आलेख
‘दिव्या’ –- चरित्र-चित्रण
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बी. सत्यवाणी*
उपन्यास के शिल्प विधान में
पात्र-योजना और उनके चरित्रांकन का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। कुछ उपन्यासकारों ने
इस तत्व को कथावस्तु से भी अधिक महत्व दिया है।
उपन्यास मनुष्य की
यथार्थताओं से बना एक घर है। इसलिये जब भी किसी ने इसके निर्माण के लिए लेखनी
उठायी तो वह पात्रों और उनके चरित्र-चित्रण की समस्या से न बच सका।
यशपाल ने व्यक्तिगत और
वर्गगत दोनों ही प्रकार के चरित्र प्रस्तुत किये हैं। उनके पात्र-चयन का क्षेत्र
समाज के तीनों – उच्च, मध्यम और निम्न वर्ग रहे हैं, फिर भी उन्हें मध्यम वर्ग के
पात्रों के चरित्रांकन में विशेष सफलता मिली है।
दिव्या आलोच्य
उपन्यास की धुरी है। उसके नाम पर ‘कृति’ का नामकरण पूर्णतया सार्थक है। दिव्या सागल के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कुल
महापंडित देवशर्मा की प्रपौत्री है। वह तो रूप-सौन्दर्य और यौवन का आगार ही है।
माता-पिता के वात्सल्य से वंचिता किशोरी :
दुर्भाग्य की बात है कि दिव्या के बचपन में ही उसके माँ-बाप
का देहान्त हो गया था। इसलिये उसके कार्य-कलापों पर ध्यान रखने वाला कोई नहीं रहा।
फिर भी सब की प्यारी-दुलारी थी। धर्मस्थ की प्रपौत्री होने के कारण विशेष आदर और
स्नेह की पात्र थी। लेकिन यह आदर और स्नेह उसके लिये अभिशाप सिद्ध हुआ। इस आदर और
स्नेह का अनुचित लाभ उठाकर वह गुप्त रीति से पृथूसेन से मिलती-जुलती रही जिससे
अवैध गर्भ-धारण करना पडता है।
उत्कृष्ट कलाकत्री : नृत्याभिनय में उसकी दक्षता देखकर उपन्यास के तीनों प्रमुख पात्र-पृथूसेन,
मारिश और रुद्रधीर उस पर आकृष्ट हो जाते हैं। वह मद्र की सर्वश्रेष्ठ कला कत्री
घोषित हो जाती है। जनपद कल्याणी मल्लिका उसको अपनी पुत्री समझती थी। उसे सरस्वती
का अंश मानते हुए कहा करती थी “पुत्री! तुम्हीं
मेरी आशा हो मेरी आत्मा की संतति, दैव ने मेरी रुचि को छीन लिया। तुम्हें देखकर
मैं उसे भूल रही थी और तुम इतनी निष्ठुर हो। वत्से! मेरा न सही, वीणापाणि देवी
सरस्वती के कोप का भय करो। x x x x x x x । देवी की
उपेक्षा और निरादर करने से देवी के अभिशाप का पात्र बनना पड़ता है। देवी ने अपना
अंश तुम्हें अर्पित किया है।”[1]
अपने स्वभाव की सरलता और सांसारिक छल-छद्मों के प्रति अनभिज्ञता के कारण वह
दास विक्रेता प्रतुल के जाल में फँस जाती है। उसकी सरलता और समर्पण शीलता का परिचय
इस तथ्य से मिलता है कि वह पृथूसेन की सपत्नी ही नहीं, दासी भी बनने को तैयार हो
जाती है। वह कहती है— “मैं सीरो के साथ सख्य भाव से सपत्नीत्व
स्वीकार करूँगी।”[2]
भाग्य – प्रवंचिता :
यह तो दिव्या का सब से बड़ा दुर्भाग्य है कि वह पृथूसेन को
पति न बना सकी। इतना ही नहीं अपना सतीत्व भी उसे समर्पित किया। फलतः वह अवैध पुत्र
को जन्म देती है। अपने दुर्भाग्य को कोसने वाली दिव्या का स्वगत कथन बड़ा मार्मिक
