Thursday, June 9, 2011

अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि






हिंदी प्रेमी रुक्माजी अमर हैं




-डॉ. सी. जय शंकर बाबु







रुक्माजी राव ‘अमर’ दक्षिण भारत के अधिकांश हिंदी प्रेमियों के लिए सुपरिचित हैं । ‘रुक्माजी’, ‘अमरजी’, ‘रावजी’, ‘राव साहब’…. कितने ही नामों से उन्हें संबोधित करते हैं उनके हितैषी । दि.9 जून, 2011 की शाम हैदराबाद में रुक्माजी के आकस्मिक निधन की खबर से उनके तमाम हितैषी, पाठक, साहित्यकार, पत्रकार, मित्र व हिंदी प्रेमी अत्यंत दुखी हैं ।
दि.2.12.1926 को कर्नाटक के बल्लारी में रुक्माजी का जन्म हुआ था । ‘अमर’जी 1946 से मद्रास महानगर में हिंदी प्रचार कार्य में संलग्न रहे हैं । ये बहुमुखी प्रतिभा वाले साहित्यकार हैं । रंगमंच के अभिनय से लेकर निर्देशन में इनकी प्रतिभा उल्लेखनीय है । कवि, नाटककार एवं निबंधकार के रूप में रुक्माजी ने हिंदी साहित्य जगत को कई कृतियाँ समर्पित की हैं । इनकी काव्य कृतियों (कविता संकलन) में ‘नया सूरज’, ‘खुली खिड़कियों का सूरज’, ‘धड़कन’, ‘तन्हाई में’, ‘रोशनी में’, ‘केवल तुम्हारे लिए’ (गीत), ‘अपने अपने अलग शिखर’, ‘बहुतेरे’ (तमिल से हिंदी में अनुवाद), ‘अपने अपने सपने’, ‘यादों के सायें’, ‘कगार पर’, ‘मुस्कुराने दो चाँद को’, ‘कितने आकाश’, ‘प्यार का आलम’ (ग़ज़ल) आदि शामिल हैं । ‘चिंतन के क्षण’ एवं ‘चिंतन के पल’ इनके निबंध संग्रह हैं । इनके अलावा ‘आईने के सामने’ (व्यंग्य), ‘सुहाना सफर’ (बाल उपन्यास), ‘अनुभूतियों के दायरे’ (समीक्षा), ‘सुहाना सफर’ (बाल उपन्यास), ‘बादलों की ओट में’ (एकांकी संग्रह), ‘पर्वतों की परतें ’ (साक्षात्कार) आदि इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं । हिंदी प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में ये काफ़ी सक्रिय हैं । आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों से भी इनकी रचनाएँ प्रसारित हुई हैं । इनके साहित्य पर कुछ शोध कार्य भी संपन्न हुए हैं । इनके प्रदेयों पर इन्हें कई उल्लेखनीय सम्मान-पुरस्कार प्राप्त हुए हैं जिनमें उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, आचार्य आनंद ऋषि साहित्य निधि आदि द्वारा प्रदत्त पुरस्कार उल्लेखनीय हैं ।
रुक्माजी से मेरा परिचय लगभग दो दशक पुराना है । हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘युग मानस’ का संपादन व प्रकाशन गुंतकल (आंध्र प्रदेश) से आरंभ करने से पूर्व ही मैंने उनकी कई रचनाएँ पढ़ी थी । ‘युग मानस’ में समय-समय पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित करने का सौभाग्य मुझे मिला था । ‘युग मानस’ के अक्तूबर – दिसंबर, 1997 के अंक में उनका एक साक्षात्कार प्रकाशित किया था । डॉ. राजेंद्र परदेसी ने ‘युग मानस’ के लिए वह साक्षात्कार लिया था ।
