Sunday, August 31, 2008

कविता


भावना

- डी.अर्चना, हिंदूस्‍तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लि.,चेन्नै ।

भावना
अभिव्‍यक्ति,
व्‍यक्ति की अज़ादी,
पहचान,
मान और सम्‍मान ।
दुनियां में हर एक को,
अपने तरीके से जीने का ही नहीं,
बल्कि बोलने का भी अधिकार है।
भावना, अखिर कार्य व प्रेरणा शब्‍द का पर्याय ही है
यही व्‍यक्ति का जीता जागता फलसफा है।
भावना व्‍यक्ति की दशा और दिशा को बदलती है,
जीवन में नव स्‍फूर्ती को उजागर करती है,
सही रास्‍ते पर चलाती है,
मानवता से जीने का पाठ सिखलाती है।
भावना धर्म है
कर्म है
मर्म है
इसी में दया, माया व ममता समाहित है
जड़ को चेतन में परिवर्तित करती है
इच्‍छा को दिलासा दिलाती है,
और कर्म का धर्म बताती है
भावना नहीं तो आदमी नहीं,
यह दुनिया भी नहीं, ये रिश्ते नहीं,
ये नाते नहीं,
यही भावना पशु पक्षियों में नहीं..................
इस लिए प्राणियों में
मानव ही, सर्व श्रेष्‍ठ प्राणि कहलता है।
इस लिए
सभीको
नियंत्रित
करता
है।

Friday, August 22, 2008

कविता

क्या यह प्यार है…


- जय नारायण त्रिपाठी 'अद्वितीय'

क्या यह प्यार है ?
क्या यह प्यार है ???
अब हर एक क्षण आकुल है,
नेत्र तेरे दर्शन को व्याकुल है
तेरे बिन अब रिक्त रिक्त सा,
लगता यह संसार है 1
क्या यह प्यार है ?

साथ तेरा पाकर, हर
लम्हा रोशन लगता है
तुझसे दूर, अँधेरा लगता,
दीवाली का त्यौहार है 2
क्या यह प्यार है ?

तुझसे बात करूं तो,
खुशहाल रहे पूरा दिन
जब तू फेर दे नज़रे,
लगे पूरा दिन बेकार है 3
क्या यह प्यार है ?

यह नवयौवन के मृदु भावों
की, मीठी एक बयार है
और अब तो रूह भी चाहे,
तुझ को करना अंगीकार है 4
क्या यह प्यार है ?

गर यह आकर्षण ही होता,
आँखों तक ही सीमित रहता
क्यों फिर यह दिल तक
करता, सीधा सीधा वार है 5
क्या यह प्यार है ?

पलक हटाकर नयन हमेशा,
करते तुम्हे तलाश थे
लेकिन अब तो सपनों को भी,
बस तेरा इंतज़ार है 6
क्या यह प्यार है ?

ना रूप, न धन, और
न यौवन ही का आकर्षण
ये दिल तो अब बस
तेरे लिए बेकरार है 7
क्या यह प्यार है ?

तेरा साथ मिले तो, जग
से निर्वासन स्वीकार है
तेरा चिंतन ही प्रियतम
अब जीवन का आधार है 8


हाँ यह प्यार है ...
हाँ यह प्यार है ...
lll

Tuesday, August 19, 2008

कविता





चलो फिर से आज़ादी की मशाल जलाएंगे हम




- मनमोहन बी. करकेरा, एच.पी.सी.एल., चेन्नई ।




चलो फिर से आज़ादी की मशाल जलाएंगे हम
भारत की प्रगति की नई राह बनाते हैं हम
हमारे देश के हर उतार चढ़ाव को झेलते हैं हम
चलो फिर से आज़ादी की मशाल जलाते हैं हम
झूठे वादों से जूझते हैं
एक नया राजनेता चुनते हैं हम......
भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस और एक नए
चंद्रशेखर आज़ाद को ढूंढते हैं हम
चलो फिर से आज़ादी की मशाल जलाएंगे हम ।
हर एक बच्‍चे के सपनों को सज़ाते हैं हम
हर युवा के लक्ष्‍य को सींचते हैं हम,
हर बहन के प्‍यार को पाते हैं हम
हर मां की लोरी को सुनते हैं हम
चलो फिर से आज़ादी की मशाल जलाएंगे हम ।
हर एक घर में रोटी,
हर घर में पानी पहुँचाते हैं हम,
हर घर में बिजली सजाते हैं हम,
हर गाँव को शहर बनाते हैं हम
चलो फिर से आज़ादी की मशाल जलाएंगे हम ।
हर एक आतंक को जड़ से उखाड़ते हैं हम,
राम और रहीम के बीच एक सेतु बांधते हैं हम,
हर घर में एक अभिनव बिंद्रा को बनाते हैं हम
चलो फिर से आज़ादी की मशाल जलाएंगे हम ।

Monday, August 18, 2008

कविता

अभी नहीं

- मैत्रेयी बनर्जी

आंसुओं अभी मत बहो अभी बहने का वक्त नहीं है
तुम एक वीरांगना की पलकों मे पनपी हो
तुम्हें अपने दुखों पर रोने का कोई हक़ नही है ।
-वीर अभिमन्यु की तरह पलना है तुम्हें इन्हीं पलकों में
देखना है दुनिया वालों के बदलते रंग
किस तरह छलनी किए जाते हैं इस जहाँ में
मासूम दिलों के उमंग ।
जानना है तुम्हें इस चक्रव्यूह के राज को
जो रची गई है धर्म, सत्य, आचार, और इमान, की लाश पर
जानना है तुम्हें उन सभी को - जो गद्दियों पर
विराजमान है भ्रष्टाचार के बल पर
तोड़ना है तुम्हें उसी चक्रव्यूह को
जिसे युग पहले वह अभागा ना तोड़ सका
रटना है तुम्हें उसी अंतिम पाठ को
जिसे वह अभागा ना सुन सका
बंधे रहो तुम तब तक इन्हीं आखों में
सिसकते रहो हर क्षण इसी रणभूमि में
क्योंकि तुम अभिमन्यु हो और सुभद्रा का कोख यही है
आंसुओं अभी मत बहो अभी बहने का वक्त नही है ।
-बहना तुम उस घड़ी जब कोई मजबूर
इमानदार बेचे अपनी इमान को
बहना तुम उस घड़ी जब कोई वृद्ध कंधा
सहारा दे बेटे की लाश को
फूट पड़ना तुम उस समय जब कोई
लालची सास सताए अपनी पुत्रवधू को
बह जाना तुम उस समय जब
बचा सको नारी की लूटती लाज को
निकल जाना इसी कोख से तुम उस समय जब
धो सको दूसरो के दुःख, घृणा, और अभाव के कलंक को
नही रोकेंगी ये आँखें तुम्हें उस वक्त
ये इन पलकों का वादा है.. पर -
आंसुओं अभी मत बहो अभी बहने का वक्त नहीं है ।
{लेखकीय टिप्पणी - अपने छोटे छोटे दुखों पर आंसू ना बहाकर इन्हें उस समय बहने दे जब आप किसी के दुःख और पीरा को समझ सकें और उन्हें कुछ कम कर सकें । - मैत्रेयी}

Friday, August 15, 2008

कविता

सौंदर्य और प्रज्ञा

- कुणाल पिम्पलकर

श्वेत-श्याम वर्ण लाल तुम सदैव ज्योती हो,
उन्मुक्त उन्माद की यूँ तुम सदैव द्योती हो ।।
जल-जलज, प्रकाश, बिंदु ना कोई आकार हो,
धरा-गगन प्रचीती हो बस तुम ही निराकार हो ।।
मोह, माया, लोभ, काम ना कोई भान हो,
अंतर-मन-तल में मेरे तुम ही विद्यमान हो ।।
विलक्षणी ओ चंचला का रूप बिखेरता रहे,
चित्र तेरा मन ये मेरा यूं उकेरता रहे ।।
गौर वर्ण, केश काले मेघ से प्रचंड हो,
पुष्पलिप्त, रात्रियमन जैसे कई छंद हो,
आभूषण इत्यादी का संवाद जैसे दंड हो,
रूप ऐसा मेनका का दंभ खंड खंड हो 1

