Tuesday, October 31, 2017

​​संस्मरण : अभी मन भरा नहीं - अवनीश सिंह चौहान

​​संस्मरण : 
अभी मन भरा नहीं 
- अवनीश सिंह चौहान 

सुविख्यात साहित्यकार श्रद्देय देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी (गाज़ियाबाद) से कई बार फोन पर बात होती— कभी अंग्रेजी में, कभी हिन्दी में, कभी ब्रज भाषा में। बात-बात में वह कहते कि ब्रज भाषा में भी मुझसे बतियाया करो, अच्छा लगता है, आगरा से हूँ न इसलिए। उनसे अपनी बोली-बानी में बतियाना बहुत अच्छा लगता। बहुभाषी विद्वान, आचार्य इन्द्र जी भी खूब रस लेते, ठहाके लगाते, आशीष देते, और बड़े प्यार से पूछते— कब आओगे? हर बार बस एक ही जवाब— अवश्य आऊँगा, आपके दर्शन करने। बरसों बीत गए। कभी जाना ही नहीं हो पाया, पर बात होती रही।

इधर पिछले दो-तीन वर्ष से मेरे प्रिय मित्र रमाकांत जी (रायबरेली, उ.प्र.) का आग्रह रहा कि कैसे भी हो इन्द्र जी से मिलना है। उन्हें करीब से देखना है, जानना-समझना है। पिछली बार जब वह मेरे पास दिल्ली आये, तब भी सोचा कि मिल लिया जाय। किन्तु, पता चला कि वह बहुत अस्वस्थ हैं, सो मिलना नहीं हो सका। एक कारण और भी। मेरे अग्रज गीतकार जगदीश पंकज जी जब भी मुरादाबाद आते, मुझसे सम्पर्क अवश्य करते। उनसे मुरादाबाद में कई बार मिलना हुआ, उठना-बैठना हुआ। फोन से भी संवाद चलता रहा। उन्होंने भी कई बार घर (साहिबाबाद) आने के लिए आमंत्रित किया। प्रेमयुक्त आमंत्रण। सोचा जाना ही होगा। जब इच्छा प्रबल हो और संकल्प पवित्र, तब सब अच्छा ही होता है। 30 अक्टूबर 2017, दिन रविवार को भी यही हुआ।

सुखद संयोग, कई वर्ष बाद ही सही, कि रायबरेली से प्रिय साहित्यकार रमाकान्त जी का शनिवार को दिल्ली आना हुआ; कारण— हंस पत्रिका द्वारा आयोजित 'राजेन्द्र यादव स्मृति समारोह' में सहभागिता करना। बात हुई कि हम दोनों कार्यक्रम स्थल (त्रिवेणी कला संगम, तानसेन मार्ग, मंडी हाउस, नई दिल्ली) पर मिलेंगे। मिले भी। कार्यक्रम के उपरांत मैं उन्हें अपने फ्लैट पर ले आया। विचार हुआ कि कल श्रद्धेय इन्द्र जी का दर्शन कर लिया जाय और इसी बहाने गाज़ियाबाद के अन्य साहित्यकार मित्रों से भी मुलाकात हो जाएगी। सुबह-सुबह (रविवार को) जगदीश पंकज जी से फोन पर संपर्क किया, मिलने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने सहर्ष अपनी स्वीकृति दी और साधिकार कहा कि दोपहर का भोजन साथ-साथ करना है।

