शंघाई में लु-शून की खोज
-दिनेश कुमार माली
सृजनगाथा
द्वारा चीन की राजधानी बीजिंग में आयोजित “अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन-2014” मेरे लिए न केवल एक सफल विदेश यात्रा रही,वरन देश के जाने-माने लेखकों,कवियों,प्रोफेसरों
तथा हिन्दी भाषा के आधिकारिक विद्वानों से जुडने के साथ-साथ विख्यात चीनी
साहित्यकारों के बारे में जानने,परखने,समझने
तथा तत्कालीन परिवेश में उनके रहने के यादगार स्थलों को देखने का मुझे सुअवसर
मिला। इस समारोह के उद्घाटन के दौरान उद्भ्रांत जी के अध्यक्षीय भाषण में जब चीन
के महान साहित्यकार लु.शून की तारीफ सुनी,उनके बारे में जानने की इच्छा जागृत हुई। उसी क्षण मैंने
इन्टरनेट पर लु.शून के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करना शुरू कर दिया। नेट पर
अँग्रेजी में प्राप्त जानकारी के अनुसार लु-शून का जन्म 25 सितम्बर 1881 को जेजियांग, चीन में हुआ था तथा मृत्यु 19 अक्टूबर 1936 में
पचपन साल की उम्र में शंघाई में हुई। वह एक अच्छे लेखक, निबंधकार व समालोचक थे, बचपन में उनके कई नाम थे जैसे जन्म का नाम “जोऊ जांगशोऊ", आदर से बुलाने वाला नाम “युशान” जो आगे जाकर ‘यूकाई’ में बदल गया।सन 1898 में
जिंगनान नेवल ऐकेडेमी ज्वाइन करने से पूर्व उनका नाम "शुरेन"था,
जिसका अर्थ था एक शिक्षित व्यक्ति बनना|
सन 1918
में जिस छद्म नाम से उनकी
पहली साहित्यिक कृति अंग्रेजी में प्रकाशित हुई थी, वह आगे जाकर सबसे ज्यादा लोकप्रिय नाम
सिद्ध हुआ‘लु-शून’।
लु-शून
के जन्म के समाज
‘जोऊ’ परिवार सदियों से एक समृद्ध परिवार था तथा
जमीन-जायदाद के व्यवसाय की वजह से वे लोग काफी धनाढ्य थे। यही ही नहीं, उनके परिवार के कई सरकारी उच्च पदों पर
पद-स्थापित थे। उनके दादाजी
‘जोऊ फुकिंग’ बीजिंग की इंपीरियल हानलिन एकेडेमी में
नियुक्त थे, जो
तत्कालीन नौकरशाहों के लिए एक सपना हुआ करता था। लु की प्रारम्भिक पढ़ाई कन्फूशियस
क्लासिक पर आधारित थी, जिसमें
उन्होंने कविता, इतिहास
व दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की, मगर
बाद में उन्हें यह न तो उपयोगी लगी और ना ही इसमें उनकी कोई खास दिलचस्पी रही।
जबकि उन्हें लोक-कथाओं, परम्पराओं,
स्थानीय ओपेरा, मिथकीय कहानियां और अपने एक अशिक्षित नौकर ‘आह चांग’ द्वारा सुनाई जाने वाली भूत की कहानियां
अच्छी लगती थी। लु के जन्म के साथ ही उनके परिवार की संपदा खत्म होना शुरू हो गई
थी। उनके पिता 'जोऊ बोई' कंट्री लेवल इंपीरियल एक्जामिनेशन में पास
हो गए थे,मगर प्रोविंसियल लेवल की प्रतिस्पर्धा परीक्षा पास करने में वह असफल रहे। सन 1893 में ‘जोऊ बोई’ परीक्षकों को रिश्वत देने के प्रयास में
पकड़े गए।| लु-शून के दादाजी पर
महाभियोग चला, उन्हें
गिरफ्तार कर लिया गया तथा अपने बेटे के द्वारा किए गए अपराधों की सजा के लिए सिर
कलम करने की सजा सुनाई गई। सजा बाद में कुछ कम कर हंगजाऊ में आजीवन कारावास में
बदल दी गई। इस कांड के बाद
‘जोऊ बोई’ को सरकार में अपनी स्थिति से कम कर दिया
गया तथा सिविल सर्विस परीक्षा में दुबारा प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जोऊ
परिवार ने अधिकारियों को भारी रिश्वत देकर लु के दादाजी को बचा लिया। सन 1901 में आखिरकार उन्हें जेल से छोड़ दिया गया।
यह
पढ़ते हुए मेरे मन में एक सवाल अवश्य उठा कि उस समय चीन में शिक्षा के क्षेत्र में
भ्रष्टाचार व्याप्त था और पकड़े जाने पर दी जाने वाली सजाएँ भी अत्यंत खतरनाक हुआ
करती थी। रिश्वत देने पर सिर कलम करने की सजा!इस क्षेत्र में समसामयिक भारत में
भ्रष्टाचार से अछूता नहीं था, अन्यथा
ओड़िया भाषा के तत्कालीन विख्यात लेखक फकीर मोहन सेनापति अपनी प्रारम्भिक कहानी 'रेवती' में स्कूल इंस्पेक्टर को मिलने वाली ऊपरी
कमाई का जिक्र न करते।उद्भ्रांत साहब उनसे क्यों प्रभावित थे, मुझे नहीं पता,मगर लु-शून के बारे में जानने की उत्सुकता
मेरी बढ़ती गई।मैंने अँग्रेजी विकीपीडिया को फिर आगे से पढ़ना शुरू किया।
अपने
परिवार की रिश्वतखोरी की बात पता चलने पर ‘जोऊ
बोई’ ने अफीम खाना तथा ज्यादा
शराब पीना शुरू कर दिया, जिसकी
वजह से उनका स्वास्थ्य दिन-ब-दिन गिरता चला गया।बहुत महंगी चिकित्सा करने के बावजूद भी वह बच न सके। सन 1896 में अस्थमा के दौरे से उनकी मृत्यु हो गई।
लु-शून ने एक बार सन
1896 में सिविल सर्विस की परीक्षा आधे मन से
दी। मगर तब तक उन्होंने कन्फूसियन पारंपरिक
शिक्षा का परित्याग कर दिया था। वह हांगजाऊ की प्रसिद्ध स्कूल "सिकिंग एफर्मेशन एकेडमी" में पढ़ना चाहते थे, मगर अपने परिवार की गरीब हालत देखकर
नानजिंग के जियांगनान नेवल एकेडेमी की ट्यूशन-फ्री मिलेट्ररी स्कूल में पढ़ना
मुनासिब समझा।| लु
के इस निर्णय से उसकी माँ रोने लगी, अपने परिवार के नाम को बदनामी से बचाने के लिए उसे अपना नाम
बदलने के निर्देश दिये गए। कुछ रिश्तेदार लोग तो उन्हें नीची दृष्टि से देखने लगे।|
लु ने जियांगनान नेवल एकेडेमी में आधे साल
रहे और उसके बाद यह पता चलने पर कि उन्हें डेक के नीचे इंजिन रूम में काम करना
