आलेख
उदय प्रकाश की लंबी कहानी ‘मोहनदास’ : दलित चेतना का दस्तावेज़
-
रमा
एस मेनोन*
उत्तराधुनिकता का कहानीकार है उदय प्रकाश। उनकी लंबी कहानी
है ‘मोहनदास’। मोहनदास कहानी
का मुख्य पात्र है।
मोहनदास
उनका पिता काबादास और माँ पुतलीबाई थी। वह मध्यप्रदेश के
अनुपपुर जिले के साकिन पुरबनरा में रहनेवाला था। उसने एम.जी. शासकीय डिग्री कॉलेज
से बी.ए. की परीक्षा फर्स्ट डिविज़न के साथ मेरिट में
विश्वविद्यालय के टोपर्स में दूसरे नंबर पर हासिल किया। यह कुछ ही साल पहले की बात
है। उस समय उनका फोटो अखबारों में छपा था।
नगण्यमानव
वैसे तो कबीरपंथी बंसहर पलिहा नीची जात के माने जाते थे।
लेकिन सरकारी गज़ट के अनुसार वे अनुसूचित जाति के हैं या आदिवास या आदिम जनजाति है –
यह अभी तक व्यक्त नहीं कर पाते हैं।
दलित चेतना
मोहनदास जो दलित युवक है अपनी अस्मिता खो चुका है। स्कूल के
सर्वप्रथम पढ़े लिखे आदमी होने पर भी वह सरकारी नौकरी से वंचित रह जाता है। उनका मन
उलझ जाता है। उनकी ज़िंदगी में सन्नाटा ही सन्नाटा है। ज़िंदगी में एक ऐसा दरार आ
गया है कि उसमें कहीं सिसकी अटक गई हो।
उनके उलझी मन की तुलना कहानीकार ने पानी से बाहर फेंकी गई
मछली से की है। उनकी आँखों में एक ऐसा ही रोग दिखाई दे रहा जो लाचार ज़िंदगी से उलझ
गया है। जैसा “समुद्र
या नदी की किसी लहर द्वारा अचानक धूल रेत पर उछाल कर पटक दी गई मछली की फटी आँखें
आपने देखी है कभी? मरती
हुई, खुली-फटी
आँखें? उस जैसा
रंग।”1 दलितों की ज़िंदगी मरती हुई मछली का हाल जैसा
है।
दलित का दंगाईयों के बीच फंस
जाना
मोहनदास एक ऐसा साधारण मनुष्य होना चाहता था जो दिन भर काम
करके शाम को थकावट से क्षीणित घर वापस आता है। उनका मन चाहा कि लौटते वक्त बच्चों
के लिए खिलौना लाएँ। लेकिन जिस तरह वह श्रमिक मानव घर लौटते तक दंगाइयों के बीच
फंस जाता है उसी प्रकार ज़िंदगी की मोड़ में दुर्भाग्य रूपी दंगाई में मोहनदास फंस
जाता है। लेकिन यहां भीड़ बनकर आए लोग उनकी जाति या समुदाय का नहीं था जिससे वह
सहायता माँग सकें।
दलितों की ज़िंदगी में मृत्यु
का रंग एवं डर
मोहनदास को मृत्यु का डर नहीं था। फिर भी अपना भविष्य उन्होंने
मृत्यु के समान देखा। उसने ज़िंदगी में अपने बाप को सख्त टि.बी. से मरते देखा।
लेकिन वह चाहते हुए भी पिता की इलाज के लिए कुछ नहीं कर पाता। इसलिए पिता की
मृत्यु में उसने तड़प देखा। तमाम ज़िंदगी उसके लिए डरावनी थी। ज़िंदगी भर भयभीत
जल्दबाज़ी है जिससे वह बेचैन था।
दलित चेतना एवं शिक्षित
मोहनदास
हर आदमी की ज़िंदगी में अच्छे भविष्य की
चिंता होती है। यह भी स्वाभाविक है कि दलित समुदाय के होने पर भी उनमें भी ऐसी
चिंता थी। अपने अध्यवसाय से उसने तरक्की पाना चाहा। सरकारी एम जी महाविद्यालय से