फिर क्या था हम जा पहुंचे उनके घर। सेक्टर-दो, राजेंद्रनगर। समय- लगभग 12 बजे, दोपहर। स्वागत-सत्कार हुआ। मन गदगद। अग्रज गीतकार संजय शुक्ल जी भी आ गए। हम सभी लगे बतियाने। देश-दुनिया की बातें— जाति, धर्म, राजनीति, साहित्य पर मंथन; यारी-दोस्ती, संपादक, सम्पादकीय की चर्चा; दिल्ली, लखनऊ, इलाहबाद, पटना, भोपाल, कानपुर पर गपशप। बीच-बीच में कहकहे। सब कुछ आनंदमय। वार्ता के दौरान दो-तीन बार पंकज जी का फोन घनघनाया। वरिष्ठ गीतकार कृष्ण भारतीय जी एवं साहित्यकार गीता पंडित जी के फोन थे। पंकज जी ने उन्हें अवगत कराया कि रमाकांत और अवनीश उनके यहाँ पधारे हैं। नमस्कार विनिमय हुआ। पंकज जी ने भारतीय जी से बात भी करवायी। पता चला कि भारतीय जी की सहधर्मिणी का निधन हो गया, सुनकर बड़ा कष्ट हुआ, हमने सुख-दुःख बाँटे। रमाकांत जी ने भी उन्हें सांत्वना दी। रमाकांत जी ने फोन पंकज जी को दे दिया। भारतीय जी ने पंकज जी से आग्रह किया कि उनकी पुस्तक हमें दे दी जाय। भारतीय जी की ओर से शुभकामनाएं लिखकर पंकज जी ने उनका सद्यः प्रकाशित गीत संग्रह 'हैं जटायु से अपाहिज हम' मुझे और रमाकांत जी को सप्रेम भैंट किया; संजय शुक्ल जी ने भी अपना गीत संग्रह 'फटे पाँवोँ में महावर' उपहारस्वरुप प्रदान किया। पंकज जी से न रहा गया, बोले कि एक फोटो हो जाय। सहयोग और सहभागिता के लिए उन्होंने अपनी धर्मपत्नी जी को बुलाया और दोनों सदगृहस्थों ने बड़ी आत्मीयता से हम सबका फोटो खींचा।
तीन बजने वाले थे। बिना देर किये  देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी के यहाँ पहुंचना था, क्योंकि उन्हें विद्वान लेखक ब्रजकिशोर वर्मा 'शैदी' जी की 'नौ पुस्तकों' के लोकार्पण समारोह में 4 बजे जाना था। सो निकल पड़े। ई-रिक्शा से। 5-7 मिनट में पहुँच गए, उनके घर। विवेकानंद नगर। दर्शन किये। अभिभूत, स्पंदित। लगभग 84 वर्षीय युवा इंद्र जी। गज़ब मुस्कान, खिलखिलाहट, जीवंतता- ऐसी कि मन मोह ले। उनकी दो-तीन बातें तो अब भी मेरे मन में हिलोरे मार रही हैं। वह बोले, 'मुझे ठीक से कुर्ता पहना दो, सजा दो, फोटो जो खिंचवानी है'; 'क्यों हनुमान (जगदीश पंकज जी), स्वर्गवाहिनी का इंतज़ाम हुआ कि नहीं?' (कार्यक्रम में जाने के लिए कैब बुकिंग के सन्दर्भ में); 'अवनीश, फिर आना, अभी मन भरा नहीं।' बड़े भाग हमारे जो उनसे मिलना हुआ। वह भी मिले तो ऐसे जैसे वर्षों से मिलना-जुलना रहा हो हमारा। क्या कहने! समय कम था, फिर भी, हमारी मुलाकात सार्थक और आनंदमय रही। ​जय-जय।


# प्रेम नगर, लाइन पार, मझोला
मुरादाबाद (उ.प्र.)-244001 
9456011560 

Wednesday, October 25, 2017

बाल कविता

बाल कविता .













डॉ.प्रमोद सोनवानी पुष्प
" भौंरा "
  --------

गुन-गुन करता आता भौंरा ,
मीठी तान सुनाता भौंरा ।
फूलों के सम्मुख जा-जाकर,
अपना रंग जमाता भौंरा ।।

फूलों का रस पी-पीकर ।
मन ही मन मुस्काता भौंरा ।।

पराग चुसनें में जो माहिर ।
लोभी वह कहलाता भौंरा ।।



" अजब सलोना गाँव "
   ---------------------------

अजब सलोना,सबसे प्यारा,
गाँव हमारा भाई ।
मस्त मगन हो पक्षी नभ में ,
उड़ रहे हैं भाई ।।

हरी घास है मखमल जैसी,
चहुँ दिशा में हरियाली ।
चहक रही है डाल-डाल पर,
कोयल काली-काली ।।

               

            " श्री फूलेंद्र साहित्य निकेतन "
               तमनार/पड़ीगाँव-रायगढ़(छ.ग.)
ई-मेल:-Pramodpushp10@gmail. com

