Wednesday, August 19, 2015

संजीव के उपन्यास 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' में चित्रित सामाजिक ससमस्याएँ

आलेख
संजीव के उपन्यास 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' में चित्रित सामाजिक ससमस्याएँ
                                                        - बीना बी.एस.*

 
 




आज वैज्ञानिक युग है। जीवन के समस्त परिस्थितियों में विज्ञान का हस्ताक्षर है। यदि विज्ञान पूँजीपतियों के हाथ का कठपुतली बन जाता तो उसका नतीजा उचित नहीं होगा। विज्ञान के साथ साथ आध्यात्मिक व्यवसाय भी आजकल पनप रहा है। कई लोग इस से लाभ उठाते हैं। ढोंगी बाबाओं की संख्या भी आजकल बढ़ती जा रही है। तकनीकी विकास की बढ़ावा होने पर भी आध्यात्मिक व्यवसाय की कमी नहीं होती। लोगों के मन में शिक्षा के साथ साथ अंधविश्वास भी बढ़ता रहता है। इस स्थिति में आज के ज़माने में होनेवाली विडंबनाओं का वास्तविक चित्रण करने की कोशिश है समकालीन उपन्यासकार संजीवजी द्वारा रचित उपन्यास 'रह गईं दिशाएँ इसी पार'
इस उपन्यास के ज़रिए मनुष्य की अंतहीन लिप्सा के बारे में भी संजीवजी कहते हैं-- उसे जीत चाहिए। पूरे ब्रह्मांड पर जीत। ब्रह्मांड का अंत है पर इस मनुष्य की लिप्सा का कोई अंत नहीं। एक जीत के बाद उसे दूसरी जीत चाहिए। वह जितना ही सहज और सुखी होना चाहता है उतना ही जटिल और दुःखी हो जाता है। कुछ गांठें खुलती है, कुछ और गांठें बन जाती है। जीत के लिए उसे जनशक्ति चाहिए, ऊर्जाओँ का स्वामित्व चाहिए, तकनीकी चाहिए, अर्थ मनोबल और कौशल चाहिए। राष्ट्र चाहिए ताकि उस पर अपना वर्चस्व स्थापित कर सके, धर्म और अनुशासन का पाठ चाहिए ताकि दूसरे सिर न उठा सकें, धर्म चाहिए, इस्केप चाहिए, पनहगाह चाहिए। मन फिर भी छूंछा होने लगता है, मनोरंजन चाहिए या फिर वैराग्य की शरणस्थली। ये भी कुछ देर के बाद उबाने लगते हैं। पदार्थ से ऊर्जा और ऊर्जा से पदार्थों में संक्रमण चलता रहता है, कुछ देर बाद ही राख की परत चढ़ने लगती है -- सुख यहाँ नहीं, कहीं दूर चिलक रहा है कहीं। कहाँ .... पता नहीं।"1 ब्रह्मांड पर जीत के इच्छा में मानव मूल्यों का ह्रास होता है।
विस्नु बिजारिया इस उपन्यास का प्रमुख पात्र है। वह एक बडा बिज़नेसमैन है जिसका व्यवसाय देश-विदेश में फैला हुआ है। वह अजर होना चाहता है। इस लक्ष्य की सार्थकता के लिए वह प्रयोगशाला खोलता है। वहाँ पशु-पक्षी से लेकर मनुष्य तक प्रयोग के लिए उपलब्ध है। प्रयोगशाला में प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों को नियुक्त करते हैं। विस्नु बिजारिया का इकलौता बेटा अतुल बिजारिया उर्फ जिम एक टेस्टट्यूब बेबी है। माँ एलिस के गर्भाशय में एलर्जी होने के कारण, कुछ दिन रहने के बाद उसे नानी कैथरिन के कोख में ट्रांसप्लांट किया है। इसलिए जिम दोनों को मम्मी" पुकारते हैं। अस्वाभाविक जन्म प्रक्रिया के कारण जिम के चरित्र में भी एक विशेष प्रकार का अजनबीपन है। अपने म्यूसियम में रखे गए चित्रों में कभी वह मछली के देह पर हाथी का मस्तक रखता है या मच्छर को जिराफ़ का गर्दन देता है। वह मकड़ियों के यौन संबंध को देखने के लिए इच्छुक है और इस का शूटिंग भी करता है। जान नर्सिंग होम में होनेवाला एबॉर्शन शूट करना वह चाहता है और एबॉर्शन का मांसपिंड फोर्मलिन भरे जार में बंद करके अपने म्यूज़ियम में रख देता है।