पड़ेगा,उन्होंने एकेडेमी में
पढ़ाई करना छोड़ दिया।| इस
काम को वे अपने स्तर से नीचे का समझता थे।
बाद में उन्होंने लिखा कि
एकेडेमी की पढ़ाई की गुणवत्ता से वह असंतुष्ट थे। स्कूल छोड़ने के बाद, लु सिविल सर्विस के निम्न स्तरीय परीक्षा में
बैठे तथा 500 में से 137 वां
स्थान प्राप्त किया। वह अगली उच्च स्तरीय परीक्षा में बैठना चाहते थे, मगर अपने छोटे भाई की मृत्यु से दुखी होकर
अपना इरादा बदल दिया।
लु-शून का सरकारी स्कूल “स्कूल ऑफ माइन्स एंड रेलवे" में स्थानांतरण कर दिया गया, जहां से उन्होंने 1902 में
स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इस स्कूल में लु-शून को पाश्चात्य साहित्य दर्शन,
इतिहास, विज्ञान पड़ने का प्रथम अवसर प्राप्त हुआ,
वहाँ उन्होंने अंग्रेजी व जर्मनी का गहरा
अध्ययन किया। इस समाज के दौरान प्रभावशाली लेखकों में टी.एच॰हक्सले,जान स्टुअर्ट मिल, यान फू,लियांग क्चिओ प्रमुख थे। बाद में उनका
सामाजिक दर्शन व विचारधारा में जिन उपन्यासों की वजह से बदलाव आया, उनमें मुख्य ‘इवानहो’ तथा ‘अंकल टॉम केबिन’ हैं। स्नातक की पढ़ाई करने के बाद वह एक
पाश्चात्य चिकित्सक बनाना चाहते थे।
सन 1902
में कुइंग सरकार द्वारा
प्रदत्त छात्रवृत्ति के आधार पर पाश्चात्य मेडिसिन पर पढ़ाई करने के लिए वह जापान
गए। जापान पहुंचकर उन्होंने कोबुन इंस्टीट्यूट ज्वाइन की, जो जापानी विश्व-विद्यालयों में पढ़ने वाले
चीनी छात्रों के लिए प्रारम्भिक भाषा वाला विद्यालय था। जापान में उन्होंने प्रबल
एंटी-चाइनीज भावना का अनुभव किया, मगर
जापान में रहने वाले कुछ चीनी लोगों के व्यवहार से नाखुश थे। इस स्कूल में पढ़ाई के
दौरान उनके कुछ क्लासिकल चीनी भाषा में लिखे प्रारम्भिक आलेख प्रकाशित हुए।
उन्होंने पहले प्रसिद्ध पाश्चात्य उपन्यासों का चीनी
भाषा में अनुवाद किया।| जिसमें
जूल्स वर्ने की 'जर्नी टू मून’ तथा 'टवेंटी थाऊजेंड लीग अंडर द सी’ प्रमुख थी।सन 1904 में
लु ने नार्थ हांशू की सेंडाई मेडिकल एकेडेमी में पढ़ना शुरू किया, मगर यहां दो साल से ज्यादा टिक न सके।
उन्हें अच्छी तरह जापानी नहीं आने के कारण स्कूल की पढ़ाई कठिन लग रही थी। सेंडई
में पढ़ाई के दौरान प्रोफेसर
‘फुजीनों गेनकुरो’ से उनकी दोस्ती हो गई, जो उन्हें क्लास नोट बनने में मदद करते
थे। प्रोफेसर फुजीनो से दोस्ती के कारण उनके सहपाठी फुजीनों से मिलने वाली सहायता
का आरोप लगाते थे। लु अपने गुरु का अत्यंत आदर करते थे, डाउन ब्लासम एट ड्स्क में एक लेख में
उन्होंने इसका जिक्र किया। सन
1937 में उनकी मृत्यु पर लु के इस सम्मान को
फुजीनो ने शोक-संदेश में जाहिर किया था। अब सेंडई मेडिकल एकेडेमी होहोकू
विश्वविद्यालय की मेडिकल स्कूल हैं।|
लू जब मेडिकल स्कूल में पढ़ रहे थे,
रूस-जापान युद्ध (1904-1905) छिड़ गया था। युद्ध का कुछ हिस्सा विवादित चीन की भूमि पर लड़ा गया। जब युद्ध लड़ा जा
रहा था, तो अपनी कक्षाओं की
समाप्ति के बाद युद्ध की तस्वीरों का स्लाइड-शो दिखाना लेक्चररों के लिए यह आम बात
हो गई थी। एक बार अपनी एक बायलोजी कक्षा के अंत में लु को एक ऐसा दृश्य दिखाया गया,
जिसमें जापानी सैनिक एक चीनी आदमी का रूस
के लिए अवैध जासूसी
करने की सजा के तौर पर
सिर काट रहा था। अपनी लघु कहानी-संग्रह ‘नहान’ की प्रस्तावना में लिखा कि उस दृश्य ने
उन्हें किस तरह विचलित कर दिया कि उन्होंने वेस्टर्न मेडिसिन कि पढ़ाई छोड़ दी।उस
प्रस्तावना में उन्होंने लिखा, “ उस समय तक मुझे अपने किसी भी चीनी भाई को
देखे बहुत अर्सा हो गया था, मगर
एक दिन मुझे स्लाइड में दिखाया गया एक चीनी आदमी, जिसके हाथ पीछे से बंधे हुए थे, वह तस्वीर के बीचो-बीच था तथा चारों तरफ
से दूसरे लोगों ने घेर रखा था। वे लोग हट्टे-कट्टे लग रहे थे, मगर उनके चेहरे पर उभरी भाव-भंगिमाओं को
देखकर लगेगा कि वे आध्यात्मिकता के तौर पर शून्य थे। कैप्शन के अनुरूप, उस चीनी आदमी पर रूस के लिए जापानी
मिलिट्री की जासूसी करने का आरोप था।लोगों में भय फैलाने के लिए उसका गला काटा जा
रहा था। दूसरे चीनी लोग जो उसके चारों तरफ खड़े थे, इस दृश्य का मजा ले रहे थे।”
विकीपीडिया पर इतना पढ़ने के बाद मैं शून्य की ओर ताकने लगा। मेरी
आँखों में आँसू भर आए। मेरे सामने यू-ट्यूब के एक नृशंस वीडियो का दृश्य उभरने लगा,जिसमें एक निर्दोष अमेरिकन पत्रकार का
ड्रिल मशीन लिए एक तालिबानी गला काट रहा था,कुछ अरेबियन के मंत्र पढ़ते हुए।बहुत ही
खौफनाक दृश्य था वह ! उस पत्रकार के हाथ भी उसी चीनी आदमी की तरह पीछे से बंधे हुए
थे। मनुष्य कितना निर्दयी होता है! उस समय भी और आज भी। क्या ईश्वर की सृष्टि में
मानवता खत्म हो गई हैं? तरह-तरह
के विचार मेरे मन में कौंधने लगे। जहां भारतीय दर्शन "वसुधैव कुटुंबकम" की कल्पना करता है, जहां राम मनोहर लोहिया जैसे महान समाजवादी
चिंतक विश्व-भाषा,विश्व-नागरिकता
और विश्व-लोकसभा की कल्पना करते है। वहाँ उस समय और आज भी हमारे समाज में कुछ
तत्त्व ऐसे अवश्य रहे हैं,जो
समूची मानवता के लिए कलंक बनकर उभरे हैं। क्या उपनिवेशवाद विकास कहलाता हैं?
