Thursday, October 29, 2015

घाट पर ठहराव कहाँ : लघुकथाओं पुष्पोंकी सुवासित बगिया

कृति चर्चा :
घाट पर ठहराव कहाँ : लघुकथाओं पुष्पोंकी सुवासित बगिया 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
(कृति विवरण: घाट पर ठहराव कहाँ, लघुकथा संग्रह, कांता रॉय, ISBN ९७८-८१-८६८१०-३१-५ पृष्ठ १२४, २००/-पुस्तकालय संस्करण, १५०/- जन संस्करण, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द पेपर जैकेट सहित, समय साक्ष्य प्रकाशन, १५ फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, रचनाकार संपर्क:९५७५४६५१४७  )
***
'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' सतसइया के दोनों के संदर्भ में कही गयी इस अर्धाली में 'छोटे' को 'छोटी' कर दें तो यह लघुकथा के सन्दर्भ में सौ टंच खरी हो जाती है। लघुकथा के शिल्प और कथ्य के मानकों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। भाषा और साहित्य जड़ता से जितना दूर और चेतना के जितने निकट हो उतना ही सजीव, व्यापक और प्रभावी होता है। पद्य के दोहा और शे'र को छोड़ दें तो नवगीत और मुक्तिका की सी आकारगत लघुता में कथ्य के असीम आकाश को अन्तर्निहित कर सम्प्रेषित करने की  अप्रतिम सामर्थ्य लघुकथा की स्वभावगत विशेषता है। लघु कथा की 'गागर में सागर' जैसी अभिव्यक्ति सामर्थ्य ने न केवल पाठक जुटाये हैं अपितु पाठकों के मन में पैठकर उन्हें लघुकथाकार भी बनाया है। विवेच्य कृति नव लघुकथाकारों की बगिया में अपनी सृजन-सुरभि बिखेर रही काँता रॉय जी का प्रथम लघुकथा संग्रह है. 'जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला ....' बच्चन जी की इन पंक्तियों को जीती लेखिका को जैसे हो वक़्त मिला वह 'मूषक'  (माउस) को थामकर सामाजिक शल्यों की चीरफ़ाड़ी करने में जुट गयी, फलत: ११० लघुकथाओं का पठनीय संग्रह हमारे हाथों में है। संतोष यह कि कृति प्रकाशन को लक्ष्य नहीं पड़ाव मात्र मानकर कांताजी निरंतर लघुकथा सृजन में संलग्न हैं।  

'घाट पर ठहराव कहाँ' की लघुकथाओं के विषय दैनंदिन जीवन से उठाये गये हैं। लाड़ली बिटिया, संकोची नवोढ़ा, ममतामयी माँ, संघर्षशील युवती और परिपक्व नारी के रूप में जिया-भोया-सँवारा जीवन ही इन लघुकथाओं का उत्स है। इनके विषय या कथ्य आकाशकुसुमी नहीं, धरा-जाये हैं। लेखिका के अनुसार 'मैंने हमेशा वही लिखा जो मैंने महसूस किया, बनावटी संविदाओं से मुझे सदा ही परहेज रहा है।' डॉ. मालती बसंत के अनुसार 'कांता रॉय के श्वास-श्वास में, रोम-रोम में लघुकथा है।'

कोई विस्मय नहीं कि अधिकाँश लघुकथाओं का केंद्र नारी है। 'पारो की वेदना' में प्रेमी का छल, 'व्यथित संगम' में संतानहीनता का मिथ्या आरोप, 'ममता की अस्मिता' में नारी-अस्मिता की चेतना, 'दरकती दीवारें चरित्र की' में धन हेतु समर्पण, 'घाट पर ठहराव में' जवान प्रवाह में छूटे का दुःख, 'रीती  दीवार' में सगोत्री प्रेमियों की व्यथ-कथा, 'गरीबी का फोड़ा' में बेटे की असफलता -जनित दुःख, 'रुतबा' मंत्रालय का में झूठी शान का खोखलापन, 'अनपेक्षित' में गोरेपन का अंधमोह, 'गले की हड्डी' में समधी के कुत्सित इरादों से युक्तिपूर्वक छुटकारा, 'श्राद्ध' में अस्पतालों की लोलुपता, 'पतित' में बदले की आग, 'राहत' में पति की बीमारी में शांति की तलाश, 'झमेला' में दुर्घटना-पश्चात पुलिस सूचना, 'दास्तान-ए-कामयाबी' में संघर्ष पश्चात सफलता,' डिस्टेंट  रिलेशनशिप' में नेट के संबंध, 'सुनहरी शाम' में अतीत की यादों में भटकता मन, 'जादू का शो' में मंचीय अश्लीलता, 'मिट्टी की गंध' में नगर प्रवास की व्यथा, 'मुख्य अतिथि' में समय की पाबंदी, 'आदर्श और मिसाल' में वर पक्ष का पाखंड,महिला पार्ष में अयोग्य उम्मीदवार,धर्म के ठेकेदा में मजहबी उन्माद की आग में ध्वस्त प्रेमी,एकलव् में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गुरु-शिष्य द्वन्द अर्थात जीवन के विविध पक्षों में व्याप्त विसंगतियाँ शब्दित हुई हैं। 

