Thursday, January 22, 2015

“भारतीय भाषाओं के माध्यम से डिजिटल साक्षरता को बढ़ना जरूरी है” – डॉ. सी. जय शंकर बाबु

भारतीय भाषाओं के माध्यम से डिजिटल साक्षरता को बढ़ना जरूरी है – डॉ. सी. जय शंकर बाबु

नराकास, तिरुच्ची की सूचना प्रौद्योगिकी कार्यशाला आयोजित





    
उद्घाटन के अवसर पर मंच पर बाएं से डॉ. सी. जय शंकर बाबु (पांडिच्चेरी विश्वविद्यालय के सहायक आचार्य), श्रीमती मंजुला रंगराजन, मंडल रेल प्रबंधक एवं अध्यक्ष, नराकास, तिरुच्ची, इंडियन ओवरसीज़ बैंक के मुख्य क्षेत्रीय प्रबंधक एस. नरसिंहन और केनरा बैंक तिरुच्ची अंचल के उप महाप्रबंधक जी. राजेंद्रन विराजमान हैं ।




नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, तिरुच्चिरापल्ली की ओर से दो दिवसीय सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी व बहुभाषायी कंप्यूटिंग कार्यशाला का आयोजन तिरुच्ची में जनवरी 21 एवं 22 को किया गया ।  कार्यशाला का उद्घाटन तिरुच्ची, नराकास की अध्यक्ष श्रीमती मंजुला रंगराजन, मंडल रेल प्रबंधक, तिरुच्ची ने दीप प्रज्वलन के साथ     किया ।  तदवसर पर केनरा बैंक तिरुच्ची अंचल के उप महाप्रबंधक जी. राजेंद्रन, इंडियन ओवरसीज़ बैंक के मुख्य क्षेत्रीय प्रबंधक एस. नरसिंहन, पांडिच्चेरी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के सहायक आचार्य डॉ. सी. जय शंकर बाबु उपस्थित थे ।
      
श्रीमती मंजुला रंगराजन ने अपने उद्घाटन भाषण में कहा कि राजभाषा के रूप में हिंदी का कार्यान्वयन करना हमारा दायित्व है ।  सरकारी पदधारियों को चाहिए कि वे ज़रूरत के अनुसार अपना कामकाज हिंदी में करने के साथ-साथ आवश्यकतानुसार बोलचाल में भी हिंदी का प्रयोग करें ।  कंप्यूटर में कुशलता हासिल करने के साथ-साथ कंप्यूटर के माध्यम से सफलतापूर्वक राजभाषा प्रयोग के लिए प्रोत्साहित करने में कंप्यूटर कार्यशालाओं का महत्व है ।  तदवसर पर अपने वक्तव्य में इंडियन ओवरसीज़ बैंक के मुख्य क्षेत्रीय प्रबंधक एस. नरसिंहन ने विदेशों में अपनी सेवाओं के दौरान वहाँ हिंदी की भूमिका के संबंध में स्पष्ट करते हुए और हिंदी स्कूली स्तर पर पढ़ने का मौका न मिलने पर भी बैंक के कारोबार संबंधी कार्यों के दौरान ही हिंदी में कार्यसाधक ज्ञान की कुशलता हासिल करने का अपना उदाहरण देते हुए उन्होंने प्रतिभागियों को प्रेरित किया कि हिंदी को अपनाना और राजभाषा हिंदी में काम करना आसान है ।  इस दो दिवसीय कार्यशाला में मुख्य वक्ता एवं प्रशिक्षक के रूप में उपस्थित पांडिच्चेरी विश्वविद्यालय,  हिंदी विभाग के सहायक आचार्य डॉ. सी. जय शंकर बाबु ने उद्घाटन सत्र में अपने वक्तव्य के दौरान कहा कि आज भारतीय भाषाओं में डिजिटल साक्षरता को बढ़ाने की बड़ी जरूरत है ।  राजभाषा कार्यान्वयन की सफलता आज सरकारी कर्मियों की डिजिटल साक्षरता एवं कंप्यूटर पर सुगमतापूर्वक भारतीय भाषाओं को प्रयोग करने की कुशलता पर निर्भर है ।  आज सरकारी कामकाज में ई-शासन की बढ़ते चरणों में कंप्यूटर पर कार्य करने की कुशलता सरकारी कर्मियों को जितनी जरूरत है उतनी ही उन्हें भारतीय भाषाओं में कंप्यूटिंग की कुशलता भी होनी जरूरी है ।  इसी उद्देश्य से बहुभाषायी कंप्यूटिंग में प्रशिक्षण देने और कंप्यूटर पर राजभाषा हिंदी व अन्य भाषाओं में सुगम कंप्यूटिंग कार्य करने के लिए उपलब्ध संसाधनों की जानकारी देनो और उन पर आवश्यक कुशलता प्रदान करने के लिए सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी कार्यशाला का आयोजन किया गया है ।  डॉ. जय शंकर बाबु ने कोयंबत्तूर नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति के सदस्य-सचिव के रूप में अपने कार्यकाल में राजभाषा साधन सी.डी. तैयार कर वितरित करने तथा कंप्यूटर कार्यशालाओं के आयोजन का उल्लेख करते हुए कहा कि कंप्यूटर पर हिंदी में कार्य करने की कुशलता प्रदान करने से राजभाषा हिंदी के प्रगामी प्रयोग में अभूतपूर्व प्रगति हासिल हुई थी ।  उन्होंने कहा कि सरकारी परियोजनाओं में ई-शासन के अंतर्गत कंप्यूटर सॉफ्टवेयर प्रोग्रामों के निर्माण के समय ही यह ध्यान दिया जाए कि वे राजभाषा संबंधी संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप भारतीय राजभाषाओं का उपयोग हेतु भी सक्षम है ।  अन्यथा भारतीय भाषाएँ उपक्षित रह जाएंगी और भविष्य में उन सॉफ्टवेयरों को भारतीय भाषाओं के प्रयोग के लिए अनुकूलन में बड़ी मात्रा में खर्च की आशंका से उपेक्षा की जाएगी ।  कार्यशाला के उद्घाटन सत्र का संचारल आईओबी के प्रबंधक, राजभाषा पी. राजशेखर ने किया और अतिथियों का स्वगत रेलवे राजभाषा अधीक्षक श्रीनिवासन ने किया ।  केनरा बैंक की वरिष्ठ प्रबंधक राजभाषा श्रीमती बी. सरस्वती ने धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया ।  तिरुच्ची स्थित केनरा बैंक स्टैफ ट्रैनिंग कालेज के कंप्यूटर प्रयोगशाला में आयोजित इस दो दिवसीय कार्यशाला में तिरुच्ची शहर के सरकारी कार्यालयों, सरकारी उपक्रमों, स्वायत्त संगठनों, बैंकों, विद्यालयों के अधिकारी, पदधारी व शिक्षकों ने भागीदारी की । दोनों दिन तकनीकी सैदधांतिक एवं प्रयोगिक सत्रों का संचालन पांडिच्चेरी विश्वविद्यालय के सहायक आचार्य डॉ. सी. जय शंकर बाबु ने किया ।  