प्रथम श्रेणी में स्नातक की उपाधि उन्होंने प्राप्त की - वह भी पूरे विश्वविद्यालय
में टॉपर सूची में दूजे नंबर पर।
लेकिन ज़िंदगी की परिस्थितियों ने उसका ऐसा हाल बनाया कि
भविष्य का रंग भी बदल गया। उसका कायापलट इस तरह हुआ कि उसकी नीली डेनिम की फुल
पैंट फटी हुई थी। असली रंग नष्ट होकर बेरंग हो चुकी थी। उसके हल्के रंग का बुशशर्ट
सस्ते टिरिकॉट की थी। वह तो आधी बाजू की थी। उसके रबड़ का बरसाती जूता खिसा हुआ है।
ठीक उसी तरह जिस तरह उसकी ज़िंदगी की कठिनाइयों से वह पीस रहा हो। देखने में अपने
उम्र से दुगुना लगती थी।
दलित परिवार का आसरा -
मोहनदास
उसके आसरे में पाँच सदस्य अपनी ज़िंदगी गुज़ारने की प्रतीक्षा
में है। उसका बाप काबादास आठ सालों से टि.बी. से पीड़ित है। उसकी माँ अंधी बन चुकी
है। बीवी कस्तूरी बाई उसका हाथ बँटाती है घर संभालती है, दो बच्चे एक लड़का – देवदास और एक लड़की शारदा।
आम तौर पर यह देखा जाता है कि बच्चे बड़े होकर माँ बाप को
छोड़कर अपनी ज़िंदगी बसाने के लिए तैयार होते हैं। लेकिन यहाँ मोहनदास ऐसी युवापीढ़ी
का प्रतिनिधि नहीं है। अपनी गरीबी में भी वह परिवार के लिए सहारा बनने को तैयार
है। पूरी ज़िंदगी गरीबी रेखा के नीचे जैसे जीता है।
दलितों का शोषण
मोहनदास की माँ पुतलीबाई वह पहले देख सकती थी। किसी नेत्र
शिबिर में मोतियाबंद वा चीरफ़ाड़ कराया गया। लेकिन उसके बाद उसके चारों तरफ़ अंधेरा
ही अंधेरा है। चिकित्सा के क्षेत्र में भी दलितों के शोषण के शिकार का उत्तम एवं
ज़िंदा मिसाल है पुतली बाई।
दलितों की ज़िंदगी एवं बालश्रम
आठ साल का देवदास मोहनदास का आत्मनिर्भर बेटा है। दाल-भात
का इंतज़ाम उसे स्वयं करना पड़ा। पढ़ाई में सबसे तेज़ होने पर भी स्कूल के बाद दुर्गा
ऑटो वर्क्स में गाड़ियों में हवा भरने, पंचर जोड़ने और स्कूटर - मोटर साईकिलों के रिपेयर में हेलपर
का काम करके घर के खर्च को हल्का करने की कोशिश करता है। मोहनदास भी दलित समुदाय
के होने कारण वह अपने बेटे को पढ़ाने में असमर्थ निकलता है।
बच्ची शारदा जो छह साल की है दूसरी
कक्षा में पढ़ती है। बिछिया टोला में बिनसाथ के साथ एक साल के बेटे को सँभालती है,
साथ साथ घरेलू काम – काज में हाथ बँटाती है। बदले में उसे
रात का खाना और तीस रुपये महीना मिलता है। इस तरह बच्ची भी अत्मनिर्भर बन चुकी। घर
के खर्च को कम करने में वह भी अपना हिस्सा देती है।
बच्चों के भविष्य के प्रति
व्याकुलता
दलित समुदाय के सदस्य होने के कारण शिक्षित होने पर भी
मोहनदास बेकार बन गया। इसलिए बच्चों की पढ़ाई की बात कहने पर उसे भविष्य की अंधेरा
ही सब कहीं दिखाई देती है। वह अपने को निराश मानता है। उसमें आत्मविषाद की भावना
है।
तकनीकी ज्ञान एवं ज़िंदगी से
जूझ
बदलते ज़माने के अनुरूप अपने को रूपायित करने की भागदौड़ में