रूपवान हो, परंतु मद में क्यों यूं लीन हो,
सहृदय मैं कहता मेरे प्रेम में विलीन हो ।।
ज्योति है प्रखर, पर्यंत दीपक में बाती है,
श्रद्धाकण दृष्टिगोचर हो, तभी तो ख्याति है ।।
श्रृंगार प्रेमहीन होने से भी कोई अर्थ है?
सम्मुख हो कामदेव तो भी गुण सभी ये व्यर्थ हैं ।।
सौंदर्य, तप व साधना का ही वहाँ निष्कर्ष है,
शुष्क धरा, प्रेम सरिता दोनों जहाँ स्पर्श है ।।
नित्य अंहकार जैसे कुष्ठ का विकार हो,
स्त्री हो तुम वसुंधरा की भाँती तुम उदार हो,
रूपवान मूढ़ बनी मन ये मेरा खिन्न है,
सौंदर्य व संस्कार क्योंकि शब्द ये विभिन्न है 2

रहस्य-बोध हो यही प्रयत्न सधता रहा,
मौन हो गए जिन्हें प्रकांड मानता रहा ।।
तीव्र वेग जल में बहता पुष्प ये बता रहा,
जीवन के अंतकाल में तो रूप न छूआ रहा ।।
सौंदर्य, ज्ञान-बोध दोनों भ्रम के ही समान है,
आसक्ति हो तो फिर पतन के क्रम सभी समान है ।।
मन, वचन, विचार, धर्म शुद्धि मात्र लक्ष्य हो,
बुद्धि में प्राणी प्रेम और देवता के कक्ष हों ।।
व्यंजन स्वरूप जीवन के तत्त्व मात्र सर्व हों,
मनुष्य को मनुष्य की मनुष्यता पे गर्व हो,
रूप दास है व काल स्वामी का आकार है,
प्रज्ञा ही चिरस्थायी है व मोक्ष का द्वार है 3
प्रज्ञा ही चिरस्थायी है व मोक्ष का द्वार है.....


{संदर्भ:- कविता मुख्यतः तीन भागों में है । इस कविता में एक तरुण के मन का द्वंद है जो पहले भाग में एक तरुणी के प्रेम का अनुभव कर रहा है । अधिकांश तरुणों की तरह यह युवक भी अपने हृदय की बात कह नहीं पाता और आक्रोशित होता है, यही कविता का दूसरा भाग है । तीसरे व अंतिम भाग में उसे स्वयं की मति से ज्ञान होता है की मनुष्य जन्म का सही उद्देश्य क्या है? – कवि }

Thursday, August 14, 2008

सारे जहाँ से अच्छा...

स्वाधीनता दिवस की हार्दिक मंगल कामनाएँ ।
- डॉ. सी. जय शंकर बाबु

Wednesday, August 13, 2008

व्यंग्य



जरूरत एक कोप भवन की


- विवेकरंजन श्रीवास्तव, रामपुर, जबलपुर ।



भगवान श्री राम के युग की स्थापत्य कला का अध्ययन करने में एक विशेष तथ्य उद्घाटित होता है- वह यह कि तब भवन में रूठने के लिए एक अलग स्थान होता था । इसे कोप भवन कहते थे । गुस्सा आने पर मन ही मन घुनने के बजाय कोप भवन में जाकर अपनी भावनाओं का इजहार करने की परंपरा थी । कैकेयी को श्री राम का राज्याभिषेक पसंद नहीं आया, वे कोप भवन में चली गई । राजा दशरथ उन्हें मनाने पहुंचे - राम का वन गमन हुआ । मेरा अनुमान है कि अवश्य ही इस कोप भवन की साज-सज्जा, वहां का संगीत, वातावरण, रंग रोगन, फर्नीचर, इंटीरियर ऐसा रहता रहा होगा, जिससे मनुष्य की क्रोधित भावना शांत हो सके, उसे सुकून मिल सके । यह निश्चित ही शोध का विषय है । बल्कि मेरा कहना तो यह है कि पुरातत्व-शास्त्रियों को श्री राम जम्न भूमि प्रकरण सुलझाने के लिए अयोध्या की खुदाई में कोप भवन की विषिष्टता का ध्यान रखना चाहिए ।
आज पुन: कोप भवन प्रासंगिक हो चला है । अब खिचड़ी सरकारों का युग है, यह सर्वविदित सत्य है कि खिचड़ी में दाल-चावल से ज्यादा महत्व घी, अचार, पापड़, बिजौरा, सलाद, नमक और मसालों का होता है । सुस्वाद खिचड़ी के लिए इन सब की अपनी-अपनी अहमियत होती है, भले ही ये सभी कम मात्रा में हो, पर प्रत्येक का महत्व निर्विवाद है । प्री पोल एक्जिट पोल के चक्कर में हो, या कई चरणों के मतदान के चक्कर में, पर हमारे वोटर ने जो ‘राम भरोस’ है ऐसा मेंडेंट देना शुरू किया है कि सरकार ही ‘राम भरोस’ बन कर रह गई लगती है । राम भक्तों के द्वारा, राम भरोसे के लिए, राम भरोसे चलने वाली सरकार । आम आदमी इसे खिचड़ी सरकार कहता है । खास लोग इसे ‘एलायन्स’ वगैरह के नाम से पुकारते हैं ।
इन सरकारों के नामकरण संस्कार, सरकारों के मकसद वगैरह को लेकर मीटिंगों पर मीटिंगें होती हैं, नेता वगैरह ही रूठते हैं, जैसे बचपन में मैं रूठा करता था, कभी टॉफी के लिए, कभी खिलौनों के लिए, या मेरी पत्नी रूठती है आजकल, कभी गहनों के लिए, कभी साड़ी के लिए, या मेरे बच्चे रूठते हैं, वी.सी.डी. के लिए, ए.सी के लिए । देश-काल, परिस्थिति व हैसियत के अनुसार रूठने के मुद्दे बदल जाते हैं, पर रूठना एक ‘कामन’ प्रोग्राम है । रूठने की इसी प्रक्रिया को देखते हुए ‘कोप भवन’ की जरूरत प्रासंगिक बन गई है । कोप भवन के अभाव में बड़ी समस्या होती रही है । ममता रूठ कर सीधे कोलकाता चली जाती थी, तो जय ललिता रूठकर चेन्नई । बेचारे जार्ज साहब कभी इसे मनाने यहां, तो कभी उसे मनाने वहां जाते रहते थे । खैर अब उस युग का पटाक्षेप हो गया है पर केवल किरदार ही तो बदले हैं । कभी अचार की बाटल छिप जाती है, कभी घी की डिब्बी, कभी पापड़ कड़कड़ कर उठता है, तो कभी सलाद के प्याज-टमाटर-ककड़ी बिखरने लगते हैं- खिचड़ी का मजा किरकिरा होने का डर बना रहता है ।
अब जब हमें खिचड़ी संस्कृति को ही प्रश्रय देना है, तो मेरा सुझाव है, प्रत्येक राज्य की राजधानी में जैसे विधान सभा भवन और दिल्ली में संसद भवन है, उसी तरह एक एक कोप भवन भी बनवा दिया जावे । इससे सबसे बड़ा लाभ मोर्चे के संयोजकों को होगा । विभाव के बंटवारे को लेकर किसी पैकेज के न मिलने पर, अपनी गलत सही मांग न माने जाने पर जैसी ही किसी का दिल टूटेगा, वह कोप भवन में चला जाएगा । रेड अलर्ट का सायरन बजेगा । संयोजक दौड़ेगा । सरकार प्रमुख अपना दौरा छोड़कर कोप भवन पहुंच, रूठे को मना लेगा- फुसला लेगा । लोकतंत्र पर छाया खतरा टल जाएगा।
जनता राहत की सांस लेगी । न्यूज वाले चैनलों की रेटिंग बढ़ जाएगी । वे कोप भवन से लाइव टेलीकास्ट दिखाएंगे । रूठना-मनाना सार्वजनिक पारदर्शिता के सिद्धांत के अनुरूप, सैद्धांतिक वाग्जाल के तहत पब्लिक हो जायेगा । आने वाली पीढ़ी जब ‘घर-घर’ खेलेगी तो गुड़िया का कोपभवन भी बनाया करेगी बल्कि, मैं तो कल्पना करता हूँ कि कहीं कोई मल्टीनेषनल ‘कोप-भवन’ के मेरे इस 24 कैरेट विचार का पेटेंट न करवा ले, इसलिए मैं जनता जनार्दन के सम्मुख इस परिकल्पना को प्रस्तुत कर रहा हूँ । मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि कुंठित रहने से बेहतर है, कुंठा को उजागर कर बिंदास ढंग से जीना । अब हम अपने राजनेताओं में त्याग, समर्पण, परहित के भाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं, तो उनके स्वार्थ, वैयक्तिक उपलब्धियों की महत्वकांक्षाओं के चलते, खिचड़ी सरकारों में उनका कुपित होना जारी रहेगा, और कोप भवन की आवश्यकता, अनिवार्यता में बदल जाएगी।
]]]

Monday, August 11, 2008

ग़ज़ल



कमलप्रीत सिंह जी को जन्म दिन की शुभकामनाओं सहित...


