Thursday, July 30, 2009

कविता

शब्द-चित्र

-श्यामल सुमन
बच्चा से बस्ता है भारी।
ये भबिष्य की है तैयारी

खोया बचपन, सहज हँसी भी
क्या बच्चे की है लाचारी

भाषा, पहले के आका की
पढ़ने की है मारामारी

भारत को इन्डिया जब कहते
हिन्दी लगती है बेचारी

टूटा सा घर देख रहे हो
वह विद्यालय है सरकारी

ज्ञान, दान के बदले बेचे
शिक्षक लगता है व्यापारी

छीन रहा जो अधिकारों को
क्यों कहलाता है अधिकारी

मंदिर, मस्जिद और संसद में
भरा पड़ा है भ्रष्टाचारी

हुआ है विकसित देश हमारा
घर घर छायी है बेकारी

सुमन पढ़ा जनहित की बातें
बिल्कुल मानो है अखबारी

Friday, July 24, 2009

बाल दोहे





पेंग्विन सबकी मीत है


- आचार्य संजीव 'सलिल'


बर्फ बीच पेंग्विन बसी, नाचे फैला पंख ।
करे हर्ष-ध्वनि इस तरह, मानो गूँजे शंख ।।


लंबी एक कतार में, खड़ी पढ़ाती पाठ ।
अनुशासन में जो रहे, होते उसके ठाठ ।।


श्वेत-श्याम बाँकी छटा, सबका मन ले मोह ।
शांति इन्हें प्रिय, कभी भी, करें न किंचित क्रोध ।।


यह पानी में कूदकर, करने लगी किलोल ।
वह जल में डुबकी लगा, नाप रही भू-गोल ।।


हिम शिखरों से कूदकर, मौज कर रही एक ।
दूजी सबसे कह रही, खोना नहीं विवेक ।।


आँखें मूँदे यह अचल, जैसे ज्ञानी संत ।
बिन बोले ही बोलती, नहीं द्वेष में तंत ।।


माँ बच्चे को चोंच में, खिला रही आहार ।
हमने भी माँ से 'सलिल', पाया केवल प्यार ।।


पेंग्विन सबकी मीत है, गाओ इसके गीत ।
हिल-मिलकर रहना सदा, 'सलिल' सिखाती रीत ।।


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Thursday, July 16, 2009

कविता







एक बूँद





- स्वर्ण ज्योति





मैंनें देखी,
एक बूँद औचट उछली
सागर-तट-पर,
तत्क्षण हो गई विलीन।
अभी-अभी थी अरे यहीं,
अभी-अभी खो गई कहीं।

रवि किरणों से मिलकर,
रंग अनोखे उसने पाए।
संतृप्त हृदय को मेरे,
बहुत अधिक वह भाए।

संवेदना का रंग सुनहरा,
भीगी तरल भावना का
नवरंग भरा था भूरा।

अनगिनत चाहनाओं का रंग चाँदिनी,
मधुर मुस्कानों का रंग मयूखी
और कहकहों का रंग केसरी।

वास्तविकता यह कैसी...?
मूक विवशता यह कैसी...?
केवल रही क्षणिक समीपता उससे कि
आतुरता थी उसको मिलने नभ गंगा से।

एक बूँद,
अभी-अभी थी अरे यहीं,
हो गई अचानक अंतर्लीन,

स्वर्ण ज्योति विहीन।

Monday, July 13, 2009

व्यंग्य



रैली और बंद



- आर.के. भँवर




सड़क पर तिल धरने भर की जगह न थी। जब से वाहनों की खरीद किश्तों पर होने लगी या फिर आदमी में कर्जदार कहलाने की महत्वाकांक्षा पनपी, तब से दोपहिया और चौपहिए वाहनों की संख्या में मजीद इजाफा हुआ। फटफटियों, स्कूटरों और रंगरंगीली कारों और सायकिलसवारों समेत ग्यारह नंबरी सवारियों, ठेलों और रिक्षों के कारण सड़कों पर करोड़ों किलों की पसेरी का वजन हो जाता है। जो जहां है, वहीं से खिसक रहा है। चाहे या न चाहे, खिसकेगा तब भी। एक महाशय सरकार को कोस रहे थे कि अंधी है वह और बहरी भी। रैलियों से आम जनता को कितनी किल्लत होती है। दूसरा जिससे वो महाशय इरशाद लेना चाह रहे थे, तटस्थ भाव से मुंह घुमा लिया जैसे कह रहा हो, अपन की आदत में ये सब चलता है। दरअसल एक राजनैतिक पार्टी का बाजार बंदी की रैली रेंग रही थी।

