Thursday, September 25, 2014

यशपाल कृत ‘दिव्या’ उपन्यास

आलेख
यशपाल कृत दिव्या उपन्यास 
बी. सत्यवाणी*

भूमिका :
श्री यशपाल प्रेमचन्दोत्तर पीढ़ी के अत्यन्त सक्षम साहित्य सर्जक है। उन्होंने साहित्य की विविध विधाओं – कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा विवरण, निबन्ध तथा पत्रकारिता आदि पर समान रूप में लेखनी उठायी है। उन्होंने अपने युग के यथार्थ को विस्तार से चित्रित किया है। वे कलम के धनी साहित्यकार थे। दादा कॉमरेड, देश द्रोही, दिव्या, पार्टी कॉमरेड मनुष्य के रूप, अमिता, झूठा सच, बारह घंटे अप्सरा का श्राप क्यों फंसे संकट मोचक और मेरी तेरी उसकी बात – आदि उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।
दिव्या – कथावस्तु :
दिव्या यशपाल का ऐतिहासिक सांस्कृतिक उपन्यास है। भद्र गणराज्य की राजधानी सागल में प्रतिवर्ष मधुपर्व का उत्सव धूमधान से मनाया जाता है। कला की अधिष्ठात्री राजनर्तकी देवी मल्लिका की युवा पुत्री रुचिरा की मृत्यु के बाद उसने दो वर्षों से किसी भी कलोत्सव में भाग नहीं लिया था।
दिव्या धर्मस्थ देव शर्मा की प्रपौत्री थी जो पृथुसेन की प्रेमिका एवं उपन्यास की नायिका भी है। वह राजनर्तकी मल्लिका की प्रिय शिष्या भी है। पुत्री के वियोग में दुःखी मल्लिका दिव्या को अपनी पुत्री की तरह मानती थी। उसके माता-पिता का देहान्त हो गया था। इसलिए वह पितामह धर्मस्थ देवशर्मा के संरक्षण में रहती थी। उसका पालन-पोषण दासी धाता ने किया था। दासी ने ही उसे अपना स्तन-पान कराया था। अतः दासी पुत्री छाया उसकी क्रीडा-सखी थी।
जब वह सयानी हो गयी तो पृथुसेन, रुद्रधीर और मारिश ये तीनों युवक उससे विवाह करना चाहते हैं। लेकिन दिव्या मन से पृथुसेन को ही पति के रूप में चाहती है और स्वयं को उसके प्रेम में अर्पित कर देती है क्योंकि वह भी एक दासी पुत्र था। फलतः पृथुसेन से वह गर्भवती बन जाती है।
पृथुसेन युद्ध में भाग लेने चला गया। युद्ध से जीत कर वह लौटा। लेकिन अनेक कारणों से युद्ध से लौटे पृथुसेन से दिव्या मिल नहीं सकी। गर्भावस्था में वह अपनी सहेली छाया के साथ घर से बाहर चली।
गर्भ-भार के कारण दिव्या के लिए चलना बहुत कठिन था। इसलिए उसने एक पांथशाला में ठहरने का आग्रह प्रकट किया। लेकिन छाया ने उसे समझाया कि पुरुष के बिना पांथशाला में रहना हानिकारक होगा। दोनों गली में चक्कर लगाती रहीं। अंत में एक वृद्धा ने उनको आश्रय दिया। उसके बाद दोनों को एक व्यापारी के हाथ बेच दिया।
व्यापारी ने दासी से अलग कर दिव्या को चक्रधर नामक पुरोहित के हाथ में पचास स्वर्ण मद्रा लेकर बेच दिया। इसी बीच दिव्या ने एक बच्चे को जन्म दिया। उस पुरोहित को अपने घर में एक दासी की जरूरत थी। क्योंकि उसकी पत्नी प्रसव के बाद विषज्वर से पीडित हो गयी थी। इसलिए वह बच्चे को स्तन-पान नहीं कर सकी। दिव्या पुरोहित के बच्चे को भी अपने बच्चे की तरह प्यार से स्तन-पान कराने लगी। लेकिन दोनों बच्चों को पिलाने के लिए उसके स्तन में दूध नहीं था। इसलिए पुरोहित की पत्नी ने दिव्या की संतान को बेचने का निश्चय किया। लेकिन बच्चे के लिए वह स्वतंत्र जीवन जीना चाहती है। वह वेश्या का मार्ग भी स्वीकार करने को तैयार हो गयी। बच्चे के साथ कोई भी उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं था। इसलिए वह निराश होकर यमुना के किनारे जा बैठी।
इसी बीच पुरोहित उसे पकडने आया। उसे देखकर वह बच्चे के साथ यमुना में कूद पडी। बच्चा डूब मरा। वह बहती जा रही थी। राजनर्तकी रत्नप्रभा ने सेवकों के द्वारा उसे नदी से बाहर निकाला। चक्रधर चिल्लाकर वहाँ आया। लेकिन रत्नप्रभा पचास स्वर्ण मुद्रायें पुरोहित को देकर उसे अपने घर ले गयी। दिव्या का नृत्य देखकर रत्नप्रभा आश्चर्य चकित हो गयी। उसने उसका नाम रख लिया अंशुमालारसिक गण उसके सौन्दर्य और नृत्य पर आकर्षित हो गये।