मोहनदास कंप्यूटर सीखने को तैयार होता है। टाईपिंग, कंपोज़िंग और प्रिंट निकालने का काम सीखना इसलिए चाहता है कि
उसमें महीने में छह सौ से ऊपर कमाने की उम्मीद है क्योंकि यह उसकी मजबूरी थी।
दलित की उम्मीदें
मोहनदास नीची जाति का कबीरपंथी है। सूपा – चटाई – दरी
- कंबल बुनने का काम ही उसकी बिरादरी के लोग करते हैं। पिता और माँ इसी उम्मीद से
ज़िंदगी काटती थी कि किसी न किसी दिन मोहनदास को अच्छी नौकरी मिल ही जाएँ।
खुद मोहनदास ने रोज़गार दफ़तर में पंजीयन कराया। तन तोड़ मेहनत
करके पि.एससी. के लिए आवेदन पत्र भेजा।
दलितों की ज़िंदगी में
भ्रष्टाचार रूपी रोड़ा
भेंटवार्ता के समय मोहनदास से कम योग्यतावाले उम्मीदवारों
को चुना करते थे। भ्रष्टाचार ने इतना जड़ पकड़ा कि उसकी जगह आठवीं - दसवीं पास – नौकरी में नियुक्त किए जाते थे। सिफ़ारिश से लोग मतलब की
पूर्ति करते थे। तब भी मोहनदास इस उम्मीद से जी रहा था कि दस या बीस प्रतिशत लोग
मेरिट की बुनियाद पर नौकरी पर रखे जाएँगे।
जातीय चेतना का भेदभाव
वह भ्रष्टाचार का शिकार बन गया कि सरकारी नौकरी हाथ से छूट
गई। यहीं से उसकी ज़िंदगी में पतझड़ शुरू हुआ। एक बार साक्षरता में शिक्षाकर्मी का
अस्थाई रूप में उसकी नियुक्ति होने ही वाली थी कि राजनीतिक सादिशों के फलस्वरूप
छूट गया। जिसे काम मिला वह तो उसकी जाति का न था। तब उसने समझा कि शक्तिशाली, अवैध एवं अनैतिकता की जीत होती है। क्योंकि रिश्वतखोरी उसके
बस की बात नहीं थी। फिर भी प्रतिस्पर्धा का सामना करने को वह तैयार था।
लेकिन उसने जल्द ही जान लिया कि स्कूल – कॉलेज के बाहर की असली ज़िंदगी दर-असल खेल का ऐसा मैदान है, जहाँ वही गोल बनाता है, जिसके पास दूसरे को लंगड़ी मारने की ताकत होती है। और यह
ताकत सिफारिश, जड़-तोड, रिश्वत - संपर्क, जालसाजी वगैरह तमाम ऐसी अवैध और अनैतिक चीज़ों से बनती है, जिनमें से एक भी मोहनदास की पहुँच के भीतर नहीं थी।
दलित चेतना एवं खालीपन
सरकारी नौकरी मिलने की संभावनाओं का अस्त हुआ। मोहनदास के
माँ बाप को इसकी भरोसा थी कि किसी भी तरह उसकी ज़िंदगी से बेरोज़गारी एवं खालीपन छूट
जाएँ।
पर्यावरण चेतना का स्रोत
पर्यावरण का उस पर गहरा प्रभाव पड़ा था। गाँव के निकट कठिना
नदी का उससे लगाव था। गर्मियों के दिन में नदी के रेत में खीरा, ककड़ी, तरबूज, खरबूज आदि लगाते थे। परिवार के सभी सदस्य मिलकर पलिया बनाकर
पानी से सिंचाकर खेती करते थे। साल में आठ – दस हज़ार की आमदनी भी मिल जाती थी। अनुकूल वातावरण से उसे सुकून
मिलता था।
“मोहनदास उस रात खाना खाने के बाद घर में नहीं सोया। कस्तूरी
से सुबह लौटने को कहकर, कंधे पर कुदाल और रोपा टांग कर वह कठिना नदी के तट पर चला
