धर्मनिरपेक्षिता के सवाल और विवेकानन्द
- रहीम मियाँ
साधारण अर्थो में जिन नियमों द्वारा समाज
संचालित होता है, उन्हे धर्म कहते है। मनु ने सम्पूर्ण वेद को ही धर्म माना है।
अन्य देशों में जहाँ सभ्यता से पहले के असभ्य जीवन क्रम को ही धर्म समझा है, वहीं
हमारे आचार्यो ने धर्म को वैज्ञानिक ढ़ंग से समझाने का प्रयास किया है। ‘कणाद’ कहते है – “यतो भ्युदय निःश्रेयससिद्धः
स धर्म” अर्थात् अभ्युदय व निःश्रेयस की सिद्धी हो वह धर्म है। अभ्युदय से तात्पर्य
लौकिक एवं निःश्रेयस से तात्पर्य पारलौकिक कल्याण से है।
‘धर्म’ शब्द ‘धृ’ धातु में मप प्रत्यय जोड़ने से बना है, जिसका अर्थ धारण करने वाला होता है।
अर्थात् धर्म उन सिद्धान्तों या जीवन प्रणाली को कहते है, जिससे मनुष्य जाति का
भौतिक और आध्यात्मिक दोनो जीवन निखर सके। ‘शिवदत्त ज्ञानी’ के अनुसार – “धर्म उन शाश्वत सिद्धान्तों
के समुदाय को कह सकते है, जिनके द्वारा मानव समाज सन्मार्ग में प्रवृत्त होकर व
उन्नतिशील बनकर अपने अस्तित्व को धारण करता है।“ ( भारतीय संस्कृति – Page-135) आज जहाँ धर्म के स्वरुप को
विकृत किया जा रहा है। धर्म के नाम पर सम्प्रदायों का बोलबाला हो रहा है, धर्म - निरपेक्षिता
का सवाल अपनी जड़े ढूँढ़ रही है.
धर्म निरपेक्षिता शब्द् का पहले पहल प्रयोग बर्घिगम के ‘जार्ज जेकब होलिओक’ ने मनुष्य जीवन को
बेहतर बनाने के तरीको के तौर पर सन् 1846 में किया था। उनका कहना था – “आस्तिकता – नास्तिकता और धर्म ग्रन्थों में उलझे बगैर मनुष्य मात्र के
शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक, बौधिक स्वभाव को ज्ञान और सेवा ही धर्म निरपेक्षिता
है।“ ‘विकिपीडिया’ के अनुसार धर्म
निरपेक्षिता, पंथ निरपेक्षिता या सेक्युलरवाद एक आधुनिक राजनैतिक एंव संविधानिक
सिद्धान्त है। इसके मूलतः दो प्रस्ताव है – 1. राज्य के संचालन एंव नीति-निर्धारण
में मजहब का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। 2. सभी धर्म के लोग कानून, संविधान एंव
नीति के आगे समान है। Austine Cline के अनुसार – “The
word Secular means “ of this world” in Latin and is the opposite of religious.
As a doctrine Secularism is usually used to describe any philosophy which forms
its ethics without reference to religious dogmas and which promotes the development of human art and science.’’