ग़ज़ल


कमलप्रीत सिंह


अपने आप से दूर जाने वालो ।
अपने अख़लाक़ से भागोगे कहाँ तक
ख़ुद अपनी ही किस्म को बताने वालो ,
खुदी की नींद से जागोगे कहाँ तक
प्यार हर कोई करता है अपने आप से ,
दूजे की आवाज़ मिला लोगे कहाँ तक
रौशनी जहाँ चरागों की टिमटिमाती है ,
ऐसे में हर राह सुझा लोगे कहाँ तक
तिलिस्म तीरगी पे तंज़ करता है ,
अन्दर के उजाले को दगा दोगे कहाँ ताक
अपने आप से दूर जाने वालो ।
अपने अख़लाक़ से भागोगे कहाँ तक ।

Friday, August 1, 2008

अपनी बात


Yug Manas য়ুগ মানস યુગ માનસ युग मानस ಯುಗ್ ಮಾನಸ್



യുഗ് മാനസ് யுக் மாநஸ் యుగ్ మానస్ ਯੁਗ੍ ਮਾਨਸ੍

अंतरजाल पर सर्जनात्मक साहित्यिक अनुष्ठान के रूप में ...
युग मानस का पुनर्जन्म


मानवीय मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध सर्जनात्मक साहित्यिक अनुष्ठान के रूप में युग मानस ने अपनी यात्रा 1994 में शुरू की थी और 2 अक्तूबर, 1996 को युग मानस त्रैमासिकी का प्रवेशांक का लोकार्पण प्रमुख विचारक विमला ठकार के करकमलों से नई दिल्ली में हुआ था ।


हिंदीतर प्रदेश गुंतकल (आंध्र प्रदेश, दक्षिण भारत) से प्रकाशित युग मानस पत्रिका निरंतर सर्जनात्मक साहित्य को संबल देने में तथा मूल्यों की प्रतिष्ठा की दिशा में अपनी अनूठी भूमिका सुनिश्चित करती रही है । देश के सभी राज्यों में इसके सक्रिय पाठक एवं लेखक थे, इसका प्रसार देश के लगभग सभी राज्यों के सभी जिलों में होता रहा । विडंबनात्मक स्थितियों में 2004 के बाद कुछ समय इसे स्थगित भी करना पड़ा था । अब विकसित सूचना प्रौद्योगिकी का लाभ उठाते हुए विश्वभर के हिंदी पाठकों के लिए उपलब्ध कराने के उद्देश्य से वेब पत्रिका के रूप में युग मानस का आज पुनर्जन्म हो रहा है । आज से इसमें आपकी सबकी रचनाएँ प्रकाशित होंगी । आप अपनी मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ yugmanas@gmail.com पते पर ई-मेल द्वारा भेज सकते हैं ।

मुक्त ज्ञान के युग में भारत की सर्वाधिक प्रचलित भाषा हिंदी में एक हिंदीतर प्रदेश से सक्रिय इस अनुष्ठान के लिए आप सबकी आत्मीयता के कारण इसे जो लोकप्रियता मिली है, उसका श्रेय आप सबको जाता है । सर्जनात्मक को संबल देने में युग मानस सदा तत्पर रहेगा ।


विभिन्न विधाओं की कुछ रचनाओं से आज इसका इस रूप में श्रीगणेश हो रहा है । रचनाओं के प्रकाशन में निरंतरता बनी रहेगी । यह अनुरोध है, रचनाकारों को प्रेरित एवं प्रोत्साहित करने हेतु रचनाओं के अंत में Comments कॉलम में रचनाओं के संबंध में आप अपनी प्रतिक्रियाएँ अवश्य दीजिए ।

वेब पत्रिका के रूप में युग मानस के शुभारंभ के उपलक्ष्य में शुभकामनाएँ ज्ञापित करने वाले समस्त आत्मीयजनों के प्रति आभार ज्ञापन सहित....


डॉ. सी. जय शंकर बाबु

(APNI BAAT – An editorial note by Dr. C. JAYA SANKAR BABU for YUGMANAS)

समीक्षा



नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, बैंगलूर के प्रयासों से उमड़ती


कावेरी


- डॉ. सी. जय शंकर बाबु
तकनीकी एवं वैज्ञानिक क्षेत्रों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देना राजभाषा कार्यान्वयन का महत्वपूर्ण आयाम है । डॉ. विजया मल्लिक, सदस्य सचिव, नगर राजभाषा कार्यान्वयन, बैंगलूर से प्रकाशित वार्षिक पत्रिका कावेरी के अद्यतन अंक में ऐसा ही प्रयास नज़र आता है, जो स्वागतयोग्य है । तकनीकी एवं वैज्ञानिक विषयों से संबद्ध लेखों के लिए पुरस्कारों के वितरण के अलावा उनका प्रकाशन भी करना एक सराहनीय कार्य है । इससे निश्चय ही इस दिशा में कार्य की प्रगति की अपेक्षा की जा सकती है । हमारे देश में कार्यरत किसी भी वैज्ञानिक या तकनीकी कर्मी की मातृभाषा अंग्रेज़ी नहीं है, मगर अधिकांश खोज के परिणाम अंग्रेज़ी में ही प्रकाशित किए जाते हैं । भारतीय भाषाओं के अख़बारों द्वारा उन्हें प्रकाश यदा-कदा किए जाने के बावजूद, यह सर्वविधित तथ्य है कि इन विषयों में मौलिक लेखकों की कमी के कारण ऐसे विषयों पर भारतीय भाषाओं में लेखन की मात्रा अंग्रेजी की तुलना में बहुत कम है । भारतीय संविधान में राजाभाषा के संबंध में किए गए प्रावधानों का मूल उद्देश्य भारतीय भाषाओं के विकास ही है । इन भाषाओं के विकास केवल साहित्यिक, सामाजिक विषयों में इनका प्रयोग होने से काफ़ी नहीं है । विज्ञान और प्रौद्योगिकी आधुनिक जीवन के अभिन्न अंग होने के कारण इन विषयों संबंधित उच्च स्तरीय ज्ञान भारतीय भाषाओं के माध्यम से उपलब्ध कराना सामयिक मांग है । ऐसे प्रयासों के लिए एक जीवंत उदाहरण है कावेरी पत्रिका । इसमें हिंदी में प्रकाशित वैज्ञानिक एवं तकनीकी विषयक सामग्री के लिए लेखक एवं संपादक बधाई के पात्र हैं ।
पत्रिका के वर्तमान अंक (वर्ष-2008) में चिंतन स्तंभ के अंतर्गत भारत अमेरिका आणुविक समझौता 123, तेजस लडाकू विमान – भारत का सम्मान, क्षयरोग – सामान्य जानकारी एवं बचाव शर्षक के लेख एवं मैं कौन हूँ जानो यारो.. शीर्षक से एक कविता भी प्रकाशित हुई है । पुरस्कृत वैज्ञानिक एवं तकनीकी लेखों के शीर्षक इस प्रकार हैं – भारत में एच वी डी सी कडियाँ - विद्यमान एवं आगामी, विकिरण समस्थानिक तापवैद्युत जनित्र का परिचय तथा प्रयुक्त ऊष्मीय नियंत्रण प्रणालियाँ, नेटवर्क व्यवस्था योजना (एन.एम.एस.), द्रिष्टधारा आर्क स्पेकट्रमरेखी वैश्लेषिक विधि एवं युरेनियम अन्वेषण, सूचनाप्रद लेखों के अंतर्गत ओम से जीनोम तक, वाई-फाई, क्वांटम टेलीपोर्टेशन, स्वस्थान निक्षालन विधि द्वारा युरेनियम अयस्क का निष्कर्षण के शीर्षक से बहुत उपयोगी एवं सचित्र लेख प्रकाशित हुए हैं जो अद्यतन तकनीकी अनुप्रयोगों की जनकारी देते हैं ।
कावेरी के इस अंक का संपादकीय सुंदर कवितात्मक पंकितयों के साथ जनभाषा में कामकाज को बढ़ावा देना का संकल्प दुहराया गया है, कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत हैं –
है अमावास से लड़ाई युद्ध है अँधियार से
इस लड़ाई को लड़े हम कौन से हथियार से ?
एक नन्हा दीप बोला, मैं उपस्थित हूँ यहाँ
रोशनी की खोज में आप जाते हैं कहाँ ?
आपके परिवार में नाम मेरा जोड़ दें
बस, आप खुद अँधियार से यारी निभाना छोड़ दें ।...