यहाँ रुद्रधीर के षड़यंत्र से पृथुसेन धन पदवी सब कुछ खोकर भिक्षु बन जाता है। एक दिन राजनर्तकी मल्लिका अंशुमाला के बारे में सुनकर उसे देखने के लिए अपनी शिष्या रत्नप्रभा के यहाँ आयी। अंशुमाला को देखकर उसे मालूम हो गया कि वह दिव्या ही है। वह उसे अपने साथ राजधानी में ले आती है। और उसे राजनर्तकी बनाना चाहती है। लेकिन लोगों ने विरोध किया कि द्विज कन्या वेश्या के आसन पर बैठकर जन के लिए योग्य नहीं बन सकती। अतः दिव्या निराश हो कर सडक पर चली जा रही थी।
चलते-चलते दिव्या नगर द्वार पर बनी एक पांथसाला के सामने पहुँच गयी। वह पांथशाला में घुस गयी। इसी बीच एक भिक्षु भी पाथंशाला के सामने आ पहुँचा जो पृथुसेन था। वह दिव्या से तथागत की शरण में आने को कहता है। लेकिन दिव्या ने पुछा कि भिक्षु धर्म में नारी का क्या स्थान है? उसने यह भी बताया कि नारी का धर्म निर्वाण नहीं, सृष्टि है। अतः उसका भिक्षु से समन्वय नहीं हो सकता। पृथुसेन निरुत्तर खडा। इसी बीच मारीश आकर दिव्या के सामने स्त्री-पुरुष का स्वाभाविक संबंध स्थापित करने की कामना व्यक्त करता है। दिव्या उसकी ओर दोनों हाथ फैलाकर कहती है आश्रय दो आर्य। दिव्या के इस कथन से कथा समाप्त हो जाता है।
दिव्या – उपन्यास की विशेषताएँ :
दिव्या में रोमांटिक उपन्यासों की कतिपय विशेषताएँ हैं। क्राँस ने रोमांटिक उपन्यास के विषय में व्यक्त किया है— “That prose fiction which deals with life in a false or fantastic manner or represents it in the setting of strange improbable or impossible adventures, the virues and voice of human nature is called romace.”[1]
यदि क्राँस की संदर्भगत परिभाषा के आलोक में दिव्या में रोमांटिकता का पर्याप्त फुट मिलता है। दिव्या के पात्रों की विशेषता यह है कि काल्पनिक होकर भी काल्पनिक नहीं लगते। दिव्या उस काल के समाज की गाथा है, जब नारी का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। वह पुरुष की भोग्य मात्र थी।
दिव्या में नारी के विविध रूप दिखायी देते हैं, कहीं तो नारी का असहाय रूप चित्रित किया गया है, कहीं नारी का एकनिष्ठ पत्नी रूप चित्रित है, कहीं उसका दासी रूप में दर-दर की ठोकरें खाने तथा स्वामी के अत्याचार को सहते दिखाया गया है, कहीं नारी का दयनीय रूप चित्रित है और कहीं उसका स्वावलम्बी रूप है।
दिव्या की समस्त चारित्रिक विशेषताएँ उसके प्रति पाठकों को सहानुभूति जाग्रत करती है। वह हिन्दी साहित्याकारा के नायिका-नक्षत्रों में से एक उज्जवल नक्षत्र है। एक नायिका के अनुरूप ही उसमें अत्याधिक साहस मिलता है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी घबराती नहीं, उनका सामना करती थी। दिव्या का चरित्र और उसकी जीवन की घटनाएँ ही कथानक का केन्द्र हैं। उपन्यास के प्रत्येक परिच्छेद में दिव्या की महत्वपूर्ण स्थिति बनी रहती है।
नायक के शास्त्रीय गुणों पर दृष्टिपात करते हैं तो स्पष्ट होता है कि उसका त्यागी, धनवान, सुन्दर, युवा, उत्साही, दक्ष तेजवान, कुलीन और शीलवान होना आवश्यक है— दिव्या में इन गुणों में से अधिक गुण मिलते है। वह उत्कृष्ट कलामयी, सरल हृदयी, वात्सल्मयी, दृढ़ निश्चयी एवं निष्कलुष नारी है।
*बी. सत्यवाणी कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावति अम्माल के निर्देशन में हिंदी में शोधरत हैं ।




[1] दिव्या पुन:र्मूल्यांकन -- डॉ. राजपाल शर्मा -- पृ.सं.82

Wednesday, September 17, 2014

राजनाथ को सराहौं या सराहौं आदित्यनाथ को!

