Saturday, February 7, 2015

‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक में व्यक्त सामयिक चेतना

आलेख

आषाढ़ का एक दिन नाटक में व्यक्त सामयिक चेतना

-         डॉ. एम. शोभा

साहित्यकार अपने युग की समस्याओं का आकलन अपनी कृतियों में निश्चय ही करते हैं   एक जागरूक साहित्यकार अपने सामयिक परिवेश की उपेक्षा कर किसी कृति की रचना नहीं कर सकता। वह जिस समाज में जीता है उसकी उपेक्षा करना संभव भी नहीं।
कोई भी ऐतिहासिक कृति तब तक सफलता का दावा नहीं कर सकती जब तक उसमें युगीन समस्याओं का उल्लेख न हो। मोहन राकेश कृत श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण कडी के रूप में उल्लेखनीय है – ‘आषाढ़ का एक दिन’ । यह एक ऐसा नाटक है जिसमें एक ओर आधुनिक बोध के आयाम हैं तो दूसरी ओर रोमान्टिक भाव बोध भी है
यह नाटक राकेश के नाट्य सृजन का प्रारम्भ बिन्दु है। नाटक की कथावस्तु का आधार तो ऐतिहासिक है किन्तु वह खुलकर नहीं अपनाया गया है। राकेश इस में इतिहास का आभास भर देते हैं। नाटक में अनेक ऐसे संदर्भ हैं जो कालिदास के कुमारसंभवम्, मेघदूत, अभिज्ञान शाकुंतलम् और ऋतुसंहार के दृश्य संदर्भों को उजागर करते हैं। किन्तु राकेश जी के नाटक के कालिदास का समूचा प्रभाव ऐतिहासिकता से मेल नहीं खाता। ऐसा कह सकते हैं कि नाटक का कालिदास अपनी ऐतिहासिकता के बावजूद नया है, मौलिक है और राकेश के मूल मंतव्य का वाहक भी है। इस नाटक का बाह्य परिवेश ऐतिहासिक है, इसके मुख्य पात्र भी ऐतिहासिक हैं, किन्तु नाटक का कथानक जितना ऐतिहासिक है उससे भी अधिक युगीन भी है। इस में राकेश ने ऐतिहासिक वृत्तान्त को नवीनता प्रदान की है।
‘आषाढ़ का एक दिन’ में व्यक्त युग-बोध एवं सामाजिक चेतना के विषय में डॉ. अवस्थी ने भूमिका के प्रारंम्भ में लिखा है आषाढ़ का एक दिन’ में एक ऐसे कथानक का पुनराख्यान है, जिससे सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध तथा उनके बीच खड़े हुए व्यक्ति के द्वारा निर्णय लेने का अनिवार्य द्वंद्व निहित है।[1] इस द्वंद्व का एक दूसरा पक्ष स्त्री और पुरुष के पारस्परिक संबन्धों का अन्तर्विरोध है। जीवन के श्रेय और प्रेय के बेच एक कृत्रिम आरोपित विरोध है जिसके कारण व्यक्ति के लिए चुनाव कठिन हो जाता है और उसे चुनाव करने की स्वतन्त्रता भी नहीं रह जाती। चुनाव की यातना ही इस नाटक का कथा बीज और उसका केन्द्र बिन्दु है।
इस नाटक में आध्यात्मिक और भौतिक दर्शनों में किसी एक का चुनाव करने में असमर्थ व्यक्ति के अन्तर्द्वन्द्व और उसकी छटपटहट को तथा स्त्री और पुरुष के पारस्परिक संबंधों के अन्तर्विरोध को युग संदर्भों के माध्यम से नये भावबोध के परिवेश में प्रस्तुत किया गया है। मनुष्य का यह अन्तर्द्वन्द्व नित्य और चिरन्तन है।