Tuesday, October 24, 2017

विमर्शों के आलोक में शिवमूर्ति का साहित्य

आलेख

विमर्शों के आलोक में शिवमूर्ति का साहित्य
-         रहीम मियाँ

      साहित्य का लक्ष्य ही है वंचित समाज को स्वर प्रदान करना और मानवीय धरातल पर स्थापित करना। इन्हीं वंचितों में एक है स्त्री, किसान और दलितों का समाज। अपने प्राप्य से दरकिनार यह समाज सदा से सृजन की स्रोत सामग्री रही है, स्त्री हो, दलित हो या किसान, ये आज भी हाशिए की श्रेणी में है, पर इनकी दिशा पहले जैसी निरिह नहीं रही है। आर्थिक, राजनीतिक और संवैधानिक अधिकारों के बावजूद किन्हीं मामलों में अंतर्विरोध से भी ग्रसित है। इन्हीं बहुआयामी अग्रगति के साथ इनके अंतर्विरोध आज विमर्शों का नया आख्यान ही रच रहा है।
      शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन के कथाकार है तो प्रेमचन्द, रेणू, नागार्जुन जैसे कथाकार ग्राम्य बोध के जनक। इस धरातल पर यह अनिवार्यत विचारणीय ठहरता है कि शिवमूर्ति के पूर्व कथाजगत में जो ग्रामीण जीवन रहा, वहीं तक भारत का गाँव टीका न रहकर वर्तमान भूमंडलीय परिदृश्य में नित नये - नये रुपों को ग्रहण करता रहा है। किसान न तो किसानी में गर्व का अनुभव कर रहा है, न स्त्री अधिकांश में प्रेमचन्दीय आदर्शों को ढ़ो रही है और रही बात दलित की तो आज दलित सद्गति या ठाकुर का कुँआ की भाँति विवश नहीं है, बल्कि आरक्षण की नीति के आधार पर सवर्णों को भी विवश किए हुए है।
शिवमूर्ति के कथा साहित्य का केन्द्र स्त्री, दलित और किसान रहे हैं। ये तीनों किसी न किसी रुप में हजारों वर्षों से समाज में हाशिए पर रहे हैं। स्त्री को एक ओर जहाँ पुरुष की अर्धांगिनी कहा गया वहीं सदा से वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था से शोषित एवं पीड़ित होती रही है। दलित विमर्श और आरक्षण नीति के बावजूद आज भी दलित अपने अस्तित्व एवं अधिकार की लड़ाई लड़ रही है। भारत की आत्मा गाँव में बसने के बावजूद किसानों की स्थिति बद से बदतर है। ऐसे हाशिए पर फेंके गए वर्ग की आवाज बनते हैं शिवमूर्ति, जिन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से स्त्री, दलित एवं किसानी जीवन के यथार्थ एवं मर्म को समाज के लोगों के बीच लाकर प्रस्तुत कर दिया है।
शिवमूर्ति के नारी पात्र न्याय के लिए लड़ते हैं, भले न्याय न मिले, किन्तु वे संघर्षशील है, सत्ता को चुनौती देती है। अकालदण्ड की सुरजी हो, केशर कस्तुरी की केशर, कसाईबाड़ा की शनिचरी हो या तिरिया चरित्तर की विमली।तिरिया चरित्र कहानी में शिवमूर्ति ने दलित वर्ग की स्त्री का कारुणिक चित्रण पेश किया है। कहानी का पात्र विमली पुरुषों के बीच जाकर ईट भट्टे में काम करती है तो केवल अपने माँ – बाप के भरण-पोषण के लिए। उसे अपने ही ससुर द्वारा बलात्कार की पीड़ा झेलनी पड़ती है। ससुर द्वारा विमली पर ही लांछन लगाया जाता है और विमली को पंचायत की क्रूरता झेलनी पड़ती है। एक बात गौर करने की है कि प्रेमचन्द के पंचपरमेश्वर में जहाँ पंच की महीमा दिखाई गई है, वहीं गोदान तक आते – आते प्रेमचन्द का पंच से मोहभंग हो जाता है और वही पंच शिवमूर्ति के यहाँ आते-आते पहले से अधिक क्रूर और आततायी हो चुका है। यह पंच विमली को निरपराध दाग देता है, पर इसका विरोध विमली अवश्य करती है – मुझे पंच का फैसला मंजूर नहीं। पंच अंधा है। पंच बहरा है। पंच में भगवान का सत्त नहीं है। मैं ऐसे फैसले पर थूकती हूँ – आ-क-थू। देखूँ कौन माई का लाल दगनी दागता है।  कुच्ची का कानून कहानी में कुच्ची, विमली की तरह पराश्त नहीं होती है। वह पंचायत के सामने अपनी माँ बनने की अधिकार रक्षा में सफल होती है। कुच्ची बदलते समय में बदलते समाज की  सोच की उद्घोषणा करती नजर आती है। पितृसत्ता के विरोध में मातृसत्ता को स्थापित करने की माँग करती है। उसका यह सवाल ध्यातव्य है – कोख मेरी है तो इसपर हक किसका होगा। शिवमूर्ति ने कोख पर स्त्री के अधिकार के मुद्दे को घर से बाहर पंचायत में लाकर एक नये अधिकार एवं विमर्श को हवा दी है। बिना पति के माँ बनने की बात पर जब सास द्वारा शंका व्यक्त की जाती है तब वह कहती है – किसी का नाम धरना जरुरी है क्या अम्मा? अकेले मेरा नाम काफी नहीं है?“ वह पंचों के स्त्री अस्मिता की लड़ाई लड़ती है और स्पष्ट घोषणा करती है – कुंती माई डर गयी, अंजनी माई डर गयी, सीता की माई डर गयी, लेकिन बालकिसन की माई डरने वाली नहीं है। मेरा बालकिसन पैदा होकर रहेगा।
शिवमूर्ति के स्त्री पात्र पढ़े-लिखे एवं शहरी नहीं है, वे ग्रामीण है, दलित है, किन्तु अन्याय के खिलाफ लड़ने की चेतना से पूर्ण। ये दलित वर्ग की वे स्त्रियाँ है जो हजारों वर्षों से पितृसत्ता के शोषण की शिकार होती आई है, पर अब ये स्त्रियाँ प्रतिरोध करने लगी है। अकालदण्ड में सुरजी हँसिये से सेक्रेटरी के देह का नाजुक हिस्सा काटकर अलग कर देती है - अन्दर का दृश्य बड़ा भयानक है। सिकरेटरी बाबू पलंग पर नंग – धरंग पड़े छटपटा रहे हैं। सुरजी ने हासिए से उसकी देह का नाजुक हिस्सा अलग कर दिया है और पिछवाड़े के रास्ते भागकर अंधेरे में गुम हो गई है। तर्पण में मिस्त्री बहु ललकारती है – ‘’पकड़ – पकड़ भागने न पाये। पोतवा पकड़ कर ऐंठ दे। हमेशा – हमेशा का ग्रह कट जाय।‘’