बाद में जिम को लेकर एलिस और कैथरिन के बीच झगड़ा शुरू होते है। कैथरिन जिम का सेरोगेटड मदर है। लेकिन वह जिम को बेटा और विस्नु को पति समझती है। यही चिंता माँ-बेटी के रिश्ते को पत्नि-सौतन के रिश्ते में पारिवर्तित करते हैं। इस पर जिम भावशून्य है। उस में केवल वैज्ञानिक दृष्टि ही है।
इस उपन्यास में लारा अपने पिता के क्लोन को जन्म देने के  लिए इच्छुक है। भाई चंदन कहता है कि लारा की यह कदम घोर अनैतिकता और अधार्मिकता है। क्लोन उत्पन्न करना विज्ञान की जादू है, लेकिन समाज के लिए यह साधारण बात नहीं।
लिंग-परिवर्तन की जटिल समस्या के बारे में भी उपन्यास चर्चा करता हैं। शाहनवाज़ मन ही मन स्त्री बनना चाहा। वह स्त्री बनकर शहनाज़ हो गई। लेकिन समाज शहनाज़ को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। वह समझती है कि दुनिया को बदल नहीं सकती।
डॉ. जैकसन विस्नु बिजारिया का फैमिली डॉक्टर है। उसकी देखभाल में रहनेवाला लड़का है पीटर। उसको माँ नहीं है। पीटर कृत्रिम गर्भधारण से जन्म लिया है। अपने पिता की खोज में वह हर चेहरे की ओर घूरता है। वह पूछता है : सिर्फ एक सवाल, उसने मुझे जन्म क्यों दिया? माना कि स्पर्म बैंक में स्पर्म देकर वह निवृत्त हो गया, जैसे पेशाब-पाखाना किया, फ्लेश किया, निवृत्त हो गया....।"2
मनुष्य को अनेक रोगों से मुक्ति दिलाने के लिए जीवों पर दवा का प्रयोग (उदा : चूहा) पहले करता हैं। फिर इनसान पर। विस्नु बिजारिया के गिरिधर अनाथालय के बच्चों पर इस तरह के कई प्रयोग हो रहे हैं। बाघ के आक्रमण से चोट लगे देबू ठाकुर पर भी प्रयोग होता है।
कुछ हिजड़े द्वारा वैज्ञानिक विशाल से मुलाकात होता है। वे पूछते हैं-- सर आप लोग काले लोगों के लिए, दलितों, स्त्रियों, हैंडीकैप्ट्स, पशुओँ, पेड-पौधों के कॉज के लिए फाइट करते हैं, हमी ने कौन-सा गुनाह किया है कि अछूत हो गए?"3
इस उपन्यास का सशक्त नारी पात्र है बेला। उन्होंने यूनिवर्सल सी फुड़ कंपनी के प्रोसिसिंग यूनिट में भर्ती की। पेमेंट का दिन आया। ट्रडीशन के अनुसार पेमेंट ठेकेदारों के पास जमा होते हैं। बेला पूछती है--  कैसा ट्रडीशन? काम हम करें, पेमेंट ले कोई दूसरा।"4 ठेकेदार से झगड़ा हो गयी। बेला : बड़ा स्वर्ग में ले आई न! बोलकर लायी थी फ्री रहने का, फ्री खाने का, फ्री रेल-भाड़ा, फ्री मेडिकल और अठारह सौ तनख्वाह और यहाँ आठ-आठ लड़कियों की कबूतरखाना, कैंटीन का सड़ा खाना, बाकी सब हमारे ऊपर और काम...महीने भर से दूसरी जगह काम करा रही है, न रात को रात, न दिन को दिन...।"5 हर बार मेहमान के विज़िट के अवसर पर लड़कियों को साड़ियाँ, जूते, दस्ताने, नकाब आदि दिये गये। पर उसके चलने के बाद जब लड़कियों से उसे वापस लौटा देने को कहा गया तो बेला ने कहा : साड़ी-चोली से हमें मोह नहीं, लेकिन जूते और दस्ताने हमें भी चाहिए ... और सुनो आठ घंटे के बाद या रात को एक्सट्रा काम करने के लिए डबल ओवरटाइम भी देना होगा।"6