आया और सारी रात किसी पागल प्रेत की तरह मतीरा, खरबूज, टमाटर, लौकी, तरबूज, शांटा, ककड़ी लगाने के लिए पालिया बनाने में लगा रहा।”2
छूटती सुविधाएँ
जब कस्तूरी – देवदास को जन्म दे रही थी उसे गाँव के अस्पताल की
अनुपस्थिति महसूस हुई। वह अधमरा घोषित किया गया।
पर्यावरण का प्रभाव
जब जब उसे उलझनें आती थीं मोहनदास कठिना नदी की रेत पर आसरा
लेता था। यहीं वह अपने मन को प्रकृति में हल्का कर सकता था।
मौसम द्वारा शोषण
नदी में बाढ़ आने पर मोहनदास के मन में निराशा और अवसाद डेरा
डालता था। क्योंकि असमय के बारिश में पका फसल बह जाता था। इसलिए पहला बच्चा पैदा
होने पर भी वह अपने को खुश न पाता।
आशावादिता
ज़िंदगी की मुश्किल की कड़ियों में देवदास के जन्म के साथ साथ
उसे जिले की सबसे बड़ी ओरियंटल कोलियरी मैनस से नौकरी के लिए इंटरव्यू लेटर आया था।
यह उसकी ज़िंदगी में नवजीवन की ताकत प्रदान करनेवाली बात थी। उसने उसमें अपना नया
भविष्य देखा।
ईश्वर में आस्था एवं जोश
कबीरपंथियों की कुलदेवी मलइहा माई और सतगुरु कबीर दास जी पर
उनकी गहरी आस्था थी। जीवन की हर मुश्किल कड़ियों में ईश्वर ने उसका साथ दिया। यह
सोच उसमें आत्मविश्वास की भावना जगाने में सफल हुआ।
दलितों की परीक्षा
नौकरी के लिए लिखित परीक्षा दो घंटे तक थी। बाद में शारीरिक
परीक्षा भी थी। चुने गए पाँचों उम्मीदवारों में उनका नंबर पहला था। नौकरी उसके लिए
अनहोनी थी। उसमें भविष्य के प्रति आकांक्षाएँ सीमित थीं। महीने में तनखाह की
कोंपले फूटने लगीं। उसका सारा प्रमाणपत्र नौकरी के लिए सौंपा गया। लेकिन नौकरी की
जुगाड़ नहीं हो पाया।
प्रशासनिक शोषण
प्रशासनिक षड़यंत्रों के फलस्वरूप कोल मैनस की नौकरी हाथ से
छूट गई। इतना ही नहीं इस तरह धोखा भी खाया गया कि उसके स्थान पर किसी और को नौकरी
पर नियुक्त किया गया। शोषण की तीव्रता इतनी हो चुकी कि मोहनदास को अपना प्रमाणपत्र
भी वापस नहीं मिला। भ्रष्टाचार की लू में उसके भाग्य का फूल झुलस गया। ज़िंदगी में
घोर निराशा फैल गया।
हक से वंचित जनता
निम्नजाति का आदमी शिक्षित होने पर भी अपने अधिकारों से
वंचित रह जाता है। उच्चवर्ग द्वारा अपनामित भी होता है। इतना ही नहीं तानाकशी का
शिकार भी हो जाता है। उसे इसका भी हक नहीं मिला कि वह यह जानना चाहता था कि क्यों
वह नौकरी से छटू गया हो। उससे कम योग्यता वाले उच्चवर्ग के मित्र ने नौकरी हासिल
की।
भावात्मक शोषण का शिकार
मित्र द्वारा पत्नी से संबंधित अपमान सुनने पर भी वह
प्रतिक्रिया करने में असमर्थ बन जाता है। भावात्मक शोषण भी यहाँ होता है जब वह
सरकारी नौकरी से छूट जाता है दलित होने पर तिरस्कार की भावना भी उसे सहना पड़ा।
निम्नवर्ग के होने के कारण मोहनदास अपनी पत्नी के मान या इज़्ज़त रखने की फ़िक्र
करता है। उसे इसका भी हक नहीं।
नई उम्मीदें
नौकरी छूटने की खबर सुनने से पहले वह बेचैन था। बाद में
