साक्षात्कार
"नाटकों में युग-परिवर्तन करने की क्षमता है"
(सेवानिवृत डॉ॰ प्रसन्न कुमार बराल पेशे से इंजीनियर होने के बाद भी ओड़िया व अंग्रेजी भाषा के आधिकारिक विद्वान हैं। वह न केवल एक अच्छे समीक्षक,आलोचक,संपादक,साहित्यका र व प्रबुद्ध भाषाविद है, वरन सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति व संवेदनशील हृदय वाले एक अच्छे इंसान भी हैं। शादी के तुरंत बाद अपनी पत्नी की हृदय की लाइलाज बीमारी तथा कुछ समय बाद उनके लकवाग्रस्त होने,अपनी कंपनी फर्टिलाइजर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया,तालचेर के बंद हो जाने के बाद परिवार की सारी घरेलू जिम्मेदारियों का बोझ अपने कंधों पर लेते हुए खराब आर्थिक अवस्था जनित समस्याओं व संघर्षों से जूझते हुए भी अपने सशक्त मन से अपनी ओड़िया साहित्यिक पत्रिका “गोधूलि-लग्न” का अनवरत सम्पादन करते रहे। ऐसे समर्पित साहित्यकार के साथ दिनेश कुमार माली द्वारा लिए साक्षात्कार के कुछ अंश - सं.)
दिनेश कुमार माली - आप अपने जन्म-स्थान तथा माताजी-पिताजी के बारे में कुछ बताएं ।
डॉ॰ प्रसन्न कुमार बराल – मेरा जन्म 12 अक्टूबर 1954 को अविभाजित कटक जिले से 30 किलोमीटर दूर जाजपुर के खैरा(बड़चना) गांव में हुआ था। मेरे पिताजी स्व॰ आदिकंत बराल थे,जो प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे और मेरी माँ श्रीमती जेमामनी बराल है,वह एक कुशल गृहिणी है।
दिनेश कुमार माली:- आपके छात्र जीवन में क्या-क्या अभिरुचियाँ थी ?
उत्तर :- मैं अपने स्कूली जीवन में फुटबॉल खेलना पसंद करता था,मगर संगीत सुनना तथा समकालीन साहित्य पढ़ना मेरी खास अभिरुचियाँ थी,जो आज पर्यन्त मौजूद है। फर्टिलाइजर कार्पोरेशन ऑफ इंडिया(एफ़सीआई) में नौकरी लगने के बाद एफ़सीआई की ओर से मैं वालीबाल खेलता था।
दिनेश कुमार माली:- आप अपनी शैक्षणिक योग्यताओं पर कुछ प्रकाश डालें ।
उत्तर:- मेरी प्रारम्भिक शिक्षा पैतृक गाँव बड़चना में हुई और मैंने हाईस्कूल बड़चना के महाविनायक विद्यायन से सन 1970 में विज्ञान विषयों में जनरल साइंस व मैथेमेटिक्स तथा हिन्दी विषय में उत्तीर्ण कर कटक के स्टुआर्ट साइंस कॉलेज में दाखिला ले लिया,जहां मैंने दो साल प्री-यूनिवर्सिटी तथा फर्स्ट इयर की पढ़ाई की। यद्यपि दो महीने बाद मेरा रेवेन्सा कॉलेज की दूसरी लिस्ट जारी होने पर चयन हो गया था,मगर मैंने वहाँ एडमिशन नहीं लिया। उसी दौरान फर्टिलाइजर कार्पोरेशन ऑफ इंडिया ने केमिकल इंजीनियरिंग डिप्लोमा का प्रशिक्षण मुंबई की मान्यता प्राप्त अभियांत्रिकी संस्थान से प्रायोजित कर रहा था,जिसमें मासिक स्टीपंड भी मिलता था और साथ ही साथ नौकरी की गारंटी भी। इसलिए मैंने इंटरमिडिएट पूरी करते ही वह कोर्स ज्वाइन कर लिया।मुझे आगे की पढ़ाई करने के लिए 1973 में मुंबई भेज दिया गया,सन 1975 में मैंने वहाँ से डिप्लोमा/एप्रेंटिशिप इन केमिकल इंजीनियरिंग पूरा किया। फिर डेढ़ साल तक एफ़सीआई की ट्रांबे यूनिट में काम किया और उसके बाद नवंबर 1976 को एफ़सीआई की तालचेर यूनिट में ओड़िशा आ गया। मगर वहाँ शिफ्ट ड्यूटी के कारण मेरा नौकरी में मन नहीं लग रहा था। मुंबई में रहने की दौरान मैंने प्राइवेट कॉलेज से अंग्रेजी व इकोनोमिक्स में बी॰ए॰ की परीक्षा पास कर ली थी। सन 1978 में उत्कल यूनिवर्सिटी से अमेरिकन साहित्य को एक विशेष पेपर के रूप में लेते हुए अंग्रेजी साहित्य में मास्टर इन आर्ट्स की परीक्षा उत्तीर्ण की और सन 1980 में कार्मिक प्रबंधन विशेष पेपर लेते हुए पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में मास्टर इन आर्ट्स की डिग्री प्राप्त की। सन1985 में पब्लिक रिलेशन सोसायटी ऑफ इंडिया से पब्लिक रिलेशन एंड जर्नलिज़्म में पी॰जी॰ डिप्लोमा किया। इसके अतिरिक्त, “ईवाल्यूशन एंड डवलपमेंट ऑफ अब्सर्ड एंड एक्सपरीमेंटल प्ले”शोध-विषय पर उत्कल यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।
शिक्षा प्राप्त करने का सिलसिला अभी तक थमा नहीं था। तकनीकी क्षेत्र में भी यह चाहत बनी रही। आंध्रप्रदेश विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएट ‘डिप्लोमा इन एनवयरोमेंट स्टडीज़ एंड पाल्यूशन कंट्रोल’, इग्नू से ‘डिप्लोमा इन मैनेजमेंट’; नेशनल प्रॉडक्टिविटी काउंसिल ऑफ इंडिया से ‘टेकनिकल सुपरवाइजरी ड़वलपमेंट एक्जामिनेशन’ और भारत सरकार के श्रम-मंत्रालय के अंतर्गत कोलकता की रीजनल लेबर इंस्टीट्यूट से ‘मैनेजमेंट ऑफ फिजिकल हजार्ड एंड हजार्ड्यस वेस्ट इन इंडस्ट्रीज’ पर एक विशेष कोर्स पूरा किया। बीच-बीच में कंपनी,सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा आयोजित विभिन्न शैक्षणिक कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। उदाहरण के तौर पर ओड़िशा सरकार के स्टेट इंस्टीट्यूट कोर रुरल डवलपमेंट द्वारा आरटीआई-2005 का विशेष प्रशिक्षण और भारत सरकार की हैदराबाद स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रुरल डवलेपमेंट द्वारा आयोजित “मैन स्ट्रीमिंग जेंडर इन एजुकेशन एंड यूनिवर्सलाइजेशन ऑफ प्राइमरी एजुकेशन” पर भी प्रशिक्षण प्राप्त किया। आज भी शिक्षा और साहित्य के प्रति मेरा झुकाव ज्यों का त्यों बना हुआ है।
दिनेश कुमार माली :- आप अभियांत्रिकी संकाय के विद्यार्थी होने के बावजूद भी अंग्रेजी और ओड़िया-साहित्य में हस्तक्षेप करने की क्षमता रखते हैं। इस तरफ झुकाव होने के कोई विशेष कारण हैं ?