...इसी संकल्प की आज हमें नितांत आवश्यकता है । यह लघु दीपक का तिलमिलाना नहीं है, अपितु क्रियान्वयन के दृढ़ संकल्प का संघर्ष है । जन-भाषा को कामकाज की दैनंदिन भाषा बनाने की ओर हमारे प्रयास केंद्रित हों । कावेरी से प्रेरणा लेकर सभी क्षेत्रों में जनभाषाओं के विकास की सलिल धाराएँ बहने लगीं तो अवश्य ही भारतीय संविधान की संकल्पना के अनुसार भारतीयता का विकास होना सुनिश्चित हो पाएगा ।
(KAAVERI – A Review of a Hindi Magazine by Dr. C. JAYA SANKAR BABU for YUGMANAS)

****

समीक्षा


साहित्य सागर


स्वामी आत्मभोलानंद विशेषांक


-डॉ. सी. जय शंकर बाबु


भोपाल से श्री कमलकांत सक्सेना के संपादन में प्रकाशित होनेवाली सत्साहित्यिक शोध मासिकी साहित्य सागर के जुलाई 2008 के नियमित अंक के साथ स्वामी आत्मभोलानंद के व्यक्तित्व कृतित्व पर केंद्रित एक विशेषांक भी प्रकाशित किया गया है । 24.7.1954 को ग्वालियर में जन्मे श्री अजयकुमार श्रीवास्तव 1982 में कनखल, हरिद्वार में सन्यास ग्रहण के साथ ही स्वामी आत्मा भोलानंद जी के रूप में प्रचलित हुए है । स्वामी जी ने 1988 में भोपाल में विवेकानंद विद्यापीठ की स्थापना की है जिसे उन्होंने 2008 में रामकृष्ण मठ एवं मिशन, बेलूर को हस्तांतरित किया है । स्वामी जी ने 2007 में विवेकानंद सांस्कृतिक परिषद की स्थापना की है । इनकी विचारोत्तेजक कृति ‘चेतना के स्वर’ के अलावा ‘चेतना’ एवं ‘मर्यादा’ के नाम से दो स्मारिकाएँ भी प्रकाशित हुई है । स्वामी जी के 55 वें जन्मदिन के अवसर पर प्रकाशित इस विशेषांक में मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान के अलावा कुछ मंत्रियों के संदेश भी प्रकाशित हुए हैं । मुख्य मंत्री महोदय के संदेश में यह उल्लेख है कि “स्वामी जी ने विवेकानंद विद्यापीठ की स्थापना कर निर्धन बच्चों की शिक्षा का प्रबंध किया है जो उनके सामाजिक सरोकारों और मानवीय दृष्टिकोण का परिचायक है । उनकी कृति चेतना के स्वर स्वामी विवेकानंद के विचारों को प्रचारित-प्रसारित करने का जनहितैषी प्रयास है । स्वामी जी का बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व, अनुकरणीय एवं अभिनंदनीय हैं ।”
चूँकि साहित्य सागर अपने नाम के अनरूप साहित्यिक पत्रिका है, अतः स्वामी जी पर केंद्रित इस विशेषांक के निकालने के औचित्य पर प्रकाश डालते हुए संपादकीय लिखा गया है कि “हिंदी साहित्य में गोस्वामी तुलसीदास जी से बड़ा कवि कोई नहीं है और जो व्यक्ति उनके द्वारा रचित रामचरित मानस की व्यख्या कर सकता है, उस पर नव्य दृष्टि से टीका और टिप्पणी कर सकता है, वह भी किसी बड़े से बड़े साहित्यकार से कम नहीं है ।.... वे मानस के अलौकिक श्रोता हैं, साथ ही वे मानस के प्रवचनकार हैं, मानस के टीकाकार हैं, मानस के रसज्ञ हैं ....साहित्य सागर के पाठकों का मानस के विलक्षण अध्येता एवं मानस की प्रतिभाशाली विभूति से परिचित कराना ही है ।” इस अंक में अंतरंग बहिरंग शीर्षक के अंतर्गत स्वामी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित विविध लेखकों के लेख प्रकाशित हुए हैं । रंग-तरंग शीर्षक से स्वामी जी की कविताएँ, प्रवचनों के अंशों के अलावा उनकी लेखनी से सृजित एक लेख भी है जिसका शीर्षक है – श्री राम और प्रबंधन के सूत्र । इस लेख में स्वामी जी ने सामाजिक जीवन में प्रबंधन के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मानस के उदाहरण प्रबंधन पर सुंदर व्याख्या प्रस्तुत की है । साहित्य सागर के नियमित अंक से साथ उपलब्ध कराया गया यह विशेषांक पठनीय पड़ा है ।
पत्रिका का संपर्क-सूत्र –


साहित्य सागर, 161, शिक्षक कांग्रेस नगर, बाग मुगालिया, भोपाल (म.प्र.)-462 043
(SAAHITYA SAAGAR – A Review of a Hindi Magazine by Dr. C. JAYA SANKAR BABU for YUGMANAS)
****

समीक्षा



पत्रिका समीक्षा
साहित्य अकादेमी के कर्मियों की साहित्यिक चेतना को प्रतिबिंबित करने वाली पत्रिका