मोहनदास में श्रम के महत्व की भावना जाग उठी। कठिना नदी के किनारे तरकारियाँ लगाई
गर्इं।
गरीबों की परवाह
डॉ. वाकणकर तो दलितों के उत्थान की आशा रखते थे। मोहनदास की
मदद के लिए वे आगे आये। मुफ़्त की दवाइयाँ काबादास के लिए उन्होंने दीं। वह तो
मानवीयता से युक्त ईमानदार एवं नेक डॉक्टर का प्रतीक है जिसे आज के ज़माने में
मिलना अनहोनी होगी। इतना ही नहीं वहाँ के जिलाधीश जो है ईमानदार है। उस इलाके में
सालों तक ईमानदार जिलाधीश नसीब नहीं हुआ था। कबीर पंथियों द्वारा कस्तूरी और मोहना
को ऐसी उम्मीदें मिली कि उसके माँ बाप का गुज़ारा आरामदेह ज़िंदगी के रूप में बिता
सकें। लेकिन बाद में उससे भी धोखा मिला।
कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन
बांस और छीदी की चटाई, खोंभरी एवं पकउथी बनानेवाले कुल का पेशा करने में भी वह
नहीं हिचकता था। सरकारी नौकरी की प्रतीक्षा व्यर्थ की प्रतीक्षा होगी। फिर भी
ज़िंदगी की नई ताकत हम कुटीर उद्योग से भी प्राप्त कर सकते हैं जिससे हम
आत्मनिर्भरता प्राप्त कर सकें।
गोपाल दलित चेतना का प्रतीक
कस्तूरी का भाई गोपाल द्वारा असलियत का पता चला कि मोहनदास
की जगह उसके नाम एवं प्रमाण पत्र के ज़रिए और कोर्इ आदमी जो उच्चवर्ग का बिसनाथ है
काम कर रहा है। मोहनदास की तस्वीर के स्थान पर उसने अपना फोटो छपवाया।
अशिक्षितों का प्रतीक
बिसनाथ जो उच्चवर्ग के अशिक्षितों का प्रतीक है। यहाँ
ताकतवरों की राजनीति चल रही है।
धोखेबाज़ी एवं शोषण के खिलाफ़
आवाज़ उठाना
सच्चाई की आवाज़ गुंजाना मोहनदास चाहता था। लेकिन कोलमैन्स
में छानबीन के लिए निकला तो उसे तिरस्कार और छल-छद्म का अहसास हुआ। सरकारी रोज़गारी
से वह वंचित रह गया।
दलितों पर शोषण
उसे अपना हक मिलने का मौका भी नहीं
दिया गया। मोहनदास जब असलियत बताना चाहता था तब उसे उसका मौका नहीं दिया गया। इतना
ही नहीं उस पर वार करने के लिए भी लोग तैयार हुए। उस पर नाइनसाफ़ी का व्यवहार हुआ।
असंतुलित एवं निरंकुश समाज में वह सत्ता का शिकार बन गया। जातिवाद, अनैतिकता, धार्मिक
भिन्नता आदि जड़ पकड़ चुके थे। “शिकायतों में हरिजनों को मानव अधिकारों
से वंचित कर उन्हें भोजनालयों, धोबीआट, नाई की दुकान और चाय की दुकानों, उपाहार गृहों, धर्मशालाओं, स्कूलों, कुएँ, तालाब, नल, झरने, नदी तथा डाकघर तक में अछूतों को पैर नहीं रखने दिए जाते।”3
दलितों के प्रति उत्पीड़न, दमन, अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठाना
जब मोहनदास बिसनाथ का पता लगाने की कोशिश करने लगा तब उसे
रास्ते में कोर्इ सूर्यकांत मिला – जिसने अपना अस्तित्व खो चुका था। “तुम किसका फ्लैट खोज रहे हो? सूर्यकांत का। उन्नाव के पास के गाँव का है। उसके गाँव का
नाम क्या है? गढ़ाकोला....!