चीन और भारत दोनों स्वतंत्र होने के लिए
संघर्षरत थे।जापान,रूस,अमेरिका,ब्रिटेन अपनी कॉलोनियाँ बनाने में लगे हुए
थे। मन को स्थिर कर फिर से मैं लु-शून की ओर लौटा।
मार्च 1906 में लू-शुन ने अचानक कॉलेज छोड़ दिया। उस
समय उन्होंने किसी को कुछ नहीं बताया। टोक्यो में पहुंचकर उन्होंने यह निश्चिंत कर
लिया कि चीनी दूतावास उनकी छात्रवृत्ति नहीं रोकेगी,तो उन्होंने स्थानीय जर्मन इंस्टीट्यूट
में दाखिल ले लिया, मगर
वहां कक्षा में उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं थी। उन्होंने नीत्से को पढ़ना शुरू किया और उनके दर्शन से प्रभावित होकर उस दौरान
अनेक लेख लिखे।यह वही नीत्से थे,जिनके
बारे में मुझे प्रसिद्ध ओड़िया समीक्षक डॉ॰ प्रसन्न कुमार बराल ने कहा था कि विश्व
में छा रहे नैराश्यवाद के समय नीत्से की कविता "गॉड
इज डेड" बहुत लोकप्रिय हुई थी।मेरे अंतरमन ने
गवाही दी,अवश्य लु अनीश्वरवाद की
ओर अग्रसर हो रहे होंगे। उनके साथ गुजर रही परिस्थितियां उन्हें नास्तिक बना रही
होगी।
जून 1906 में
लु की मां ने अफवाह सुनी कि उन्होंने किसी जापानी लड़की से शादी कर ली हैं और उसके
बच्चे भी हैं, तो
अपनी बीमारी का बहाना बनाकर घर लौटने पर विवश कर दिया ताकि वह उसकी कई वर्ष पूर्व
किए अपने वायदे के अनुसार सुनियोजित शादी करवा सके। वह लड़की लु की तरह पढ़ी-लिखी
नहीं थी। लु-शून ने भले ही उसके साथ शादी कर ली, मगर उनके बीच कभी भी रोमांटिक संबंध नहीं
रहे। दोनों के बीच कभी भी प्यार नहीं रहा, मगर वे आजीवन उसकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहे। शादी के
कुछ दिनों बाद अपनी नई नवेली दुल्हन को छोड़कर लु अपने छोटे भाई ज्यूरेन के साथ फिर
से जापान चला गया।
वह जापान आने के बाद साहित्य और इतिहास की
अनौपचारिक पढ़ाई करना शुरू किया, विद्यार्थियों
द्वारा संपादित पत्रिकाओं में उनके कई निबंध प्रकाशित होने लगे। सन 1907 में उन्होंने कुछ रूसी साहित्य का भी
अध्ययन किया।उन्होंने अपने भाई के साथ मिलकर एक साहित्यिक पत्रिका ‘न्यू लाइफ’ चलाने का प्रयास किया, मगर उसके प्रथम प्रकाशन से पूर्व ही दूसरे
लेखकों तथा भामाशाहों ने इस परियोजना से हाथ पीछे खींच लिए और उनकी यह योजना असफल
रही। सन 1909 में लु ने पूर्वी यूरोप के फिक्शन का ‘टेल्स फार्म अब्रोड' के नाम से अनुवाद किया, जबकि 1500 मुद्रित
किताबों में से केवल
41 कापियाँ बिकी। इस पब्लिकेशन के असफल होने
के कई कारण थे, यह
किताब केवल टोक्यो
में बेची गई (जहां चीनी
आबादी बहुत कम थी)। चीनी पाठकों की पूर्वी यूरोपियन संस्कृति में कोई खास रुचि
नहीं थी।लू ने क्लासिकल चीनी भाषा में लेखन कार्य किया, जिसे आम आदमी के लिए पढ़ना बहुत ज्यादा
कठिन था।
1909 में
लु जर्मनी पढ़ना चाहते थे, मगर
उनके पास पर्याप्त धनराशि नहीं थी और बाध्य होकर उन्हें घर लौटना पड़ा।1909 से 1911
के बीच स्थानीय कॉलेज तथा
सैकेन्डरी स्कूलों में अध्यापन कार्य करने लगे, जिससे वह असंतुष्ट थे, मगर जापान में पढ़ रहे अपने भाई ज्यूरेन की
पढ़ाई में आंशिक सहयोग के लिए यह जरूरी था। लु ने अपना यह समय पारंपरिक चीनी
साहित्य की साधना में बिताया जैसे पुरानी किताबें इकट्ठी करना, चीनी गद्य पर अनुसंधान पुराने शिला-लेखों
की लिपि की पुनर्स्थापन तथा अपने मूल कस्बे, शाओक्सिंग के इतिहास का संपादन करना आदि।
लु-शून के इतिहास लेखन व सम्पादन की बात याद आते ही मेरे मानस-पटल पर केंद्रीय
साहित्य अकादमी से पुरस्कृत राजस्थान की विख्यात लेखिका डॉ॰विमला भण्डारी का चेहरा
उभरने लगा,जिन्होंने अपने मूल-निवास "सलूम्बर का इतिहास" लिखकर लु-शून की तरह साहित्यिक कार्य कर
ख्याति-लब्ध हुई। जहां आधुनिक लेखक इतिहास-लेखन को गौण-सृजन के क्षेत्र में लेते
हैं,वहाँ लु-शून और विमला
भण्डारी के उदाहरण इस अवधारणा को निरस्त करते हुए नजर आते हैं।
लु-शून
ने अपनी इन
गतिविधियों के बारे में
उल्लेख करते हुए अपने किसी पुराने मित्र को बताया कि यह कार्य किसी प्रकार की
छात्रवृत्ति पाने के लिए नहीं हैं, वरन ‘शराब और शबाब ' से बचने का उपाय हैं। अपने व्यक्तिगत
पत्रों में अपनी असफलता, चीन
की राजनैतिक अवस्था तथा अपने परिवार की खस्ता होती हालत पर निराशा व्यक्त की। सन 1911 में अपने भाई ‘ज्यूरेन’ को लाने के लिए वह जपान गए, ताकि ज्यूरेन परिवार की वित्तीय सहायता कर
सके। ज्यूरेन जपान में रहकर फ्रांसीसी सीखना चाहता था। मगर लु ने उसे कहा,
फ्रांसीसी से पेट नहीं भरेगा। उन्होंने
अपने दूसरे भाई जियानरेन को बाटनिस्ट
बनने के लिए प्रोत्साहित
किया। उन्होंने ज्यादा पीना शुरू किया।उनकी यह आदत जीवन के अंत तक चलती रही। सन 1911 में अपनी पहली कहानी ‘ नोश्लजिया’ लिखी, मगर उससे वह इतने निराश हुए कि खुद ने उसे
फेंक दिया। ज्यूरेन ने उसे बचा लिया और दो साल के बाद अपने नाम से प्रकाशित करवाया।
जिंहाई क्रांति के बाद फरवरी