आये दिन बंद, रैली, धरना, प्रदर्शन जैसे आयोजनों से सभी देश के प्रति अनिष्क्रिय लोगों को जूझना पड़ता है। ऐसे ही आम जनता की दिक्कतों को एक प्रदेश के मुख्यमंत्री, सुविधा के लिए प्रदेश का नाम कुतर प्रदेश और उसके मुखिया का नाम कठोर सिंह रख लेते हैं, से कल्पना में बतियाने का मौका मिल गया । जो बात हुई उसे मिश्राम्बु बनाये बिना पेश कर रहा हूं।

मान्यवर, आपको नहीं लगता है कि विपक्षी दलों द्वारा रैलियां, धरने और प्रदर्शन करने से आम जनता को काफी भुगतना पड़ता है।
देखिए, आम जनता में मैं भी आता हूं। मुझसे ज्यादा कौन उसका दर्द जान सकता है। दरअसल ये एक प्रकार का ध्यानाकर्षण ही है। गांधीजी होते तो इसे सत्याग्रह की संज्ञा देते।
आपके विचार में इससे जनता का नुकसान नहीं हो रहा ?
यह किसने कहा ? जनता इसे इंजाय कर रही है। कल हम विपक्ष में जायेंगे तो हम भी वही करेंगे जो विपक्षी दल अब कर रहे हैं। करनी और कथनी एक सी ही तो होनी चाहिये। एक बात और भाई, रैलियां थके हारे व्यक्ति का मनोरंजन करती है, उन्हें दिल खोल कर हंसने का मौका भी देती है।
जनता चाहती है विकास। क्या इससे उसकी ठगी नहीं हो रही ?
देखो भई विकास तो हो ही रहा है। इन गतिविधियों से हमारी जनता का मनोरंजन और टाईम पास होता है।
और बंद ?
हां बंद से निरंतर काम के बाद दुकान की शटर गिरा कर व्यक्ति को आराम मिलता है। आराम से तो आप जानते ही है कितने कष्ट मिटते हैं। दुकान के कर्मचारी अपने बच्चों को साथ लेकर चौराहों पर चाट चाटते हैं, जू में भालू, बंदर, लकड़बग्घे और भेड़िये देखते हैं। इस दिन कितने ही लाले घर पर रहते हैं। इससे घरवालियों की खुशी का हर काम कर सकते हैं।

देखिये आबादी तो बढ़ी ही है। ऊपर से आये दिन रैलियों से सड़कों पर चलना मुश्किल हो गया है। कोई वक्त से अस्पताल नहीं पहुंच पाता तो कोई बेरोजगार इंटरव्यू में नहीं जा पाता है, समय से लोग अपने काम पर नहीं पहुंच पाते। क्या आप अब भी नहीं मानते हैं कि इससे दिक्कतें बेतहाशा बढ़ी हैं ?
नो दृ आप गैरजरूरी दबाव बना रहे हैं। मैं कैसे मान लूं। आबादी बढ़ाने में सरकार का क्या रोल। आप चाहते हैं कि सरकार औरत आदमी को हमबिस्तर होने से रोकने का कानून बनाये, क्यों करे ऐसा भाई ? कितनी ही कारगिलें होंगी, तो कौन लड़ेगा उस वक्त ? रैलियां और बंद प्रदेश के विकास में कहीं किसी कोने से बाधक नहीं है। जन्म-मृत्यु के समीकरण को आप क्या नहीं जानते हैं। भगवान कृष्ण ने कितनी बार ये कहा है कि समय जिसका आ धमका, उसे तो जाना ही पड़ेगा। अब आप खामखाँ हमारे पर आप सत्याग्रही दोष मढ़ रहे हैं। ये न होते तो भी मरने वाले को मरना ही है। अमरौती का पाउच लेकर तो आता नहीं है कोई ! यह भी अब सुन लीजिए इस समय मैं बहुमत में नहीं हूं। मेरी सरकार बहुमत में आयेगी तो विधेयक लायेंगे कि प्रत्येक पार्टी एक साल में कितने बंद और कितनी रैलियां करेगी। अ ... ह ... हा .. हा .... बाकायदा शासनादेश लायेंगे।