उत्तर :- बचपन से ही मेरा झुकाव साहित्य की ओर था। अक्सर स्कूल लाइब्रेरी से किताबें लाकर पढ़ना मेरी रुचि थी। स्कूलों में आयोजित वाद-विवाद प्रतियोगिता में हमेशा मैं अव्वल नंबर पर रहता था। सन 1971-72 जब मैं स्टुआर्ट साइंस कॉलेज कटक में पढ़ता था,तब कॉलेज के सामने ही आल इंडिया रेडियो कटक का ऑफिस-कम-स्टुडियो था। तब मैं आकाशवाणी के परिसर में पार्श्व गीतकार अक्षय मोहंती,मो॰सिकंदर आलम,धनन्जय सतपथी,रघुनाथ पाणिग्राही तथा विख्यात नाटककार मनोरंजन दास,गोपाल छोटराय,नृसिंह महापात्रा सभी को घूमते-फिरते देखता तो उनसे मिलने की अदम्य उत्सुकता जाग जाती। कभी जिन बड़े-बड़े गीतकारों को मैं एचएमवी रिकॉर्ड ग्रामोफोन पर सुना करता था,मगर वहाँ पढ़ते समय जब मैं उन्हें अपने सामने प्रत्यक्ष रूप से देखता तो मेरा मन प्रफुल्लित हो उठता था। मेरी भी इच्छा होती थी,मैं भी उन लोगों की तरह जीवन में कभी प्रतिष्ठित कलाकार बनूँ। बस, मन का यह संकल्प ही मुझे साहित्य की दिशा में खींच लाया।मैंने भी इस दिशा में सपने देखना प्रारम्भ कर दिया। सन 1980 में मैंने यूपीएससी के अंतर्गत आल इंडिया रेडियो में प्रोग्राम एक्सिक्यूटिव(पीईएक्स) की परीक्षा भी दी,मगर मैं उसमें उत्तीर्ण भी न हो सका। इस बात का आज भी मुझे खेद है ।
दिनेश कुमार माली- आपने अपनी साहित्यिक अभिरुचि को साकार करने के लिए क्या-क्या कदम उठाए ?
उत्तर:- मैंने सन 1978 में साहित्यिक पत्रिका ‘गोधूलि’ निकालना शुरू किया,यह इस पत्रिका का पहला इश्यू था। मगर भारत सरकार के रजिस्ट्रार ऑफ न्यूज़पेपर ऑफ इंडिया ने इस पत्रिका को रजिस्ट्रेशन नंबर प्रदान नहीं किया,क्योंकि इस नाम की पत्रिका केरल में मलयालम भाषा में उस समय में प्रकाशित हो रही थी। यह नंबर इसलिए आवश्यक होता था ताकि नियमानुसार कुछ सरकारी विज्ञापन व पोस्टल डिस्काउंट मिल सके। अंत में मैंने इस पत्रिका के दो नाम ‘गोधूलि-लग्न’ और ‘गोधूलि-वेला’ विकल्प के रूप में रजिस्ट्रार को भेजे,तो उन्होंने सन 1981 में ‘गोधूलि-लग्न’ नाम पर मुहर लगा दी। यह पत्रिका त्रैमासिक थी,जो 2009 तक चली। सन 1978 में इसकी कीमत एक रुपया तथा सन 2009 में बीस रुपये थी। कभी-कभी कारणवश पत्रिका समय पर प्रकाशित नहीं हो पाती थी अथवा कुछ अंक अनियमित रूप से निकलते थे। मेरी अभिरुचि कहानियाँ तथा गीतात्मक कविताएं लिखने में थी। जो समसामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती थी। कोलकता से प्रकाशित ‘आसंता काले’,’नवरवि’,भुवनेश्वर से प्रकाशित ‘नवपत्र’ व ‘नवलिपि’ ‘अर्पिता’ तथा सम्बलपुर के कुचिन्डा से प्रकाशित होनी वाली साहित्यिक पत्रिका ‘समास’ में प्रकाशित होती थी। इसके अतिरिक्त, आकाशवाणी कटक के युव-वाणी प्रोग्राम में मेरी कहानियाँ ब्रॉडकास्ट होती थी। जिसकी समय सीमा सात मिनट होती थी । यह ही नहीं,मैं सन 1994 से नव-साक्षर लोगों के लिए न्यूज-लेटर ‘अक्षरदीप’ का संपादन कर रहा हूँ। सन 1982 से आकाशवाणी कटक का मान्यता-प्राप्त गीतकार हूँ,साथ ही साथ आकाशवाणी में लिटरेचर तथा अन्य विषयों की अधिकृत वक्ता भी। साहित्यिक गतिविधियों के उत्थान के लिए 35 साल पूर्व मैंने अंगुल में सार शहरांचल साहित्य संस्थान की स्थापना की। अंगुल जिले के लिए ‘पोस्ट लिटेरीसी प्रोग्राम एंड कंटिन्यूइंग एजुकेशन’ का एक्शन प्लान तैयार करने में मेरी अहम भूमिका रही और मेरे मार्गदर्शन में ‘टोटल लिटरेसी’ पर एक टेली-फिल्म बनाई गई। जिला और राज्य स्तरीय साक्षरता वर्कशॉप,कला-प्रदर्शनी,पुस्तक मेला आदि का आयोजन भी करवाया। एफ़सीआई के मनोरंजन केंद्र की तरफ से (अंगुल) तालचेर में ‘सर्वभाषा नाटक प्रतियोगिता’ का पहली बार आयोजन करवायागया। ओड़िया युवा लेखक के सम्मेलन के संपादक मंडली का एक सदस्य भी रहा। कई बड़े-बड़े कलाकारों,संगीतज्ञों,कहानीकारो तथा भाषाविदों का मेरे द्वारा लिया गया साक्षात्कार आकाशवाणी,कटक से प्रसारित हुआ और राज्य की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुआ। मेरे द्वारा संपादित कुछ पुस्तकें भी भारत सरकार के विभाग तथा नेशनल बुक ऑफ ट्रस्ट,इंडिया से प्रकाशित हुई हैं। सन 2008 में केंद्र साहित्य अकादमी द्वारा ब्रह्मपुर यूनिवर्सिटी में आयोजित “ओड़िया नाटक परंपरा और आधुनिकता” पर भित्ति-प्रबंध-पत्र के वाचन करने का भी मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसी तरह सन 2011 में विशिष्ट कवि राधा मोहन गडनायक की जन्म-शती पर केंद्र साहित्य अकादमी द्वारा भुवनेश्वर के भंज कला मंडप में आयोजित एक भव्य साहित्य समारोह में “राधामोहन गडनायक : जीवनी और उनकी साहित्यिक कृतियाँ” विषय पर मैंने भित्ति-प्रबंध पत्र का वाचन किया।
दिनेश कुमार माली – आपकी अभी तक कौन-कौनसी पुस्तकें प्रकाशित हुई है और कहाँ-कहाँ से ? साहित्य की किस विधा पर आधारित हैं ये पुस्तकें ?