1912 में कुइंग साम्राज्य का पतन हो गया और
चीनी गणतन्त्र की स्थापना हुई।लु को राष्ट्रीय शिक्षा मंत्रालय में स्थान मिला और
मंत्रालय के साथ बीजिंग चले गए,जहां
वह 1912 से 1926
तक रहे। शुरू में उनका
काम किताबों की पूरी तरह कापी करना था, मगर बाद में सोशियल एजुकेशन डिवीजन में विभागाध्यक्ष की नियुक्ति
मिल गई, जो तत्कालीन सहायक
सेक्रेटरी के समकक्ष थी।कार्यालय में उनकी मुख्य उपलब्धियां बीजिंग लाइब्रेरी के
विस्तार तथा जीर्णोद्वार, नेचुरल
हिस्ट्री मयूजियम की स्थापना तथा लोकप्रिय साहित्य के पुस्तकालय के निर्माण आदि थी।कियान डाओसुन तथा सु-शौसंग
के साथ मिलकर सन
1912 में ट्वेलव सिंबल नेशनल एमब्लेम की डिजाइन
में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।
सन 1912-1917 में वह एक सेंसरशिप कमेटी के सदस्य थे,
जो अनौपचारिक तौर पर बुद्ध सूत्रों का
अध्ययन कर रही थी। उन्होंने शाओक्सिंग के इतिहास पर एक किताब लिखी तथा टंग और सॉंग साम्राज्य की लोक-कथाओं का संग्रह
प्रकाशित किया, जी
कंग, पुराने कवि की रचनात्मकता
पर आधिकारिक पुस्तक प्रकाशित की।साथ ही साथ, चाइनीज गद्य पर लघु इतिहास भी लिखा। सन 1917 में लु के पुराने मित्र कियन क्षुयांटिंग
ने प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका के लिए लिखने का आग्रह किया, जिसकी चेन दुक्सिउया द्वारा स्थापना की गई
थी। शुरू-शुरू में लु को संदेह था कि उसका लेखन किसी सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति
में सहायक सिद्ध होगा, जिसके
बार में उन्होंने कियन से कहा,
“ एक ऐसे लोहे के घर की कल्पना करो, जिसमें न कोई दरवाजा हो और न कोई
खिड़की।पूरी तरह से बंद। उसमें सोने वाले सारे दम घुटकर मर जाएंगे।
उन्हें नींद की मौत मर जाने दो और उन्हें कुछ भी अनुभव नहीं होगा। क्या यह उचित
रहेगा कि कम गहरी नींद में सोए हुए लोगों को जगा दिया जाए ताकि मरने से पहले
उन्हें असहनीय यंत्रणा का अहसास हो सके?”
कियन ने उत्तर दिया,“ हाँ, क्योंकि अगर सोने वाले जगे हुए होंगे इस
आशा में, कि एक न एक दिन लोहे का
घर अवश्य टूटेगा।”
कुछ ही दिनों के बाद 1918 में
लु ने उस पत्रिका के लिए पहली लघु-कहानी 'डायरी
ऑफ मेडमेन' लिखी। ‘डायरी आंफ मेडमेन' प्रकाशित होने के बाद, यह कहानी भाषा,शैली,कथ्य,विचार और वर्णन की बेहतरीन क्षमता के लिए
सभी गैर-परंपरावादी रचनाकारों द्वारा सराही गई। लु को न्यू कल्चर मूवमेंट के
अग्रणी लेखकों में पहचान मिल गई। लु ने उस पत्रिका के लिए लिखना जारी रखा और 1917 से 1927
तक जब नवयुवकों के लिए
अपनी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध कहानियाँ प्रदान की। इन सारी कहानियों को संग्रहित कर
सन 1923 में ‘नहान'(चिल्लाहट) के नाम से पुनः प्रकाशन हुआ। उन्होंने 14 देशों के करीब 100 लेखकों की रचनाओं का अनुवाद
भी किया और अनुवाद के जरिए 25 लाख शब्द लिखे। इसके अलावा 10 से ज्यादा प्राचीन चीनी साहित्य का संकलन-संपादन किया और उसमें 10 लाख शब्द लिखे। प्राचीन
साहित्य के इस संकलन से पता चलता है कि अपने देश की सांस्कृतिक विरासत का कितना
गंभीर अनुशीलन उन्होंने किया था। लु शून ने अतीत की समृद्धि और वैभव को ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य में ग्रहण किया। ब्रोंज व काष्ठ कला को उन्होंने पुनर्जीवित किया।
पत्रिकाएं निकालीं। इन्हीं सब के कारण वे चीनी साहित्य में नवजागरण ला सके। चीनी
साहित्य की महान परंपरा के उस सच्चे उत्तराधिकारी ने जीवन में भी जागरण की राह
दिखाई।
सन 1919 में
लु अपने परिवार को शाओक्सिंग से बीजिंग ले गए, जहां वह अपनी माँ, अपने दोनों भाई तथा उनकी जापानी पत्नियों
के साथ रहने लगे। सन 1923
तक वे सब साथ रहे,
जहां उनकी अपने भाई ज्यूरेन के साथ खटपट
हो गई। उसके बाद ज्यूरेन अपनी पत्नी और मां को लेकर कहीं और चला गया। न तो लु ने
और ना ही ज्यूरेन ने इस बारे मेँ किसी को कुछ भी बताया, मगर बाद मेँ ज्यूरेन की पत्नी ने लु पर ‘सेक्सुअल एडवांस’ के आक्षेप लगाए। कुछ लेखकों ने उनके
बिगड़ते संबंधों का कारण धन-संपत्ति संबंधी मुद्दों को ठहराया, तो किसी ने कहा कि ज्यूरेन की पत्नी के
नहाते समय लु उसके बाथरूम मेँ चले गए थे, तो किसी ने कहा कि जापान मेँ ज्यूरेन की पत्नी के साथ लु के अवैध
संबंध थे, जिनकी जानकारी ज्यूरेन को
बाद मेँ पता चली। सन
1920 मेँ लु ने विभिन्न कालेजों मेँ पार्ट टाइम
लेक्चर देने शुरू किए, जिसमें
पीकिंग यूनिवर्सिटी तथा बीजिंग विमेन्स कालेज शामिल थे। उनके ये नोट्स बाद मेँ
संग्रहीत कर लिए गए तथा
‘ब्रीफ़ हिस्ट्री आफ़ चाइनीज फिक्शन' मेँ प्रकाशित हुए। उनके लिए पार्ट टाइम
काम करना संभव था, क्योंकि
एजुकेशन मिनिस्ट्री मेँ उन्हें सप्ताह मेँ केवल तीन दिन के लिए तीन घंटे प्रतिदिन
के हिसाब से काम करना पड़ता था। सन
1923 मेँ रिक्शा दुर्घटना मेँ उनके आगे के दांत
टूट गए और 1924 मेँ उन्हें (ट्यूबरकुलोसिस )के लक्षण नजर