कांता जी की विशेषता जीवन को समग्र में देखना है। छद्म नारी हित रक्षकों के विपरीत उनकी लघुकथाएँ पुरुष मात्र को अपराधी मान सूली पर चढ़ाने की मांग नहीं करतीं। वे लघुकथाओं को अस्त्र बनकर पीड़ित के पक्ष में लिखती हैं, वह स्त्री है या पुरुष, बालक या वृद्ध यह गौड़ है। 'सरपंची' लघुकथा पूरे देश में राजनीति को व्यापार बना रही प्रवृत्ति का संकेत करती है। 'तख्तापलट' में वैज्ञानिक प्रगति पर कटाक्ष है। 'आतंकवादी घर के' लघुकथा स्त्री प्रगति में बाधक पुरुष वृत्ति को केंद्र में लाती है। 'मेरा वतन' में सम्प्रदायिकता से उपजी शर्म का संकेत है। 'गठबंधन' लघुकथा महाकल मंदिर की पृष्भूमि में सांसारिकता के व्यामोह में ग्रस्त सन्यासिनी पर केंद्रित है। 'मैं भक्ति के अतिरेक में डूब ही पाई थी कि ……मैं उस श्वेतांबरी के गठबंधन पर विचार करने लगा' यह लिंग परिवर्तन कब और कैसे हो गया, कौन बताये?

'प्रतिभा', 'दोस्ती', 'नेतागिरी', 'व्रती', 'जीवन संकल्प', 'उम्रदराज', 'सुई', 'सहयात्री', 'रिश्ता', 'कब तक का रिश्ता', 'कश्मकश',  पनाह', 'पनाह', 'अनुकंपा', 'नमक', 'फैशन की रसोई'  आदि नारी जीवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं तो 'विरासत', 'पार्क', 'रिपोर्ट', 'ब्रेकिंग न्यूज', 'पुनर्जन्म', 'मनरेगा','सत्य अभी मारा नहीं'. इधर का उधर' आदि में सामाजिक पाखंडों पर प्रहार है. कांता जी कहीं-कहें बहुत जल्दबाजी में कथ्य को उभरने में चूक जाती हैं। 'कलम हमारी धार हमारी', 'हार का डर',  'आधुनिक लेखिका', 'नेकी साहित्य की' आदि में साहित्य जगत की पड़ताल की गयी है।

कांता जी की लेखन शैली सरस, प्रवाहमयी, प्रसाद गुण संपन्न है। भाषिक समृद्धि ने उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य को धार दी है। वे हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के साथ संस्कृतनिष्ठ और देशज शब्दों का यथास्थान प्रयोग कर अपनी बात बखूबी कह पाती हैं। स्नेहिल, स्वप्न, स्वयंसिद्धा, उत्तल, विभक्त, उंकुके, तन्द्रा, निष्प्राण जैसे संस्कृत शब्द, सौंधी, गयेला, अपुन, खाप, बुरबक, बतिया, बंटाधार, खोटी आदि देशज शब्द, जुदाई, ख़ामोशी, इत्तेफ़ाक़, परवरिश, अपाहिज, अहसास, सैलाब, मशगूल, दास्तां. मेहरबानी, नवाज़े, निशानियाँ, अय्याश, इश्तिहार, खुशबू, शिद्दत, आगोश, शगूफा लबरेज, हसरत, कशिश, वक्र, वजूद, बंदोबस्त जैसे उर्दू शब्द, रिमोट, ओन, बॉडी, किडनी, लोग ऑफ, पैडल बोट, बोट क्लब, टेस्ट ड्राइव, मैजिक शो, मैडम ड्रेसिंग टेबल, कंप्यूटर, मिसेज, इंटरनेट, ऑडिशन, कास्टिंग काउच जैसे अंग्रेजी शब्द काँता जी ने बखूबी उपयोग किये हैं। अंग्रेजी के जिन शब्दों के सरल और सटीक पर्याय प्रचलित हैं उन्हें उपयोग न कर अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाना अनावश्यक प्रतीत होता है। ऐसे शब्दों में डिस्टेंस (दूरी), मेसेज (संदेश), ( बंद, निकट), कस्टमर (ग्राहक), कनेक्शन (संबंध, जुड़ाव), अड्वान्स (अग्रिम), मैनेजमेंट (प्रबंधन), ग्रुप (समूह, झुण्ड), रॉयल (शाही), प्रिंसिपल (प्राचार्य) आदि हैं।

उर्दू शब्द ज़ज़्बा (भावना) का बहुवचन ज़ज़्बात (भावनाएँ) है, 'ज़ज़्बातों' (पृष्ठ ३८) का प्रयोग उतना ही गलत है जितना सर्वश्रेष्ठ या बेस्टेस्ट। 'रेल की रेलमपेल' में (पृष्ठ ४७) भी गलत प्रयोग है।बच्चों की रेलमपेल अर्थात बच्चों की भीड़, रेल = पटरी, ट्रेन = रेलगाड़ी,  रेल की रेलमपेल = पटरियों की भीड़ इस अर्थ की कोई प्रासंगिकता सनरभित लघुकथा 'भारतीय रेल' में नहीं है।  अपवादों को छोड़कर समूचे लघुकथा संकलन में भाषिक पकड़ बनी हुई है। कांता जी लघुकथा के मानकों से सुपरिचित हैं। संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, बेधकता, मर्मस्पर्शिता, विसंगति निर्देश आदि सहबी तत्वों का उचित समायोजन कांता जी कर सकी हैं। नवोदित लघु कथाकारों की भीड़ में उनका सृजन अपनी स्वतंत्र छाप छोड़ता है। प्रथम में उनकी लेखनी की परिपक्वता प्रशंसनीय है। आशा है वे लघुकथा विधा को नव आयामित करने में समर्थ होंगी।