मैंने कहा - सर, एक समय ऐसा भी आ सकता है कि रैलियों के लिए मुद्दें ही न हो।

हो ही नहीं सकता। जब हम राजनीति में आते हैं तो मुद्दों के साथ आते हैं और ज्यादा से ज्यादा गढ़े जा सकें, इसके लिए चैन नहीं लेते। अपने प्रथम प्रधानमंत्री जी ने ठीक ही कहा था न .... कि आराम हराम है। बुद्धिजीवी भी थे न ... वे।

मैंने कहा - बुद्धिजीवी ?

हां आज बुद्धिजीवी स्वयं में एक मुद्दा है। वह बुद्धि की खाता है और दिल से फटीचर रहता है। उसके पैरों में कोई शनीचर न रहे इसलिए हम पहले से ही थोक के भाव में उसके मुद्दे उगा लेते हैं।

तो आप मानते हैं कि बंद और रैलियों से आम जनता को कोई तकलीफ .....

बात काटते हुए बोले वह - ये कहां हम कह रहे हैं। कि तकलीफ नहीं होती है, वो भी आप जैसों को। और आप आम जनता नहीं हैं। आम जनता तो रैलियों में आती है, भूलभुलैया और इमामबाड़ा देखती है, चकाचक राजधानी को देखकर विकास कार्यों का जायजा लेती है।

तो रैलियों में आने वाली ही आम जनता होती है ?

आम जनता, बड़ा अच्छा सवाल किया है तुमने। बहुत खूब। दरअसल आम जनता थके-हारे सर्वहारा लोगों का पर्याय है जो क्रांति से पूर्व शांतिपूर्वक प्रदर्शन में विश्वास रखते हैं। लोकतंत्र में गहरी आस्था रखने वाला ही आम आदमी होता है। इसलिए आम आदमी वाणी की स्वतंत्रता और विरोध का अधिकार रखती है। अब समझे, आप ।

कहते हैं कि आम जनता को ढोने के लिए बसों का प्रबंध भी आपने किया है ?

कौन कहता है, समझ गया, ये सब विरोधियों का मिथ्या प्रचार है। पार्टी फंड आम जनता ही बनाती है और पार्टी फंड से इन्हें इनके संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए यहां लाया जाता है, तो इसमें बुराई क्या ?

कोई बुराई नहीं है, यदि पार्टी उनकी है तो फंड भी उनके कल्याण के लिए ही होता है। पर अभी एक सवाल अनुत्तारित है, वह यह कि आम आदमी आपकी नजरों में क्या है ?

आम आदमी, ओफ्फो भैये, जिसे भूलने और माफ करने की लाईलाज बीमारी हो। यह उनकी झुंझलाहट थी।

तुरंत ही महसूस किया मैंने कि आगे और सवाल करने में ये मुझे कागभुसुंडी बना देगा। अब इसके पेट का कारखाना भी खुराक लेने की फिराक में लगता है। तो वेलकम वाला जूटिया पांवपोंछ प्रसाधन बदशक्ल करता हुआ फुटपाथ पर आ खड़ा हुआ। देखता रहा कि सिर्फ तैंतीस परसेंट पाने के लालच में अंगप्रत्यंग का भरपूर इस्तेमाल करती ये रंगबिरंगी रैलिया-महिलायें भविष्य के प्रति कितनी चिंतित थीं।
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सूर्य सदन, सी-501/सी, इंदिरा नगर
लखनऊ 226016
मोबा. 9450003746


Sunday, July 12, 2009

बाल मानस

बाल गीत


- संजीव 'सलिल'


रुन-झुन करती आयी पारुल.