है— “मेरे लिये अब शरण कहाँ है? यदि पृथ्वी फटकर
अपने गर्भ में आश्रय दे देती! वह त्राण पाने के
लिये उत्पन्न नहीं हुई, इसलिये तो उसे जन्म देनेवाली माँ भी उसे पृथ्वी पर छोड
अन्तर्धान हो गयी। संसार भर में जिसे उसने अपना समझा वही उसकी प्रवंचना कर रहा है।”[3]
धाय दासी के रूप में दिव्या पुरोहित चक्रधर के शोषण का
पात्र भी बन जाती है। वह आचार्य रुद्रधीर द्वारा कुलीनता का तर्क देकर सागल की जनपदकल्याणी
होने के अधिकार से वंचित कर दी जाती है।
अत्यधिक वात्सल्य मयी माता :
यद्यपि दिव्या अवैध पुत्र की माँ बन जाती है तो भी उस
अयाचित संतति के प्रति उसके मन में अपार ममता है। पृथुसेन के द्वारा तिरस्कृत हो
जाने पर लज्जावश घर नहीं लौटती, घर छोड भाग जाती है, किन्तु आत्महत्या करने की बात
नहीं सोचती। अपने गर्भस्थ शिशु की रक्षा के लिये वह स्वयं को बेचकर दासी बन जाती
है। वह धाय से कहती है— “विवाह बिना गर्भ धारण कर मैं तात के
प्रासाद में किस प्रकार रह सकती हूँ? जिसका गर्भ है,
उसी के यहाँ स्थान नहीं तो कहाँ स्थान होगा? जहाँ मेरा गर्भ है
वही मैं हूँ।”[4]
वह अपनी संतान को बचाने के लिए पुरोहित गृह से भाग जाती है
और बुद्ध विहार में जाकर अभय माँगती है। लेकिन पिता, पति, पुत्र इन में किसी एक की
अनुमति के बिना संघ भी उसे शरण नहीं देता। संघ के अनुसार वेश्या ही स्वतंत्र नारी
है, वह वेश्या को शरण देने के लिये तैयार था। संतान की रक्षा के लिये वह वेश्या
बनने के लिये भी तैयार हो जाती है।
चक्रधर के हाथ से बचने के लिये वह पुत्र सहित नदी में कूद
पडती है। भाग्यवश रत्न प्रभा नर्तकी उसे बचाती है, किन्तु पुत्र मर जाता है। उसे
पुनर्जन्म मिलता है। उसका नया रूप और नया नाम था – अंशुमाला।
आखिर मथुरा में अशुमाला बनी दिव्या रुद्रधीर का प्रणय
निवेदन अस्वीकार करती है जिसने उसे सागल की कुलश्री कहकर गौरवान्वित करना चाहा था।
पुरुष प्रधान समाज की व्यवस्था के क्रूर और भीकर रूप को देखने के पश्चात् दिव्या किसी
भी पुरुष का आश्रय स्वीकारना नहीं चाहती थी। पृथूसेन उसे संघ की शरण में आने का
निमन्त्रण देता है। लेकिन दिव्या उसका निमंत्रण भी स्वीकार नहीं करती। मारिश आश्रय
के आदान-प्रदान के लिए दिव्या को आमंत्रित करता है तो दिव्या उसका प्रस्ताव
स्वीकार करती है और उसके चरणों पर अपना सर्वस्व समर्पित करती है।
इस प्रकार यशपाल ने दिव्या के माध्यम से आधुनिक नारी को
आत्म बल और प्रगति की नयी दिशा प्रदान करने की सराहनीय प्रयास किया है।
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बी. सत्यवाणी, कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावति अम्माल के निर्देशन में पी.एचडी. के लिए शोधरत है ।
8 comments:
सुन्दर
सरस
Nice sir
ATI Sundar
Nice to read it.
Bhut accha
वाह वाह
Nice very nice.
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