रुक्माजी बहुभाषी थे । मराठी उनकी मातृभाषा थी । कन्नड प्रदेश बेल्लारी में जन्म लेने के कारण सहजतः कन्नड और तेलुगु मातृभाषावत बोल लेते थे । तमिल प्रदेश स्थाई निवास बनाने के कारण तमिल और मलयालम भी वे बोल लेते थे । हिंदी की पढ़ाई व तदनंतर हिंदी प्रचार आंदोलन से जुड़ जाने के कारण वे हिंदी के विशिष्ट विद्वान व साहित्यकार के रूप में विख्यात हुए । 1946 में गांधीजी जब चेन्नई में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में गए थे, तब उनके भाषणों से प्रेरित होकर रुक्माजी हिंदी प्रचार आंदोलन से जुड़ गए । कालांतर में काफ़ी समय तक वे हिंदी प्रचारक संघ, चेन्नई के अध्यक्ष के रूप में चेन्नई महानगर में हिंदी प्रचार-प्रसार में पूरी तन्मयता के साथ जुड़े रहे हैं । अध्यापक, कवि, नाटककार, मंच संचालक, बाल रचनाकार के रूप बहुआयामी प्रतिभा के धनी रुक्माजी ने अपने बचपन, पढ़ाई के दिन व जीवन के विभिन्न मोड़ों संबंध साक्षात्कार के दौरान इस प्रकार बताया है – “मेरा जन्म 2 दिसंबर 1926 में कौल बाजार, बल्लारी – कर्नाटक में हुआ । मेरे माता-पिता धर्मपरायण थे । मेरे पिता रईस और कपड़ा व्यापारी थे । वे भावसार क्षत्रिय समाज के कोषाध्यक्ष थे । नाथ पंथियों का हमारे यहाँ आगमन हुआ करता था । नाथपंथियों से बाबा मच्छेंद्रनाथ तथा गुरु गोरखनाथ इत्यादि की कथा-कहानियाँ बड़े चाव से सुना करता था । धार्मिक वातावरण के कारण मेरे हिय मे सेवा-सुश्रुषा व श्रद्धा-भक्ति का भाव उत्पन्न हुआ । प्रारंभ से मेरे मन में नाटक के प्रति रुझान व संगीत के प्रति अभिरुचि रही । प्रख्यात कन्नड़भाषी गुब्बी वीरण्णा एवं तेलुगुभाषी राघवाचारी (बल्लारी राघव के नाम से ख्यात) के पौराणिक तथा ऐतिहासिक नाटकों को देखने जाया करता था । शनै-शनै मेरे मन में अभिनय के प्रति चाह गहराने लगी । बाल कलाकार के रूप में अभिनय करने का अवसर भी उपलब्ध हुआ । आगे चलकर मेरे नाटक के दीवानेपन ने मद्रास जैसे हिंदी विरोधी माहौल में अनेक मित्र पैदा किए । मैं कुंदनलाल सहराल और पंकज मल्लिक के फिल्मी गाने गुनाया करता था यदा-कदा सभा-समारोहों में वंदेमातरण एवं प्रर्थना गीत के लिए आमंत्रित करता था । सन् 1937 में मद्रास राज्य में श्री राजगोपालाचारी (राजाजी) मुख्य मंत्री के प्रयत्न से स्कूलों में हिंदी अनिवार्य रूप से लागू हो गई । एक बार हिंदी प्रतियोगिता में मुझे बाल गंगाधर तिलक की जीवनी पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हुई । स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है पंक्ति ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया । आगे चलकर मेरी राष्ट्रीय भावनाओं को बल प्रदान किया । 