उत्तर:- अभी तक मेरी छ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, जिसमें चार पुस्तकें अंग्रेजी से ओड़िया में अनुवाद की,दो पुस्तकें सम्पादन व संकलन की।मेरे तीन अनुवाद ‘पब्लिक परसेप्शन अबाउट एटोमिक एनर्जी’, ‘ए स्ट्रेटेजी फॉर ग्राथ ऑफ इलेक्ट्रिक इनर्जी इन इंडिया’, ‘डाक्यूमेंट रिलेटेड टू सिविल न्यूक्लियर एनर्जी’ का अनुवाद भारत सरकार के परमाणु ऊर्जा विभाग तथा चौथा अनुवाद ‘ए कंप्लीट बुक ऑन मारिशस’ नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया से प्रकाशित हुआ है। डिस्ट्रिक्ट काउंसिल ऑफ कल्चर,अंगुल से “डिस्ट्रिक्ट गजेटर,अंगुल” तथा नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया से प्रकाशित ‘पोस्ट इंडिपेंडेंस ओड़िया प्लेज’ का भी मैंने सम्पादन किया। ‘नारी-निर्यातना’ ओड़िया भाषा में मेरी पुस्तक लिडिंग एनजीओ से प्रकाशित हुई है तथा विख्यात प्रकाशक दिव्यदूत,कटक से मेरी दो पुस्तकें“प्रगतिरू परिवर्तन: ओड़िया प्रयोगात्मक नाटक” तथा मेरा एक साक्षात्कार-संग्रह “अंतरंग-आलाप” शीघ्र ही आने वाले हैं। इसके अतिरिक्त,मेरे बहुत सारे आलेख राज्य की दैनिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। जिनमें ‘समाज’ ‘संबाद’,‘प्रजातन्त्र’,‘प्रगति वादी’,‘ओड़िशा-एक्सप्रेस’,‘ओड़िशा -भास्कर’,‘खबर’,‘संबाद-कलिका’ इत्यादि प्रमुख है और ओड़िशा साहित्य अकादमी से सम्मानित नाटक ‘ययाति यंत्रणा’ पर मेरी समीक्षा 1992 में संबलपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘समास’ में प्रकाशित हुई।
दिनेश कुमार माली:- आपकी प्रसिद्ध कहानियां कौन-कौनसी है और किस-किस पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है ?
उत्तर:- यद्यपि कहानी लेखन में मेरी गहरी अभिरुचि थी, मगर मैं परिस्थितिवश इस दिशा में बहुत ज्यादा सफल नहीं हो सका। जिसके बहुत सारे कारण हैं, फिर भी प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी मेरा प्रयास जारी रहा। जिनमें री मन पसंद कहानियाँ ‘निस्संगता (1980)’,‘आसिथिला अंधेरार चालीगला (1981)’,‘एई परिवेश भीतरे (1982)’, ‘रहिवार स्वाद(1981)’,‘अथच सेई रूनु (1981)’,‘दिग्वलयर आरपटे सत्यर इलाका (2006)’, और ‘घन कुहूडिर माया (2010)’ आदि हैं। ये कहानियाँ कोलकाता पत्रिका ‘आसंता काले’, भुवनेश्वर से पत्रिका ‘नवरवि’, ‘नवराग’, पुरी की पत्रिका ‘कमल’,‘कालिया’, आदि में प्रकाशित हुई है। मेरी अधिकांश कहानियों के कथानक एकाकीपन,किशोरावस्था वाले प्रेम तथा जीवन की विभिन्न अनुभूतियों पर केन्द्रित हैं।
दिनेश कुमार माली:-आपकी पत्रिका ‘गोधूलि-लग्न’ में ओड़िशा की विख्यात हस्तियों के साक्षात्कार छपते रहे हैं। और कुछेक साक्षात्कार तो आकाशवाणी,कटक से प्रसारित होते रहे हैं। इस पर कृपया विस्तार से प्रकाश डालें।
उत्तर:- मैंने आज तक लगभग पच्चीस इंटरव्यू लिए हैं। सबसे पहला इंटरव्यू मैंने लिया था सन 1978 में लेजेंडरी ओड़िया नाट्यकार गोपाल छोटराय का। इसके बाद मैंने प्रसिद्ध लेखकों,कवियों,नाटककारों,आलोचको ं,भाषाविदों,उपन्यासकारों तथा कलाकारों का साक्षात्कार लिया, अधिकांश मेरी पत्रिका ‘गोधूलि लग्न’ में प्रकाशित हुए और कुछेक आकाशवाणी के कटक केंद्र से प्रसारित हुए। इस सूची में गोपाल छोटराय (पारंपारिक ओडिया नाटककार), मनोरंजन दास (एक्सपरिमेंटल/अबसर्ड प्ले), सन्युक्ता पाणिग्राही (ओडिशी नृत्य), कान्हु चरण (ओडिया उपन्यासकार),कालन्दी चरण पाणिग्राही (ओडिया कवि /उपन्यासकार)विनोद कानूनगो (ओडिया इनसाइक्लोपीडिया), डॉ॰ कृष्ण प्रसाद मिश्रा (ओडिया लघु कहानियाँ), अक्षय मोहंती (ओडिया फिल्म म्यूजिक),प्रफुल्ल कर (ओडिया लाइट म्यूजिक), पंडित रघुनाथ पाणिग्राही (शास्त्रीय संगीत/गीत गोविंद), बालकृष्ण दास (ओडिशी म्यूजिक), पंडित भुवनेश्वर मिश्रा (आकाशवाणी,फिल्म और वायलीन पर संगीत), श्रीमती झरना दास (रेडियो प्ले), प्रशांत नन्द (कॉमर्शियल/आर्ट फिल्म), असीत मुखर्जी (आर्ट /पेंटिंग/कवर डिजाइन), प्रो॰ (डॉ) जे॰पी॰ दास (कार्डियो लोजिस्ट,लाइफ बियोंड प्रोफेशन),चन्द्रशेखर रथ (लघु कहानीकार), चितरंजन दास (आलोचक), डॉ॰ जे॰ पी दास, आईएएस (रिटायर्ड़),(आधुनिक नाटक/कविता), प्रो॰(डॉ)देवी प्रसाद पटनायक (भाषा और साहित्य), श्रीमती मनोरमा महापात्रा(न्यूज़पेपर और लिटरेचर),डॉ॰विभूति पटनायक (लघु कहानियाँ/उपन्यासकार)तथा महापात्रा नीलमणि साहू (लघु कहानी),बसंत शतपथी (लघु कहानी) इत्यादि शामिल हैं।
दिनेश कुमार माली:- आपकी पत्रिका ‘गोधूलि-लग्न’ की क्या-क्या खास विशेषताएँ थी ?