आलोक
- डॉ. सी. जय शंकर बाबु
साहित्यिक अकादेमी की राजभाषा पत्रिका आलोक का अंक-8 (मार्च-2008) हाल ही प्रकाशित हुआ है । साहित्य अकादेमी के स्टॉफ सदस्यों का रुझान साहित्य की ओर अधिक होना वांछनीय एवं स्वागतयोग्य बात है । पत्रिका का यह अंक इन तथ्यों को उद्घाटित करता है । श्री ब्रजेंद्र जी ने अपने संपादकीय में लिखा है – “...इस पत्रिका के माध्यम से अपनी रचनात्मक यात्रा शुरू कर कुछ रचनाकारों ने दूसरी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है । साहित्य अकादेमी में ड्राइवर के रूप में कार्यरत श्री श्यामसिंह चौहान का पिछले दिनों पहला कविता संग्रह फिर भी रहेगी दुनिया प्रकाशित हुआ जिसका लोकार्पण अकादेमी के अध्यक्ष श्री सुनील गंगोपाध्याय के हाथों हुआ । ...”
आलोक में कविता, कहानी, नाटक, संस्मरण विधाओं की रचनाओं के अलावा विचारोत्तेजक आलेख भी प्रकाशित हुए हैं । मौलिक कविताओं तथा कहानियों के अलावा विविध भाषाओं से अनूदित कविताएँ तथा कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं । कुछ रेखांकन भी प्रकाशित हुए हैं जिनमें आवरण पृष्ठ पर प्रकाशित चित्रों के अलावा रत्नाकर एस. पाटील का द्वारा रेखांकित नागार्जुन का चित्र ओजस्विता को लेकर बहुत ही आकर्षक है ।
‘देश में हिंदी’ शीर्षक से प्रकाशित अपने आलेख में श्री ब्रजेंद्र त्रिपाठी जी ने सही कहा कि अपनी भाषाओं को लेकर आज भी हम एक तरह की हीनता की ग्रंथि के शिकार हैं । इसी आलेख के निष्कर्ष के रूप में अंतिम अनुच्छेद हिंदी प्रकाशन एवं पाठकों की कमी की यथार्थ स्थिति की ओर इंगित करता है । उस अनुच्छेद की कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत है – “हिंदी भाषा-भाषी लोगों की संख्या 50 करोड़ के आस-पास है । लेकिन हिंदी का साहित्य इनमें से कितने लोगों तक पहुँच रहा है या कितने लोग पुस्तकें ख़रीद कर पढ़ते हैं, यह देखनेवाली बात है । अब अधिकांश प्रकाशक 1100 भी नहीं, 500 पुस्तकों का संस्करण निकालते हैं ।...लेकिन यह भी ग़ौर करने की बात है कि ये पुस्तकें अधिकांशतः सरकारी थोक ख़रीद में जाती हैं, पाठकों के हाथों नहीं पहुँचतीं । एक तो इनका मूल्य इतना अधिक है कि एक मध्यवर्गी व्यक्ति की जेब इसे गवारा नहीं करती । दूसरा कारण है कि पाठकीयता में कमी आई है । पाठकों का समय इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने चुरा लिया है । यह ख़तरनाक स्थिति है ।”
ओम प्रकाश शर्मा जी का आलेख भागवत की शिक्षा एवं मनजीत कौर भाटिया जी का आलेख मित्रता अनमोल है भी शिक्षाप्रद एवं पठनीय हैं । अधिकांश मौलिक कविताएँ, कहानियाँ एवं नाटक भी स्तरीय एवं पठनीय हैं । अन्य संस्मरण एवं विचार बिंदु भी पत्रिका की पठनीयता को बढ़ाने लायक है । इस पत्रिका में बस कमी इस बात की महसूस हुई कि इसमें देश की किसी भाषा के सामयिक साहित्य पर समीक्ष्यात्मक लेख भी देते निश्चय ही इसकी गरिमा और भी बढ़ जाती थी ।
आलोक के संपादकीय में इस बात का भी उल्लेख है कि अपने चौवन वर्षों के कार्यकाल में अकादेमी ने सभी भाषाओं के साहित्य को अनुवाद के माध्यम से एक सूत्र में जोड़ा है और भारतीय भाषाओं के लिए एक कॉमन मंच उपलब्ध कराया है । यह दावा भले ही स्वीकार योग्य हो, मगर अकादमी से यह भी आशा की जानी चाहिए कि वह भारतीय भाषाओं की उन्नति की दिशा में और भी कारगर कदम उठाए । आलोक की इस समीक्षा के आलोक में ही अकादेमी से जुड़े मह्त्वपूर्ण साहित्यिक मुद्दों की भी दो पंक्तियों में क्यों न हम चर्चा कर लें । साहित्य अकादमी की अंग्रेज़ी तथा हिंदी में प्रकाशित होनेवाली पत्रिकाएँ – इंडियन लिटरेचर एवं समकालीन भारतीय साहित्य की आवधिकता एवं पहुँच बढ़ाने हेतु अपेक्षित कदम अवश्य उठाए जाने चाहिए । इन पत्रिकाओं की लोकप्रियता इतनी बढ़ें कि हर शहर में अख़बारों की दुकानों में भी मिल जाए । देश की सर्वेच्च साहित्यिक संस्था होने के नाते अकादेमी की पत्रिकाओं के संबंध में ऐसी अपेक्षा अवश्य की जानी चाहिए । इन पत्रिकाओं की पहुँच के बढ़ने के साथ ही विभिन्न भाषाओं के आम साहित्यकारों का भी इन पत्रिकाओं के साथ जुड़ने भी संभव हो पाएगा जिससे इन पत्रिकाओं में सभी भाषाओं के साहित्य को समुचित स्थान भी सुनिश्चित हो पाएगा । यदि किसी कारणवश इस दिशा में कदम उठाना संभव नहीं हो कम से कम अपने वेब साइट को ज्यादा सक्रिय बनाकर और उसमें कंटेट को बढ़कर इस उद्देश्य की पूर्ति की जा सकती है । केवल प्रकाशित पुस्तकों की सूचियाँ ही न जोड़कर उसमें भारत की सभी भाषाओं के साहित्य पर सारपूर्ण एवं सामग्री दी जाए एवं उसे अद्यतनीकरण की भी व्यवस्था की जाए । आलोक भविष्य के अंक अपनी रचनाओं में विचारों की विराटता से साहित्य आकादेमी को आलोकमय बना दें, ऐसी आशा की जा सकती है ।
(AALOK – A Review of a Hindi Magazine by Dr. C. JAYA SANKAR BABU for YUGMANAS)
****

कहानी

थाती
- राम बिलास 'मनु'
'क्यों लाए हो इसे यहाँ ?'
'भैया, बाबू जी काफ़ी दिनों से बीमार हैं । वहां गांव में डॉक्टर .. ..'
'तो मैं क्या डॉक्टर हूं ?'
'पर यहां शहर में अच्छे डॉक्टर.. ..'
'अच्छे डॉक्टर की फीस का पता भी है तुम्हें ?'
'पर मेरे पास तो जितने पैसे थे सब वैध जी की दवाई .. ..'
'और तुम समझते हो मेरे पास पैसों की खान है ।'

मुरली निरीह सा गर्दन नीची किए अपने भैया के सामने निरुत्तर खड़ा था । मुरली के भैया अच्छे सरकारी पद पर हैं । शहर में दो-दो मकान हैं । अपने आपको बड़ा साहित्यकार भी कहते हैं । साथ ही मुहल्ले की सांस्कृतिक पुलिस की भूमिका भी निभाते हैं।
जहां कहीं दो-चार युवकों को टोली में खड़ा देखते हैं वहीं उन्हें गली-मोहल्ले की मर्यादा की सीख देने पहुंच जाते हैं और न मानने पर पुलिस अफसरों से संप होने की धमकी भी दे आते हैं । जब सड़क पर किसी लड़की को अंग-दिखाऊ कपड़ों में देख लेते हैं तो उसे रांड, बेशर्म जैसे सम्बोधन देने से भी नहीं चूकते । पूरे मुहल्ले में उनका दबदबा है । भाइयों का झगड़ा हो या पति-पत्नी का, लड़की को ससुराल में तंग करने का मामला हो या फिर कूड़े और नाली को लेकर पड़ोसियों के बीच हुए झगड़े का, सब लोग पंचों में उनकी गिनती करते हैं ।
* *
आज मुरली के बाबूजी को सरकारी अस्पताल में पांचवां दिन है । तबियत बिगड़ती ही जा रही है । डाक्टरों ने कह दिया है कि हमारे पास जितनी चिकित्सा सुविधाएं हैं हमने उस हिसाब से कोई कसर नहीं छोड़ी है । अगर आप किसी प्राइवेट अस्पताल में ले जाना चाहें तो हमें कोई आपत्ति नहीं है । मुरली की जेब में कौड़ी भी नहीं है । वह तो प्राइवेट अस्पताल का नाम लेने तक की भी हिम्मत नहीं कर सकता । उसके भैया दफ्तर गए हुए हैं । सुबह जाते वक्त बाबू जी ने कहा था कि बेटा, आज छुट्टी ले लो । मैं तुम्हें अपने पास बिठाकर तुमसे कुछ बातें करना चाहता हूं । आज मेरा मन है क्या पता फिर कभी बातें कर पाऊं या नहीं । लेकिन भैया दफ्तर में जरूरी काम बताते हुए निकल गए और अपनी जगह अपने लड़के को वहां छोड़ गए । बाबू जी सुबह से तीन बार भैया को बुलाने के लिए कह चुके हैं । मुरली की हिम्मत नहीं हो रही है भैया को दफ़्तर में टेलीफ़ोन करने की । जब बाबूजी ने चौथी बार भैया को बुलाने के लिए मुरली से आग्रह किया तो मुरली विवश हो गया । उसने अपने भतीजे को दफ़्तर में टेलीफ़ोन करने के लिए भेजा । भतीजे ने वापस लौटकर बताया कि पापा तो दफ़्तर से आधी छुट्टी लेकर साहित्यकारों की बौध्दिक चर्चा में भाग लेने गए हैं ।
बाबूजी भैया से बात करने को बहुत अधीर हो रहे हैं लेकिन उन्हें कहां खोजा जाए । शायद उनका आखिरी वक्त आ गया है । भैया का इंतजार करते-करते अब बाबूजी का धीरज जबाव देने लगा है । वे इशारे से मुरली को अपने पास बुलाते हैं । उनका पोता भी उनके पास बैठा है । बाबू जी मुश्किल से सांस जोड़ पाते हैं--'बेटा, अब मुझे जाना है, लगता है बैजू से बात करने की इच्छा साथ ही चली जाएगी । खैर, मैं अब अपने घर की जिम्मेवारी बैजू को सौंपकर जाता हूं । उससे कहना कि वह घर में सबसे बड़ा है । घर परिवार की ऊंच-नीच का ख्याल रखे । भाई-चारे की बेल को हरी रखे । हमारे बुजुर्गों की कमाई इज्जत को और ऊंचे ले जाय, घर की बहू-बेटियों के मान-सम्मान में फ न आने दे । और बेटा तुम भी अपने बड़े भाई की बात को कभी मत टालना । उसके मुंह से निकली बात को मेरी बात समझकर सिर माथे पर रखना ।' इतना कहकर बाबूजी ने अपने गले में से एक काला डोरा बाहर निकाला जिसमें भगवान सूर्यनारायण का एक लॉकेट बंधा था । पास बैठे पोते को वह लॉकेट सौंपते हुए बाबूजी बोले---'यह हमारे पूर्वजों की थाती है । यह लॉकेट मेरे दादा जी ने सबसे पहले पहना था । उनसे होते हुए यह मेरे तक पहुंचा । अब यह बैजू के गले में जाएगा । उससे कहना कि नित नेम से सूर्योदय के समय भगवान सूर्यनारायण को जल चढ़ाये । हमारे परिवार में पीढ़ियों से यह परंपरा चली आ रही है । अब बैजू को यह परंपरा निभानी है ।' और इतना कहकर बाबूजी ने आंखे मूंद ली । दादा का हाथ पोते के हाथ में था और दोनों हथेलियों के बीच पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा सहेजी जा चुकी थी ।