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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४

Wednesday, October 28, 2015

'सम्मान वापसी: प्रतिरोध या पाखंड' विषय पर 29 अक्टूबर को संगोष्ठी

'सम्मान वापसी: प्रतिरोध या पाखंड' विषय पर 29 अक्टूबर को संगोष्ठी

सम्मान वापसी पर उठे विवाद के बाद देश में विरोध और समर्थन का एक विमर्श चल पड़ा है. इसी विमर्श को केंद्र में रखते हुए हिंदी के चर्चित वेब पोर्टल प्रवक्ता.कॉम द्वारा एक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है. इस आयोजन में देश के नामचीन साहित्यकार, पत्रकार, संस्कृतिकर्मी, ब्लॉगर शामिल हो रहे हैं.
प्रवक्ता.कॉम द्वारा आगामी 29 अक्टूबर 2015, गुरुवार को “सम्मान वापसी : प्रतिरोध या पाखंडविषय पर सायं 5:00 बजे दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित हिंदी भवन सभागार(आईटीओ मेट्रो से नजदीक) में एक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है. हाल में जिस प्रकार से साहित्य अकदामी सम्मान वापसी का जो विमर्श पूरे देश में खड़ा हुआ हैने इस बहस को जन्म दिया है कि क्या साहित्यकारों का यह कदम किसी विचारधारा के पूर्वाग्रह से प्रेरित है अथवा यह महज एक राजनीतिक विरोध है चूँकि सम्मान वापसी की शुरुआत से ही इसका विरोध करते हुए डॉ नामवर सिंहश्री राम दरश मिश्र व सुश्री चित्रा मुदगल जैसे प्रख्यात साहित्यकारों ने इसको सस्ती लोकप्रियता पाने का जरिया बताया है. ऐसे में प्रवक्ता.कॉम सम्मान वापसी: प्रतिरोध या पाखंड’ विषयक संगोष्ठी का आयोजन कर इस विषय पर एक खुली बहस का मंच उपलब्ध करा रहा है. संगोष्ठी में इस विषय पर चर्चा के लिए साहित्य एवं पत्रकारिता के बड़े हस्ताक्षर श्री नरेंद्र कोहलीश्री बलदेव वंशीश्री कमल किशोर गोयनकाश्री अच्युतानन्द मिश्रश्री राहुल देवश्री राम बहादुर रायश्री बलदेव भाई शर्मा सहित संस्कृति एवं कला के क्षेत्र से श्री दया प्रकाश सिन्हा व सुश्री मालिनी अवस्थी मौजूद रहेंगे. इसके अतिरिक्त साहित्यकला एवं पत्रकारिता के क्षेत्र से कई दिग्गज उपस्थित रहेंगे.
प्रवक्ता.कॉम के सम्पादक संजीव सिन्हा ने बताया कि प्रवक्ता हमेशा से ही वैचारिक बहस का पक्षधर रहा है. आज जब साहित्य को एक ख़ास विचारधारा के खांचे में बिठाने की कोशिश की जा रही है तो प्रवक्ता का दायित्व बनता है कि इस बहस को और व्यापक स्तर पर समाज के बीच लाये. इसी उद्देश्य से यह कार्यक्रम किया जा रहा है.
प्रवक्ता.कॉम के प्रबंध संस्थापक भारत भूषण ने बताया कि "प्रवक्ता.कॉम द्वारा इस आयोजित इस संगोष्ठी में इस पूरे बहस और विवाद पर बहस की संभावना है. प्रवक्ता.कॉम द्वारा इस विषय पर अबतक प्रकाशित पचास से ज्यादा लेखों की संकलन पुस्तिका के विमोचन सहित एक डाक्यूमेंट्री के प्रसारण की भी योजना है."

संजीव सिन्हा – 9868964804
संपादक, प्रवक्ता.कॉम

Thursday, October 15, 2015

"हल्बी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति" पर 30-31 अक्टूबर को दो दिवसीय आयोजन जगदलपुर में

"हल्बी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति" पर 
30-31 अक्टूबर को दो दिवसीय आयोजन 
जगदलपुर में 

30-31 अक्टूबर को "साहित्य अकादेमी", नयी दिल्ली और "बस्तर विश्वविद्यालय", जगदलपुर के सहयोग से "बस्तर विश्वविद्यालय जगदलपुर, धरमपुरा, बस्तर-छत्तीसगढ़" में बस्तर सम्भाग की प्रमुख लोक भाषाओं में द्वितीय स्थान रखने वाली लोक भाषा, जो रियासत-काल में राज-काज की भी भाषा रही है और यहाँ की सम्पर्क भाषा का भी दर्जा प्राप्त "हल्बी" से सम्बन्धित "हल्बी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति" पर केन्द्रित दो दिवसीय संगोष्ठी का गरिमामय आयोजन होने जा रहा है। 
इस आयोजन के कार्यक्रम निम्नानुसार हैं : 