बनाना रिपब्लिक दलित राजनीति और उसके उभार की कहानी है। जग्गू द्वारा लेखक ने यह दिखा दिया है कि अब दलितों का राजनीतिकरण हो चुका है। ठाकुर द्वारा दलित को कठपुतली बनाकर सत्ता पाने का कुचक्र अब नहीं चलेगा। जग्गू के चुनाव जीतने पर जुलूस का ठाकुर के घर की तरफ न जाना, ठाकुर द्वारा स्वयं जग्गू के जुलूस में माला लेकर पहुँचना और किसी के कहने पर – जरा कमरिया तो लचकाइए ठाकुर, ठाकुर का कमरिया लचकाकर नाचना बदलते समय का यथार्थ है। यह कहानी कफन के आगे का यथार्थ है। कफन से आगे बढ़कर दलित चेतना का क्रांतिकारी
विस्फोट है। घिसु, माधव का कफन के पैसे से शराब पीकर नशे में गिरना दलित समाज की नियति थी तो जग्गू का चुनाव जीतकर ठाकुर को नचाना आज की नियति। ठाकुर द्वारा यह कहना – ‘’अगर पानी पीने से साथ पक्का होता हो तो बाल्टी भर पी जाऊ’’, ठाकुर के कुँआ का अगला विकास है, जहाँ जोखू को गंदा और बदबूदार पानी पीने के लिए मजबूर होना पड़ा था। वहीं बनाना रिपब्लिक में ठाकुर को दलितों के साथ के लिए मजबूर होना पड़  रहा है। कहानी के अंत में ठाकुर के पंजे में पंजा फसाँकर  नाचने वाले दलित बच्चे घिसु-माधव की तरह नशे में धत्त होकर नाचने वाले बच्चे नहीं है बल्कि पंजे से पंजा मिलाकर सीधे वर्ग-संघर्ष करने वाले बच्चे है। तर्पण उपन्यास में दलित झूठ बोलना सीख चुके हैं। यहाँ दलित बलात्कार किए जाने की झूठी रिपोर्ट लिखवाते हैं। वे जान गये हैं कि झूठ बोलकर ही सवर्णों ने दलितों पर हजारों वर्षों तक शोषण किया –  केवल एक झूठ बोलकर कि वे बह्रमा के मुँह से पैदा हुए और हम पैर से, वे हजार साल से हमसे अपना पैर पुजवाते आ रहे हैं। अब एक झूठ बोलने का हमारा दाँव आया है तो हमारे गले में क्यों अटक रहा है। तर्पण के दलित पात्र अपने शोषण का सवर्णों से हिंसक बदला लेने लगे है। चन्दर की नाक क्या कटी सवर्णों की मानो इज्जत उतर गई। जहाँ सवर्ण चमारों से बदला लेना चाहते हैं वहीं चमार भी कट्टे, बम लेकर मुकाबले के लिए तैयार हो जाते हैं। पियारे को अपने मुन्ना पर गर्व होता है कि जो काम इतने वर्षों में वह नहीं कर पाया उसका बेटा कर देता है – कब से जोर जुल्म सह रही है उसकी जाति। पीढ़िया गुजर गई सहते – सहते। कोई माई का लाल न पैदा हुआ मुँहा – मुँही जवाब देने वाला। और आज उसके बेटे ने ऐसा कर दिखाया तो छिपे – छिपे घुमने का क्या मतलब? यह तो दुनिया जहान में डंका पीटकर बताने वाला काम है। लेकिन नाक क्यों काटा? सीधे मूँड़ ही क्यों नहीं काट लिया। मुन्ना का जुर्म पियारे अपने सर ले लेता है और वकील के समझाने पर कहता है – ‘’नहीं वकील साहब। मुझे जेल जाना है। जेल की रोटी खाकर पराश्चित करना है। इस पाप का पराश्चित कि कान-पूँछ दबाकर इतने दिनों तक उन लोगों का जोर - जुल्म सहता रह गया।‘’ पियारे मानो सारे दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, वह जेल नहीं मानो तमाम दलितों का, उनके पुरखों का तर्पण करने जा रहा है। पुलिस के पूछने पर कि कब से प्लान कर रहा था मारने की। वह कहता है – बहुत दिन से सरकार। जब से इसने मेरी बेटी की राह रोकी बल्कि और पहले – पचीसों – पचासों साल पहले। जब से इन लोगों का जोर – जुल्म देखा। एक  युग से या कहिये पिछले जन्म से सरकार। पियारे का यह जवाब तमाम दलित वर्ग के अन्दर कई वर्षों से दबे बदले की आग है, यह सदियों का संताप है जो आज दृढ़तापूर्वक बाहर निकल आया।
आज किसानों की गति और गंतव्य दोनों बदले है। प्रेमचन्द का किसान साहुकारों, जमींदारों द्वारा शोषित था तो आज का किसान सरकारी नीतियों द्वारा शोषित है। कॉरपोरेट बैंकों द्वारा दिए गए कर्ज के भार तले दबे, कुचले किसान आत्महत्या के लिए मजबूर है। आखिरी छलाँग का किसान प्रेमचन्द के किसान की तरह दब्बू एवं कमजोर नहीं है। वह पहलवान है। उसका अट्टाहास दूर तक गूँजता है। अच्छी फसल के लिए कई बार उसे ईनाम मिल चुका है। विश्वनाथ त्रिपाठी जी लिखते है – ‘’पहलवान होरी से ज्यादा सजग, खाते – पीते प्रबुद्ध और इज्जतदार बल्कि प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के किसान – खेतिहर है।‘’  पूँजीवादी व्यवस्था धीरे – धीरे किसानों को लील रहा है। बुलेट ट्रेन, रेलवे कॉरिडार, एक्सप्रेस वे एवं कई योजनाओं के नाम पर किसानों की जमीनें हड़पी जा रही है। अतः आज का किसानी जीवन प्रेमचन्द के समय जैसा एकरेखिय नहीं रह गया है। आज किसान खेती को घाटे का काम मानता है। जहाँ सवा सेर गेहूँ का शंकर साधु को भोजन कराकर मोक्ष पाने के लिए कर्ज लेता है और सवा सेर गेहूँ का कर्ज न उतार पाने के कारण अपनी खेत गिरवी रख देता है, वहीं आखिरी छलाँग का किसान पहलवान अपने बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए खेत बेचना चाहता है, क्योंकि वह जानता है कि गड्ढ़े से खोदी गई मिट्टी उस गड्ढ़े को भरने में पूरी नहीं पड़ती।