और तुम्हारा नाम क्या है? सूर्यकांत! गढ़कोला का सूर्यकांत!”4 मोहनदास चाहते हुए भी धोखे का बदला नहीं दे सकता है। तभी
उसे धोखे का और एक शिकार मिला।
भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था का
शिकार
मोहनदास के माँ-बाप को मुफ़्त चिकित्सा की मदद का वादा जिस
डॉक्टर ने किया था गरीबों की मदद करने की वजह से उसका तबादला करवाया गया। कबीर
पंथियों ने बाद में अपना मिशन भी छोड़ दिया। काबादास की नसीब में अच्छे इलाज का
लकीर खुदा ने नहीं खींचा था। तब मोहनदास लाचार बनकर बैठा।
मोहनदास - निखरता व्यक्तित्व
राजनीतिक एवं सामाजिक षड़यंत्रों के बीच मोहनदास जो असली
मोहनदास का दावा करने वाला निकला। उस पर कोलियर मैनस के लोगों से खूब पिटाई भी की
गई। यहाँ तक कि उसे पागल भी साबित किया गया। लेकिन वह अपने को समेटना खूब जानता
था। दलित होने का यह नतीजा निकला कि वह खुलकर कुछ एतराज़ भी न प्रकट कर सकें।
वह चुपचाप सतगुरु कबीर का जप करता रहा। वह किसी को कसूर
नहीं मानता है। उसने किसी पर भी अभियोग नहीं लगाया।
फिर भी घर आकर दिन की पिटाई के बारे में उसने किसी से भी
फरियाद नहीं किया। बदले में उसने हाथ – मुँह धोकर कस्तूरी के परोसे स्वादिष्ट भोजन
की तारीफ़ की।
“तोर हाथ के रांधे माँ जादू हाबै कस्तूरी! आमा ल चटनी, भात अउ भूख मांझी तोर ल हाथ परोस देय... त सरगै मिल जाथे।
(तेरे हाथ पकाए भोजन में जादू है कस्तूरी। आम की चटनी, भात और भूख के साथ अगर तेरे हाथ के परोसने का संयोग हो जाय
तो स्वर्ग ही मिल जाता है।)”5
हमदर्दी की भावना
गाँव के लोग मोहनदास की दुःखस्थिति पर सहानुभूति रखते थे।
वे लोग मोहनदास की फ़िक्र करते थे। लेकिन वे अपने को असहाय इसलिए पाते थे कि वे
स्वयं संकटों और विपदाओं से पीस रहे थे।
मंद बाज़ार एवं श्रमिक दलित
किसान जो तनतोड़ मेहनत करके पसीने को खून बहाकर फसल उगवाने
की तपस्या करते हैं। ऐसी साधना में जब वे अपने को सफल पाते हैं तब खुदा ने उन्हें
बदनसीब बनाने में सफल बने। कुर्मी जाति का घनश्याम इसका उत्तम नमूना है। “शाक - सब्जी वगैरह उगाने के अलावा वह अपना ट्रैक्टर किराये
पर उठाता। तब भी हर महीने साढ़े सात हज़ार की किस्त पटा जाता उसके दूसरी फसलों की
कीमत ही बाज़ार में नहीं रह गई थी।”6 मंद बाज़ार का शिकार गरीबी से पीड़ित किसान ही होता है।
बैंक से ऋण लेकर तरकारियाँ भी उगवाने के लिए लोग तैयार थे।
लेकिन सही वक्त पर ऋण उतारने में वे नाकामयाब होने लगे। तब खुदखुशी करने के अलावा
उनके सामने कोर्इ चारा न थी। एकसाथ मज़दूर एवं किसान पलायन होने के लिए मजबूर
निकले। “बलबहरा का
बिसेसर, जिसने
ग्रामीण बैंक से कर्ज़ लेकर सोयाबीन की खेती की थी, दो महीना पहले अपने खेत की नीलामी से बचने के लिए बिजली के
खंभे पर चढ़कर नंगी तार से पिचक कर मर गया था।”7
जाति-पाँति के भेदभाव को
समाप्त करने की भावना
शिक्षा तो सब में समता लानेवाली बात है। लेकिन मोहनदास के
बच्चे जिस विद्यालय में पढ़ते थे वहाँ की दलिया में भेद-भाव दिखा रहे थे। दलितों के
समय में शासकीय वर्ग में फैला भ्रष्टाचार का यह नतीजा निकला कि गरीब अपने हक से
हाथ धो बैठे थे। “मोहनदास
देखता कि सरकार द्वारा ग्राम पंचायत के लिए हैंड़पंप स्वीकृत होते तो वे बड़े लोगों