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2015

उद्घाटन सत्र : पूर्वाह्न 10.00 बजे - 11.30 बजे
स्वागत : के. श्रीनिवासराव, सचिव, साहित्य अकादेमी
उद्घाटन वक्तव्य : एन. डी. आर. चन्द्रा, कुलपति, बस्तर विश्वविद्यालय
    
पुस्तक लोकार्पण :  
हरिहर वैष्णव की पुस्तक "लछमी जगार" (गुरुमाय केलमनी द्वारा प्रस्तुत बस्तर की धान्य-देवी की महागाथा, मूल हल्बी, हिन्दी अनुवाद के साथ)
सोनसिंह पुजारी की पुस्तक "अन्धकार का देश" (हल्बी के अन्यतम कवि की मूल हल्बी कविताएँ हिन्दी अनुवाद के साथ)
(दोनों ही पुस्तकों के प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली)

बीज वक्तव्य : महेंद्र कुमार मिश्र, वाचिक और जनजातीय साहित्य के विद्वान
अध्यक्षीय वक्तव्य : विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, अध्यक्ष, साहित्य अकादेमी
विशिष्ट अतिथि : रामसिंह ठाकुर, सुप्रसिद्ध हल्बी कवि
धन्यवाद ज्ञापन : अन्विता अब्बी, निदेशक, वाचिक और जनजातीय साहित्य केन्द्र, साहित्य अकादेमी

प्रथम सत्र : मध्याह्न 12.00 बजे - 1.30 बजे

अध्यक्ष : हरिहर वैष्णव
आलेख : यशवंत गौतम/हल्बी का लिखित साहित्य : दशा एवं दिशा
विक्रम सोनी/हल्बी का भाषा वैज्ञानिक पक्ष एवं लिपि
शिवकुमार पाण्डेय/हल्बी और छत्तीसगढ़ी में अंतर्संम्बंध
बलदेव पात्र/हल्बी और हल्बा संस्कृति
खेम वैष्णव/हल्बी परिवेश में लोक चित्र-परम्परा

द्वितीय सत्र : अपराह्न 2.30 बजे - 4.30 बजे

अध्यक्ष : महेंद्र कुमार मिश्र  
आलेख : सुभाष पाण्डेय/हल्बी रंगमंच : कल, आज और कल
बलबीर सिंह कच्छ/हल्बी लोक संगीत की दशा एवं दिशा
नारायण सिंह बघेल/हल्बी परिवेश के लोक-नृत्य
रुद्रनारायण पाणिग्राही/हल्बी परिवेश के त्यौहार एवं उत्सव
रूपेन्द्र कवि/मानव विज्ञान की दृष्टि में हल्बा जनजाति

तृतीय सत्र : अपराह्न 5.00 बजे - 6.00 बजे
कहानी पाठ : एम. ए. रहीम
शोभाराम नाग

शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

चतुर्थ सत्र : पूर्वाह्न 11.00 बजे - 1.30 बजे
कविता पाठ : सोनसिंह पुजारी
जोगेन्द्र महापात्र "जोगी"
शकुंतला तरार
नरेन्द्र पाढ़ी
सिकंदर खान "दादा जोकाल"
अर्जुन नाग
तुलसी राम पाणिग्राही
बालकिशोर पाण्डे
गिरिजानन्द सिंह ठाकुर
घनश्याम सिंह नाग
हरिहर वैष्णव
डी. एस. बघेल

लोक : विविध स्वर : अपराह्न 2.30 बजे - 6.00 बजे
लछमी जगार/मुँडागाँव के कलाकारों की प्रस्तुति
गीति कथा/मारेंगा गाँव के कलाकारों की प्रस्तुत
खेल गीत/सिंगनपुर गाँव के कलाकारों की प्रस्तुति
लोक नृत्य/माता रुक्मणि सेवा संस्था की प्रस्तुति