आने लगे।सन 1925 मेँ उन्होंने एक पत्रिका ‘विल्डरनेस' शुरू की तथा नवोदित लेखकों को आधार देने
एवं विदेशी साहित्य का चीनी भाषा मेँ अनुवाद के लिए प्रोत्साहित करने हेतु ‘बीजिंग सोसायटी’ की स्थापना की।
सन 1925 मेँ
लु का बीजिंग विमेन्स कालेज की छात्रा शू गुयांपिंग के साथ पहली बार रोमांटिक
संबंध शुरू हुआ। सन
1926 मेँ जापानी सहयोग के लिए फेंग यूक्सियांग
के खिलाफ बड़ी तादाद मेँ प्रदर्शन हुए। वे प्रदर्शन नरसंहार मेँ तब्दील हो गए,
जिसमें बीजिंग विमेन्स कॉलेज के दो
छात्राएँ मारी गई, जो
लु की छात्राएँ थी।
समर्थकों के लिए लु के
पब्लिक सपोर्ट ने उन्हें स्थानीय अथॉरिटी से भागने के लिए विवश किया।बाद मेँ 1926 मेँ ज़्हांग जओलिन और वू पेफू के
सैन्य-दलों ने बीजिंग पर आधिपत्य जमा लिया तो लु नर्दन चीन छोड़कर जियामेन चले गए।
जियामेन
आने के बाद उन्होंने जियामेन यूनिवर्सिटी मेँ पढ़ाना शुरू किया, मगर यूनिवर्सिटी की फेकल्टी द्वारा छोटी-छोटी
चीजों पर असहमति एवं अमित्रता के कारण वह निराश हुए। जियामेन में कुछ समय रहने के
दौरान, लु ने अपना अंतिम
कहानी-संग्रह 'ओल्ड टेल्स रिटोल्ड’ लिखा (जो कि कई सालों बाद तक प्रकाशित
नहीं हो सका)।उनकी आत्म-जीवनी अधिकांश ‘मोर्निग
ब्लास्म प्लक्ड एट डस्क’ में
प्रकाशित हुई। उन्होंने एक कविता संग्रह ‘वाइल्ड
ग्रास' भी
लिखा।
जनवरी 1927 में वह और शू गुयांपिंग गुयांगझाऊ चले गए,
जहां झनगिहान यूनिवर्सिटी के चीनी-साहित्य
में विभागाध्यक्ष के बतौर काम करने लगे। अब वह शू को निजी सहायक बनाने और जापान
में रहे अपने पुराने सहपाठी शौषंग को बतौर लेक्चर रखने की स्थिति में आ गए थे।
गुयांगझाऊ में रहते समय उन्होंने
कई कविताओं तथा किताबों
का प्रकाशनार्थ संपादन किया तथा व्हाम्पा अकादमी में अतिथि लेक्चर का काम करने
लगे।उन्होंने अपने विद्यार्थियों के माध्यम से कुओमिन्तांग तथा चाइनीज कम्युनिस्ट
पार्टी के बीच संबंध स्थापित किए। अप्रैल 1927
में शंघाई नरसंहार के बाद
यूनिवर्सिटी के माध्यम से अपने कई विद्यार्थियों को
रिलीज कराने का प्रयास किया, मगर
वह असफल रहे।अपने विद्यार्थियों को बचाने में असफल रहने के कारण यूनिवर्सिटी से
उन्होंने त्याग पत्र देकर सितम्बर
1927 में विदेश समझौते के लिए शंघाई चले गए।
गुयांगझाऊ छोड़ते समय, वह
चीन के मुख्य प्रबुद्ध लोगों में से एक थे।
उनकी कहानी ‘ए ट्रू स्टोरी ऑफ आ क्यू' का अंग्रेजी अनुवाद खराब होने के बावजूद
भी सन 1927
में लु का नाम साहित्य
में नोबल पुरस्कार के लिए चुना गया,मगर
लु ने नॉमिनेशन स्वीकार करने की संभावना से
इंकार कर दिया। उसके बाद उन्होंने चीन की बिगड़ती राजनैतिक अवस्था तथा अपनी कमजोर
इमोशनल अवस्था को देखकर गद्य या पद्य लिखना बंद कर दिया और अपने आपको केवल विमर्श
निबंध लिखने तक सीमित रखा।
सन 1929 में
वह अपनी मरणासन्न माँ को देखने गए और गुयांपिंग के गर्भवती होने की खबर सुनकर वह
बहुत खुश हुई।29 सितम्बर 1929 को
गुयांपिंग ने बेटे हाइयिंग को जन्म दिया। बच्चे के नाम का अर्थ था, ‘शंघाई इफेक्ट’। माता–पिता का सोचना था कि आगे जाकर बेटा अपना
नाम बदल देगा, मगर
ऐसा कभी नहीं हुआ। हाइयिंग लु-शुन की इकलौती संतान थी।| शंघाई जाने के बाद, लू ने अपने सारे नियमित अध्यापन कार्य से
इंकार कर दिया और पहली बार प्रोफेशनल लेखक के रूप में मासिक 500 युआन
के वेतन पर अपना भरण-पोषण करने लगे। नेशनल मिनिस्ट्री आफ़ हायर एजुकेशन में उन्हें
सरकार द्वारा ‘विशेष लेखक’ के रूप में नियुक्त किया गया, जिससे उन्हें अतिरिक्त 300 युआन प्रति माह मिलने लगे। उन्होंने
मार्क्सवादी राजनैतिक थ्योरी पर अध्ययन करना शुरू किया और स्थानीय कम्युनिस्ट
पार्टी के सदस्यों से संपर्क स्थापित कर शहर के दूसरे वामपंथी लेखकों से साहित्यिक
युद्ध करने लगे। सन
1930 में ‘ लीग आफ़ लेफ्ट-विंग राइटर्स के सह-संस्थापक
बने, मगर जैसे ही वह शंघाई चले
गए दूसरे वामपंथी लेखकों ने
“ एन एविल फ़ेउडल रेमनेंट","द बेस्ट स्पोकमेन ऑफ बरगोइस","ए काउंटर रिवोलुशनरी स्पिलट पर्सनलिटी”
कहकर आरोप लगाने लगे।
जनवरी 1931 में कुओमिन्तांग ने लेखकों के लिए नया
कठोर सेंसरशिप कानून पास किया, जिनका
साहित्य अगर पब्लिक को खतरे में डालने तथा पब्लिक ऑर्डर में व्यवधान पैदा करने वाला होगा,तो उन्हें आजीवन कारावास अथवा फांसी दे दी
जाएगी। उस महीने के बाद वह छुपने लगे। एक महीना भी नहीं बिता होगा, फरवरी की शुरूआत में कुओमिन्तांग ने चौबीस
स्थानीय लेखकों को इस कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किया, जिसमें से पाँच लीग से संबंध रखते थे। "24 लोंघुया शहादत" के बाद लु के राजनैतिक विचार पूरी तरह से
एंटी- कुओमिन्तांग हो गए। सन
1933 में लु की मुलाकात एडगर स्नो से हो गई।
स्नो ने लु से पूछा कि चीन में कोई आ क्यू बचा हैं? लु ने उत्तर दिया, "अब तो और ज्यादा बदतर स्थिति हैं | अब तो आ क्यू देश चला रहे हैं,"