सब बच्चों को भायी पारुल.


बादल गरजे, तनिक न सहमी.


बरखा लख मुस्कायी पारुल.


चम-चम बिजली दूर गिरी तो,


उछल-कूद हर्षायी पारुल.


गिरी-उठी, पानी में भीगी.


सखियों सहित नहायी पारुल.


मैया ने जब डांट दिया तो-


मचल-रूठ-गुस्सायी पारुल.


छप-छप खेले, ता-ता थैया.


मेंढक के संग धायी पारुल.


'सलिल' धार से भर-भर अंजुरी.


भिगा-भीग मस्तायी पारुल.

Friday, July 10, 2009

पुस्तक-समीक्षा


'बढ़ते चरण शिखर की ओर' के समीक्षा सोपान पर : 'कृष्ण कुमार यादव'


समीक्षक: जवाहर लाल 'जलज', शंकर नगर, बाँदा (उ0प्र0)



'बढ़ते चरण शिखर की ओर' बहुमुखी प्रतिभा के धनी, समुत्कृष्ट सारस्वत-साधक, चिंतन की चेतना से मंडित, गहरी मानवीय संवेदनाओं से सिक्त, समकालीन यथार्थ बोध के जीवंत कवि एवं कुशल प्रशासक कृष्ण कुमार यादव के वृहत्तर व्यक्तित्व एवं कृतित्व को उद्धाटित करने वाला 148 पृष्ठीय महत्वपूर्ण व मजबूत दस्तावेज है, जिसका सम्पादन प्रखर लेखक व कवि पं0 दुर्गाचरण मिश्र ने किया है। सम्प्रति वे उ0प्र0 हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अर्थमंत्री के रूप में समलंकृत हैं। 'बढ़ते चरण शिखर की ओर' के प्रकाशक उमेश प्रकाशन लूकरगंज, इलाहाबाद और मुद्रक हिन्दुस्तान आर्ट प्रिन्टर्स, कर्नेलगंज, कानपुर है। समालोचना के उत्कर्ष, साहित्य मनीषी एवं शताधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की भूमिका के लेखक आचार्य प्रवर सेवक वात्स्यायन ने भूमिका लिखकर इसकी मूल्यवत्ता का प्रतिपादन किया है जो सुग्राह्य है।

किसी विशिष्ट सर्जक के जीवन-वृतांत के सम्पूर्ण रेखांकनीय सन्दर्भों को एकत्रित करके संग्रहणीय दस्तावेज बना देना बहुत ही उपयोगी और महत्वपूर्ण कार्य है। इससे उस सर्जक को सम्यक् रूप से समझने में शोधार्थियों व अन्य सबके लिए अति सुगमता होती है। पं0 दुर्गाचरण मिश्र ने कृष्ण कुमार यादव जैसे बहुआयामी व्यक्तित्व एवं चर्चित सर्जक पर केन्द्रित पुस्तक 'बढ़ते चरण शिखर की ओर' का सम्पादन करके महनीय कार्य किया है, जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं।