9 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी सहित अनेक नेताओं की गिरफ्तारी का समाचार देश भर में बिजली की तहर फैल गया । मुनिसिपल हाईस्कूल के हम 15 छात्र तिरंगा झंडा और गांधीजी का चित्र लेकर नारे लगाते हुए शहर में घूमने लगे और जब हम लोगों ने टीपूसुल्तान के किल पर झंडा फहराया तो पुलीस ने हमें गिरफ्तार कर कारावास भेज दिया । यह मेरे जीवन का प्रथम मोड़ है । जिसने मुझे राष्ट्र की राजनैतिक गतिविधियों से परिचय कराया । मेरे जीवन का द्वितीय मोड़ और भी रोमांचक रहा । सन् 1946 में मैं राष्ट्रभाषा विशारद का छात्र था । दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा मद्रास के संस्थापक अध्यक्ष बापूजी सभा की रजत जयंती के सिलसिले में सम्मिलित होने हेतु मद्रास पधारे । उस समय स्वयं सेवक के रूप में बापूजी से भेंट हुई । उनके आदेश पर सक्रिय रूप से हिंदी प्रचार कार्य में संलग्न रहने का संकल्प लिया । सभा के प्रधान मंत्री मोटूरि सत्य नारायण एवं नगर संगठन श्री के. आर. विश्वनाथजी हिंदी नाटक को हिंदी प्रचार का सशक्त माध्यम मानते थे । उनके सहयोग व प्रोत्साहन से मद्रास महानगर के प्रेक्षागृहों में हिंदी नाटकों में अभिनय, निर्देशन-संगीत निर्देशन का अवसर उपलब्ध हुआ । मोटी तौर पर तब तक मैं गांधीजी के सिद्धांतों से प्रभावित हो गया था । मेरी पत्नी बंग्ला भाषी, मेरे बड़े जामाता तमिल भाषी, छोटा दामाद अनुसूचित जाति के तेलुगु भाषी व मेरी पुत्र वधू ईसाई है । परिवार में आपस में हम लोग हिंदी में ही वार्ताला करते हैं । मद्रास सरकार द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों को भेंट दी गई ज़मीन, पेंशन तथा केंद्र सरकार के पेंशन तथा मुफ़्त रेल यात्रा की सुविधा प्राप्त करने का प्रयास मैंने नहीं किया । मेरी दृष्टि में महान देश भक्त एवं बलिदानियों के त्याग के समक्ष यह तुच्छ त्याग महा सिंधु में बिंदु के समान है । इस का कुछ श्रेय मेरी श्रीमती को भी है ।”
रक्माजी 22 वर्ष की आयु से लगातार लिखते रहें । 85 वर्ष की आयु में निधन से एकाध माह पूर्व भी उनका एक कविता संकलन ‘दुःख में रहता हूँ मैं सुख की तरह’ नाम से प्रकाशित हुआ है । इससे स्पष्ट है, वे अपनी युवा वस्था से हिंदी अध्यपन, प्रचार-प्रसार व लेखन से जुड़े रहे । उनकी पहली रचना (एक गीत) हिंदी में मद्रास सरकार द्वा प्रकाशित द्वैमासिक पत्रिका दक्खिनी हिंदी के मार्च-अप्रैल, 1948 के अंक में प्रकाशित हुआ था । अगे चलकर लगातार वे कविताएं, एकांकी, बाल साहित्य, शोधपरक लेख आदि लिखते रहे । चेन्नई के प्रतिष्ठित मद्रास क्रिस्टियन कालेज में हिंदी पढ़ाते रहे हैं । उनके छात्र कई क्षेत्रों में विख्यात हुए हैं । जिनमें कई नामी चिकित्सक, सिनेमा अभिनेता व राजनेता भी हुए हैं । लगभग 55 वर्ष चेन्नई में हिंदी प्रचार कार्य में वे सक्रिय योगदान देते रहे हैं ।
‘युग मानस’ की ओर से 1999 में जब मैंने गुंतकल (आंध्र प्रदेश) एक सप्ताह का हिंदी रचनाकार शिविर का आयोजन किया था, तब शिविर के निदेशक की जिम्मेदारी मैंने रुक्माजी को सौंप दी थी । उन्होंने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभायी और शिविर के पश्चात अपने जन्मस्थान बल्लारी गए जहाँ उनके रिश्तेदार भी थे । चालीस साल बाद अपने जन्मस्थान जाने का अवसर शिविर के बहाने मिलाने का बयान उन्होंने उस समय दिया था ।