उत्तर:- यद्यपि मेरी पत्रिका ‘गोधूलि-लग्न’ छोटी पत्रिका थी, मगर ओड़िशा में साहित्यिक दृष्टिकोण से विशेष अहमियत रखती थी। यह पहली ऐसी पत्रिका थी, जिसमें साहित्यकारों के साक्षात्कार नियमित रूप से प्रकाशित होना शुरू हुए। पहले ही, मैं इस पर विस्तार से प्रकाश डाल चुका हूं। दूसरी खास विशेषता थी, एक नवीन स्तम्भ ‘मेरी पहली अनुभूति’ जो इस पत्रिका में ही छपता था। जिसमें सफल व्यक्तित्व अपनी पहली अनुभूतियों के बारे में बताते थे। उदाहरण के तौर पर धनंजय शतपथी,अक्षय मोहंती, चितरंजन जेना, श्रीकांत दास ने अपना पहला गाना कब और कैसे गाया? गोपाल छोटराय अपना पहला नाटक कब और कैसे लिखा? आदि-आदि। इस पत्रिका की तीसरी खास विशेषता थी, “जीविका बाहारे जीवन” नामक नए स्तम्भ की शुरुआत। उदाहरण के तौर पर पेशे से एससीबी मेडिकल कॉलेज के कार्डियोलोजी डिपार्टमेन्ट के संस्थापक प्रोफेसर जे॰पी॰दाश एक हृदय रोग विशेषज्ञ थे, मगर वह बहुत कुशल चितेरे पेंटर भी हैं। वृति अलग, प्रवृत्ति एकदम अलग। श्री कवि प्रधान नालको में मैकेनिकल इंजीनियर थे, मगर एक अच्छे कहानीकार थे। इसी तरह, जगन्नाथ महापात्र एनटीपीसी के महाप्रबन्धक/ईडी थे,वह पेशे से इलेक्ट्रिकल इंजीनियर थे बॉयलर इन्सट्रूमेंटेशन उनके खास विषय थे। मगर उन्होने 18 विभिन्न टीकाकारों व लेखकों की गीता का अध्ययन किया और ‘एसेंस ऑफ गीता’ जैसी एक विख्यात पुस्तक लिखी।अद्यतन उनकी दूसरी पुस्तक “वेलनेस इन इंडियन फेस्टिवल एंड रिचुयल” पेंग्विन इंडिया से प्रकाशित हुई। मेरे कहने का अर्थ यह था साहित्य के क्षेत्र से हटकर दूसरे तकनीकी, मेडिकल या सेना के क्षेत्रवाले लेखकों,कवियों,कलाकारों का यह पत्रिका एक ऐसा मंच प्रदान करती थी, जिसके माध्यम से उनकी आवाज आम जनता तक पहुँचती थी।चूंकि अपने प्रोफेशन के कारण ये रचनाकार साहित्य की मुख्य-धारा से जुड़ नहीं पाते थे। सबसे बड़ी विसंगता यह थी कि साहित्य के मुख्य-धारा में प्रतिष्ठा प्राप्त साहित्यकार उन्हें कोई खास तवज्जु नहीं देते थे। और आज भी ऐसी ही स्थिति हैं।एक और खास विशेषता थी मेरी पत्रिका की, ‘विस्मरण-स्मरण’ स्तम्भ। इसके माध्यम से वे लेखक जो कभी अच्छा लिखते थे, मगर परिस्थितिवश उन्होंने लिखना छोड़ दिया या वे लेखक कारणवश किसी दूसरी दुनिया में लुप्त हो गए अथवा परलोक सिधार गए। उन भूले-बिसरे सृजन-धर्मियों को पाठक-जगत से परिचय करवाना मेरा खास उद्देश्य होता था। साथ ही साथ, जीवित लेखकों को फिर से लेखन-कर्म के लिए प्रेरित करना भी एक लक्ष्य था। आपको यह जानकर अत्यंत खुशी होगी कि केन्द्रीय साहित्य अकादमी से पुरस्कृत रवि पटनायक की कहानी “वंध्या गांधारी” सन 1983 में सबसे पहले मेरी पत्रिका में प्रकाशित हुई। इस तरह कहानी-चयन के प्रति मेरा दृष्टिकोण अत्यंत ही गंभीर रहता था।
दिनेश कुमार माली:- आपकी पत्रिका ‘गोधूलि-लग्न’ में बहुत सारी साहित्यिक विशेषताएँ होने के बाद सन 2009 में यह पत्रिका अचानक क्यों बंद अथवा अनियमित हो गई ?