इस नाटक में मिथक और इतिहास जो बाद में केवल मिथक बन जाता है, का उपयोग किया गया है। इस में मध्यकालीन बोध और आधुनिक बोध के साथ साथ रोमान्टिक बोध भी पूरी तरह उभरा है। यदि ध्यान से देखा जाए तो लगता है कि उसकी मूल-चेतना तो रोमानी है किन्तु कहीं-कहीें इसी रोमानियत के पार्श्व में आधुनिक बोध आ खड़ा हो जाता है। कालिदास और मल्लिका का संपर्क इसका गवाही देता है। दोनों में एक दूसरे के प्रति जो प्रेम का सूत्र है, वह बिना कटे-टूटे एक सिरे से दूसरे सिरे तक चला गया है। मल्लिका कालिदास की अनुपस्थिति में उपस्थिति का अनुभव करती है, वह कालिदास की अनुपस्थिति में पन्नों को सिलती है और मिलन प्रसंग में संकेत करती है कि मैंने इन्हें इस उम्मीद से सँवारा है कि तुम इन पर महाकाव्य लिखेंगे। यह रोमान्टिक बोध है। पूरे नाटक में आदि से अन्त तक जो रोमानी संस्पर्श है। वह इसे रोमान्टिक बोध से जोड़ देता है।
कालिदास लौट आता है। उसके लौटने में एक थकान है, टूटन है। आधुनिक बोध के आयाम तो उस समय स्पष्ट होते हैं जब कालिदास घर लौट आता है और अपने ही घर में अपने को अजनबी, ऊबा हुआ अपरिचित और आत्म निर्वासित महसूस करता है। ये परिस्थितियाँ सामान्य नहीं। इसमें आधुनिकता के आयाम हैं । कालिदास की निम्न लिखित बात उसकी आधुनिक बोधमयी स्थिति की सूचक है, सच कहूँ तो वह व्यक्ति है जिसे मैं स्वयं नहीं पहचानता ... दिनों की यात्रा करके थका हारा टूटा आया हूँ कि एक बार यहाँ के यथार्थ को देख लूँ ... मैंने नहीं सोचा कि यह घर मुझे अपरिचित भी लग सकता है। ...पर सब कुछ अपरिचित लग रहा है... और तुम भी अपरिचित लग रही हो।[2]
अपने से अपरिचित अपने ही घर में अजनबीयत का माहौल महसूस करना आधुनिक विसंगतियों की सूचना देनेवाला आधुनिक बोध है। आधुनिक जीवन की यन्त्रणामय स्थिति यही है कि मनुष्य अपने से बेखबर रहकर अपने लिये अपरिचित हो जाए, सब कुछ पाकर भी खोया-सा रहे मल्लिका का यह कथन भी आधुनिक मध्यवर्गीय नारी की विसंगतियों में संगति खोजने में व्याकुल नारी का यथार्थ परिदृश्य ही है -आश्चर्य! …मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा है, कि तुम, तुम हो और मैं जो तुम्हें देख रही हूँ, वास्तव में मैं मैं ही हूँ[3] इस प्रकार देखें तो हम कह सकते हैं कि नाटक के पात्र तो ऐतिहासिक हैं। पर उनका जो व्यक्तित्व है वह आधुनिक व्यक्ति का व्यक्तित्व है।
नाटक के अन्त में कालिदास घर आकर भी बाहर चला जाता है। इस चले जाने में भी आधुनिकता है यही आधुनिक अभिशाप्तता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक इतिहास के पर्यावरण का आभास देता हुआ भी आधुनिक नाटक है। यहाँ ऐतिहासिक धरातल पर आधुनिक नर-नारी के सम्बन्धों की जटिलता को भावुकतापूर्ण परिप्रेक्ष्य प्रदान किया गया है। इसमें एक ओर अहं और आत्मसम्मान की भावना से निर्ल्लिप्त त्यागमयी नारी का बिम्ब है। यह नारी मल्लिका है जो अपने जीवन की सार्थकता के अन्वेषण में अपना सबकुछ हारकर भी अपने प्रिय को उच्च स्थान पर देखना चाहती है।
173, तेलुगू ब्राह्मण गली,
कोयम्बत्तूर – 1.






[1] आषाढ़ का एक दिन – पृ. ...
[2] आषाढ़ का एक दिन – पृ. 112
[3] आषाढ़ का एक दिन – पृ. 112

1 comment:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 8-2-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1883 में दिया जाएगा
धन्यवाद