कृष्ण कुमार यादव एक ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व का नाम है जो बहुत ही कम समय में मानवोचित गुणों और सृजनात्मकता की ऊँचाई छूने में सफल हुये। वे बाल्यकाल से ही महत्वाकांक्षी, लगनशील, श्रमशील व निष्ठावान रहे हैं। कठोर श्रम और साधना का ही सुखद परिणाम है कि उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा प्रथम बार में ही उत्तीर्ण की और भारतीय डाक सेवा के अधिकारी बने। इतनी बड़ी सफलता प्राप्त करने के बाद भी उन्होंने इसे प्रगति की इतिश्री भी नहीं मानी। शासकीय, सामाजिक व पारिवारिक दायित्वों का सम्यक निर्वाह करते हुए वे सर्जनात्मकता के लिए समाहुत हैं। 30 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने पाँच उत्कष्ट कृतियाँ सर्जना संसार को समर्पित कर दी हैं। 250 से अधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक वेबसाइटें उनकी रचनाधर्मिता की झांकी दिखाती हैं। अनेकानेक साहित्यिक उपक्रमों द्वारा वे सम्मानित व अनुशंसित हुए हैं। इतनी बड़ी उपलब्धियों को अर्जित कर लेने के बाद भी अभिमान उनके पास आने में बहुत डरता है। वे सहजता, सरलता और मृदुलता के सहारे अभीष्ट की ओर अग्रसर हैं।

कृष्ण कुमार यादव के अब तक के जीवन-वृत्तांत को पढ़कर लगता है कि प्रारम्भ से ही उनके मन में कीर्ति का किला रचाने और जीवन को अभीष्ट तक पहुँचाने की उत्कट आकांक्षा रही है। उनकी इसी महती आकांक्षा को पूर्ण करने हेतु सौभाग्यवश स्वयं 'आकांक्षा' ने ही उनका जीवन साथी के रूप में वरण किया। देववाणी संस्कृत की प्रवक्ता आकांक्षा यादव विदुषी हैं, कवयित्री व लेखिका हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रभूत मात्रा में उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं, सृजनात्मक उपलब्धियों के लिए उन्हें अनेक सम्मानों से अलंकृत किया गया है। यह मणिकांचन संयोग है कि कृष्ण कुमार भी वरेण्य साहित्यकार हैं और उनकी पत्नी आकांक्षा यादव भी। ऐसे में यह कहना नितांत समीचीन लगता है-

आकांक्षा ले आई भोर,
बढ़ते चरण शिखर की ओर।

'बढ़ते चरण शिखर की ओर' पुस्तक के आवरण पृष्ठ में अंकित युगीन गीतकार पद्मविभूषण गोपाल दास 'नीरज', प्रो0 सूर्य प्रसाद दीक्षित, पद्मश्री गिरिराज किशोर, डॉ0 रामदरश मिश्र, डॉ0 रमाकान्त श्रीवास्तव, सेवक वात्स्यायन, प्रो0 भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज' और पं0 बद्री नारायण तिवारी की महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ कवि कृष्ण कुमार के काव्य वैशिष्टय को उजागर एवं प्रखर करती हैं और उनकी महत्ता दर्शाती हैं। कृष्ण कुमार की कृतियों पर विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित समीक्षाओं एवं साक्षात्कारों को एक जगह समेट कर सम्पादक ने पुस्तक को और भी रोचक बना दिया है। पाठकों के बिना किसी रचनाकार का अस्तित्व शून्य में ही माना जाता है। प्रस्तुत पुस्तक में कृष्ण कुमार के कृतित्व का नीर-क्षीर विश्लेषण करती चिट्ठियाँ कई पहलुओं से परिचित कराती हैं। इस पुस्तक में संग्रहीत लेख 'चरित्र की ध्वनि शब्द से ऊँची होती है (पं0 बद्री नारायण तिवारी), जीवन को समग्रता में देखने की कायल कविताएं (डॉ0 सूर्य प्रसाद शुक्ल), काव्य संवेदना का भिन्न आस्वाद सहेजती कविताएं (यश मालवीय), विविध दायित्वों के गोवर्धन धारक (जितेन्द्र जौहर), भारत-भारती के जीवंत उपासक : कृष्ण्ा कुमार (डॉ0 विद्याभास्कर वाजपेयी), बड़ी संभावनाओं का कवि : कृष्ण कुमार यादव (रविनन्दन सिंह), रचनाधर्मिता बनी व्यक्तित्व का अभिन्न अंग (आकांक्षा यादव), समकालीन परिवेश को उकेरती कृष्ण कुमार की कहानियाँ (गोवर्धन यादव), बच्चों का सम्पूर्ण परिवेश सहेजती बाल कविताएं (सूर्य कुमार पाण्डेय), बाल शिक्षा का पथ निर्माण करती कविताएं (डा0 राष्ट्रबन्धु), सामाजिक सहानुभूति का मानस-संस्पर्श लिए कविताएं (डॉ0 राम स्वरूप त्रिपाठी) और समय की नजाकत पहचानती कविताएं (टी0पी0 सिंह) इत्यादि कृष्ण कुमार के महत्तर व्यक्तित्व व कृतित्व के विविध पक्षों का रेखांकन करते हैं।