यद्यपि
उन्होंने गद्य लिखना वर्षों पूर्व छोड़ दिया था, मगर 1934 में
अपना अंतिम कहानी संग्रह
“ओल्ड टेल्स रिटोल्ड”
प्रकाशित करवाया। सन 1935 में
शांकसी में कम्यूनिस्ट ताकतों को बधाई-तार भेजा, अपने लांग मार्च पूरा होने उपलक्ष में।
कम्यूनिस्ट पार्टी ने उनसे अनुरोध किया कि वह ग्रामीण चीन में कम्यूनिस्ट क्रांति
के ऊपर एक उपन्यास लिखें, मगर
उन्होंने मना कर दिया
, यह कहते हुए कि उन्हें
विषय वस्तु व पृष्ठभूमि की जानकारी बिलकुल नहीं हैं।
चेन-स्मोकर
होने के कारण उनका स्वास्थ्य दिन-ब-दिन गिरता जा रहा था। 1936 तक उनका तपेदिक क्रोनिक हो गया था और उस
साल के मार्च में उन्हें बुखार अवस्था के दौरे पड़ने शुरू हुए। जिसके इलाज के लिए
फेफडों में छेदकर
300 ग्राम द्रव निकाला
गया।जून और अगस्त में वह फिर से बीमार पड़ गए। जैसे ही थोड़े-बहुत ठीक हुए तो
उन्होंने मृत्यु पर दो निबंध लिखे। जिसमें “द
देथ” और “दिस टू इज लाइफ” शामिल हैं। अपनी मौत से एक महीने पहले
उन्होंने लिखा “
जल्दी से जल्दी मेरा अन्त्येष्टि कर्म कर
लिया जाए,किसी भी प्रकार की स्मारक सेवाओं का
प्रदर्शन न किया जाए। मुझे भूल जाएं और अपने खुद के जीवन का ध्यान रखें- अगर आप
ध्यान नहीं रखते हैं तो आप मूर्ख हैं।” अपने बेटे के लिए उन्होंने लिखा कि किसी भी कीमत उसे ‘गुड फार नथिंग’ लेखक या कलाकार न बनने दिया जाए।
18 अक्टूबर
को सुबह साढ़े तीन बजे सांस लेने में कठिनाई की वजह से उनकी नींद टूटी। ड़ा सूड़ो को
बुलाया गया और लु-शून को दर्द से राहत देने के लिए इंजेक्शन लगाया गए। उनकी पत्नी
सारी रात उनके साथ थी, मगर
अगली रात 5.11 बजे उनकी नब्ज ढीली पड़ गई।लु-शून हमेशा के
लिए हमसे से विदा हो गए। लु-शून के अवशेष शंघाई के लु-शून पार्क में रखे गए
हैं।उनके मकबरे पर बाद में माओ जेडोंग ने केलिग्राफिक इन्स्क्रिप्सन बना दिया।
उन्हें मरणोपरांत चार मई के आंदोलन में अपनी भूमिका के कारण कम्यूनिस्ट पार्टी का
सदस्य बना दिया गया।लु-शून और राम मनोहर लोहिया के व्यक्तित्वों की मैं मन ही मन
तुलना करने लगा। लोहिया की तरह
लु शून
शोषणहीन विश्व की कामना रखते थे। बंगाल में जो शोषणहीन समाज के प्रवक्ता हैं, उन्होंने लु शून से क्या कोई
प्रेरणा ग्रहण की है? जनता से कटे हुए लोग क्या लु शून से प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं? सिंगुर और नंदीग्राम में आम
जनता को छलने वाले छद्म वामपंथी क्या लु शून का तात्पर्य समझ सकते हैं? लू शून से माओ-त्से-तुंग ने
प्रेरणा ग्रहण की थी। माओ आजीवन लू शून के प्रशंसक रहे। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी भी
उनसे प्रेरणा ग्रहण करती रही। मुझे लगता है कि लु शून का एक मतलब प्रखर विवेक और
दायित्व-बोध है। अकेले लु शून कई प्रश्नों के उत्तर हैं। लु शून सदा जनोन्मुख रहते
थे और तभी समस्याओं की तह में जाकर उसका समाधान ढूंढ़ते थे। जनांदोलनों व लेखकों
के लिए वे सदैव प्रेरणा-स्रोत बने रहेंगे। लु शून उन बिरले सर्जकों में थे, जिनके सर्जन और जीवन-यापन में
रत्तीभर भी अंतर नहीं था। उनका जो जीवन था, वही साहित्य था। लेखक लिखे कुछ और जीवन में दिखे कुछ, वैसे लोग लु शून से क्या
प्रेरणा लेंगे?
लु शून का
विश्वास था कि संग्राम कभी खत्म नहीं होता। इसी विश्वास के साथ उन्होंने जीवन के
अंतिम क्षण तक काम किया था।राजनीतिक
क्षेत्रों में जो परिवर्तन हुए उनसे नैतिकता के मापदंड ही बदल गए, जीवन की गति तीव्र हो गई और जीवन में अधिक
पेचीदगी और जटिलता आ गई। इसी समय से चीनी साहित्य में एक प्रगतिशील यथार्थवादी
धारा का जन्म हुआ जिससे चीन के तरुण लेखकों को नया साहित्य सर्जन करने की प्रेरणा
मिली।
लु-शून
की मृत्यु के तुरंत उपरांत माओ जेडोंग ने उन्हें “आधुनिक चीन का संत" कहा,मगर शायद अपनी राजनैतिक-महत्त्वाकांक्षा
की पूर्ति के लिए। जबकि
1942 में बिना किसी संदर्भ के श्रोताओं के
सामने लु को “विलिंग ऑक्स" नाम से संबोधित किया, मगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहने वाले
लेखकों व कलाकारों से कहा कि उन्हें लु-शून बनने की जरूरत नहीं हैं। सन 1949 में पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चीन की स्थापना के
बाद , कम्यूनिस्ट पार्टी के पढ़े-लिखे विद्वानों
ने उनके कार्य को कम्यूनिस्ट साहित्य की रूढ़िवादिता का नाम दिया, यहां तक 1930 से
लु के नजदीकी शिष्यों ने भी इसे स्वीकार किया।माओ ने कहा, अगर लु 1950 तक
जीवित रहते तो वह शायद या तो नीरव हो जाते या फिर जेल चले जाते।
पार्टी
के नेताओं ने उन्हें कम्यूनिस्ट भविष्य का ब्लू-प्रिंट बताया और माओ जेडोंग ने
उन्हें चीन की सांस्कृतिक-क्रांति के चीफ-कमांडर के रूप में परिभाषित किया,
जबकि लू ने पार्टी जॉइन नहीं की थी। सन 1920 तथा 1930 के
मध्य लु-शून और उनके समकालीन अनौपचारिक स्तर पर बौद्धिक विमर्श के लिए मिलते रहते