आलेख
राजनाथ को सराहौं या सराहौं आदित्यनाथ को!

-संजय द्विवेदी

  भारतीय जनता पार्टी में लंबे समय से एक चीज मुझे बहुत चुभती रही है कि आखिर एक ही दल के लोगों को अलग-अलग सुर में बोलने की जरूरत क्या हैक्यों वे एक सा व्यवहार और एक सी वाणी नहीं बोल सकते? माना कि कुछ मुद्दों पर बोल नहीं सकते तो क्या चुप भी नहीं रह सकते? एक जिम्मेदार पार्टी की तरह आचरण क्या बहुत जरूरी नहीं है?
     ऐसे समय में जब देश में एक राजनीतिक शून्य है। कांग्रेस, माकपा, भाकपा और बसपा जैसे राष्ट्रीय दल अपने सबसे बुरे अंजाम तक पहुंच चुके हैं, क्योंकि संसदीय राजनीति में संख्याबल का विशेष महत्व है। भाजपा जैसे दल जिसे देश की जनता ने अभूतपूर्व बहुमत देकर दिल्ली की सत्ता दी है, उसके नायकों का आचरण आज संदेह से परे नहीं है। आचरण व्यक्तिगत शुचिता और पैसे न लेने से ही साबित नहीं होता। वाणी भी उसमें एक बड़ा कारक है। पिछले दिनों में घटी दो घटनाओं ने यह संकेत किए हैं कि अभी भी भाजपा और उसके समविचारी संगठनों को ज्यादा जिम्मेदारी दिखाने की जरूरत है। पहली घटना लव जेहाद पर बनाए गए वातावरण की है, दूसरी छोटी किंतु उल्लेखनीय घटना उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जवाहर लाल कौल के खिलाफ प्रदर्शन से जुड़ी है, जिसके बाद उन्हें आईसीयू में भर्ती कराना पड़ा।
    पहले लव जेहाद का प्रसंग। अपने सौ दिनों के कामकाज को प्रेस से बताते हुए केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि वे नहीं जानते कि लव जेहाद क्या है। माना जा सकता है कि उन्हें नहीं पता कि लव जेहाद क्या है। किंतु उन्हें अपने सांसदों आदित्यनाथ और साक्षी महाराज जैसे लोगों को नियंत्रित करना चाहिए कि पहले वे गृहमंत्री और पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते पता कर लें लव जेहाद क्या है। तब ये संत-सांसद अपने विचार जनता के सामने रखें। आखिर आपने जनता को क्या समझ रखा है? एक तरफ आपके सांसद और कार्यकर्ता लव जेहाद को लेकर जनता के बीच जा रहे हैं तो दूसरी ओर पार्टी और सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों की यह मासूम अदा कि वे इसे जानते ही नहीं चिंता में डालने वाली है। यह बात बताती है कि संगठन में या तो गहरी संवादहीनता है या आजादी जरूरत से ज्यादा है। भाजपा के कुछ समर्थकों को अगर लगता है कि लव जेहाद देश के सामने बहुत बड़ा खतरा है तो पूरी पार्टी और सरकार को तथ्यों के साथ सामने आना चाहिए और ऐसी वृत्ति पर रोक लगाने के लिए कड़े कदम उठाने चाहिए। क्योंकि धोखा और फरेब देकर स्त्रियों के खिलाफ अगर जधन्य अपराध हो रहे हैं जिस पर दल के सांसद और कार्यकर्ता चिंतित हैं तो यह बात उसी दल के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और अब गृहमंत्री की चिंताओं में क्यों नहीं होनी चाहिए? आपको तय करना पड़ेगा कि आखिर इस मामले का आप समाधान चाहते हैं, स्त्री की सुरक्षा चाहते हैं या यह मामला सिर्फ राजनीतिक लाभ और धुव्रीकरण की राजनीति का एक हिस्सा है। केंद्रीय सत्ता में होने के नाते अब, आरोप लगाकर भाग जाने वाला आपका रवैया नहीं चलेगा। दूसरे सामाजिक संगठन लव जेहाद के विषय पर सामने आ रहे हैं यह उनकी आजादी भी है कि वे आएं और प्रश्न करें। किंतु देश का एक जिम्मेदार राजनीतिक दल, केद्रीय गृहमंत्री और उनके सांसदों को किसी विषय पर अलग-अलग बातें करने की आजादी नहीं दी जा सकती। झारखंड के तारा शाहदेव के मामले के बाद अखबारों और टीवी मीडिया में तमाम मामले सामने आए हैं, तमाम पीड़ित महिलाएं सामने आयी हैं। जिससे इस विषय की गंभीरता का पता चलता है। यह साधारण मामला इसलिए भी नहीं है क्योंकि स्वयं सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी इस विषय पर अपनी बात कही। संघ के मुखपत्र पांचजन्य और आर्गनाइजर ने इसी विषय पर अपनी आवरण कथा छापी है। ऐसे में गृहमंत्री का वक्तव्य आश्चर्य में डालता है। ऐसे में सरकार को, भाजपा संगठन को अपना रूख साफ करना चाहिए कि वह इस विषय पर अपनी क्या राय रखते हैं।