अत्यन्त विनम्रतापूर्वक निवेदन करना चाहूँगा कि बस्तर की "पहचान" केवल कुछ देशी-विदेशी लेखकों-पत्रकारों-मानवविज्ञानियों या संस्कृतिकर्मियों के अनुसार "घोटुल" ही नहीं है। उस बेतुके पहचान से उबरने और बस्तर की वास्तविक पहचान पाने के लिये आपको इस कार्यक्रम में अवश्य ही शिरकत करना चाहिये, ऐसा मेरा मानना है। 
उपर्युक्त कार्यक्रमों पर नज़र डालने पर आप पायेंगे कि "हल्बी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति" पर यह निश्चित ही अपनी तरह का एक अनूठा आयोजन है। मैं इसके लिये साहित्य अकादेमी, विशेष तौर पर इस अकादेमी के "वाचिक एवं जनजातीय साहित्य केन्द्र" की निदेशक प्रख्यात भाषा विज्ञानी और पद्मश्री से अलंकृत आदरणीया प्रो. (श्रीमती) अन्विता अब्बी जी का हृदय से आभारी हूँ। आभारी हूँ शोध-छात्र चिरंजीव श्री अजय कुमार सिंह (लखनऊ) का भी जिनके माध्यम से मैं आदरणीया प्रो. अब्बी जी से जुड़ सका। आभारी हूँ, अकादेमी के सचिव आदरणीय श्री के. श्रीनिवासराव जी और अध्यक्ष आदरणीय श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी का भी, जिन्होंने इस कार्यक्रम में अपनी सक्रिय सहभागिता दर्ज कराने की स्वप्रेरित इच्छा जतायी और यही कारण है कि यह कार्यक्रम अप्रैल में होते-होते रह गया और अब 30-31 अक्टूबर को इन महानुभावों की गरिमामयी उपस्थिति में होने जा रहा है। आभार बस्तर विश्वविद्यालय के कुलपति आदरणीय श्री एन. डी. आर चन्द्र जी का भी, जिन्होंने इस कार्यक्रम के आयोजन में सहभागिता दर्ज कराने की सहर्ष सहमति अकादेमी को दे कर हम बस्तरवासियों पर उपकार किया है। मुझे आशा है कि अकादेमी और इसका वाचिक एवं जनजातीय साहित्य केन्द्र हल्बी के साथ ही यहाँ की तमाम लोकभाषाओं के प्रति भी ऐसा ही स्नेह बनाये रखेगा और आगे उन पर केन्द्रित कार्यक्रम भी आयोजित करेगा। 
उल्लेखनीय है कि पिछले वर्षों में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नयी दिल्ली द्वारा इस न्यास में संपादक माननीय श्री पंकज चतुर्वेदी जी के अथक प्रयासों से बस्तर की भतरी, हल्बी, गोंडी और दोरली लोक भाषाओं पर कार्यशालाएँ आयोजित हो चुकी हैं। इनमें से कुछ पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है और कुछ पुस्तकों के प्रकाशन का काम जारी है। मैं ऐसे सभी रचनात्मक आयोजनों का हृदय से स्वागत करता हूँ और सभी के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ। 
क्या आप नहीं चाहेंगे कि इस कार्यक्रम में, जिसे मैं एक "पवित्र अनुष्ठान" कहना चाहूँगा, अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर हल्बी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के बहाने "बस्तर" की आत्मा को बूझें। उसके विषय में जानें, उसे समझें और आत्मसात् करें -
- हरिहर वैष्णव

Wednesday, October 7, 2015

||| स्त्री के मन के रंग |||



 ||| स्त्री के  के रं ||| 

ART BY VIJAY KUMAR



 Vijay Kumar
Mobile :  +91 98497465000
Skype :  vijaykumar.sappatti

 Adress :

VIJAY KUMAR SAPPATTI
FLAT NO.402, FIFTH FLOOR,
PRAMILA RESIDENCY; HOUSE NO. 36-110/402,
DEFENCE COLONY, SAINIKPURI POST,
SECUNDERABAD- 500094 [TELENGANA ]
INDIA
  
ART AND POEMS COPYRIGHT © VIJAY KUMAR


 सिलवटों की सिहरन

अक्सर तेरा साया
एक अनजानी धुंध से चुपचाप चला आता है
और मेरी मन की चादर में सिलवटे बना जाता है …..

मेरे हाथमेरे दिल की तरह
कांपते हैजब मैं
उन सिलवटों को अपने भीतर समेटती हूँ …..

तेरा साया मुस्कराता है और मुझे उस जगह छु जाता है
जहाँ तुमने कई बरस पहले मुझे छुआ था,
मैं सिहर सिहर जाती हूँ,
कोई अजनबी बनकर तुम आते हो;
और मेरी खामोशी को आग लगा जाते हो 

तेरी यादो का एहसास मेरे चादरों में धीमे धीमे उतरता है
मैं चादरें तो धो लेती हूँ पर मन को कैसे धो लूँ 
कई जनम जी लेती हूँ तुझे भुलाने में,
पर तेरी मुस्कराहट,
जाने कैसे बहती चली आती है,
न जानेमुझ पर कैसी बेहोशी सी बिछा जाती है …..

कोई पीर पैगम्बर मुझे तेरा पता बता दे,
कोई माझी, तेरे किनारे मुझे ले जाए,
कोई देवता तुझे फिर मेरी मोहब्बत बना दे.......
या तो तू यहाँ आजा,
या मुझे वहां बुला ले......

कही कोई नहीं है जी.......

कहीं कोई नहीं है जी.....कोई नहीं,
बस यूँ ही था कोई
जो जाने अनजाने में
बस गया था दिल में..
पर वो कोई नहीं है जी ...

एक दोस्त था जो अब भी है,
जो कभी कभी फ़ोन करके
शहर के मौसम के बारे में पूछता है,
मेरे मन के आसमान पर
उसके नाम के बादल अब भी है..
पर कोई नहीं है जी....

कुछ झूठ है इन बातो में
और शायद,थोडा सा सच भी है
जज्बातों से भरा हुआ वो था
उम्मीदों की जागीर थी उसके पास
पर मैंने ही उसकी राह पर से
अपनी नजरो को हटा दिया
पर कोई नहीं है जी.....