* *

पंद्रह साल से बैजू नित नेम से सूर्य भगवान को जल चढ़ाता आ रहा है । सुबह नहा-धोकर बनियान और धोती पहनकर सबसे पहले सूर्य भगवान को जल चढ़ाने के बाद ही वह मुंह में कुछ डालता है । बस एक यही नियम है जो पंद्रह सालों से नहीं बदला है । बाकी तो बहुत कुछ बदल गया है बैजू की जिंदगी में ।
बैजू के लड़के की शादी को दो साल होने को हैं । इन दो सालों से बैजू मन का सुकून पाने को तरस रहा है । वह चिड़चिड़ा हो गया है, बात-बात पर भड़क उठता है । कभी-कभी तो गुस्से में अपनी पत्नी और बच्चियों पर हाथ तक उठा देता है । अब तो मोहल्ले वाले भी उससे किनारा करने लगे हैं । अब मुहल्ले में उसकी पहले जैसी पूछ नहीं रही । लोगों ने इन दो सालों में घर के सामने सड़क पर बाप-बेटे के कितने ही वाक्-युध्द देखे हैं । बेटा घर से अलग होकर किराए के मकान में रहने लगा है । लोग कहते हैं बेटे की शादी के दूसरे ही दिन से बैजू के घर से हंसी-ठिठोली की जगह डांट-डपट की आवाजें आने लगी थीं । बैजू के आदेश से बेटे और बहू की सुहागरात अलग-अलग कमरों में मनी । बैजू के दोस्त कहते हैं लड़की इज्जतदार घर की नहीं है । उसे घर बांधना नहीं आता । बैजू को तो लड़की पहले ही पसंद नहीं थी लेकिन उसे तो बेटे की जिद के सामने झुकना पड़ा । बात तो विदा के समय ही बिगड़ गई थी । बैजू ने विदा पर एक लाख रुपये की मांग कर दी थी । लड़की के मां-बाप ने पैसा देने से मना कर दिया । दोस्तों-रिश्तेदारों ने समझा-बुझाकर 51 हजार पर समझौता करवाया । रिश्ते में खटास पहले ही पैदा हो चुकी थी ।
बैजू की बहू प्राइवेट नौकरी करती है । उस दिन उसे शादी की छुट्टियों के बाद वापस नौकरी पर जाना था । नई-नई शादी के खुमार में दोनों पति-पत्नी रात को देर से सोये होंगे । इसलिए सुबह उठने में देर हो गई । उसने जल्दी-जल्दी घर का काम निपटाने की कोशिश की । उसने सारे घर में झाड़ू लगा ली थी । समय देखा तो 8.30 बज चुके थे । 9 बजे तो उसे ऑफिस जाना था । अभी खाना भी बनाना था । अगर वह पोंछा लगाएगी तो और भी देर हो जाएगी यह सोच कर वह सीधे रसोई में घुस गई । उसने अभी तीन-चार रोटियां ही बनाई थी कि उसे ससुर का स्वर सुनाई पड़ा --'यही सिखाया है क्या तुम्हारे मां-बाप ने?' घर में सफाई तो की भी नहीं और घुस गई रसोई में । चल रसोई से बाहर निकल और पहले पोंछा लगा । 'पापा, मुझे ऑफिस जाने में देर हो रही है, पोंछा कल लगा दूंगी ।' उसने साहस जुटाकर मजबूरी जताई । 'तो खाना भी कल बना लेना, क्यों रसोई में घुसी है ।' ससुर ने मुंह बनाया । बेचारी जलती भुनती बाल्टी में पानी भरकर पोंछा लगाने बैठ गई । ससुर का मुंह फिर खुला-- 'क्या झाड़ू लगाई है तुमने ? वो मेज के नीचे पड़ा कागज दिखाई नहीं दिया तुम्हें । तुम्हारी आंखें हैं या कटोरे ?' अब तो हद ही हो गई थी । उसने गुस्से में पोचा फर्श पर पटक दिया और रोती हुई अपने कमरे में आ गई ।
अब तो आए दिन किसी न किसी बात को लेकर ससुर और बहु में कहा-सुनी होती रहती । बहु ने भी तीखे तेवर अपना लिए थे । वह ईंट का जवाब पत्थर से देने लगी । बैजू ने अपने बेटे के माध्यम से बहु पर लगाम कसनी चाही लेकिन बेटे ने बाप का साथ देने से इंकार कर दिया । अब तो बेटे को भी नामर्द, जोरु का गुलाम, बीवी का यार जैसी पदवियां मिलने लगीं । कुल मिलाकर बात इतनी आगे बढ़ी कि बाप बेटे में बोलचाल बंद है । बेटा बाप से नफरत करने लगा है ।
* *
आज मुरली गांव से भाई के घर आया है । बाबूजी की मौत के बाद मुरली पहली बार भाई के घर आया है । उसे पता चला कि भाई को गले का कैंसर हो गया है । बैजू ने अपने लड़के की शादी में भी मुरली को नहीं बुलाया था । इतने सालों में बैजू ने कभी गांव की ओर रुख नहीं किया । उल्टे यहां बैठे-बैठे चिट्ठियों के माध्यम से मुरली के लिए हुक्म भेजता रहा --खेत में गेहूं नहीं सरसों बोनी है । सरसों के अच्छे दाम मिलते हैं, गेहूं तो कच्चे काटकर तुम अपनी भैंसों को खिला देते हो । बाई का भात भर आना, मुझे फुर्सत नहीं है । गांव की गौशाला में मेरे नाम से एक गाड़ी भूसा भेज देना ।
भाभी की बातों से मुरली को पता चला कि दोनों बाप बेटों में बोलचाल बंद है और भैया बेटे को घर लाने के इच्छुक हैं । उन्होंने कई बार बेटे को संदेश भी भिजवाया है लेकिन उसकी ओर से कोई जवाब नहीं आया है । सब बातें जानकर मुरली ने भाभी को दिलासा दिया कि वह समझा बुझाकर उनके बेटे को घर ले आएगा ।
मुरली ने अपने भतीजे को लाख मनाने की कोशिश की लेकिन वह घर आने को तैयार नहीं हुआ । थक हार कर मुरली वापस लौट आया है । मुरली के हाथ बेटे ने बाप के नाम एक चिट्ठी भिजवाई है । बैजू चिट्ठी पढ़ रहा है ---
"आदरणीय बाबूजी,
पंद्रह साल पहले दादा जी ने जो थाती आपके हाथों की जगह मेरे हाथों में सौंपी थी वह उनकी मजबूरी थी या यह सब नियति का खेल था, मुझे संदेह होने लगा है । मुझे दु:ख है मैं आपके हाथों से उस थाती को ग्रहण नहीं कर पाऊंगा । क्योंकि वह तो दादा जी ने मरते समय ही अपने हाथों से मुझे संभला दी थी । आप चिंता न करें मैं उस थाती का पूरा सम्मान करूंगा और नित नेम से सूर्य भगवान को जल चढ़ाऊंगा । आप इस बारे में कोई बोझ मन में न रखें । हमारी पीढ़ियों की परंपरा बरकरार रहेगी ।'
बैजू की आंखों से टप-टप गिरते आंसू डूबते सूर्य भगवान को जल चढ़ा रहे हैं ।
(TAATHI – A Hindi STORY by RAMBILAS MANU for YUGMANAS)

आलेख

तेलुगु भाषा एवं साहित्य
अंतर्जाल पर तेलुगु भाषा एवं साहित्य पर हिंदी में अपेक्षित मात्रा में सामग्री उपलब्ध न होने के कारण अपने पाठकों के लिए युग मानस की ओर से तेलुगु भाषा एवं साहित्य पर धारावाहिक लेखमाला का प्रकाशन आरंभ किया जा रहा है । तेलुगु के युवा कवि उप्पलधडियम वेंकटेश्वरा अपने लेखों के माध्यम से तेलुगु भाषा एवं साहित्य के विविध आयामों पर प्रकाश डाल रहे हैं । इस क्रम में प्रथम लेख यहाँ प्रस्तुत है । - सं.
तेलुगु भाषा का परिचय
- उप्पलधडियम वेंकटेश्वर
भारत में हिंदी के बाद सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा है तेलुगु । तेलुगु भाषा का मुख्य क्षेत्र है आंध्र प्रदेश, जो उत्तर एवं दक्षिण भारत का संगम स्थान है । फलतः तेलुगु को राष्ट्र के साहित्यिक एवं सांस्कृतिक सेतु होने का श्रेय प्राप्त हुआ है । प्रख्यात भाषाविद् डॉ. होमफील्ड मेकलोइड (Dr. Homefield McLeoed) का कहना है कि – “Telugu can be looked upon as the northernmost member of the southern languages or the southern most member of the northern languages and it has the advantage of both groups with few, if any, of the defects. It is adaptable, dynamic, absorptive, grammatically simple and euphonically beautiful even when using foreign words. It has never suffered from narrow provincialism.”