उत्तर:- इस पत्रिका के बंद होने के पीछे कई कारण थे। मेरी धर्मपत्नी का सन 2005 में देहांत होने के बाद मैं भीतर से पूरी तरह से टूट चुका था। सन 2002 में हमारी कंपनी बंद हो गई थी,इस वजह से मेरी आर्थिक स्थिति कमजोर होती जा रही थी। दूसरा कारण, मैं भुवनेश्वर और कटक से काफी दूर था। एफ़सीआई,तालचेर से भुवनेश्वर जाकर किताब प्रिंटिंग करवाने में काफी खर्च आने लगा। इस पत्रिका के लिए पृष्ठ-पोषकता(पेट्रोनेज) का पूरी तरह अभाव था। जबकि आधुनिक पत्रिकाओं से प्रतिस्पर्धा लेने के लिए ‘कॉर्पोरेट हाउस’ का आशीर्वाद तथा ‘ब्रांड वैल्यू’ का होना भी समय की मांग के अनुरूप जरूरी है। जैसे किट्स से प्रकाशित होने वाली पत्रिका कादंबिनी की सफलता का यही राज है। तीसरा कारण, भुवनेश्वर और कटक से अच्छे-अच्छे आलेख,कहानी,कविता का संकलन करना आसान होता है,तालचेर से जाकर यह काम करना मुश्किल होता जा रहा था। मेरी पत्रिका तो तब पैदा हुई थी, जब टेलीफोन भी नहीं हुआ करता था। कंप्यूटर तो आजकल आए हैं। प्रिंटिंग टेक्नोलोजी और पाठकों की अभिरुचि बदलने की वजह से मेरे लिए अस्तित्व में बचे रहना मुश्किल होता जा रहा था। इन्हीं सब कारणों की वजह से आर्थिक संकट झेलते-झेलते यह पत्रिका अनियमित हो गई,मगर अभी तक पूरी तरह बंद नहीं हुई है। इस पत्रिका का नया संस्करण जल्द ही आपके सामने आने वाला हैं।
दिनेश कुमार माली:- किस ओड़िया साहित्यकार ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया और क्यों ?
उत्तर:- अगर आप मुझे उपन्यासों और कहानियों की बात करेंगे तो मेरा उत्तर होगा, डॉ॰ विभूति पटनायक ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया। उनका उपन्यास ‘चपल छंदा’,‘असवर्ण’,‘वधू-निरुपमा’ ‘नायिकार नाम श्रावणी’ उपन्यास तो आज भी मेरे मानस पटल पर ज्यों की त्यों है। उन्होंने सामाजिक पृष्ठभूमि,परिवर्तन और प्रतिबद्धता को आधार बनाते हुए समकालीन विषयों पर खूब लिखा। सही मायने में, वह आधुनिक ओड़िया उपन्यासों के प्रमुख शिल्पी हैं। तरुण कान्ति मिश्र, यशोधरा मिश्र, गौरहरी दास, रामचन्द्र बेहेरा, अक्षय मोहंती, बसंत शतपथी आदि की कहानियाँ मुझे अच्छी लगती हैं । कविताओं में मुझे राजेन्द्र किशोर पंडा की कविताएं सबसे अच्छी लगती है। उनका शब्दकोश असीम है। उनके पास अंतहीन शब्दों का भंडार है। अगर आप उनकी एक कविता भी पढ़ेंगे तो आपको उसका भावार्थ समझने के लिए डिक्शनरी खोजनी पड़ेगी। उनके प्रसिद्ध कविता संकलन “शैल-कल्प”,“गौण देवता”,“शतद्रु अनेक”,“निजपाईं नानावाया”,“चौखठरे चिरकाल”,“अन्या”,“वैरागी भ्रमर”,”घुणाक्षर” इत्यादि है। दूसरे मेरे फ़ेवरट कवि देवदास छोटराय है, जिनकी भाषा बहुत ही सहज व सरल है। संगीत है उनकी कविताओं में। उदाहरण के तौर पर उनके कविता संग्रह ‘नील सरस्वती’ की अदृश्य नायिका मल्लिका की कुछ पंक्तियां :-
मल्लिका!
तू नथिलू केऊंठारे,तू हुडुली वचन तोहर
ना केबे हृदय देलू ना कदवा अर्पिलू शरीर !
अर्थात मल्लिका (नारी) तुम रहस्यमयी हो। न तो तुम शरीर देती हो और न ही हृदय। कविता की इन पंक्तियों पर एक बार राजेंद्र किशोर पंडा ने समीक्षा करते हुए कहा था कि किसी भी नारी के साथ सौ बार संभोग करने के बाद भी आप न तो उसका शरीर पा सकते हो और शताब्दियों तक निवेदन करने के बाद भी न ही उसका हृदय।
दिनेश कुमार माली:- ओड़िया साहित्य में आप नारीवादी लेखन के बारे में क्या कहना चाहेंगे ?
उत्तर:- मैं तो नारी और पुरुषों में भेदभाव नहीं समझता हूँ। साहित्य में लिंग-भेद के आधार पर लेखक-लेखिकाओं का बंटवारा करना मेरी दृष्टिकोण में अनुचित है। कोई लेखिका अपने आपको‘नारीवादी लेखिका’ कहती है तो इसका तो यही अर्थ हुआ,जैसे कोई कक्षा में आप अगर टॉप नहीं कर सकते है तो लिंगभेद के अनुसार यह कहा जाएगा कि वह लड़कियों में फर्स्ट आई है। साहित्य तो साहित्य होता है। उसमें कोई डिपार्टमेन्ट खोजकर प्रसिद्धि पाने की उत्कंठा मेरे दृष्टिकोण में गलत है। बहुत सारे ऐसे पुरुष साहित्यकार हुए है, जिन्होंने नारी के अंतर्द्वंद्व मनःस्थिति का इतना सटीक व प्रभावशाली शैली में वर्णन किया है, जितना कोई महिला साहित्यकार भी नहीं कर पाई। आप ही बताइए कि क्या रमाकांत रथ नारी थे, जो उनका काव्य ‘श्रीराधा’नारी प्रेम की अनुपम कृति है ? क्या उपेंद्र भंज नारी थे, जिनका ‘लावण्यवती-काव्य’ नारी चेतना का विशिष्ट प्रतीक है? दूसरे शब्दों में मैं कहूँ, तो जिनमें भी सृष्टि करने की क्षमता है, वे सब नारी हैं। नारी होने पर ही तो आप सृष्टि कर सकते हैं, अन्यथा नहीं।
दिनेश कुमार माली:- आपके वैवाहिक जीवन के बारे में कुछ प्रकाश डालें ?