कोई हैजो दूर होकर भी पास है
और जो होकर भी कहीं नहीं है
बस कोई है.." कहाँ हो जानू ",
क्या.......कौन.........
नहीं नहीं कोई नहीं है जी...

मेरे संग उसने ख्वाब देखे थे चंद
कुछ रंगीन थेकुछ सिर्फ नाम ही थे
है कोई जो बेगाना है,पता नहीं ?
मेरा अपना नहीं, सच में ?
कोई नहीं है वो जी....

कोई साथी सा था..
हमसफ़र बनना चाहता था,
चंद कदम हम साथ भी चले..
पर दुनिया की बातो में मैं आ गयी
बस साथ छूट गया
कोई नहीं है जी....

कोई चेहरा सा रहता है,
ख्यालो में...याद का नाम दूं उसे ?
कभी कभी अक्सर अकेले में
आंसू बन कर बहता है
कोई नहीं था जी....

बस यूँ ही 
मुझे सपने देखने की आदत है 
एक सच्चा सपना गलती से देख लिया था
कोई नहीं है जीकोई नहीं है....

सच में...पता नहीं
लेकिन कभी कभी मैं गली के मोड़ तक जाकर आती हूँ
अकेले ही जाती हूँ और अकेले ही आती हूँ..
कही कोई नहीं है जी.....
कोई नहीं......

तू “

मेरी दुनिया में जब मैं खामोश रहती हूँ,
तो,
मैं अक्सर सोचती हूँ,
कि
खुदा ने मेरे ख्वाबों को छोटा क्यों बनाया ……

एक ख्वाब की करवट बदलती हूँ तो;
तेरी मुस्कारती हुई आँखे नज़र आती है,
तेरी होठों की शरारत याद आती है,
तेरे बाजुओ की पनाह पुकारती है,
तेरी नाख़तम बातों की गूँज सुनाई देती है,
तेरी बेपनाह मोहब्बत याद आती है.........

तेरी क़समें,तेरे वादें,तेरे सपने,तेरी हकीक़त ॥
तेरे जिस्म की खुशबु,तेरा आनातेरा जाना ॥
अल्लाह.....कितनी यादें है तेरी........

दूसरे ख्वाब की करवट बदली तो,तू यहाँ नही था.....
तू कहाँ चला गया....
खुदाया !!!! 
ये आज कौन पराया मेरे पास है........

मोरे सजनवा !!!

घिर  आई फिर से... कारी कारी बदरिया
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!
नैनन को मेरेतुमरी  छवि हर पल नज़र आये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पामा गा रे सा........

बावरा मन ये उड़ उड़ जाये जाने कौन देश रे
गीत सावन के ये गाये तोहे लेकर मन में
रिमझिम गिरती फुहारे बस आग लगाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पामा गा रे सा........

सांझ ये गहरीसाँसों को मोरी रंगाये,
तेरे दरश को तरसे है ये आँगन मोरा
हर कोई सजन,अपने घर लौट कर आये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पामा गा रे सा........

बिंदियापायलआँचलकंगन चूड़ी  पहनू सजना 
करके सोलह श्रृंगार तोरी राह देखे ये सजनी
तोसे लगन लगा कररोग  दिल को लगाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पामा गा रे सा........
बरस रही है आँखे मोरी संग बादलवा..
पिया तू नहीं जाने मुझ बावरी का  दुःख रे
अब के बरस,  ये राते नित नया जलाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

सा  नि ध पामा गा रे सा........

आँगन खड़ी जाने कब से कि तोसे संग जाऊं
चुनरिया मोरी भीग जाये आँखों के सावन से 
ओह रे पियाकाहे ये जुल्म मुझ पर तू ढाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!

घिर  आई फिर से... कारी कारी बदरिया
लेकिन तुम घर नहीं आये....मोरे सजनवा !!!


“ मैं तुम्हारी स्त्री – एक अपरिचिता “

मैं हर रात ;
तुम्हारे कमरे में आने से पहले सिहरती हूँ
कि तुम्हारा वही डरावना प्रश्न ;
मुझे अपनी सम्पूर्ण दुष्टता से निहारेंगा
और पूछेंगा मेरे शरीर से, “ आज नया क्या है ? ”

कई युगों से पुरुष के लिए स्त्री सिर्फ भोग्या ही रही
मैं जन्मो से, तुम्हारे लिए सिर्फ शरीर ही बनी रही..
ताकिमैं तुम्हारे घर के काम कर सकू..
ताकिमैं तुम्हारे बच्चो को जन्म दे सकू,
ताकिमैं तुम्हारे लिये तुम्हारे घर को संभाल सकू.

तुम्हारा घर जो कभी मेरा घर न बन सका,
और तुम्हारा कमरा भी ;
जो सिर्फ तुम्हारे भोग की अनुभूति के लिए रह गया है
जिसमेसिर्फ मेरा शरीर ही शामिल होता है..
मैं नहीं..
क्योंकि ;
सिर्फ तन को ही जाना है तुमने ;
आज तक मेरे मन को नहीं जाना.