तेलुगु एवं संस्कृत के प्रकांड पंडित स्वर्गीय पिंगलि लक्ष्मीकांतम के शब्दों में “आंध्र-भूमि, आर्य-द्रविड़ विज्ञान की परंपराओं का संगम स्थान है.. ऐसी समरसता किसी अन्य क्षेत्र में संभव न हो सका ।” वे आगे कहते हैं कि “आर्य और द्रविड़ जैसे परस्पर भिन्न भाषा परिवारों में समरसता स्थापित करने के कारण तेलुगु में ऐसे अनेक गुण दीख पड़ते हैं, जो उपर्युक्त दोनों भाषा परिवारों की अन्य भाषाओं में नहीं है । अन्यथा वह – देश की भाषाओं में सर्वश्रेष्ठ भाषा- कैसे हो पाती? ” (16 वीं सदी के सम्राट श्रीकृष्ण देवरायलु ने कहा था - “देश की भाषाओं में तेलुगु सर्वश्रेष्ठ भाषा है ।”
तेलुगु द्रविड़ भाषा परिवार की प्रमुख भाषा है । द्रविड़ भाषा परिवार की प्रमुख भाषा होने पर भी तेलुगु भाषा एवं साहित्य पर संस्कृत की अमिट छाप परिलक्षित है । तेलुगु-अंग्रेज़ी कोश (सन् 1852) के प्राक्कथन में उसके निर्माता सी.पी. ब्राउन ने लिखा है कि “It is in reality hardly possible to write a sentence of ordinary Telugu, without using a Sanskrit word in it.” तेलुगु के प्रख्यात् आलोचक स्व. निडदवोलु वेंकटरावु की राय है कि “भारतीय भाषाओं में संस्कृत को पूर्ण रूप से आत्मसात करनेवाली एकमात्र भाषा है तेलुगु ।” प्रख्यात भाषाविद् स्व. रामभट्ल कृष्णमूर्ति की धारणा है कि “संस्कृत के शब्द जितनी सहजता से तेलुगु में घुलमिल जाते हैं, उतनी सहजता से किसी दूसरी भाषा में शामिल नहीं हो पाते हैं ।” स्व. पिंगलि लक्ष्मीकांतम का कहना है कि “द्रविड़ भाषा परिवार की तेलुगु ने संस्कृत के साथ मित्रता निभाई । उसने संस्कृत की कटुता न लेकर केवल गंभीरता एवं माधुर्य को अपनाया और अपनी सहज सुकुमारता में चार चाँद लगा दिए । उच्च कोटि के पुष्पों को चुनकर बनाई गई माला है तेलुगु ।” निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि तेलुगु पर संस्कृत का गहरा प्रभाव होने पर भी तेलुगु ने अपनापन बनाए रखने में सफल रहा ।
आंध्र प्रदेश के दक्षिण में तमिलनाडु, पश्चिम में कर्नाटक और महाराष्ट्र तथा पूर्वोत्तर में उड़ीसा राज्यों के स्थित होने के कारण तेलुगु भाषा पर तमिल, कन्नड, मराठी और उडिया भाषाओं का भी प्रभाव रहा है । ऐतिहासिक कारणों से प्राकृत, उर्दू और अंग्रज़ी के सैकडों शब्द तेलुगु भाषा में पाए जाते हैं । अन्य भाषाओं के शब्दों को ग्रहण करने में तेलुगु की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए स्व. रांभट्ल कृष्णमूर्ति ने कहा कि “तेलुगु भाषा, गंगाजल की तरह, यूनिवर्सल साल्वेंट है । वह किसी भी भाषा के शब्द को समेट लेती है और उसे अपना रूप दे देती है ।”
तेलुगु भाषा के संबंध में यह बात उल्लेखनीय है कि इसके कई नाम हैं । ‘आंध्र’ शब्द तेलुगु का पर्यायवाची है । तेलुगु का प्रथम महाकाव्य ‘आंध्र महाभारतमु’ के प्रणेता नन्नय (11 वीं सदी) ने संज्ञा के रूप में ‘तेलुगु’ और ‘आंध्र’ दोनों शब्दों का प्रयोग किया । तेलुगु के स्थान पर कहीं कहीं ‘तेनुगु’ शब्द का प्रयोग किया जाता है । इन शब्दों के साथ पूर्णबिंदु लगाकर ‘तेलुंगु’ (తెలుంగు) और ‘तेनुंगु’ (తెనుంగు) शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है । (इनके अलावा अर्धबिंदु लगाकर तेलुगु తెలుఁగు और तेनुगु తెనుఁగు के जो रूप तेलुगु लिपि में लिखे जाते हैं, उन्हें देवनागरी लिपि में देना संभव नहीं है ।) प्राचीन तमिल साहित्य में तेलुगु के लिए ‘वडुगु’ शब्द का प्रयोग मिलता है। पुर्तुगल के लोगों ने तेलुगु के लिए ‘जेंटू’ शब्द का प्रयोग किया है । विलियम ब्रौन नामक विद्वान ने अपने तेलुगु व्याकरण ग्रंथ को ‘ए ग्रामर ऑफ द जेंटू लैग्वेज़’ नाम से प्रकाशित किया । जर्मन के विद्वानों ने ‘वरुगिक’ के नाम से तेलुगु का उल्लेख किया । उपर्युक्त शब्दों में तेलुगु और आंध्र दोनों रूप अत्यंत प्रचलित हैं ।
अपनी भाषा सबको अच्छी लगती है । लेकिन तेलुगु भाषा इतना कर्ण मधुर है कि पर-भाषी भी इसकी मिठास पर मुक्त हो जाते हैं । तमिलभाषी एवं प्रख्यात संस्कृत विद्वान अप्पय्य दीक्षित (16वीं सदी) ने कहा कि “आंध्रत्वम् आंध्र भाषाच नाल्पस्य तपसः फलम्” । अर्थात् आंध्र बनकर पैदा होना और आंध्र भाषा बोल पाना महान तपस्या का ही फल हो सकता है । पश्चिम के विद्वान निकोलाय कैंटी ने ‘इटालियन ऑफ द ईस्ट’ (पूर्व की इतालवी) कहकर तेलुगु की प्रशंसा की । हेनरी मोरिस नामक विद्वान का कहना है कि द्रविड़ भाषाओं में तेलुगु जितना मधुर है उतना और कोई भाषा नहीं । उन्होंने यह भी कहा कि अपढ़ लोगों की जुबान में उसकी मिठास पाई जाती है । प्रख्यात् वैज्ञानिक जे.बी.एस. हाल्डेन का कहना है कि वैज्ञानिक विषयों की अभिव्यक्ति के लिए तेलुगु अत्यंत उपयुक्त है । सन् 1812 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘तेलिंगा ग्रामर’ (Telinga Grammar) में डॉ. क्यारी (Carey) ने तेलुगु के बारे में अपना मत प्रकट किया कि “Telugu must be numbered with those languages which are the most worthy of cultivation, its variety of inflection being such as to give it a capacity of expressing ideas, with a high degree of facilities, justness and elegance.” तमिल के यशस्वी कवि सुब्रमण्य भारती ने ‘सुंदर तेलुंगु’ कहकर इसकी प्रशंसा की । यहाँ इस तथ्य को रेखांकित करना अप्रासंगिक न होगा कि दक्षिण भारत की संगीत रीती कर्नाटक संगीत में तेलुगु के पद साहित्य का बोलबाला है । इसीलिए प्रख्यात् संगीतज्ञ श्री जे. वैद्यनाथन कहते हैं कि “Carnatic musicians should reserve some energy to learn Telugu and Sanskrit.”
जाहिर है कि स्वयं तेलुगु भाषी अपनी सुमधुर भाषा पर नाज़ करते हैं । भारत के इतिहास में 16वीं सदी के सम्राट श्रीकृष्ण देवरायलु का विशेष स्थान है । वे सम्राट ही नहीं, बल्कि उच्चकोटि के कवि भी थे । वे धार्मिक और भाषाई संकीर्णताओं से परे थे । उन्होंने अपने दरबार में तेलुगु, संस्कृत, तमिल, कन्नड आदि अनेक भाषाओं के कवियों का आदर किया और अपनी तेलुगु रचना ‘आमुक्तमाल्यद’ (जो तेलुगु के पंचमहाकाव्यों में से एक है) में तमिल कवयित्री आंडाल के जीवन का चित्रण किया । ऐसी उदार मानसिकता के इस बहुभाषाविद् का मानना है कि ‘देश भाष लंदु तेलुगु लेस्स’ (अर्थात् देश की भाषाओं में तेलुगु सर्वश्रेष्ठ है) । ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार विश्वनाथ सत्यनारयण का कहना है कि जिस भाषा के बोलने मात्र से गायन का आभास होता है, वह भाषा है तेलुगु ।
****