उत्तर:- यद्यपि मेरा वैवाहिक जीवन अत्यंत ही दुखद रहा है, फिर भी मैं अपने जीवन को सफल मानता हूँ कि मैं अपनी बीमार पत्नी की मृत्यु पर्यंत सेवा कर सका। मेरी शादी 1981 में सुप्रभा मोहंती से हुई थी। उन्होंने उत्कल यूनिवर्सिटी से संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएट किया था। सन 1978 में अर्थात शादी के तीन साल पहले उनकी ओपन हार्ट सर्जरी हुई थी और एक आर्टिफ़िशियल वाल्व भी लगाया गया था। तब से लाइफ सेविंग्स ड्रग्स पर उनका जीवन चल रहा था।आज भी दुख इस बात का हैं कि किसी ने भी मुझे इस सारी चीजों के बारे में विस्तारपूर्वक नहीं बताया। शादी के बाद सारी बातें पता चली। यह बात तो तब उजागर हुई जब मेरे बेटे की डिलिवरी के समय जब मैं उन्हे सीएमसी वेल्लूर ले गया था। दो साल बाद उन्हें पोस्ट आपरेशन स्ट्रोक हुआ और शरीर का दाहिना हिस्सा पैरेलायसिस हो गया। दाएँ हाथ से न तो वह लिख सकती थी और न ही चाबी पकड़ सकती थी। उनके इलाज के लिए मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी। सीएमसी वेल्लोर,एससीबी कटक,अपोलो,चेन्नै, भुवनेश्वर कहाँ-कहाँ चक्कर नहीं काटे। मगर इलाज न हो सका। 1995 में उन्हें पूरी तरह पैरालायसिस हो गया। चलना-फिरना तक बंद हो गया। उनकी वाक-शक्ति चली गई। वह पूरी तरह से अक्षम हो गई और सारे जीवन बिस्तर पर गुजारा। दस-पंद्रह साल मैंने उस लकवा-ग्रस्त शरीर की सेवा की,यहाँ तक उनके कपड़े बदलना, नहलाना, शरीर पोछना क्या कुछ नहीं किया। ड्यूटी जाते समय मैं ताला लगाकर जाता था। अमानवीय अपराध-बोध लगता था मुझे, मगर मेरे पास इसके सिवाय कोई चारा नहीं था। मैं उनसे बहुत प्यार करता था। मुझे आज भी अपने जीवन पर गर्व है कि मैं अंतिम समय तक उनके काम आ सका। भले ही, मेरी साहित्यिक-यात्रा कुछ हद तक अवरुद्ध हुई। और ज्यादा से ज्यादा होता भी तो क्या होता, दो-चार किताबें लिख डालता। पाठकों की प्रशंसा मिल जाती। उससे ज्यादा और क्या? उनकी सेवा-सुश्रूषा कर मेरा जीवन तो खुद एक उपन्यास बन गया, साहित्य-संसार के भग्नावशेष की तरह।
दिनेश कुमार माली:- ओड़िया भाषा की वर्तमान स्थिति पर आप क्या कहना चाहेंगे ?
उत्तर:- द्रविड़ परिवार की चार भाषाओं जैसे तमिल,कन्नड़,तेलगू और मलयालम एवं संस्कृत भाषा के बाद आर्य परिवार की एकमात्र ओड़िया भाषा को भले ही, शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया है, मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि ओड़िया भाषा की स्थिति अन्य प्रादेशिक भाषाओं जैसे मलयालम,बंगाली,तमिल आदि से बेहतर है।शास्त्रीय भाषा होने का यह अर्थ कदापि नहीं लिया जाना चाहिए। शास्त्रीय सम्मत भाषा हेतु चयन के लिए कुछ निर्धारित प्राचल होते हैं, जैसे दो हजार वर्ष पुरानी वह भाषा होनी चाहिए,उसकी लिपि मौलिक होनी चाहिए आदि-आदि। ओड़िया भाषा पर ये सारी बातें लागू होती हैं। जगन्नाथ दास द्वारा रचित ओड़िया भागवत एक मौलिक कृति का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। मगर मुझे लगता है कि इससे ओड़िया भाषा को कोई खास फायदा होने वाला नहीं है। केवल भाषा के उत्थान के नाम पर बड़ी-बड़ी इमारतें खुलेंगी। कुछ सरकारी फंड मिलेगा, मगर उससे क्या ? पैसों की तुलना में भाषा के प्रति वफादार होना ज्यादा जरूरी है। उदाहरण के तौर पर सिंधी भाषा को सरकारी भाषा की मान्यता भले ही मिली हो, मगर सारे देश में सिंधी भाषा बोलने वालों का इस भाषा के प्रति अनुराग न होने के कारण इस भाषा केप्राथमिक विद्यालय तक प्राय विलुप्त हो गए है। जबकि चैन्नेई में ‘तमिल यूनिवर्सिटी’ है,जहां तमिल भाषा पर शोध कार्य होता है। इसी तरह पुरी में श्री जगन्नाथ संस्कृत यूनिवर्सिटी है। मेरे कहने का तात्पर्य है कि सरकार और नागरिकों की भाषा के प्रति आनुगत्य होनी चाहिए। बोलचाल,लेखन तथा राजकीय-कार्यों में भाषा का भरपूर उपयोग होना चाहिए। कोर्ट-कचहरी में होने वाले क्रियाकलापों का सारा लेखा-जोखा प्रादेशिक भाषाओं में होना चाहिए ताकि आम जनता का उस भाषा के प्रति अनुराग बना रहें।
दिनेश कुमार माली:- नाटक विषय पर ड़ाक्टरेट करने के अतिरिक्त नाटक-विधा पर आपने कई पुस्तकें संपादित की हैं,जिसे नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया ने प्रकाशित किया हैं।इस विषय पर आप सविस्तार बताएं।
