो भी उस अयाचित संतति के प्रति उसके मन में अपार ममता है। पृथुसेन के द्वारा तिरस्कृत हो जाने पर लज्जावश घर नहीं लौटती, घर छोड भाग जाती है, किन्तु आत्महत्या करने की बात नहीं सोचती। अपने गर्भस्थ शिशु की रक्षा के लिये वह स्वयं को बेचकर दासी बन जाती है। वह धाय से कहती है— विवाह बिना गर्भ धारण कर मैं तात के प्रासाद में किस प्रकार रह सकती हूँ? जिसका गर्भ है, उसी के यहाँ स्थान नहीं तो कहाँ स्थान होगा? जहाँ मेरा गर्भ है वही मैं हूँ।[4]
वह अपनी संतान को बचाने के लिए पुरोहित गृह से भाग जाती है और बुद्ध विहार में जाकर अभय माँगती है। लेकिन पिता, पति, पुत्र इन में किसी एक की अनुमति के बिना संघ भी उसे शरण नहीं देता। संघ के अनुसार वेश्या ही स्वतंत्र नारी है, वह वेश्या को शरण देने के लिये तैयार था। संतान की रक्षा के लिये वह वेश्या बनने के लिये भी तैयार हो जाती है।
चक्रधर के हाथ से बचने के लिये वह पुत्र सहित नदी में कूद पडती है। भाग्यवश रत्न प्रभा नर्तकी उसे बचाती है, किन्तु पुत्र मर जाता है। उसे पुनर्जन्म मिलता है। उसका नया रूप और नया नाम था – अंशुमाला।
आखिर मथुरा में अशुमाला बनी दिव्या रुद्रधीर का प्रणय निवेदन अस्वीकार करती है जिसने उसे सागल की कुलश्री कहकर गौरवान्वित करना चाहा था। पुरुष प्रधान समाज की व्यवस्था के क्रूर और भीकर रूप को देखने के पश्चात् दिव्या किसी भी पुरुष का आश्रय स्वीकारना नहीं चाहती थी। पृथूसेन उसे संघ की शरण में आने का निमन्त्रण देता है। लेकिन दिव्या उसका निमंत्रण भी स्वीकार नहीं करती। मारिश आश्रय के आदान-प्रदान के लिए दिव्या को आमंत्रित करता है तो दिव्या उसका प्रस्ताव स्वीकार करती है और उसके चरणों पर अपना सर्वस्व समर्पित करती है।
इस प्रकार यशपाल ने दिव्या के माध्यम से आधुनिक नारी को आत्म बल और प्रगति की नयी दिशा प्रदान करने की सराहनीय प्रयास किया है।
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बी. सत्यवाणी, कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावति अम्माल के निर्देशन में पी.एचडी. के लिए शोधरत है ।  




[1] दिव्या – यशपाल – पृ.सं.38
[2] दिव्या – यशपाल – पृ.सं.38
[3]     -- वही --  ।
[4] दिव्या – यशपाल – पृ.सं.106