क्लासमेट कौशल्या से जिम पूछता है कि वर्जिनिटी की क्या कीमत होती होगी। कौशल्या उत्तर देती है कि पाँच-दस हज़ार मिल जायं तो बहुत है, वैसे इस देश में जहाँ तीन साल की बच्चियों तक से बलात्कार होते हैं, वहाँ क्या तो वर्जिनिटी और क्या तो उसकी कीमत!"7
विस्नु का भाई किस्नु 'कृष्णानंद' नाम स्वीकार किया और अपने को भगवान कृष्ण का ही अवतार माना। गौवों के प्रति समर्पित व्यक्तित्व है। जन्माष्टमी के दिन 'कृष्णानंद जन्मोत्सव' और 'कामधेनु यज्ञ' मनाने की योजना तैयार की। दो भक्त शिरोमणी लच्छू और बिरजू ने आश्रम को सोने की दो-दो गायें दान में दिया। पहले इन्होंने राम मंदिर के निर्माण के लिए सोने का दो ईंट और 2002 में धर्म पर आपत्ति आने पर करोडों रुपए दिए थे।
देश-विदेश में कृष्णधाम की शाखाएँ खोल दीं। जन्माष्टमी के दिन किस्नु का अवतरण आकाशमार्ग होता है। क्रेन की सहायता से उसके मंच उठाकर नीचे भक्तों की उमड़ती भीड़ के ऊपर से ले जाते हैं। ऊपर से गुलाब की पंखुरियों के साथ साथ प्रसाद स्वरूप माखन-मिश्री की वर्षा होते हैं। मीड़िया भी कृष्णानंद के चमत्कारों की खबरें छाने लगीं। इस प्रकार आध्यात्मिकता की आड़ में आश्रमों द्वारा सांस्कृतिक प्रदूषण ही चल रहा है। काला धन वहाँ इकट्ठा हो रहा है। आजकल के आश्रमों का वास्तविक चित्रण इस उपन्यास के द्वारा संजीवजी हमारे सम्मुख रखते हैं।
विस्नु अजर रहना चाहता है और किस्नु अमर। विस्नु इस के लिए वैज्ञानिक तरीके का प्रयोग किया तो किस्नु पारंपरिक। विस्नु मांसाहार सप्लाई करनेवाला बिज़नेस चलाता है और किस्नु गोरक्षा आन्दोलन। अंत में दोनों को बीमारियाँ आती है और दोनों का निधन भी होता है। ''लाश से अपचय की बू आने लगी तो बदबू को छुपाने के लिए एक ने पारंपरिक खुशबू चंदन का सहारा लिया, दूसरे ने डीप फ्रीज़ या अन्य वैज्ञानिक तरीकों का। पारंपरिक को परंपरा ने संभाला, वैज्ञानिक को विज्ञान ने।''8
विज्ञान जब जनमानस में अच्छाई का बीज बोता है तब वह वरदान है। लेकिन जब उस से मानविकता छूटता है तब ज़रूर वह विनाशकारी होता है। विज्ञान का लक्ष्य मानव कल्याण होना चाहिए।
बहुआयामी विषय से युक्त यह उपन्यास अनेक वर्षों के शोध के बाद ही संजीवजी ने लिखा है। पूँजीवाद, विज्ञान-तकनीकी का आतंक, रिश्तों का विघटन, संत्रास, कुंठा, नारी-शोषण, परिस्थितिक समस्या, भ्रष्टाचार, यौन शोषण, सांस्कृतिक प्रदूषण-सभी समस्याओं के बारे में इस उपन्यास में चर्चा की गयी है। इन समस्याओं से जनता को अवगत कराना संजीवजी का लक्ष्य है। वे पूर्ण रूप से इस में सफल हुए है।
संदर्भ सूची :
1. संजीव -- रह गईं दिशाएँ इसी पार -- पृष्ठ संख्या 114 और 115
2. वही -- पृ.सं. 163
3. वही -- पृ.सं. 143
4. वही -- पृ.सं. 179
5. वही -- पृ.सं. 179 और 180
6. वही -- पृ.सं. 181
7. वही -- पृ.सं. 57
8. वही -- पृ.सं. 289
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*बीना बी.एस. कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. एस.आर. जयश्री के निर्देशन में शोधरत है।


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