आलेख
डॉ. शोभानाथ पाठक के ‘एकलव्य’ काव्य में
अभिव्यक्त गुरु-शिष्य संस्कृति
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डॉ. सूर्या बॉस
हमारा रहन-सहन, व्यवहार, आचार-विचार, बोलचाल, खान-पान, रीति-रिवाज़, धार्मिक आस्थाएं, वर्ण-व्यवस्था आदि जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत
किये जानेवाले अनगिनत क्रियाओं को, जिन संस्कारों से प्रेरित होकर हम करते हैं, उसे संस्कृति कहते हैं ।
मानव का जन्म इसीलिए हुआ है कि वह प्रकृति से ऊपर उठे, अधिक अच्छा बने और अधिक परिष्कृत हो. इसी दिशा में होनेवाले प्रयत्न को 'संस्कार' कहा जाता है. संस्कृति मनुष्य को साधारण से ऊपर ले जाती है. उन्नति के शिखर पर पहुँचाती है. अत: मनुष्य को अधिकाधिक संस्कृति संपन्न होना चाहिए. उसे अधिक व्यापक, उदार और निस्वार्थी होना चाहिए. इसीलिए
उसे शिक्षा दी जाती है. शिक्षा को ही ज्ञान कहते हैं. ज्ञान का अर्थ केवल 'जानकारी संग्रह करना' नहीं है, बल्कि व्यक्ति की आमूलचूल परिष्कृति में है.
ज्ञान और संस्कृति में भी घनिष्ट सम्बन्ध है.
ज्ञान से ही व्यक्ति संस्कृत होता है. हमारी जो पांच ज्ञानेन्द्रिय हैं- आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा- इन से प्राप्त ज्ञान को 'प्रत्यक्ष ज्ञान' कहते हैं. श्रद्धा और बुद्धि ज्ञान तक पहुँचने के
मार्ग हैं. बुद्धि के आधार पर ही ज्ञान की वृद्धि होती है; परन्तु इसके लिए कठिन परिश्रम करना पड़ता है. परिश्रम सही रास्ते पर है या ग़लत रास्ते की ओर, यह समझाने केलिए गुरु भी अनिवार्य सिद्ध होता
है. गुरु के प्रति अपार श्रद्धा ही शिष्य के उन्नयन
का पहला सोपान है.
इस ब्रह्माण्ड का पहला गुरु है ब्रह्मा.
माना जाता है कि परम पिता ब्रहमा ने वेदों के मन्त्रों को ऋषियों के अंतःकरण में समाहित किया था. महात्मा पराशर के पुत्र महर्षि वेदव्यास ने वेद की रचना करके उनके चार शिष्यों को एक एक हिस्सा पढ़ाया. इस तरह शिष्य
परंपरा का विकास होता गया. महान गुरुओं के
सामान ही भारत में महान शिष्यों की भी कमी नहीं है.
भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य का प्रमुख स्थान रहा है. हमारी संस्कृति का नींव भी इसी पर आधारित है. श्री बुद्ध-आनंद; श्री रामकृष्ण-विवेकानंद जैसी गुरु-शिष्य परम्परा का यशोगान हमेशा होता रहा है.
कवि तथा समाज सुधारक के नाम से विख्यात कबीरदास की पंक्तियां देखिये -
"गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, गढ़ी गढ़ी काढ़े खोट .
भीतर हाथ सहारिया,
बाहर मारे चोट .."
अर्थात गुरु कुम्हार है, जो शिष्य रूपी घड़े को पीट-पीट कर सही आकार देते हैं: साथ ही साथ अंदर से हाथ का सहारा भी देते हैं. गुरु शिष्य संबंध को समझाने केलिए इससे बढ़िया उदाहरण मुश्किल से मिलेगा.
भारतीय संस्कृति के इस अनूठे संबंध को देदीप्यमान करने में एकलव्य की भूमिका अविस्मरणीय है. गुरु भक्ति, कर्त्तव्यपरायणता
तथा अथक श्रम साधना की सफलता का कीर्तमान
स्थापित करके उसने हमारे संस्कृति को आलोकित किया है. डॉ. शोभानाथ पाठक ने अपना 'एकलव्य' नामक काव्य में एकलव्य के इन्हीं भावों का
यशगान किया है.
नारद मुनि का उपदेश पाकर एकलव्य समझ जाता है कि मन में गुरु के प्रति श्रद्धा; ज्ञान प्राप्ति के लिए कितना सहायक है. इसी गुरु शिष्य प्रेम से मानवता का
कल्याण होता है. अच्छे सोच का बीजारोपण ही मानव
कल्याण का आधार है. काव्य की पंक्तियां हैं -
"गुरु शिष्य का स्नेह
आंतरिक सुधा उड़ेले.