कृष्ण कुमार यादव के आकर्षक व्यक्तित्व के अनुरूप पुस्तक का आवरण आकर्षक है। छपाई सुन्दर है। अशुध्दियों के दोष से दूर है। कुल मिलाकर 'बढ़ते चरण शिखर की ओर' पुस्तक अच्छी बन पड़ी है और पठनीय है। युवा प्रशासक-साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व को एक नजर में समझने के लिए पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है। इस पुस्तक की उपयोगिता पर ये पंक्तियाँ अनायास निकल पड़ी हैं:-

कृष्ण कुमार सृजन-सिरमौर,
मिले न जब उनका कुछ छोर,
तब प्यारे यह पुस्तक पढ़ना,
बढ़ते चरण शिखर की ओर।

कृति: बढ़ते चरण शिखर की ओर
सम्पादक: दुर्गाचरण मिश्र,
पृष्ठ: 148
मूल्य: रू0 150
संस्करण: 2009
प्रकाशक: उमेश प्रकाशन, 100, लूकरगंज, इलाहाबाद

Wednesday, July 1, 2009

व्यंग्य

एक आदमी की मौत









- आर.के. भँवर





वह जो मर गया है आदमी ही था । सुबह का वक़्त । लोग टहलने के लिए निकले थे । उसकी लाश सड़क के किनारे पड़ी थी । कौन था ? कैसे मरा वह ? ये कई सवाल ऐसे थे जो कुछेक लोगों के जेहन में उभर रहे थे । पर मरने वाला एक आदमी था, कपड़े लत्ते से लग रहा था कि वह ऊंची जमात का नहीं था । खून से उसकी काया लथपथ भी नहीं थी, वह सड़क के किनारे इस तरह पड़ी थी मानो गहरी नींद में सो रहा हो कोई । कुछ लोग उसे घेरे हुए थे । घेरा बनाने वाले दूर-दूर तक मार्निंग वॉक से मतलब नहीं रखते थे । वे सब आचरज से देख रहे थे । हलांकि वे उसके रिश्तेदार नहीं थे।

मार्निंग वॉक वाले लोग सिर्फ वाकिंग पर थे । कुछ एक ऐसे भी थे जो कुछ-कुछ समाजशास्त्र के जानकार थे । जौगिंग करते करते एक ने दूसरे से कहा कि होगा यह कि रात ज्यादा पी ली होगी या फिर कहीं लड़ा-झगड़ा होगा । मजबूत पार्टी वाले ने ढेर कर दिया होगा । “पर खून तो बहा नहीं, नही नही ऐसा नही हुआ होगा ?” उल्टे प्रश्न को सीधा करते हुए दूसरे ने कहा । तभी हल्की दौड़ में शामिल एक दूसरे ने पूछा कि अब मौत आ गई तो आ गई । वो किसी से पूछ कर तो आती नहीं । अब जैसे शर्मा जी को ही ले लें, मार्निंग वॉक के लिए तैयार हुए ही थे कि दिल जबर्दस्त दौड़ पड़ा, नहीं उठ पाये फिर ।