भारतीय संविधान की
प्रस्तावना तथा द्वितीय भाग के अनुच्छेद 5, तृतीय भाग के अनुच्छेद 15, 16, 21, 25,
28, 30 में धर्म निरपेक्ष सिद्धान्त समाविष्ट किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 29
पर बोलते हुए भूतपूर्व लोकसभा अध्यक्ष ‘अनंतशयनम् आयंगर’ ने कहा था – “हम वचनबद्ध है कि हमारा राज्य धर्म निरपेक्ष होगा। शब्द धर्मनिरपेक्ष से हमारा
यह अभिप्राय नहीं है कि हम किसी धर्म में विश्वास नहीं रखते और हमारे दैनिक जीवन
में इससे कोइ संबंध नहीं है। इसका केवल अर्थ यह है कि राज्य सरकार किसी मजहब को
दूसरे की तुलना में न तो सहायता दे सकती
है और न प्राथमिकता। इसलिए राज्य अपनी पूर्ण निरपेक्ष स्थिति रखने को विवश है। ऐसे समय में वेदान्त के
रक्षक विवेकानन्द के जीवन का परिचय पाना, उनके विचारों से आत्मसात होना, धर्म के
मूल स्वरुप को पहचानना है और राह से भटके लोगो के लिए मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त
करना है।
आज यदि विश्व में हमारी सभ्यता में लोग बुराई
देखते है तो उसका कारण यही है कि हमने स्वयं अपने धर्म के मूल स्वरुप को नहीं पहचाना है। हमने वेद साहित्य की
अवहेलना की है। वेद के गूढ़ रहस्यों को पहचानने के बजाय धार्मिक रीति-रिवाजों के
कर्मकाण्ड में खुद को उलझाये रखा है। भारतीय सनातन धर्म के बारे में कहा गया है कि यह
धर्म निरपेक्ष धर्म है। यह सर्वकल्याणकारिणी है –
“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे
सन्तु निरामयाः।
सर्वे
भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखमाज्रुयात् ।।“
आज भी हमारे समाज में छूत प्रधान है, जबकि
प्राचीन भारतीय संस्कृति में छुआछुत का कोई स्थान नहीं था। वेद या स्मृति आदि में
कहीं भी इसका उल्लेख नहीं है। वेद में हर जाति को हर क्षेत्र में एक समान अधिकार
भोग करने का जिक्र है। ‘अथर्ववेद’ में लिखा है – “मुझे देवताओं में प्रिय
बनाओ। मैं सबका प्रिय बनूँ। चाहे आर्य हो, चाहे शुद्र हो।“ (19/62/1)
शुद्र के प्रति घृणा का भाव कहीं नहीं है। ‘यजुर्वेद’ में भी उल्लेख है – “मैंने यह कल्याणकारी वाणी
मनुष्यों के लिए – ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, अरण आदि के लिए कही है।
देवताओं को दक्षिणा देने वालों का मैं प्रिय बनूँ, मेरे काम की स्मृद्धि हो व
उपमाद कम हो।“ (26/2)
‘विवेकानन्द’ ने कहा है – “जो धर्म गरीबों का दुःख दूर
नहीं करता, इन्सान को देवता नहीं बनाता, वह कैसा धर्म है? हमारा धर्म कैसा है? हमारा धर्म ‘छूतमार्ग’ है, सिर्फ हमें छुओ मत।“ छूत की भावना का प्रबल विरोध करते हुए वे आगे
कहते है – “हमलोग ही सनातन हिन्दू है। लेकिन हां, छूतमार्ग से हमारा
कोई सरोकार नहीं है। वह हिन्दू धर्म नहीं है। वह हमारे किसी शास्त्र में नहीं है।
वह प्राचीन आचार्यों द्वारा अनुमोदित एक कुसंस्कार है। इसने हमेशा जाति के अभ्युदय
में बाधा डाली है।“
वेदान्त में उल्लेखित धारणाओं का प्रस्फुटन
विवेकानन्द के जीवन में मिलता है। वेदान्त की धारणाऐं विज्ञान सम्मत है, आज यह
सिद्ध हो चुका है। न्युयार्क में विज्ञानिकों का कहना भी था – “वेदान्त के उपदेश विज्ञान
सम्मत है। वर्तमान युग के अभाव और आकांक्षाओं को वेदान्त बेहद सुन्दर ढंग से
व्यक्त करता है और आधुनिक विज्ञान में धीरे – धीरे जो सब सिद्धान्त जुड़ते चले जा
रहे है, उन सबके साथ वेदान्त का इतना सामंजस्य है कि मैं इसके प्रति आकर्षित हुए बिना