संदर्भ – ग्रंथ
1.      
  1.                                  1.         मंच - पत्रिका – शिवमूर्ति विशेषांक – जनवरी-मार्च, 2011.
2.       लमही -  ‘’               ‘’             ‘’          - अक्टूबर-दिसम्बर, 2012 .        
3.       संवेद -      ‘’                ‘’            ‘’    - फरवरी-अप्रैल, 2014.
4.       इंडिया इन्साइड – ‘’ ‘’            ‘’     - 2016.
5.       त्रिशुल – उपन्यास – शिवमूर्ति।
6.       तर्पण –   ‘’                        ‘’
7.       आखिरी छलाँग – ‘’           ‘’
8.       कसाईबाड़ा – कहानी – शिवमूर्ति।
9.       केसर कस्तुरी – ‘’                ‘’
10.   तिरिया चरित्र – ‘’                 ‘’
11.   सिरी उपमा जोग – ‘’           ‘’
12.   भारत नाट्यम –     ‘’             ‘’
13.   ख्वाजा ओ मेरे पीर – ‘’       ‘’
14.   बनाना रिपब्लिक –     ‘’         ‘’
15.   कुच्ची का कानून -     ‘’       ‘’
***

सहायक आचार्य,
बानारहाट कार्तिक उराँव हिन्दी गवर्नमेंट कॉलेज
बानारहाट, जलपाईगुडी, पश्चिम बंगाल,
पिन- 735203, फोन- 9832636020.


बाल कविताएँ ...... - डॉ.प्रमोद सोनवानी " पुष्प "

बाल कविताएँ ......




 - डॉ.प्रमोद सोनवानी " पुष्प "

" सूरज भैया "
-------------------

नित्य सवेरे उठकर कहती,
राजू को उसकी मैया ।
पूरब में देखो तो राजू ,
आये हैं सूरज भैया ।।1।।

लो सूरज की किरण परी भी ,
चहुं दिशा को हरषाई ।
पानी में देखो सूरज की ,
चमक रही है परछाई ।।2।।


" प्यारे वृक्ष "
  ---------------

प्यारे-प्यारे वृक्ष हमारे ,
सबके मन को भाते हैं ।
शुद्ध हवा देकर ये हमको,
जग की सेवा करते हैं ।।1।।

पास बुला बादल भैया को,
वर्षा खूब कराते हैं ।
शान बढ़ाते हैं धरती की ,
शीतल छाया देते हैं ।।2।।