के घर के सामने लग जाते। शिक्षाकर्मी की नियुक्ति होती, महिलाओं के लिए अंगनवाड़ी और शिक्षिका का पद निकलता, इंदिरा आवास योजना में घर बनाने के लिए अनुदान मिलता, कुएँ और खेत की मरम्मत के लिए ग्रामीण विकास विभाग से रुपये
आते, नेहरु
रोज़गार योजना में शिक्षित बेरोज़गारों के लिए कोर्इ परियोजना आती तो वह सब उन्हीं
लोगों के बीच बंट जाती।”8
असंतुलित भावनाएँ
एक ओर वह अपनी नौकरी की भागदौड़ में बचैने है तो दूसरी ओर
मोहनदास को अपनी अस्मिता बनाए रखने की फिक्र है। बुलंद आवाज़ में आम जनता के सामने
उसने घोषणा करना चाहा कि वह ही असल में मोहनदास है। लेकिन ताकतवर सत्ताधारियों के
सामने सच्चाई लाना चाहा। मानसिक संघर्ष से मुक्ति मिलने के लिए दारू पीने लगा।
महुए के नशे में भी उन्हें यह बात सता रही थी कि बिसनाथ की असलियत सबके सामने कैसे
लाएँगे।
सुध-बुध की प्राप्ति
महुए की नशे में उसने सुध बुध खो दिया।
जब उसे होश आया तभी उसे पता चला कि टि.बि. की बीमारी से गंभीर रूप से पीड़ित पिता
की मृत्यु हो चुकी थी। शायद उसने यह भी चाहा होगा कि इस कपट दुनिया में यादगाश से
बैठने से ज़्यादा अच्छा अपना सुध-बुध खो बैठना है। क्योंकि सब कहीं से उसे धोखाधड़ी
और छल-छद्म ही मिला।
पारंपरिक तरीकों से विद्रोह
की भावना
हर्षवर्द्धन सोनी का भाई जो पढ़ाई के दौरान छात्र आंदोलनों
में भागीदार बनकर क्रांति लाना चाहता था। अपने आदर्शों से प्रेरित उसने अंतर्जातीय
विवाह किया। सज़ा के रूप में उसे अपनी जाति से बहिष्कृत किया गया।
दलितों में सामाजिक चेतना
दलित भावनाओं से प्रेरित व्यक्ति कभी कभी क्रंतिकारी बन
जाता है। इसका एक मिसाल है हर्षवर्द्धन सोनी। जब मोहनदास से उसकी मुलाकात हुई तब
उसके हादसे की किस्सा मोहनदास से सुनी। तब से इस अनैतिकता के अंत करने की भावना से
ओतप्रोत हर्षवर्द्धन ने मुकदमा चलाकर मोहनदास का साथ देने का फैसला किया।
दलितों में असंतुलित आर्थिक
नीति एवं उजागरित चेतना
लोग गरीबी से इतने पीस रहे थे कि कचहरी में मुकदमा चलाने की
बात तो दूर की ही थी। अपनी आजीविका के लिए भी उन्हें तन तोड़ मेहनत करना पड़ा रहा
था। फिर भी हर्षवर्द्धन सोनी मोहनदास का वकालत करने के लिए तैयार हो गया। लेकिन
ब्रैइन हेमरेज से उसकी मृत्यु हो गयी। फलस्वरूप विस्वनाथ जो नौकरी से दरखास्त किया
गया –
यह तो सही है – लेकिन उसकी जगह मोहनदास को काम पर नहीं रखा
गया।
न्यायप्रियता एवं महानगरीय
सभ्यता
वैसे तो सब न्याय के पक्ष में है। पर दलितों को उनके हक की
लड़ाई करनी है। इस पर असमर्थ मोहनदास की मदद वकील हर्षवर्द्धन सोनी करना चाहता था।
इससे अपने भाई के खुदखुशी से उत्पन्न कारुणिक स्मृति भी जगाई गयी। लेकिन पैसों का
बंदोबस्त करना जब मोहनदास के लिए परेशानी की बात बन गई उस मुश्किल की कड़ियों में
अपने जेब से एवं लायन्स क्लब से और मित्रों से पैसा माँगकर वकील ने मुकदमे के लिए
अदालत में केस दाखिल किया। इधर मोहनदास के लिए यह रकम बहुत भारी थी। “गाँवों, और छोटे कस्बों में मेहनत - मशक्कत का काम करने वाले मोहनदास
जैसे लोगों को चार सौ रुपये की नगदी जुगाड़ने में महीना लगा जाता था।”9 यह सब महानगरीय सभ्यता की आर्थिक नीति का परिणाम है।
सच्चाई की जीत
हर्षवर्द्धन सोनी वकील ने कठिन से कठिन परिश्रम करने के बाद