रह नहीं पाता।“ विवेकानन्द किसी धर्म के पुरोधा नहीं थे। उनका काम किसी
सम्प्रदाय की रचना करना नहीं था। वे खुद को सेवक मात्र कहते थे। जिनका काम था मानव
को प्रेम करना और अपने ज्ञान द्वारा सत्य का प्रचार करना। इसके लिए उन्होंने उपवास
रखकर दारिद्रयता को ग्रहण कर जीवंत प्रयंत कठोर परिश्रम करते रहे। किसी भी धर्म
विशेष के प्रति उनके मन में कोई विकृति नहीं थी। उन्होंने कहा है –“ जब कभी मैं देखता हूँ कि
कोई व्यक्ति थियोसोफिस्ट या ईसाई या मुसलमान या फिर दुनिया के किसी भी व्यक्ति
द्वारा उपकृत हो रहा है तो मुझे अवर्णनीय खुशी होती है।“ वेदान्त को परिभाषित करते
हुए विवेकानन्द का कहना है कि संसार के सारे धर्म किसी विशेष मानव जीवन को आदर्श
स्वरुप ग्रहण कर स्थूल भाव से भक्ति, ज्ञान या योग की शिक्षा देता है। इन सब
आदर्शों का अवलम्बन करके भक्ति, ज्ञान और योग संबंधी जो साधारण भाव और साधना
प्रणाली मौजूद है, वेदान्त उसी का विज्ञान रुप है।
विवेकानन्द प्राचीन संस्कारों के घोर विरोधी थे।
संस्कार के नाम पर कुसंस्कारों को पीढ़ी दर पीढ़ी ढ़ोते चले जाना धर्म नहीं है।
बहते पानी के समान बहते रहने वाला और परिवर्तनशील संस्कार ही जीवित रह सकता है।
लंदन से मई 1896 में लिखे उनके पत्र में उन्होंने लिखा है – “प्राचीन संस्कारों को मैं
उछाल कर फेंक दूँगा और नए सिरे से आरंभ करुंगा। बिल्कुल नया! नूतन! सरल मगर सबल। सधः शिशु
जैसा नवीन और सतेज।“ उनके विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति सनातन,
असीम, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ ब्रह्म का अंश है। यह अनंत तत्व जितना अधिक किसी
व्यक्ति के अंतस में होता है, वो उतना ही महान बनता है। उस असीम ब्रह्म को पाने का
साधन प्रेम है। यह प्रेम ही धर्म है। इसलिए वे धर्म के नाम पर प्रचलित कुसंस्कारों
का विरोध करते हुए कहते है – “पुरातनपंथी, दकियानुस निर्जीव अनुष्ठान और ईश्वर
संबंधी धारणाएँ प्राचीन कुसंस्कार मात्र है। वर्तमान समय में भी उन सबको जिलाए
रखने की कोशिश आखिर क्यों? अगर बगल से ही जीवन और सत्य की नदी बह रही है,
तब प्यासे को नाले का पानी क्यों पिलाया जाय? यह मनुष्य की स्वार्थपरता
के अलावा कुछ भी नहीं है।“ वर्तमान उपभोक्तावादी समाज
में आत्मिक सुख की प्राप्ति किसी को नहीं हो रहीं है। ऐसे दौर में विवेकानन्द के
बताये वेदान्त और योग के मदद से ही उपकृत हो सकते है। उनका यह विचार है कि आज हम
क्षणिक सुख की प्राप्ति के लिए वर्तमान में ही जीते है जो हमारे दुःखों का मूल
कारण है। वे लिखते है – “हमारे जीवन की त्रृटि यही है कि हम वर्तमान
द्वारा ही नियंत्रित होते है, भविष्य द्वारा नहीं। जो कुछ इस पल में हमें क्षणिक
आनंद देता है, हम उसी के पीछे दौड़ते है। नतीजा यह नजर आता है कि वर्तमान के
क्षणिक आनंद के बदले में हम भविष्य के लिए विपुल दुःख का संचय कर बैठते है।“
अमेरिका में विवेकानन्द भले ही हिन्दू धर्म के
प्रतिनिधि के रुप में भेजा गए थे, किन्तु वे घूम-घूम कर जिस दर्शन का प्रचार कर
रहे थे, वह पूरे विश्व के कल्याण के लिए था। अमेरिकी जातियाँ परम आग्रह के साथ
उनका व्याख्यान सुनती और उनके साथ परम बंधुत्व आचरण करती। अपने दर्शन के बारे मे
उनका कहना था – “मैं ऐसे एक दर्शन का प्रचार कर रहा हूँ, जो दुनियाँ में