" मेरा परिवार "
  -----------------

मेरा छोटा सा परिवार ,
इससे हम करते हैं प्यार ।
मम्मी-पाप, सोनू -भैया ,
करते मुझसे प्यार दुलार ।।1।।

मम्मी-पापा से कहता है ,
मेरा प्यारा भैया सोनू ।
हरपल मोनू मुझे सताती ,
करो फैसला तो मैं जानूँ।।2।।

नहीं तो भाई कह देता हूँ ,
खट्टी कह दूँगा इस बार ।
मेरा छोटा सा परिवार ,
इससे हम करते हैं प्यार ।।3।।

            
 डॉ.प्रमोद सोनवानी " पुष्प "
             संपादक- " वनाँचल सृजन "

             "श्री फूलेंद्र साहित्य निकेतन"
             तमनार/पड़ीगाँव-रायगढ़(छ.ग.)
              भारत , पिन:- 496107
ई-मेल :- Pramodpushp10@gmail. com

बाल कविता .. "चलो मंगल ग्रह में "

बाल  कविता ..

"चलो मंगल ग्रह में "
   

 -डॉ.प्रमोद सोनवानी पुष्प

हम भी भेज दिये हैं बच्चों ,
मंगल ग्रह को यह संदेश ।
सकल जहाँ से कम नहीं है,
अपना प्यारा भारत देश ।।1।।


मंगल ग्रह के राजा को हम,
देश का हाल सुनायेंगे ।
देश कैसे बढ़ेगा आगे ,
सबक यही सीख आयेंगे ।।2।।


मंगल वाले दुनियाँ का सच,
चहुँ ओर बगरायेंगे ।
चलो-चलें जी मंगल ग्रह में,
हम सबको समझायेंगे ।।3।।


यहाँ बढ़ रही है जनसंख्या,
चलो वहाँ सब जायेंगे ।
मंगल ग्रह की नगरी में हम,
गीत ख़ुशी के गायेंगे ।।4।।

            
             संपादक- " वनाँचल सृजन "
           " श्री फूलेंद्र साहित्य निकेतन "
             तमनार,पड़ीगाँव -रायगढ़(छ.ग.)
               भारत, पिन- 496107
ई-मेल:-Pramodpushp10@gmail. com

भ्रष्टाचार को पोषित करने का फरमान क्यों?

भ्रष्टाचार को पोषित करने का फरमान क्यों?