निकलने वालों के लिए मरे आदमी की लाश चर्चा में तो थी, पर सभ्य और कुलीन लोग उस जगह रूक कर अपना समय खराब नहीं करना चाहते थे । समाज की सभ्यता शिखर पर थी । कोई अपना समय मरे आदमी के वास्ते क्यों खराब करे ? जिसको जाना था वह चला गया । किसी को पहले से बताकर पैदा भी नहीं हुआ था वह । फिर उन्हें तो रहना है । गणित भी यही कहती है और समाज का अर्थशास्त्र भी । अब कोई मरनेवाले के साथ तो मर नहीं जाता है । और मरे व्यक्ति बहुत दिनों तक जेहन में रहते भी नहीं हैं । पुराने पत्तो पेड़ से अपना स्थान इसलिए खारिज कर देते हैं कि नये पत्ते निकल आए । मिट्टी में मिलने पर वही पत्ते खाद बन जाएंगे । पत्तों और आदमियों के फलसफे में यहीं तो होता है बुनियादी अंतर ।

अब जिसे मरना था, वह तो मर गया । समझदारी इसी में थी कि समाज का काम अनवरत चलता रहे । चलता तो रहता है, पर यह सब वैसे ही है जैसे फिल्म शुरू होने से पहले न्यूज रील के चलने जैसा हो । इधर आदमी भी बड़े बेभाव मर रहे हैं । कुंडी खटखटायी, बुढ़िया ने जैसे दरवाजा खोला कि छुरा उसके पेट में और कुंडी खटखटाने वाला घर के अंदर। अखबारों में तो रोजबरोज ऐसी ही सूचनाएं पढ़ने को मिलती हैं । गाड़ी चला रहे थे, सामने वाले को बचाने में लगे कि खुद पलट गए । अस्पताल में ब्रेन हैमरेज फिर सीधे ऊपर । पहले बाल्टी मेरी भरेगी, नहीं पहले मेरी, मेरी, मेरी कहते कहते गुम्माबाजी हो गई, एक दर्जन घायल और कुछेक ने दम तोड़ दिया । पहले जैसे बच्चा-बच्ची गुड्डे-गुड़िया का खेल खेलते थे अब बड़े लोग 'इसे मारो-उसे मारो' का खेल रहे हैं। सुपाड़ी दो, पूरी न मिले तो सुपाड़ी की कतरन दो, काम दोनों में ही चलना है । आदमी का मारा जाना अथवा उसे मारना आज की दुनिया का अहम् व्यवसाय है । बाहुबली से कभी श्री हनुमान जी का बोध होता था, अब इससे दाउद भाई, छोटा, बड़ा, मंझला शकील, पप्पू यादव, बबलू भैया, आदि-आदि का । संकटमोचन हैं, इसलिए उनके नाम के स्मरण मात्र से धंधे की कोई भी वैतरणी पार लग जाएगी । हाथी, पंजा, कमल, साईकिल, लालटेन, ताला-चाभी सभी तो इनके दम पर चलते और लगते हैं । कहीं कम तो कहीं ज्यादा ।