मानवता कल्याण इसी में
सब कुछ ले लें"
यहाँ ज्ञान के
भण्डार को लेने का उपदेश नारद मुनि दे रहे हैं.
गुरु-शिष्य के
बीच के संबंध के बारे में कहते यहाँ भी
कवि नहीं थकते. वे आगे कहते हैं कि राष्ट्र का अस्तित्व या राष्ट्र का मेरु दंड इसी गुरु-शिष्य संबंध पर आधारित है.-
"गुरु शिष्य संबंध
राष्ट्र की रम्य रीढ़ है
इस पर विश्व विकास
वज्र से भी यह दृढ है."
पौराणिक काल में पुत्र को गुरु के पास इसलिए भेजते थे कि, वह ज्ञान
प्राप्त करके राष्ट्र का तथा धरती का उन्नयन करें. भील राजा हिरन्य धनु भी अपने बेटा एकलव्य से यही कहता है कि, "अब तुम मेरे
बगीचे का अंकुर हो. ज्ञान प्राप्त कर उगो, लहराओ ओर धाती को अपने ज्ञान से प्रबुद्ध करो ."-पंक्तियाँ है -
"आशा के अंकुर तुम मेरे,
उगो ओर लहराओ
मेरी बगिया के प्रसून हो
धरती को गम्काओ"
ज्ञान प्राप्ति के लिए साधना करना कितना आवश्यक है, इसकी और आगे प्राकाश डालता है. साधना का मतलब है- प्रयत्न. प्रयत्न के बिना
ज्ञान की सिद्धि नहीं होती. फल की चिंता न करते हुए मुक्त होकर प्रयास करने का नाम ही कर्मयोग है. कर्मयोग से चित्त शुद्ध होता है और ज्ञानार्जन केलिए तैयार
होता है. एकलव्य को भी साधना का पथ कष्टतर मालूम होता है. लेकिन कर्मयोग के पथ
पर चलने के लिए ज्ञानार्जन उसको आसान लगता है-
"साधन पथ तो
सदा कंटकाकीर्ण रहा है
कर्मयोग से वही
सुखद विस्तीर्ण रहा है"
अर्थात
कर्त्तव्य को निष्काम भाव से करते रहने से साधना का
पथ आसान या सरल हो जाता है. त्याग, तपस्या लक्ष्य प्राप्ति की अभिलाषा आदि से विद्यार्थी को शक्ति प्रदान करना होगा. साथ ही गुरु के
प्रति श्रद्धा, भक्ति आदि भाव भी होना अनिवार्य है. एकलव्य में ये सभी गुण दर्शनीय हैं-
" श्रद्धा-भक्ति-समष्टि
द्रोन मूर्ती पर अर्पित
वीर धनुर्धर बनने की धुन
सब सुख वर्जित"
इन्हीं गुणों के कारण एकलव्य तीर चलाने में सिद्धहस्त साबित होता है. जिसमें दृढ़ इच्छा तथा सामर्थ्य है
- वह ज़रूर सफल होगा. इसका ठोस प्रमाण है -
एकलव्य. कवि
कहता है –
"जहां लगता है ललक लालसा
लक्ष्य प्राप्ति की अभिलाषा
अष्ट सिद्धि नवनिधि का संबल
कर्मयोग की परिभाषा"
अदम्य इच्छा के
साथ प्रयत्न करते रहना, या कर्मयोग करते रहने से अष्ट सिद्धि और नवनिधि भी प्राप्त होते हैं.
लेकिन उस केलिए गुरु दक्षिणा के रूप में बाण चलाने के लिए अनिवार्य अंगूठा भी काट कर देने की मानसकिता या उतनी तीक्ष्ण
गुरु भक्ति ज़रूरी है. एकलव्य गुरु को भगवान् मानता है. ये पंक्तियाँ देखिये -
"जीवन भर हूँ ऋणी गुरू का
मेरे लिए वही भगवान्
गुरु ज्ञान से ही गौरवान्वित
मानव बनता उच्च महान"
भारतीय संस्कृति
में गुरु-शिष्य परम्परा का यशोगान सर्वथा बिखरा पड़ा है.
"गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णुः
गुरुर्देवो महेश्वरा
गुरु साक्षात परब्रह्मा
तस्मै श्री गुरवे नमः"
यही हमारी संस्कृति का मूलमंत्र है. गुरु मानव को महान बनाता है. आजकल गुरु की महिमा घटती जा रही है. इस माहौल में हर एक
को महान बनाने के पीछे, जो भी धन्य भाग्य है उनके चरणों में यह लेख समर्पित है.
अतिथि प्रवक्ता
हिंदी विभाग
एम.ई.एस. अस्माबी कॉलेज
पी.वेम्बल्लूर पी.ओ.
कोडुंगल्लूर, त्रिश्शूर जिला
केरल - 680671
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