थे, मगर सन 1949 में पीपल्स रिपब्लिक की स्थापना के बाद
पार्टी ने चीन में प्रबुद्ध लोगों पर ज्यादा नियंत्रण करना चाहा और इस तरह की
बौद्धिक स्वतंत्रता दबाई जाने लगी, वह
भी अक्सर हिंसात्मक तरीकों से। अंत में, लु-शून की तरह व्यंग्यात्मक लेखन शैली का मज़ाक उड़ाया जाने लगा और
उसके बाद तो लगभग खत्म कर दी गई। माओ ने लिखा,“ निबंध शैली लु-शून की तरह सीधे तौर पर
नहीं होनी चाहिए। कम्यूनिस्ट सोसायटी में हम ज़ोर से चिल्ला सकते हैं , मगर इधर-उधर पर्दे के पीछे होने की जरूरत
नहीं हैं, जिसे लोग समझ न सके।”
सांस्कृतिक क्रांति के दौरान कम्यूनिस्ट
पार्टी ने लु-शून को चीन में कम्यूनिज्म का पिता बताया, मगर विडंबना इस बात की थी उनकी लेखन-शैली
तथा बौद्धिक संस्कृति का दमन किया गया।उनके कुछ लेख चीन की प्राथमिक और माध्यमिक
स्कूलों में आवश्यक अंग के रूप में पढ़ाए जाते हैं, मगर 2007 में
उनके कुछ ब्लिकर कार्य स्कूल की किताबों से हटा दिए गए। जूलिया लवेला, जिसने लु-शून की रचनाओं का अनुवाद किया,
का अनुमान हैं ," शायद यह लु-शून की गलतियाँ निकालने की
असंगत आदतों से नई पीढ़ी को बचाने के लिए किया गया एक प्रयास हैं।”
लु
ने खासकर रूसी साहित्य का अनुवाद किया। विशेषकर वह निकोलाइ गूगोल के प्रशंसक थे और
उन्होंने उनकी पुस्तक
'डेड साउल्स' का अनुवाद किया।गूगोल की इस किताब के नाम
से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी पहली कहानी का शीर्षक'डायरी आफ मेडमेन’ दिया। वामपंथी लेखक होने के कारण लु की
आधुनिक चीनी-साहित्य के विकास में अहम भूमिका रही। चीन में और अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर उनकी किताबों अपने जमाने में और आज भी उतनी ही प्रभावशाली व लोकप्रिय हैं। चीन
और जापान दोनों में उनके काम हाई
स्कूल की किताबों में
देखने को मिलता हैं। जापान में उन्हें रोजीन नाम से पुकारा जाता हैं।वामपंथी
विचारधारा और परवर्ती चीन में पीपल्स रिपब्लिक के इतिहास में उनके कार्यों की अहम
भूमिका के कारण लु-शून के साहित्य पर सन 1980
तक बैन लगा रहा।चीन में
एस्पेरंटो आंदोलन के प्रारम्भिक समर्थकों में वह एक थे।
आधुनिक
चीनी साहित्य में लु-शून का महत्त्व इस बात को दर्शाता हैं कि उन्होंने अपने जीवन
में हर साहित्यिक माध्यमों में अपना सार्थक योगदान दिया। कहानी,कविता,निबंध से स्पष्ट व धाराप्रवाह शैली में
लिखने के कारण वह कई पीढ़ियों को प्रभावित करते रहेंगें।लु-शून के दो कालजयी
कहानी-संग्रह ‘नहान’ और 'पेंग-हुआंग'को आधुनिक चीनी साहित्य की शुरूआत मानी
जाती हैं।जब पाश्चात्य साहित्य बहुत कम पढ़ा जाता था, उस समय लु-शून के अनुवाद बहुत
महत्त्वपूर्ण थे।उनकी साहित्यिक आलोचना बहुत ही सूक्ष्म होती थी, जिन पर काफी बहस होती थी। चीन के बाहर भी
लु-शून के कार्य ने ध्यानाकृष्ट किया। सन 1986
में फेडरिक जेमसन ने उनकी ‘मेडमेन डायरी' को
नेशनल एलेगरी का सबसे
उत्कृष्ट उदाहरण माना। ग्लोरीया डेविज लु-शून की तुलना नीत्से से करती हैं,
यह कहते हुए कि दोनों आधुनिकता के निर्माण
में लगे हुए थे जो कि मूलतः समस्याओं से घिरा हुआ कार्य था। लियोनार्डो विट्टोरिओ
अरेना के अनुसार लु-शून नीत्से के प्रति एक भ्रामक दृष्टिकोण पैदा करते हैं,
जो आकर्षण और प्रतिकर्षण का सम्मिश्रण थे,
शैली और कथ्य में अधिकता के कारण।उनके
सम्मान में चीन का बड़ा साहित्यिक पुरस्कार उनके नाम से दिया जाता हैं। उल्कापिंड (233547)
2007jr 27 का नामकरण उनके नाम पर किया गया।बुध पर
ज्वालामुखी का नामकरण भी लु-शून रखा गया। कलाकार शी लू ने अपनी पेन के आधे भाग का
नाम लु-शून रखकर अपनी श्रद्धा का प्रदर्शन किया।
लु-शून
सभी विधाओं पर लिखते थे। उन्होंने चीन के पारंपरिक प्रतिबिंबों तथा उन्नीसवीं सदी
के यूरोपियन साहित्यिक तरीकों को अपनाया।उनकी शैली को
दो व्यापक शब्दों में अलग-अलग समय
"सिम्पेथेटिक एंगेजमेंट" तथा
"आयरनिक डिटेचमेंट" के रूप में देखा जा सकता हैं।उनके निबंध
अधिकांश सामाजिक जीवन पर कटाक्ष थे और उनकी कहानियां लोक-भाषा और स्वर के कारण कुछ
साहित्यिक कृतियों (जैसे-द ट्रू स्टोरी आफ आ क्यू) का अनुवाद करना जटिल हैं। उनमें
कहानी के पात्रों की आलोचना और सहानुभूति के बीच महीन रेखा होती हैं। लु-शून व्यंग
में सिद्ध-हस्त थे (जो उनकी कहानी
“ द ट्रू स्टोरी आफ आ क्यू" में देखा जा सकता हैं।) और यहाँ तक कि
साधारण घटनाओं को भी प्रभावशाली तरीके से लिख सकते थे,जैसे माई ओल्ड होम, ए लिटिल इंसिडेंट आदि। चीन के गोर्की कहे
जानेवाले लु शून (1881-1936) आधुनिक चीनी साहित्य में मौलिक कहानियों के जन्मदाता कहे जाते
हैं। अपनी लेखनी द्वारा उन्होंने सामंती समाज पर करारे प्रहार किए हैं। कला और
जीवन का वे घनिष्ठ संबंध स्वीकार करते हैं। लु शून समाज के नग्न और वीभत्स चित्रण
से ही संतोष नहीं कर लेते बल्कि समाजवादी यथार्थता के ऊपर आधारित जीवन के वास्तविक