  दूसरा विषय कश्मीर से जुड़ा है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने जिस तत्परता से कश्मीर पर आए संकट में आगे बढ़कर मदद के हाथ बढ़ाए,अपनी संवेदना का प्रदर्शन किया। उसकी सारे देश में और सीमापार से भी सराहना मिली। एक राष्ट्रीय नेता की तरह उनका और उनकी सरकार का आचरण निश्चय ही सराहना योग्य है। स्वयं प्रधानमंत्री और उनके दिग्गज मंत्रियों राजनाथ सिंह, स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन, डा. जितेंद्र सिंह ने जिस तरह तुरंत पहुंच कर वहां राहत की व्यवस्थाएं सुनिश्चत कीं, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। यही इस देश की शक्ति है कि वह संकट में एक साथ खड़ा हो जाता है। प्रधानमंत्री और उनकी सरकार द्वारा पैदा की गयी इसी राष्ट्रीय संवेदना का विस्तार हमें उज्जैन में देखने को मिला, जहां विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.जवाहरलाल कौल की कश्मीरी छात्रों की मदद करने की अपील उन पर भारी पड़ गयी और वे अस्पताल पहुंच गए। यह घोर संवेदनहीनता का मामला है जहां एक कुलपति और विद्वान प्रोफेसर को बजरंग दल और विहिप कार्यकर्ताओं के गुस्से का शिकार होना पड़ा। डा. कौल जेएनयू में प्रोफेसर रहे हैं और जाने-माने विद्वान हैं। वे स्वंय काश्मीरी हैं। उनका यह बयान काश्मीरी होने के नाते नहीं, एक मनुष्य होने के नाते बहुत महत्वपूर्ण था। उन्होंने अपने बयान में कहा था कि विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले काश्मीरी विद्यार्थियों को उनके मकान मालिक बाढ़ आपदा के चलते कुछ महीनों के लिए किराए में रियायत दें और उन्हें तत्काल किराया देने के लिए बाध्य न करें। क्या ऐसा संवेदनशील बयान किसी तरह की आलोचना का कारण बन सकता है। जबकि देश के अनेक हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठन स्वयं काश्मीर के सैलाब पीड़ितों के निरंतर मदद हेतु अभियान चला रहे हैं। एक तरफ प्रधानमंत्री और संघ परिवार के संगठन राहत के लिए काम कर रहे हैं। भारतीय सेना और सरकारी संसाधन जम्मू-कश्मीर में झोंक रखे हैं। ऐसी मानवीय आपदा के समय ऐसी सूचनाएं आहत करती हैं। उज्जैन की यह घटना समूचे संगठन की समझ पर तो सवाल उठाती ही है, घटना के बाद नेताओं की चुप्पी भी खतरनाक है। क्या एक शिक्षा परिसर में इस प्रकार की गुंडागर्दी की आजादी किसी को दी जानी चाहिए कि वह कुलपति कार्यालय में घुसकर न सिर्फ तोड़ फोड़ करें बल्कि इस अभ्रदता से आहत कुलपति को आईसीयू में भर्ती करना पड़े। सरकार को चाहिए कि ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों के खिलाफ न सिर्फ कड़ी कार्रवाई हो बल्कि उन्हें संगठन से बाहर का रास्ता भी दिखाना चाहिए। एक व्यापक मानवीय त्रासदी पर, जब मनुष्य मात्र को उसके खिलाफ लड़ने के लिए एकजुट होना चाहिए तब ऐसी सूचनाएं बताती हैं कि हमारे राजनीतिक समाज को अभी सांस्कृतिक साक्षरता लेने की जरूरत है। कर्म और वाणी का अंतर ही ऐसी घटनाओं के मूल में है। नरेंद्र मोदी के सपनों का भारत इस रवैये से नहीं बन सकता, तय मानिए।
(लेखक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं, विचार निजी तौर व्यक्त किए गए हैं)