मौजूद सभी प्रकार के धर्मों में निहित है। संभव है, उन सभी धर्मों की आधारशिला हो
और सभी धर्मों के प्रति मेरी संपूर्ण संवेदना है। मेरा उपदेश किसी भी धर्म का
विरोधी नहीं है। व्यक्ति जीवन की उन्नति – साधना ही विशेष रुप से मेरा लक्ष्य है।
मैं व्यक्ति को ही तेजस्वी बनाने का प्रयास करता हूँ। हर व्यक्ति ही ईश्वर का अंश
या ब्रह्म है – मैं यहीं शिक्षा देता हूँ और सर्व-साधारण को अपने अंदर अंतर्निहित
इस ब्रह्मभाव के बारे में संचेतन होने का आह्वान करता हूँ। जाने-अनजाने में यहीं
प्रकृत रूप से सभी धर्मों का आदर्श है।“ विवेकानन्द यह स्वीकारते है कि भारत के अधःपतन
और अवनति का प्रधान कारण हमारे चारों तरफ जातिगत आचारों की प्राचीर खड़ा करना है।
उनका विश्वास था कि भारत को इस अधःपतन से उनके गुरु श्री रामकृष्ण ही बचा सकते है।
उनका उद्देश्य ही था अपने गुरु के जीवन, उनके उपदेशों का चारों तरफ प्रचार करना
ताकि हिन्दू समाज के सर्वांश, प्रति अणु - परमाणु में यह उपदेश ओत-प्रोत भाव से
फैल जाएँ। अपने गुरु के उपदेशों के बारे में वे कहते हैं – ‘’मेरे गुरुदेव कहा करते थे, हिन्दू, ईसाई वगैरह
विभिन्न नाम भर है। इन्सान – इन्सान में परस्पर भ्रातृत्व ही विशेष बंधन हो जाता
है। पहले यही सब सोचने विचारने की कोशिश करनी होगी। दूसरों का मंगल करने की शक्ति
हम खो चुके है।’’ श्री राम कृष्ण जी का यह समन्वय भाव उपनिषद् से
आया है। यह बात समझनी चाहिए कि उपनिषद के मंत्रों में गूढ़ रूप से समन्वय भाव
विद्यमान है। उपनिषद् जातिगत या धर्मगत भेदभाव की शिक्षा नहीं देती है। उपनिषद् का
यहीं समन्वय गुरू से होते हुए विवेकानन्द
तक पहुँचा था। विवेकानन्द का जीवन-व्रत ही इसी समन्वय भाव को विश्व के सामने
प्रकाशित करना था। उन्होंने यह बात स्वीकार की है कि उपनिषद् के भाव वास्तविक रूप
में श्री राम कृष्ण परमहंस जी द्वारा मानव-मूर्ति बनकर प्रकाशित हो रहे हैं।
ऋग्वेद में भी परमात्म-शक्ति के विषय में इसी समन्वय भाव की बात कही गई है- “एकं सत् विप्रा बहुधा
वदन्ति” अर्थात् परमात्मा तो एक ही है किन्तु विद्वान लोग विभिन्न
नामों से उसी एक परमात्मा का सम्बोधन करते है।
विवेकानन्द की माँ ने एक बार यह बात कही थी कि- “मेरा बेटा चौबीस वर्ष की
उम्र में संन्यासी हो गया”, किन्तु यह बात विचारणीय है कि विवेकानन्द कैसे
सन्यासी थे? वे सब कुछ त्याग कर, संसार को मायावी कहकर, रिश्ते नातों को तिलांजली देकर
स्वंय के मोक्ष के लिए निकलने वाले संन्यासी नहीं थे। भारतवर्ष वैराग्यों का देश
है, जहाँ अतीत काल से न जाने कितने लोगों ने संन्यास व्रत ग्रहण किया, किन्तु
विवेकानन्द उन संन्यासियों से अलग थे। जीवन प्रयन्त सबसे अलग रहते हुए भी सबकी
चिन्ता से मुक्त वे कभी नहीं हुए। भारतवर्ष के दीन-हीन जनता की मुक्ति की कामना
हेतु उनका संन्यास मार्ग था। संन्यास की व्याख्या करते हुए उनका कहना है – “संक्षेप में संन्यास का
अर्थ है मृत्यु को प्यार करना। आत्महत्या नहीं, मृत्यु अवश्यंभावी है, यह समझकर
सर्वतोभाव से तिल-तिल करके, दूसरो के मंगल के लिए, अपने को उत्सर्ग करना।“ विवेकानन्द ऐसे व्यक्ति थे,
जिन्होंने भारत के भूखे-दरिद्र लोगों का दुःख सबसे अधिक महसूस किया था। उन्होंने
एक समय कहा था- “देश का एक कुत्ता भी जब तक भूखा-अनाहार रहेगा,
तब तक मेरा धर्म होगा उसे खिलाना और उसकी सेवा करना। बाकी सब अधर्म है।“ भूखे – दरिद्रों के प्रति