एक स्त्री का मनक्या होता है,
तुम जान न सके..
शरीर की अनुभूतियो से आगे बढ़ न सके

मन में होती है एक स्त्री..
जो कभी कभी तुम्हारी माँ भी बनती है,
जब वो तुम्हारी रोगी काया की देखभाल करती है ..
जो कभी कभी तुम्हारी बहन भी बनती है,
जब वो तुम्हारे कपडे और बर्तन धोती है
जो कभी कभी तुम्हारी बेटी भी बनती है,
जब वो तुम्हे प्रेम से खाना परोसती है
और तुम्हारी प्रेमिका भी तो बनती है,
जब तुम्हारे बारे में वो बिना किसी स्वार्थ के सोचती है..
और वो सबसे प्यारा सा संबन्ध,
हमारी मित्रता कावो तो तुम भूल ही गए..

तुम याद रख सके तो सिर्फ एक पत्नी का रूप
और वो भी सिर्फ शरीर के द्वारा ही...
क्योंकि तुम्हारा भोग तन के आगे
किसी और रूप को जान ही नहीं पाता  है..
और  अक्सर न चाहते हुए भी मैं तुम्हे
अपना शरीर एक पत्नी के रूप में समर्पित करती हूँ..
लेकिन तुम सिर्फ भोगने के सुख को ढूंढते हो,
और मुझसे एक दासी के रूप में समर्पण चाहते हो..
और तब ही मेरे शरीर का वो पत्नी रूप भी मर जाता है.

जीवन की अंतिम गलियों में जब तुम मेरे साथ रहोंगे,
तब भी मैं अपने भीतर की स्त्री के
सारे रूपों को तुम्हे समर्पित करुँगी
तब तुम्हे उन सारे रूपों की ज्यादा जरुरत होंगी,
क्योंकि तुम मेरे तन को भोगने में असमर्थ होंगे
क्योंकि तुम तब तक मेरे सारे रूपों को
अपनी इच्छाओ की अग्नि में स्वाहा करके
मुझे सिर्फ एक दासी का ही रूप बना चुके होंगे,

लेकिन तुम तब भी मेरा भोग करोंगे,
मेरी इच्छाओ के साथ..
मेरी आस्थाओं के साथ..
मेरे सपनो के साथ..
मेरे जीवन की अंतिम साँसों के साथ

मैं एक स्त्री ही बनकर जी सकी
और स्त्री ही बनकर मर जाउंगी
एक स्त्री....
जो तुम्हारे लिए अपरिचित रही
जो तुम्हारे लिए उपेछित रही
जो तुम्हारे लिए अबला रही...

पर हाँतुम मुझे भले कभी जान न सके
फिर भी..मैं तुम्हारी ही रही....
एक स्त्री जो हूँ.....


“मेहर 

मेरे शौहरतलाक बोल कर
आज आपने मुझे तलाक दे दिया !
अपने शौहर होने का ये धर्म भी
आज आपने पूरा कर दिया !
आज आप कह रहे हो की,
मैंने तुम्हे तलाक दिया है,
अपनी मेहर को लेकर चले जा....
इस घर से निकल जा....
लेकिन उन बरसो का क्या मोल है ;
जो मेरे थेलेकिन मैंने आपके नाम कर दिए...
उसे क्या आप इस मेहर से तोल पाओंगे....
जो मैंने आपके साथ दिन गुजारे,
उन दिनों में जो मोहब्बत मैंने आपसे की
उन दिनों की मोहब्बत का क्या मोल है...
और वो जो आपके मुश्किलों में
हर पल मैं आपके साथ थी,
उस अहसास का क्या मोल है..
और ज़िन्दगी के हर सुख दुःख में ;
मैं आपका हमसाया बनी,
उस सफर का क्या मोल है...
आज आप कह रहे हो की,
मैंने तुम्हे तलाक दिया है,
अपनी मेहर को लेकर चले जा....
मेरी मेहर के साथ,
मेरी जवानी,
मेरी मोहब्बत
मेरे अहसास,
क्या इन्हे भी लौटा सकोंगे आप ?



“ सन्नाटो की आवाजे “


जब हम जुदा हुए थे..
उस दिन अमावस थी !!
रात भी चुप थी और हम भी चुप थे.....!
एक उम्र भर की खामोशी लिए हुए...!!!
मैंने देखातुमने सफ़ेद शर्ट पहनी थी....
जो मैंने तुम्हे तुम्हारे जन्मदिन पर दिया था..
और तुम्हारी आँखे लाल थी
मैं जानती थी,
तुम रात भर सोये नही...
और रोते रहे थे......
मैं खामोश थी
मेरे चेहरे पर शमशान का सूनापन था.
हम पास बैठे थे और
रात की कालिमा को ;
अपने भीतर समाते हुए देख रहे थे...
तुम मेरी हथेली पर अपनी कांपती उँगलियों से
मेरा नाम लिख रहे थे...
मैंने कहा,
ये नाम अब दिल पर छप रहा है..
तुमने अजीब सी हँसी हँसते हुए कहा,
हाँठीक उसी तरह
जैसे तुमने एक दिन अपने होंठों से ;
मेरी पीठ पर अपना नाम लिखा था ;
और वो नाम अब मेरे दिल पर छपा हुआ है.....
मेरा गला रुंध गया था,
और आँखों से तेरे नाम के आंसू निकल पड़े थे..
तुम ने कहाएक आखरी बार वहां चले,
जहाँ हम पहली बार मिले थे....
मैंने कहा,
अबवहां क्या है...
सिवाए,हमारी परछाइयों के..
तुमने हँसते हुए कहा..
बस, उन्ही परछाइयों के साथ तो अब जीना है .