-ललित गर्ग


भ्रष्टाचार की खबर छापने तक पर रोक लगाने के राजस्थान सरकार के नये कानून ने न केवल लोकतंत्र की बुनियाद को ही हिला दिया है बल्कि चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी के इस वादे की भी धज्जियां उडा दी है जिसमें सुशासन एवं लोकतंत्र की रक्षा के लिये हरसंभव प्रयत्न का संकल्प व्यक्त किया था। इस अध्यादेश के माध्यम से प्रान्तीय सरकार ने जजों, पूर्व जजों और मजिस्ट्रेटों समेत अपने सभी अधिकारियों-कर्मचारियों को ड्यूटी के दौरान लिए गए फैसलों पर सुरक्षा प्रदान करने का जो कानून बनाया है, वह वाकई आश्चर्यजनक है। इस तरह के कानून से न केवल भ्रष्टाचार को बल मिलेगा, बल्कि राजनीति एवं प्रशासन के क्षेत्र में तानाशाही को बल मिलेगा। ऐसा बेतुका ‘नादिरशाही’ फरमान जारी करके राज्य सरकार भारत के संविधान में प्रदत्त न्यायपालिका एवं मीडिया की स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाना चाहती है और पुलिस को अकर्मण्य बना देना चाहती है। इस पूरे अध्यादेश पर न केवल राजस्थान में बल्कि समूचे राष्ट्र में राजस्थान सरकार का जमकर विरोध हो रहा है। विपक्षी पार्टियों, पत्रकारों, भ्रष्टाचार विरोधी लोगों समेत सोशल मीडिया पर आम जनता राजस्थान सरकार पर इस अध्यादेश को लेकर जमकर बरस रही है।
आपरााधिक कानून (राजस्थान अमेंडमेंट) अध्यादेश 2017 के मुताबिक कोई भी मजिस्ट्रेट किसी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी के खिलाफ जांच के आदेश तब तक नहीं जारी कर सकता, जब तक संबंधित विभाग से इसकी इजाजत न ली गई हो। इजाजत की अवधि 180 दिन तय की गई है, जिसके बाद मान लिया जाएगा कि यह स्वीकृति मिल चुकी है। अध्यादेश में इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जांच की इजाजत मिलने से पहले शिकायत में दर्ज गड़बड़ियों को लेकर मीडिया में किसी तरह की खबर नहीं छापी जा सकती। छह माह की अवधि इतनी बड़ी अवधि है कि उसमें अपराध करने वाला या दोषी व्यक्ति सारे साक्ष्य मिटा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रदेश सरकार अपने कर्मचारियों एवं अधिकारियों को भ्रष्टाचार की खुली छूट दे रही है। सवाल यह है कि सरकार को किस बात का डर है कि वह इस तरह का कानून लाना चाहती है? जाहिर है कि राज्य सरकार ऊपर से लेकर नीचे तक ऐसे तत्वों के साये में काम कर रही है जो जनता की गाढ़ी कमाई पर मौज मारने के लिए आपस में ही गठजोड़ करके बैठ गये हैं। अब इन्होंने यह कानूनी रास्ता खोज निकाला है कि उनके भ्रष्ट आचरणों का भंडाफोड़ न होने पाये। राजस्थान सरकार ने सारी लोकतान्त्रिक मर्यादाओं का बांध तोड़ कर भ्रष्टाचार की गंगा अविरल बहाने का इंतजाम कर डाला है, जबकि हकीकत यह है कि मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप उन्हीं की पार्टी के वरिष्ठ नेता खुलकर लगा चुके हैं। इन सभी आरोपों की सार्वजनिक रूप से जांच की जानी चाहिए थी मगर हो उलटा रहा है कि भ्रष्टाचारियों को पोषित एवं पल्लवित किया जा रहा है।
यह अध्यादेश अनेक ज्वलंत सवालों से घिरा है। इसमें कोई शक नहीं कि राजस्थान सरकार का यह अध्यादेश भ्रष्टाचार को संरक्षण देने की हाल के वर्षों में सबसे निर्लज्ज कोशिश है। लोकतंत्र में ऐसे किसी प्रावधान के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता, जो सरकारी अधिकारियों के ड्यूटी के दौरान लिए गए फैसलों और उनकी व्यावहारिक परिणति को लेकर खबरें देने पर रोक लगा दे। बारिश से ठीक पहले बनने वाली फर्जी सड़क या कोई पुल अगर पहली ही बारिश में बह जाए या ढह जाए तो इस बारे में कोई खबर आपको पढ़ने को नहीं मिलेगी। ऐसी किसी खबर की गुंजाइश अगर बनी तो वह अगले जाड़ों में ही बन पाएगी, जब संबंधित अधिकारी शायद कहीं और जा चुके होंगे! 
लगता है प्रदेश की मुख्यमंत्री का अहंकार सातवें आसमान पर सवार है। वे जन-कल्याण या विकास के कार्यों से चर्चित होने के बजाय इन विवादास्पद स्थितियों से लोकप्रिय होना चाहती है। स्वतन्त्र भारत में राजनीति एवं सत्ता का इतिहास रहा है जब भी किसी शासनाध्यक्ष नेे सत्ता के अहंकार में ऐसे अतिश्योक्तिपूर्ण एवं अलोकतांत्रिक निर्णय लिये, जनता ने उसे सत्ताच्युत कर दिया। विशेषतः लोकतंत्र के चैथे स्तंभ को जब भी कमजोर या नियंत्रित करने की कोशिश की गयी, उस सरकार के दिन पूरे होने में ज्यादा समय नहीं लगा है। सवाल किसी भी पार्टी की केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें हो, जनता ने अपने निर्णय से उसे हार का मुखड़ा दिखाया है। गुलामी के दिनों से लेकर आजादी तक भारत की जनता भले ही अशिक्षित एवं भोली-भाली रही हो, लेकिन ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ के लिये समय-समय पर ‘इन्कलाब’ करती रही और सत्ता को चुनौती देती रही है।