रुक्माजी चेन्नई में हिंदी प्रचार आंदोलन, लेखन, प्रकाशन व पत्रकारिता स्वयं जुड़े रहे और इस क्षेत्र से संबंधित कई संस्मरणों को निधि उनकी अनूठी संपत्ति थी । उनके देहांत से मद्रास हिंदी आंदोलन के इतिहास के एक महत्वपूर्ण सबूत को हिंदी जगत ने खो दिया है । कर्मठ अध्यपक व साहित्यकार के रूप में सामाजिक सेवा में सदा सक्रिय रुक्माजी का अंतिम दशक का जीवन कई समस्याओं से ग्रस्त था । परिवार के सदस्यों के साथ मन-मुठाव, स्वास्थ बिगड़ना आदि की वजह से वे काफ़ी चिंतित थे । इसके बावजूद दूर-दूर अपने मित्रों के यहाँ आया-जाया करते थे । मेरे व मेरे परिवार के सदस्यों के साथ रुक्माजी का आत्मीय संबंध रहा है । कोयंबत्तूर में मेरे कार्यकाल के दौरान दो बार लगभग दो-तीन सप्ताह मेरे यहाँ बिताए । विगत दो दशकों के दौरान लिखे मुझे लिखे गए उनके आत्मीय पत्र मेरे लिए बड़े दरोहर हैं । रुक्माजी सदा कई संस्मरणों के सच्चे प्रवक्ता के रूप में अपने मित्रों को सुनाया करते थे । उनसे मद्रास महानगर के हिंदी प्रचार, पत्रकारिता व साहित्यिक गतिविधियों के इतिहास के संबंध में कई संस्मरण मुझे सुनने का सौभाग्य मुझे मिला है ।
अपने छात्रों, मित्रों, पाठकों से सदा आत्मीयता के साथ संपर्क बनाए रखने वाले रुक्माजी के तमाम हितैषी उनके निधन के संबंध में विश्वास करने के तैयार नहीं है । यही उनके प्रति सबकी आत्मीयता है । हिंदी जगत कर्मठ हिंदी सेवी रुक्माजी के लिए ऋणी है । ‘अमर’ के नाम से वे लगभग छः दशक लेखन में सक्रिय रहे हैं । ‘अमर’ के नाम से लिखते रहे हैं और अपने पाठकों व हितैषियों के दिल में वे सदा अमर हैं ।

4 comments:

हमारीवाणी said...

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dr s. basheer said...

विख्‍यात बहुभाषा के साहित्‍यकार स्‍वर्गीय अमर जी के बारे में विस्‍तृत जानकारी पाकर मन उदास रहा । आखरी सांस तक भाषा की सेवा करते रहे । डॉ.बाबूजी ने बडे प्रयास के साथ सारगर्भित लेख प्रस्‍तुत किया है, सचमुच महान विभूति के लिए अश्रुपूर्ण श्रंदाजली है ।

स्‍वर्गीय अमरजी सदा अमर रहें ।

Prabodh Kumar Govil said...

aapko bahut samay ke antraal ke baad padha, aap usi tanmayta aur sanjeedgi se apni baat kahne me tallin hain. yah achchha hai.

युग मानस yugmanas said...

परमादरणीय प्रमोद जी,
नमस्कार ।
मुद्रित रूप में पत्रिका प्रकाशन बंद होने के बाद कई पुराने मित्रों से संपर्क नहीं हो पा रहा है, वैसे आप जैसे जो ऑनलाइन में सक्रिय है, उनसे संपर्क जुड़ फिर वही आत्मीयता मिल रही है ।
आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया के लिए मैं अत्यंत आभारी हूँ ।
सादर