गीत

रुग्न पृथ्वी (हाइकु गीत)
- नलिनी कांत, अंडाल, प.बं.
पृथ्व को चढ़ा
ग्लोबल वार्मिंग
नामक ज्वर ।
घुटन से तो
बंद होता जा रहा
धरा का स्वर ।
जीव जंतु का
जीना होता जा रहा
यहां दूभर ।
पशु पक्षी की
प्रजाति प्रतिपल
रही है मर ।
शेर व्याघ्र भी
हो रहे पसीने से
तर बतर ।
विज्ञान का तो
टें बोल रहा अब
सारा असर ।
प्रकृति क्रुद्ध
है, रक्षा करो भू की
हे प्रभुवर !

(RUGN PRITHVI – A Hindi Lyric (Haikoo Lyric) by NALINI KANTH for YUGMANAS)

ग़ज़ल

ग़ज़ल
- एस.एन. सक्सेना, अशोक नगर (म.प्र.)
कोई मारे तो न मरे कोई
सिर्फ इतनी दुआ करे कोई ।
मौत आने तलक तो जी लें हम ।
इतनी मोहलत अता करे कोई ।
अपने हाथों में आइना लेकर
जो भी चाहे ख़ता करे कोई ।
हादसों में तो आंख भर आए
हमसे इतनी वफ़ा करे कोई ।
खूं की रंगत कभी नहीं बदले
अब तो ऐसी दवा करे कोई ।
चंद लम्हे खुलूस उल्फ़त के
हंसते-हंसते विदा करे कोई ।

(GAZAL – A Hindi GAZAL by S.N. SAXENA for YUGMANAS)

कविता

पर्यटन केंद्र एवं तीर्थस्थल
तमिलभाषी श्री टी.ई.एस. राघवन जी का हिंदी, संस्कृत एवं अंग्रेज़ी पर समान अधिकार है । अध्यापन के अलावा, मौलिक लेखन एवं अनुवाद क्षेत्रों में उनकी प्रतिभा विशिष्ट रूप से विकसित हुई है । हिंदी में उनकी कई कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं । भारत के महत्वपूर्ण पर्यटन केंद्रों एवं तीर्थस्थलों के संबंध उन्होंने कई कविताएँ लिखी है, उन छोटी-छोटी कविताओं से हमें रोचक एवं ज्ञानवर्धक जानकारी मिलती है । युग मानस के पाठकों के लिए उन कविताओं का धारावाहिक प्रकाशन यहाँ किया जा रहा है । उस क्रम में प्रस्तुत है प्रथम कविता –
कविता
कश्मीर
- टी.ई.एस. राघवन, चेन्नै
इस धरती का स्वर्ग तो माना है कश्मीर ।
बसा हुआ है ‘श्रीनगर’ झेलम नद के तीर ।।

‘शंकर मंदिर’, ‘डल झील’, ‘बुल्लर’ लखने योग्य ।
‘सोनमर्ग’ गुलमर्ग थान, दर्शन करने योग्य ।।

‘हरी किला’ ‘नगीर झील’, निहारने हैं योग्य ।
हजरतबल दरगाह, नज़र डालने योग्य ।।

आसपास में देखने लायक हैं ये स्थान –

‘मट्टन’ में रुद्र मंदिर सम्यक विराजमान ।
‘मार्तंड’ में सूर्य मंदिर सम्यक प्रकाशमान ।।

‘पहलगाम’ रमनीक है, पर्यटकों का स्थान ।
‘अवंतिपुर’ में चैत्य के, खंडहर विद्यमान ।।
(KASHMEER – A Hindi Poem by T.E.S. RAGHAVAN for YUGMANAS)
****

कविता

प्‍यार
- डॉ. एस. बशीर, चेन्नै ।
दो अक्षरों का मिलन
चार आँखों की दास्तान
दो दिलों का फर्माना
खुदा दिया वरदान।
यही प्‍यार है सनम
दिल धड़कता है
किसी की याद में
किसी की चाह में
किसी की इतबार में
यही प्‍यार है सनम
आंखें निहारती हैं
किसी की राह में
किसी के इंतज़ार में।
लेकिन दिल !
ढेर सारा दर्द बख्‍श कर
हमें वीरान में छोड़कर
खुद चैन से सो जाता है।
हमें बेचैन करता है।

(PYAAR – A Hindi Poem by Dr.S. BASHEER for YUGMANAS)
****

कविता

मेरी ख़ामोशी
- दिव्या माथुर
मेरी ख़ामोशी
एक गर्भाशय है
जिसमें पनप रहा है
तुम्हारा झूठ एक
दिन जनेगी ये
तुम्हारी अपराध भावना को
मैं जानती हूँ
तुम साफ़ नकार जाओगे
इससे अपना कोई रिश्ता
यदि मुकर न भी पाए तो
उसे किसी के भी
गले मढ़ दोगे तुम
कोई कमज़ोर तुम्हें
फिर कर देगा बरी
पर तुम
भूल कर भी न इतराना
क्योंकि एक गर्भाशय है
जिसमें पनप रहा है
तुम्हारा झूठ!

(KHAMOSHI – A Hindi Poem by DIVYA MATHUR for YUGMANAS)
****

कविता

मुग्ध हो कर
- हरिहर झा, मेल्बर्न, आस्ट्रेलिया
मुग्ध हो कर देख रहा हूं
और बह रहा हूं
अस्तित्व की बाढ़ में
तेरी अविजित मुस्कान
इधर झनझनाती तंत्रियों में शुरू
सामूहिक गान

तू झुलसा रही मेरे अहं को
उमड़ रहा न जाने क्या
झुकती नज़र, कभी उठती नज़र
पर इसके माने क्या ?

फुलवारी कुछ सिमट गई है
और थोड़ी-सी आहट से
कांपने लगी है
तूफ़ान के अंदेशे ने
क्या क्या जुर्म किये
मजबूर हो गया
खुद को सहने के लिये
क्योंकि बिच्छू ने मारा डंक
पावक चेतना पर
एक एक क्षण का बोझ
वाचाल तन-मन
पर जिव्हा ने एक न कही
नीरवता खाये जा रही
क्योंकि हिमालय खड़ा अपनी जगह
और गगन अपनी जगह
अव्यक्त भाव
मैं पिंजरे में बंद पक्षी
देख रहा हूं क्षितिज की ओर !

(MUGD HOKAR – A Hindi Poem by HARIHAR JHA for YUGMANAS)
****

कविता

प्रेरणा
- रुक्माजी अमर, चेन्नै
मिलती है मुझे प्रेरणा
सुरम्य प्रकृति से,
विभिन्न स्थिति, परिस्थितियों से,
घटनाओं, दुर्घटनाओं से,
लोगों से
लोगों की प्रवृत्तियों से
लोगों के व्यवहार से
तत्काल रच देता हूँ मैं रचना
लौटा देता हूँ मैं आखिर
उन्हीं की रचना उन्हीं को
अपने ही पास रखना
समझता हूँ मैं अक्षम्य अपराध ।
(PRERANA – A Hindi Poem by Rukamaji Amar for YUGMANAS)
****