पूर्व राजे-महाराजाओं की तर्ज पर जो लोग इस मुल्क के लोगों को अपनी ‘सनक’ में हांकना चाहते हैं उन्हें आम जनता इस तरह ‘हांक’ देती है कि उनके ‘नामोनिशां’ तक मिट जाते हैं। बिहार के मुख्यमन्त्री रहे जगन्नाथ मिश्र ने भी ऐेसी ही तानाशाही दिखाने की जुर्रत की थी। उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगा कर अपनी मनमानी करने की कुचेष्टा की थी, आज उन जगन्नाथ मिश्र का कहीं अता-पता भी नहीं है, जनता ने उनको ऐसा विलुप्त किया कि उनके नाम के निशान ढूंढे नहीं मिलते हैं। इंदिरा गांधी ने नसबंदी के फरमान से ऐसी ही तानाशाही दिखाई थी कि उन्हें भी हार का मुंह देखना पड़ा।
  देश में भ्रष्टाचार के सवाल पर अनेक आंदोलन हुए हैं, अन्ना हजारे के आन्दोलन को अभी भुले भी नहीं हैं। इसी आन्दोलन ने केजरीवाल को सत्ता पर काबिज किया है और इसी आन्दोलन के समय अपनी राजनीति जमीन को मजबूत करने के लिये उस समय विपक्ष में बैठी बीजेपी भी राजनीति और सरकार में पारदर्शिता की वकालत कर रही थी। भ्रष्टाचार के विरोध का स्वर ही उनकी ऐतिहासिक जीत का सबब बना है लेकिन उस भाजपा ने सत्ता हासिल करते ही किये गये वादा को किनारे कर दिया। अक्सर आजादी के बाद बनने वाली हर सरकार ने भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा तो बनाया लेकिन उस पर अमल नहीं किया। आज हालत यह है कि केंद्र में भाजपा की सरकार लोकपाल की नियुक्ति से कन्नी काट रही है, और उसी की राजस्थान में सरकार है, जो सरकारी भ्रष्टाचार की खबर छापने तक पर रोक लगा रही है और आम आदमी के शिकायत करने के लोकतांत्रिक अधिकार को भी भौंथरा कर दिया है। जबकि 2012 में भाजपा के ही डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी भी आम नागरिक की शिकायत दर्ज करने के संवैधानिक अधिकार को गैर-वाजिब शर्तों के दायरे में नहीं रखा जाना चाहिए और उसकी शिकायत का संज्ञान लिया जाना चाहिए। मगर राजस्थान सरकार के इस आदेश के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को ही निस्तेज कर दिया हैं। भ्रष्ट आचरण और व्यवहार अब हमें पीड़ा नहीं देता। सबने अपने-अपने निजी सिद्धांत बना रखे हैं, भ्रष्टाचार की परिभाषा नई बना रखी है। इस तरह का सत्ता-शीर्ष का चरित्र देश के समक्ष गम्भीर समस्या बन चुका है। राजनीति की बन चुकी मानसिकता में आचरण की पैदा हुई बुराइयों ने पूरे तंत्र और पूरी व्यवस्था को प्रदूषित कर दिया है। स्वहित और स्वयं की प्रशंसा में ही लोकहित है, यह सोच हमारे समाज में घर कर चुकी है। यह रोग मानव की वृत्ति को इस तरह जकड़ रहा है कि हर व्यक्ति लोक के बजाए स्वयं के लिए सब कुछ कर रहा है।
राजनीति करने वाले नैतिक एवं लोकतांत्रिक उत्थान के लिए काम नहीं करते बल्कि उनके सामने बहुत संकीर्ण मंजिल है, ”वोटों की“। ऐसी रणनीति अपनानी, जो उन्हें बार-बार सत्ता दिलवा सके, ही सर्वोपरि है। वोट की राजनीति और सही रूप में लोकतांत्रिक उत्थान की नीति, दोनों विपरीत ध्रुव हैं। एक राष्ट्र को संगठित करती हैं, दूसरी विघटित। सच तो यह है कि बुराई लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं, बुरे तो हमारे राजनीतिज्ञ हैं। जो इन बुराइयों को लोकतांत्रिक व्यवस्था की कमजोरियां बताते हैं, वे भयंकर भ्रम में हैं। बुराई राजनीति के चरित्र में है इसलिए व्यवस्था बुरी है। राजनीति का रूपांतरण होगा तो व्यवस्था का तंत्र सुधरेगा। वैसे हर क्षेत्र में लगे लोगों ने ढलान की ओर अपना मुंह कर लिया है। राष्ट्रद्रोही स्वभाव राजनीति के लहू में रच चुका है। यही कारण है कि उन्हें कोई भी कार्य राष्ट्र के विरुद्ध नहीं लगता और न ही ऐसा कोई कार्य हमें विचलित करता है। सत्य और न्याय तो अति सरल होता है। तर्क और कारणों की आवश्यकता तो हमेशा स्वार्थी झूठ को ही पड़ती है। जहां नैतिकता और निष्पक्षता नहीं, वहां फिर भरोसा नहीं, विश्वास नहीं, न्याय नहीं।
कोई सत्ता में बना रहना चाहता है इसलिए समस्या को जीवित रखना चाहता है, कोई सत्ता में आना चाहता है इसलिए समस्या बनाता है। यह रोग भी पुनः राजरोग बन रहा है। कुल मिलाकर जो उभर कर आया है, उसमें आत्मा, नैतिकता व न्याय समाप्त हो गये हैं। नैतिकता की मांग है कि भ्रष्टाचारियों को पोषित करने के नापाक इरादों को नेस्तनाबूद किया जाये। वसुंधरा अराजकता एवं भ्रष्टाचार मिटाने के लिये ईमानदार नेतृत्व दे। उनकी नीति और निर्णय में निजता से ज्यादा निष्ठा होनी चाहिए। राजनीति की गलत शुरुआत न करें। क्योंकि गणित के सवाल की गलत शुरुआत सही उत्तर नहीं दे पाती है, गलत दिशा का चयन सही मंजिल तक नहीं पहुंचाता है। सदन में बहुमत है तो क्या, उसके जनहित उपयोग के लिये भी तो दृष्टि सही चाहिए।

 (ललित गर्ग)
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