सबसे सस्ती है आदमी की जान । इसे जब चाहें, जहां चाहें, कोई वॉट लगा सकता है । घर से निकले कि बाहर घमाघम, ढेर हो गए । मरते ही, वह मान्यताओं की खाल ओढ़े समाज की चिंता का विषय बन जाता है । कुछ समय के लिए वह मानवाधिकार चिंतकों का मुद्दा भी है और अखबारों की सनसनी भी । पर एक आदमी की मौत से कोई हिलता क्यों नहीं, क्या उसकी मौत में जिंदा आदमी अपनी सूरत नहीं देख पा रहा है । सांस-सांस मर रहे आदमी और अचानक मर गए आदमी में चिंता स्वाभाविक है । उस मरे आदमी को घेरे हुए उन लोगों के पास कोई काम-धाम नहीं है । सड़क पर इधर-उधर घूमना ही था उन्हें, अब क्या करें इधर-उघर जाकर, इस मरे आदमी के पास ही खड़े हो जाते हैं, समय ही कटेगा कुछ । खड़े लोगों से उसके मरने का कोई ताल्लुक नहीं है । वे तमाशबीन हैं । डुग्गी बजाते मदारी के पास भी वे लोग वैसे ही खड़े जाते हैं । जो नहीं खड़े थे, उनकी भी आत्मा उधर ही भटक रही थी, पर खड़े इस वास्ते नहीं हो सकते थे क्योंकि वे या तो अपने वाहन से उतर कर आम आदमी की कोटि में आने से अपनी बेइज्जती समझते थे या अंग्रेजी पहचान देने वाली पोशाक पहने थे । स्टेटस तो देखना ही पड़ता है । अब यह आदमी होटल ताज के अंदर गिरा, पड़ा व मरा मिलता तो वे सूट-बूट वाले साहेब का वहां पर खड़े होकर हमदर्दी दिखना मुनासिब था । सड़क है । सड़क की भाषा और व्याकरण चलताऊ किस्म का होता है । सड़क पर चलते लोग भीड़ के किस्म में होते हैं । भीड़ नारा लगा सकती है, उत्पात मचा सकती है, झंडा उठा सकती है । भीड़ संवेदना का वरण नहीं कर पाती है । मरने वाले आदमी का घेरा भीड़ जब बढ़ा लेती है, तो आंदोलन के समीकरण बनाने बिगाड़ने वाले चतुर सुजान भी जुट जाते हैं । यह भी ज्यादा देर तक नहीं चलता है । भीड़ की भाषा संवेदना के सुर से अलग है। संवेदना अकेले आदमी की थाती है । दिल की बात दिल तक जाती है।

एक आदमी की मौत न्यूज की लाईन के बन जाने के बाद भी आम आदमी के जेहन में अपनी पैठ नहीं बना पा रही है । पर रोज सड़क पर कुत्ता टहलाने वाले बाबू मोशाय का कुत्ता जब किसी गाड़ी के नीचे आकर जीभ लंबी कर देता है, तो बाबू मोशाय से मरे कुत्ते के प्रति शोक जताने वाले कई कई लोग जुट जाते हैं । इसीलिए आदमी रोज बरोज मर रहे हैं । दोपहिए, चौपहिए, मालगाड़ी, हथगोले, बंदूक न जाने कितने-कितने निमित्ता उसे मरने, मारने व मिटाने में लगे हुए हैं । आतंक के साये में जी रहे अंचलों में आदमी रात भर जगते हैं, केवल सुबह थोड़ी देर तक सो लेते हैं । एक आदमी की मौत यदि हमारा सरदर्द नहीं बनती है तो समझ लेना चाहिए कि कहीं कोई बीमारी जन्म ले रही है । समय से उसका उपचार जरूरी है क्योंकि संवेदनहीनता का रोग ऐसा मठ्ठा है जो इन्सानियत के दरख्त की जड़ों में जाने से समूचे पेड़ को ठूंठ में तब्दील कर देगा । हुआ भी यही, जब उस मरे आदमी की तफ्तीश के वास्ते देर दोपहर में पुलिस आई और पंचनामा के लिए पांच आदमियों से दस्तखत करने के लिए कहा, तो सबके सब भाग खड़े हुए । किसी ने कुछ देखा ही नहीं, कब हुआ कुछ पता ही नहीं । इधर से बस गुजर रहे थे, इस मरे को देखा तक नहीं । कौन है, पता नहीं । कैसे मरा, राम जाने । अब मरने वाले के साथ कोई मर नहीं जाता है, यह समाज की बारीक सोच थी । पुलिस ने कहा तो यहां खड़े क्यों थे ? जवाब मिला, यहां कहां, अरे हम तो बस का इंतजार कर रहे थे, ये तो बाद में पता चला कि मेरे पीछे एक मरे आदमी की लाश पड़ी है । और आप ? पुलिस ने दूसरे से पूछा । मै, वो इनसे घड़ी का टैम पूछने के लिए रूक गया था ।

सिपाही जी दरोगा जी से बोले – “साहेब यह पांच दस्तखत तैयार, हो गया पंचनामा ।”
“इस तरह आदमी तो रोज मरा करते हैं, फालतू टैम है का” - दरोगा ने डांट पिलाई । “चलो कुछ धंधेवाला काम भी करना है ।”




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