लेकिन आस्थागत चित्र भी उन्होंने प्रस्तुत किए हैं। "साबुन
की टिकिया" कहानी में पितृभक्ति की परंपरागत भावना पर
तीव्र प्रहार किया गया है।
"आह क्यू की सच्ची कहानी" लु शुन की दूसरी श्रेष्ठ कृति है जिसमें
अपनी "लाज"
को बचाने की हीन
मनोवृत्ति पर करारा व्यंग्य है।
"मनुष्य-द्वेषी" कहानी में बुद्धिजीवियों के स्वप्नों पर
कठोर आघात है। "मेरा पुराना घर" और
"नए वर्ष का बलिदान" कहानियों में ग्रामीण किसानों का
हृदयविदारक चित्रण है। अनेक महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक निबंध भी लु शून ने लिखे हैं।
माओ जेडोंग उन्हें चीन का सबसे ज्यादा प्रभावशाली लेखक मानते
हैं। वह मई फोर्थ मूवमेंट से जुड़े थे।उन्होंने चीन की सामाजिक समस्याओं की कड़ी
आलोचना की, खासकर 'चाइनीज नेशनल करेक्टर' में अपना विश्लेषण प्रस्तुत करते समय।
कभी-कभी उन्हें ‘आम मानवता का चैंपियन ' भी कहा जाता हैं। लु-शून ने अनुभव किया कि
सन 1911 में जिंहाई क्रांति असफल रही। 1925 में उनकी सलाह थी, "मैं अनुभव करता हूँ रिपब्लिक ऑफ चीन का
अस्तित्व खत्म हो गया हैं
| मैं अनुभव करता हूँ,
क्रांति से पहले, मैं एक गुलाम था, मगर क्रांति के तुरंत बाद,मुझे गुलामों द्वारा धोखा दिया गया और मैं
उनका गुलाम बन गया।”
राजनीति
के बारे जानकारी नहीं होने के कारण सन 1927
में वह इस निष्कर्ष पर
पहुंचे कि केवल ‘क्रांतिकारी साहित्य’ रेडिकल परिवर्तन नहीं ला सकता। बल्कि बलपूर्वक क्रांति के
नेतृत्व के लिए किसी क्रांतिकारी आदमी की जरूरत होती हैं।अंत में,उन्हें चीन की नई नेशनलिस्ट गवर्नमेंट से
बहुत ज्यादा निराशा महसूस हुई, जिसे
वह अप्रभावशाली और यहां तक कि चीन के लिए घातक समझते थे।
उनके
व्याख्यान "व्हाट हेपन्स आफ्टर नीरा लिव्स होम?",“
ए ब्रीक हिस्ट्री आफ चाइनीज फिक्शन" प्रसिद्ध हैं और उनकी विख्यात कहानियाँ ‘रिटर्न टू द पास्ट’(1909),‘कॉल टू आर्म्स'(1922),‘ए मेड्मेन डायरी’ (1918),‘कांग्यीजी1919),‘मेडिसिन’ (1919) ,‘टुमारो, (1920),‘एन इंसिडेंट ‘ (1920),‘द स्टोरी ऑफ हेयर’(1920),‘स्टार्म इन टी कप’ (1920),‘होम टाऊन;(1921),“द ट्रू स्टोरी ऑफ एएचक्यू ”(1921),“द डबल फिफ्थ फेस्टिवल’(1927),‘द व्हाइट लाइट' (1922),‘द कामेडी ऑफ द उक्स' (1922),'द रेबीट एंड द केट्स ' (1922),‘विलेज आपेरा ‘ (1922) ,वांडरिंग,न्यू ईयर सेक्रीफाइज (1924),इन द ड्रिंकिंग हाउस (1924),ए हैपी फेमिली (1924) ,सोप (1924),द इटनरल फ्लेम (1924) ,‘पब्लिक एक्जिबिशन (1925),‘ओल्ड मि. गाओ ‘(1925),‘द मिसएन्थोप ‘ (1925),सेड़नेस,बद्रस,डायवर्स (1927),‘ओल्ड टेल्स रिटोल्ड्स ‘(1935),‘द फ्लाइट टू द मून ‘ (1926),‘फवीग द फ्लड़’ (1935),गेदरिंग वेच’ (1935),‘फर्जिंग द स्वोर्ड'(1926) ,‘गोइंग आऊट' (1935),‘अपोजिंग एग्रेसन ‘(1934),रिसरेक्ट ड़ डेड ‘(1935) आदि हैं। उनके निबंध ‘माय न्यूज ऑन चेस्टटी’(1918),व्हाट इज रिक्वाइर्ड टू बी ए फादर टुडे(1919),नॉलेज इज ए क्राइम(1919),माई मूस्टेच(1924),थॉट बिफोर द मिरर(1925),ऑन डिफरिंग फेयर प्ले(1925) बहु-चर्चित रहे तथा उनकी कहानी-संग्रहों‘काल टू द आर्म्स (नहान)’(1923),वांडरिंग (पाँग हुआंग)(1925),ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ चाइनीज फिक्शन (1925),ओल्ड टेल्स रिटोल्ड (1935),वाइल्ड ग्रास (1927),डाऊन ब्लोस्मस प्लक्ड एट डस्क (1932)
का विश्व की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद
हुआ हैं।
लु-शून की कृतियों से अंग्रेजी पाठकों का
सन 1926 में शंघाई में ‘ए ट्रू स्टोरी ऑफ आ क्यू" (जार्ज किंग लेउंग द्वारा अनूदित )
प्रकाशित होने पर परिचय हुआ और व्यापक प्रचार सन 1936 की शुरूआत में एडगर स्नो तथा नीम वेल्स
द्वारा संपादित संग्रह
‘लिविंग चाइना’,‘माडर्न चाइनीज शार्ट स्टोरीज’ प्रकाशित होने पर हुआ। पहले संग्रह में
लु-शून की सात कहानियां तथा स्नो की लु-शून के साथ वार्तालाप पर आधारित बायोग्राफी
थी। यद्यपि ये उनकी कृतियों का पूरा अनुवाद
नहीं था,जब तक कि उनकी कृतियों के
चार भाग प्रकाशित न हो गए, जिसमें
यंग हसिएन यी और ग्लेड़ी यांग के अनुवाद सलेक्टेड स्टोरीज ऑफ लु-शून शामिल हैं।
दूसरा पूर्ण चयन था–विलियम
ए॰ल्येल (डायरी ऑफ मेडमेन एंड अदर स्टोरीज़) (यूनिवर्सिटी ऑफ हवाई प्रैस ,1990)।सन 2009 में पैंगविन क्लासिक्स ने उनके गद्य का जूलिया लोवेला द्वारा पूरा अनुवाद
प्रकाशित किया। ‘द रियल स्टोरी ऑफ आ क्यू एंड अदर टेल्स ऑफ
चाइना: द कंप्लीट फिक्शन ऑफ लु-शून’,’द लिरिकल लू-शुन: ए स्टोरी ऑफ हिज क्लासिकल स्टायल वर्स(जॉन
यूजिन वॉन कोवालिस)तथा कैप्चरिंग चाइनीज:शार्ट स्टोरीज़ फ्राम लु-शून नाहन(केविन
नाडोलनी द्वारा संपादित) इत्यादि उनकी अँग्रेजी में अनूदित कृतियाँ हैं।
नोबेल
साहित्यकार केंज़बूरू लु-शून के बारे में लिखते हैं:-“ एशिया ने बीसवीं सदी में एक महानतम लेखक
को जन्म दिया।”
No comments:
Post a Comment