विवेकानन्द की सहृदयता केवल अनुभूतिमय ही नहीं, बल्कि अभाव भरे जीवन को उन्होंने
खुद झेला था। पिता की मृत्यु के पश्चात् उनके जीवन में दुःखों का पहाड़ टूट पडा
था। मठ का जीवन भी उनका दुःखों एवं कष्टों का रहा। अपने संघर्ष एवं कष्टों का
वर्णन उन्होंने कई बार अपने शिष्यों से किया है। जब विवेकानन्द जी सुबह जल्दी उठ
जाते और यह मालूम हो जाता घर में सभी के लिए पर्याप्त खाना नहीं है तो वे अपनी माँ
से यह कहते कि आज उनका कहीं और दावत है। वे घर से निकल जाते, थोड़ा-बहुत खाकर अनशन
में ही दिन गुजार देते थे। एक बार तो किसी के घर के सामने भूखे बेहोश होकर गिर गये थे,
जब बारिश हुई तब जाकर होश आया था। रात को 10-11 बजे मठ पहुँचकर ही कुछ खाना मिला
था। स्वामी प्रेमानन्द उनके दुःख भरे दिनों का जिक्र करते हुए लिखते है – “किसी दिन एक बेला का आहार
जुटता था, किसी दिन वह भी नहीं। थाली – बर्तन कुछ भी नहीं था। हाँ, घर के बगल के
बागान में लौकी की लतर और केले के ढेरों पेड़ थे। लौकी की कुछ एक लतर या एकाध केला
पत्ता लेने पर माली बहुत गाली - गलौज करता
था। अंत में मान-कच्चू के पत्ते पर भात
उड़ेल कर खाना पड़ता था। तेलाकूचों की पत्तियाँ उबालकर, भात में सानकर खा लेते थे।
वह भी मान-पत्ते पर उड़ेलकर। उस पत्ते पर खाते ही गला काटने लगता था।“
आज के अति
उत्तर आधुनिक समाज में हमने विवेकानन्द के जीवन – मूल्यों को भूला दिया है। किसी
समय पूरे विश्व में भारत का परचम लहराने वाले महापुरुष को ग्रहण करने, उनके
मूल्यों को अपनाने, अमल करने में हमने काफी समय लगा दिया है। यह तो उनके शिष्यों
का करम है, जिन्होंने उनके मठों को जिन्दा रखा, वरन् हम तो पिछले सौ वर्षों तक
उनकी याद को जीवित रखने में नाकाम ही रहते। 4 जुलाई 1902 को उनकी मृत्यु के बाद
किसी ने कहा भी था – “देश में अगर किसी हिन्दू राजा का शासन होता, तो
विवेकानन्द को फाँसी दे दी जाती।“ हम कितने निर्लज्ज है कि उनकी समाधि-स्थल पर एक
छोटा सा मंदिर बनवाने में भी हमें 22 वर्षों का समय लगा। मंदिर का काम शुरू हुआ
जनवरी 1907 में और कार्य पूरा हुआ 2 जनवरी 1924 को। आज हम विवेकानन्द तो नहीं बन
सकते, किन्तु उनके द्वारा जलाये गये रोशनी में एक छोटा सा दीपक जलाकर उसकी चमक को
बढाने की कोशिश जरूर कर सकते है। किसी जर्मन दार्शनिक ने सच ही कहा है – “किसी महापुरूष की अगर सच ही
श्रद्धा करते हो, तो उसके तिरोधान पर आंसू मत बहाओ, बल्कि उसके स्वपन को वास्तविक
रूप देने में जुट जाओ।“
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रहीम मियाँ
एसिसटेंट प्रोफेसर
बानारहाट कार्तिक उराँव गवर्नमेंट कॉलेज
बानारहाट, जलपाईगुड़ी, फोन - 9832636020
संदर्भ – ग्रंथ
1.
भारतीय संस्कृति – शिवदत्त ज्ञानी
2.
Wikipedia . org
3.
Austine Cline – Agnosticism &
Atheism Expert
4.
मैं विवेकानन्द बोल रहा हूँ – सं. गिरिराज शरण
5.
विवेकानन्द की आत्मकथा – शंकर
6.
The complete works of Swami Vivekanand
–part 1-8
7.
New discoveries – Swami Vivekanand in
America
8.
लंदन में स्वामी विवेकानन्द – खण्ड 1-3 – महेन्द्रनाथ दत्त
9.
स्वामी विवेकानन्द – खण्ड 1-2 – प्रमथनाथ बसु
10. विवेकानन्द चरित –
सत्येन्द्रनाथ मजुमदार
11. विवेकानन्द साहित्य – खण्ड
1-10
12. विवेकानन्द के जीवन के
अनजाने सच – शंकर
13. कई पत्र
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