सच्चाई की नींव दृढ़ निकाला। गोपनीय जाँच के बावजूद भी उसे ठोस सबूत नहीं मिला।
गजानन माधव मुक्तिबोध जो न्यायिक दंड़ाधिकारी थे मोहनदास की आंखों की सच्चाई को
पहचाना। उनका रपट इस प्रकार था कि मोहनदास ही असल में मोहनदास है। उसके नाम पर
कोलियरी मैनस में काम करनेवाला बिसनाथ है।
नाइनसाफ़ राजनीतिक व्यवस्था
एफ़.आई.आर. में बिसनाथ का असली नाम मोहनदास लिखा था। इस पर
मोहनदास के नाम से उसने बहुत से अत्याचार किए। न्यायिक दंड़ाधिकारी का तबादला करवाया
गया। सरकार द्वारा दलितों के उत्थान के लिए कई योजनाओं का अयोजन किया गया है। “किंतु विड़ंबना यह है कि इसके कार्यान्वयन व सरकार के द्वारा
इस दिशा में किए गए अब तक के सभी सकारात्मक प्रयासों के बावजूद अनुसूचित जातियों
एवं जनजातियों के लोगों की स्थिति सामाजार्थिक दृष्टि से संतोषजनक नहीं हो पाई है।”10
उदारतावाद, बाज़ारवाद,
निजीकरण आदि भूमंड़लीकरण का नतीजा है। लेकिन जनता ज़्यादा से ज़्यादा शोषण का शिकार
बन रहे हैं। “इस
उदारतावाद और बाज़ारवाद की खासियत यह है कि पहले उसे लूट कर अपाहिज बना देती है और
फिर रियायतें और आरक्षण के लिए मोहताज करती है। यही तो पूँजीवाद अर्थतंत्र का खेल
है।”11
संदर्भग्रंथों की सूची
1. “मोहनदास” : उदय
प्रकाश, वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली, प्र.सं.2006, द्वितीय
सं. 2008, तृतीय आवृत्ति सं.2009,
पृ.सं.7
2. “मोहनदास” : उदय
प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.सं.2006, द्वितीय सं. 2008,
तृतीय आवृत्ति सं.2009, पृ.सं.22
3. “गाँधी
- अंबेड़कर हरिजन –
जनता”, डॉ श्यौराज सिंह ‘बेचैन’,
समता प्रकाशन, दिल्ली, सं.2007, पृ.सं.45
4. “मोहनदास” - उदय
प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.सं.2006, द्वितीय
सं. 2008, तृतीय आवृत्ति सं. 2009, पृ.सं.43
5. “मोहनदास” :
उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई
दिल्ली, प्र,सं. 2006,
द्वितीय सं. 2008, तृतीय आवृत्ति संस्करण 2009, पृ.सं.44
6. “मोहनदास” :
उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई
दिल्ली, प्र,सं. 2006,
द्वितीय सं. 2008, तृतीय आवृत्ति संस्करण 2009, पृ.सं.46
7. “मोहनदास” :
उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई
दिल्ली, प्र,सं. 2006,
द्वितीय सं. 2008, तृतीय आवृत्ति संस्करण 2009, पृ.सं.47
8. “मोहनदास” :
उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई
दिल्ली, प्र,सं. 2006,
द्वितीय सं. 2008, तृतीय आवृत्ति संस्करण 2009, पृ.सं.54
9. “मोहनदास” :
उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई
दिल्ली, प्र,सं. 2006,
द्वितीय सं. 2008, तृतीय आवृत्ति संस्करण 2009, पृ.सं.65
10. “दलितोत्थान
में अंबेड़कर ग्रामविकास योजना का प्रभाव” : डॉ कृष्णकुमार मिश्र, क्लासिकल
पब्लिशिंग कंपनी,
नई दिल्ली, पृ.सं.9
11. “दलित
इंड़िया” - सुरेश पाटिल,
संगीता प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2007, पृ.सं.85
रमा एस. मेनोन (शोधार्थी) कर्पगम
विश्वविद्यालय कोयम्बत्तूर तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावति अम्मा (हिन्दी विभाग)
के निर्देशन में शोधरत है।
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