उत्तर:- मैंने सन 1991-92 में उत्कल यूनिवर्सिटी से ‘एक्सपरीमेंटल एंड अब्सर्ड प्लेज़’(परीक्षाधर्मी नाटक) पर पी॰एच॰डी की है। ‘अब्सर्ड’ को ओड़िया भाषा में ‘उद्भट नाटक’ कहा जाता है, जिसे मैंने अपनी थीसिस में गलत सिद्ध किया है। ‘उद्भट’ शब्द का अर्थ होता है सुंदर, रमणीय, आकर्षक, श्रेष्ठ। उदाहरण के तौर पर उद्भट विद्वान। बंगाली आलोचक व विद्वान लेखक अजित कुमार घोष ने अपनी पुस्तक ‘अब्सर्ड नाटकेर कथा’ की रचना की है ठीक इसी तरह हिन्दी के महान आलोचक डॉ॰ लक्ष्मी नारायण लाल ने ‘अब्सर्ड नाट्य परंपरा’ नामक पुस्तक लिखी है। दोनों विद्वानों ने कहीं पर भी ‘अब्सर्ड’ का समानार्थक शब्द ‘उद्भट’ नहीं लिखा है। चूंकि ‘उद्भट’ संस्कृत शब्द है,अतः दोनों भाषाओं में उपलब्ध है।एंसाइकलोपिडिया ब्रिटिनिका के अनुसार अब्सर्ड का अर्थ होता है,इलोजिकल,आउट ऑफ हार्मोनी,इर्रेलिवेंट तथा विदाउट एनी वैल्यू इत्यादि। जिस तरह ‘कविता’ के कई भाग होते हैं,’पोयम’,‘लिरिक’ ‘सोनेट’,‘इलिजी’,‘एपीक’, आदि। आपने शायद टी॰ एस॰ इलियट की कविता “लंदन ब्रिज” पढ़ी होगी ? नहीं तो,इजरा पाउंड को? यह ‘अब्सरडीटी’ कहाँ से पैदा हुई ? दूसरे विश्व युद्ध में जब हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम फेंका गया तो लोगों के भीतर नैराश्य की भावना पैदा हुई, जीवन बोझ लगने लगा। अमेरिका के लोग हिप्पी बनने लगे। मगर यूरोपीय लोगों की तुलना में भारतीय लोगों की अवस्था दूसरी थी। अमेरिका हिप्पीवाद का प्रचालन हुआ, वहाँ से लोग अध्यात्मवाद की ओर प्रेरित होकर शांति की खोज में भारत, नेपाल और सिंहल आने लगे। लोगों के जीवन में प्रेम और श्रद्धा असंगत लगने लगी। ईश्वर की आस्था पर तुषारापात होने लगा। विदेशी साहित्यकार नीत्से ने यहाँ तक लिख दिया “God is dead” ।थेम्स हार्डी ने ‘funeral of god” कविता लिखी। द्वितीय विश्वयुद्ध के साहित्य में सामाजिक असमानता और विध्वंस साफ दिखाई देता है। सन 2007 में स्वतंत्रता के बाद ओड़िया नाटकों पर नेशनल बुक ट्रस्ट से मेरी पुस्तक प्रकाशित हुई, वह एन॰बी॰टी॰ का गोल्डेन जुबली साल था। उस पुस्तकों में मैंने ओड़िया ड्रामों का इतिहास और रंगमंच भूमिका की विवेचना की। साथ ही साथ, ओड़िया एकांकी और थियेटर पर भी मैंने प्रकाश डाला। उस पुस्तक में मैंने गोपाल छोटराय का ‘अर्द्धांगिनी’, विजय मिश्रा का ‘शव बाहक माने’, डॉ॰ रमेश प्रसाद पाणिग्राही का नाटक ‘मूँ,आमे और आमे माने’, विश्वजीत दास की ‘मृगया’, मनोरंजन दास का ‘काठघोड़ा’, जगन्नाथ प्रसाद दास का ‘सूर्यास्त पूर्वरू’ तथा रति मिश्रा का नाटक ‘देख वर्षा आछूचि’ नाटकों का संकलन किया। मेरे हिसाब से किसी भी कहानी का व्यावहारिक उपयोग जब तक नहीं किया जा सकता है, जब तक उसका नाट्य रूपांतर न कर लिया जाए। नाटकों के व्यावहारिक प्रयोग के कारण युगांतर परिवर्तन में एक अहम भूमिका है, क्योंकि दृश्य व श्रव्य दोनों माध्यम दर्शकों की ज्ञानेन्द्रियों को प्रभावित करते हैं। केवल नाटक लिखने मात्र से सफल नहीं हो जाता है, बल्कि उसकी सफलता के लिए एक टीम भावना की जरूरत होती है। नाटक के डायरेक्टर, अभिनेता, अभिनेत्री, लाइट,म्यूजिक, स्टेज-क्राफ्ट सबकी अपनी-अपनी भूमिका होती है।
दिनेश कुमार माली:- आधुनिक भारतीय साहित्य के बारे में आप क्या कहेंगे ?
उत्तर:- हमारे देश का दुर्भाग्य है कि ‘भारतीय साहित्य’ के नाम से कोई साहित्य नहीं है। सभी प्रांतीय भाषाओं के अपने-अपने साहित्य है, कोई ओड़िया साहित्य, तो कोई मलयालम साहित्य, तो कोई हिन्दी साहित्य तो कोई तमिल साहित्य। मगर भारतीय साहित्य का अर्थ सभी प्रांतीय लिटरेचर का संग्रह को हम सामग्रिक रूप में लिया जाता हैं। नोबल प्राइज़ हो या बूकर प्राइज़ पाने के लिए आपको किसी भी भारतीय भाषा के बजाए अँग्रेजी में ही लिखना होगा। अगर उस अँग्रेजी पुस्तक को कोई भी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाता है तो वह भारतीय साहित्य के लिए पुरस्कार नहीं माना जाएगा। यह पुरस्कार अगर भारत के किसी प्रांतीय साहित्य को मिलता है तो उसे इंडियन लिटरेचर को मिला कहा जाएगा या फिर रीजनल लिटरेचर को? हमारे सारे इंडियन लिटरेचर को जोड़ने का काम तो अंग्रेजी भाषा करती है। सूचना-क्रान्ति के कारण अंग्रेजी भाषा और ज्यादा सशक्त हो गई है। इन्टरनेट और ई-मेल के जमाने में सारी क्षेत्रीय भाषाएँ और पिछड़ती जा रही है। जब हम अपने बच्चों को अंग्रेजी में पढाते हैं, तो क्या उनसे उम्मीद की जा सकती है,क्या वे अपनी मातृ-भाषा में कोई ‘कालजयी रचना’ लिख पाएंगे? असंभव। कभी नहीं। हर भाषा का एक आंतरिक सौंदर्य तथा आभ्यंतर सौकुमार्य अर्थात इंटरनल ब्यूटी होती है। केवल भाषाओं के पेपर पास करने से हमारी समस्याओं का समाधान नहीं होगा, हमें शुरू से ही अपने बच्चों में भाषा के प्रति प्रीत जगानी पड़ेगी और उसके प्रति वफादार बनाना पड़ेगा। अन्यथा भारत की सारी प्रादेशिक भाषाओं का भविष्य मुझे उज्ज्वल नहीं नजर आता है।
दिनेश कुमार माली:- ओड़िया भाषा की कौनसी पत्रिका आपको सबसे ज्यादा लोकप्रिय लगती है ?