हम वहां गए,
उन सारी मुलाकातों को याद किया और बहुत रोये....
तुमने कहा,इस से तो अच्छा था की हम मिले ही न होते ;
मैंने कहाइसी दर्द को तो जीना है,
और अपनी कायरता का अहसास करते रहना है..
हम फिर बहुत देर तक खामोश बुत बनकर बैठे रहे थे...
झींगुरों की आवाज़पेड़ से गिरे हुए पत्तो की आवाज़,
हमारे पैरो की आवाज़हमारे दिलों की धड़कने की आवाज़,
तुम्हारे रोने की आवाज़…. मेरे रोने की आवाज़….
तुम्हारी खामोशी.... रात की खामोशी....
मिलन की खामोशी ….जुदाई की खामोशी......
खामोशी की आवाज़ ….
सन्नाटों की आवाज़...
पता नही कौन चुप था किसकी आवाज़ आ रही थी..
हम पता नही कब तक साथ चले,
पता नही किस मोड़ पर हमने एक दुसरे का हाथ छोड़ा
कुछ देर बाद मैंने देखा तो पायामैं अकेली थी...
आज बरसो बाद भी अकेली हूँ !
अक्सर उन सन्नाटो की आवाजें,
मुझे सारी बिसरी हुईबिखरी हुई ;
आवाजें याद दिला देती है..
मैं अब भी उस जगह जाती हूँ कभी कभी ;
और अपनी रूह को तलाश करउससे मिलकर आती हूँ
पर तुम कहीं नज़र नही आतें..
तुम कहाँ हो..........


“ कोई एक पल”

कभी कभी यूँ ही मैं,
अपनी ज़िन्दगी के बेशुमार
कमरों से गुजरती हुई,
अचानक ही ठहर जाती हूँ,
जब कोई एक पलमुझे
तेरी याद दिला जाता है !!!

उस पल में कोई हवा बसंती,
गुजरे हुए बरसो की याद ले आती है

जहाँ सरसों के खेतों की
मस्त बयार होती है
जहाँ बैशाखी की रात के
जलसों की अंगार होती है

और उस पार खड़े,
तेरी आंखों में मेरे लिए प्यार होता है
और धीमे धीमे बढता हुआ,
मेरा इकरार होता है !!!

उस पल में कोई सर्द हवा का झोंका
तेरे हाथो का असर मेरी जुल्फों में कर जाता है,
और तेरे होठों का असर मेरे चेहरे पर कर जाता है,
और मैं शर्माकर तेरे सीने में छूप जाती हूँ......

यूँ ही कुछ ऐसे रूककर बीते हुए,
आँखों के पानी में ठहरे हुए ;
दिल की बर्फ में जमे हुए ;
प्यार की आग में जलते हुए...
सपने मुझे अपनी बाहों में बुलाते है !!!

पर मैं और मेरी जिंदगी तो ;
कुछ दुसरे कमरों में भटकती है !

अचानक ही यादो के झोंके
मुझे तुझसे मिला देते है.....
और एक पल में मुझे
कई सदियों की खुशी दे जाते है...


काश
इन पलो की उम्र ;
सौ बरस की होती................

इंतजार "


मेरी ज़िन्दगी के दश्त,
बड़े वीराने है
दर्द की तन्हाईयाँ,
उगती है
मेरी शाखों पर नर्म लबों की जगह.......!!
तेरे ख्यालों के साये
उल्टे लटके,
मुझे क़त्ल करतें है ;
हर सुबह और हर शाम.......!!

किसी दरवेश का श्राप हूँ मैं !!

अक्सर शफ़क शाम के
सन्नाटों में यादों के दिये ;
जला लेती हूँ मैं...

लम्हा लम्हा साँस लेती हूँ मैं
किसी अपने के तस्सवुर में जीती हूँ मैं..

सदियां गुजर गयी है...
मेरे ख्वाब,मेरे ख्याल न बन सके...
जिस्म के अहसास,बुत बन कर रह गये.
रूह की आवाज न बन सके...

मैं मरीजे- उल्फत बन गई हूँ
वीरानों की खामोशियों में ;
किसी साये की आहट का इन्तजार है...

एक आखरी आस उठी है ;
मन में दफअतन आज....
कोई भटका हुआ मुसाफिर ही आ जाये....
मेरी दरख्तों को थाम ले....

अल्लाह का रहम हो
तो मैं भी किसी की नज़र बनूँ
अल्लाह का रहम हो
तो मैं भी किसी की " हीर " बनूँ...
[ Meanings : दश्त : जंगल // शफ़क : डूबते हुए सूरज की रोशनी // दफअतन : अचानक ]

 स्केच और कविताएं © विजय कुमार
सौजन्य - युग मानस