उत्तर:- मेरी नजरों में आज के समय ओड़िशा की कोई ऐसी पत्रिका नहीं है,जिसे शत-प्रतिशत साहित्यिक कहा जा सके। ‘झंकार’ पत्रिका थोड़ा बहुत अपना साहित्यिक स्तर बनाए रखी है, वरना अन्य पत्रिकाओं में सौन्दर्य-प्रसाधन, गहने, पुष्प, बाल काले रखने के नुस्खें भरे पड़े हैं। उन्हें क्या साहित्यिक पत्रिका कहा जाएगा? ओड़िशा के व्यापक प्रसारित दैनिक अखबार ‘संबाद’ के सौजन्य से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘कथा’ का इस क्षेत्र में उल्लेखनीय नाम है, जो पूरी तरह से लघु कहानियों वाली एक साहित्यिक पत्रिका है। मैंने केवल नियमित रूप से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं को ध्यान में रखते हुए यह बात कहीं है।
दिनेश कुमार माली:- एक लेखक, संपादक,आलोचक व समीक्षक के रूप में आप भारत को कहां देखना चाहते हैं या किस भारत का सपना देखते है ?
उत्तर:- इस प्रश्न का जवाब देने के लिए मैं अपने आप को तुच्छ पाता हूँ। और मेरा आपसे विनम्रता-पूर्वक आग्रह है कि ऐसे सवालों से मुझे दूर रखें, क्योंकि उनका उत्तर देने की आधिकारिक क्षमता मुझमें नहीं है।
दिनेश कुमार माली :- कहानी-लेखन में अभिरुचि होने के बावजूद आप साहित्य की नाटक-विधा की ओर क्यों आकर्षित हुए?
उत्तर :- सत्तर के दशक में जब मैं मुंबई में था, उस समय वहाँ के विख्यात प्रेक्षागृह ‘सम्मुखानंद हाल’ में भारतीय भाषाओं खासकर बंगला,मराठी और गुजराती के नाटकों का मंचन हुआ करता था। इस हाल में अक्सर तत्कालीन फिल्म फेयर महोत्सव और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के सबसे बड़े आयोजन भी हुआ करते थे। उस दौरान मैं नियमित रूप से वहाँ मंचित होने वालों नाटकों को देखने के लिए जाया करता था। उस समय बहुत सारे नाटकों में आजकल के प्रसिद्ध सिने-कलाकार अभिनय किया करते थे। मैंने रंगमंच पर अभिनय करते हुए कई दिग्गज अभिनेता और अभिनेत्रियों को वहाँ देखता था,जिसमें ओमपुरी,नसीरुद्दीन शाह, हबीब तनवीर, विजया मेहता,शबाना आजमी आदि प्रमुख थे। उन सबका अभिनय बेहद ही चित्ताकर्षक और प्रभावशाली होने के कारण मैं नाटकों की ओर आकर्षित होता जा रहा था। विख्यात नाट्यकार विजय तेंडूलकर का मराठी नाटक’‘शांतता,कोर्ट चालू आहे’,‘घासीराम कोतवाल’; मोहन राकेश के हिन्दी नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’,‘आधे-अधूरे’,’लहरों के राजहंस’, डॉ॰ लक्ष्मी नारायण लाल के हिन्दी नाटक ‘कर्फ्यू’,‘काफी हाउस में इंतजार’और बादल सरकार का बंगाली नाटक ‘पागला घोडा’, ‘बाकी इतिहास’ आदि बहू-चर्चित नाटकों को मैंने उस प्रेक्षागृह में देखा। यही खास वजह थी कि मुंबई से ओड़िशा लौट आने के बाद मैंने तालचेर अंगुल के इंडस्ट्रियल-बेल्ट में सर्वभाषा नाटकों की प्रतियोगिता के आयोजन के साथ जुड़ा रहा और नाटक-विधा को मेरे शोध का विषय भी बनाया। इस हेतु मैंने अँग्रेजी नाटककार हेरोल्ड पिंटर के नाटक ‘द केयर टेकर’,’द डंब वेटर’, ‘ बर्थडे पार्टी एंड अदर प्ले’; आर्थर मिलर का ‘ डेथ ऑफ सेल्समेन’; सेमुअल बेकेट का ‘वेटिंग फॉर द गोडोट?’ ; एडुयार्ड एल्बी का ‘ज़ू स्टोरी’; ओनेल का ‘हैरी एप’ तथा आर्थर एडमोव के नाटक ‘पिंगपोंग’ और ‘द कंफेसन’ तथा अन्य प्रांतीय भाषाओं के नाटकों का गहन अध्ययन किया।
दिनेश कुमार माली:- वर्तमान में आप क्या कर रहे हैं ? और भविष्य में साहित्य से संबन्धित आपकी क्या-क्या योजनाएँ हैं ?
उत्तर- फिलहाल मैं इस साल प्रकाशित हुई बहू-चर्चित पुस्तकें के॰ नटवर सिंह की ‘वन लाइफ इज नॉट एनफ़’,संजय बारू की ‘द एक्सीडेंटल प्राइम-मिनिस्टर’, प्रकाशचन्द्र पारख की ‘ कान्स्पिरेटर ऑर क्रूसेडर?’ और विनोद राय की ‘नॉट जस्ट एन एकाउंटेंट’ पढ़ रहा हूँ। समय मिलने पर चालीस से पचास साल पुरानी हिन्दी फिल्मों के गाने सुनता हूँ, जिसमें प्रसिद्ध पार्श्व गायक मन्ना-डे साहब मेरे बहुत प्रिय है। मुझे इस बात का बहुत अफसोस है कि मैंने साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान नहीं दे पाया। जीवन के इस पड़ाव पर और कुछ विशेष योगदान दे पाने की कोई उम्मीद नहीं है। फिर भी मेरी चार पुस्तकें आने वाली हैं,जिसमें मेरी पूर्व प्रकाशित कहानियों का एक संकलन और आकाशवाणी द्वारा प्रसारित समसामयिक विषयों पर आधारित लघु-कथाओं का संकलन शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, दो-चार दैनिक अखबारों में साप्ताहिक और पाक्षिक नियमित स्तम्भ लिखने के लिए सोच रहा हूँ।
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