ज्ञातव्य है कि डॉ. सी. जय शंकर बाबु ने वैयक्तिक स्तर पर डिजिटल साक्षारता अभियान में सक्रिय योगदान करते हुए बहुभाषायी कंप्यूटिंग पर विगत डेढ़ दशकों में सत्रह सौ से अधिक कार्यशालाओं का आयोजन कर लाखों प्रतिभागियों को कंप्यूटर पर भारतीय भाषाओं के प्रयोग में सक्षम बनाया है ।  उद्घाटन सत्र में इस तथ्य का परिचय रेलवे राजभाषा अधीक्षक श्रीनिवासन ने दिया, जिस पर नराकास अध्यक्ष सहित सभी उपस्थित अधिकारियों ने डॉ. बाबू को बधाई दी ।

    दो दिवसीय सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी व बहुभाषाई कंप्यूटिंग कार्यशाला के प्रतिभागियों का समूह-चित्र ।

Monday, January 19, 2015

कविता - मम्मी बोली उठो बेटा

कविता
मम्मी बोली उठो  बेटा

-    प्रियंका कुमारी, पुदुच्चेरी ।

मम्मी बोली उठो  बेटा,
गृह कार्य बनाना है,
पाठशाला को जाना है,
अच्छे   अंक     लाना है,
र्ग में प्रथम आना है,
शल्य चिकित्सक बनना है,
असाध्य रोगों का उन्मूलन
भूमंडल से करना है।
      बेटा बोला प्लीज मम्मी,
      आलस बहुत आता है,
      भूख बहुत सताता है,
      साथी खूब चिढ़ाता है,
      गुरूजी बहुत पढ़ाता है,
      समझ में कुछ नहीं आता है,
      जब भी रिजल्ट निकलता है,
      मुझे लड्डू  आता  है ।
मम्मी बोली अच्छा बेटा,
अब से थोड़ा खाओगे,
आलस को भगाओगे,
फल सब्जी खूब खाओगे,
स्फूर्ती और उल्लास बढ़ाओगे,
साथी का प्यार पाओगे,
गुरूजी का  शाबासी  पाओगे,
अच्छे अंक लाओगे,
वर्ग में  प्रथम आकर,
खूब नाम कमाओगे ।





क्लेमेन जी हिंदी सेवी सम्मान से विभूषित

केरल के वयोवृद्ध हिंदी सेवी, सेवा-निवृत्ति के बाद भी सक्रिय हिंदी शिक्षक कोडुंगल्लूर के श्री क्लेमेन जी को प्रतिष्ठित एम.ई.एस. अस्माबी कालेज, पी.वेंबलूर, कोडुंगल्लूर के हिंदी विभाग की ओर से वर्ष 2014 के लिए हिंदी सेवी सम्मान से विभूषित किया ।  चित्र में एम.ई.एस. अस्माबी कालेज के प्राचार्य प्रो.अजीम्स पी. मोहम्मद से पुरस्कार ग्रहण करते दर्शित हैं श्री क्लेमेन जी ।  साथ में (दाएं तरफ़) हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. एम. रंजित दर्शित हैं ।

Monday, January 5, 2015

समकालीन महिला लेखिका चित्रा मुद्गल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व

समकालीन महिला लेखिका चित्रा मुद्गल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
 -पी.एम. थोमसकुट्टी*

समकालीन कहानी-लेखन में चित्रा मुद्गल का महत्वपूर्ण स्थान है। चित्रा मुद्गल की कहानियों ने हिन्दी कहानी के क्षेत्र में न केवल अपनी खास पहचान बना ली है, बल्कि कहानी को समृद्ध भी किया है। वे एक बहुमुखी एवं विलक्षण प्रतिभा की लेखिका हैं। उन के कहानी साहित्य का प्रमुख स्वर नारी मुक्ति ही है।
व्यक्तित्व : जीवन परिचय :
चित्राजी का जन्म 10 दिसम्बर 1944 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के निहाली खेडा गाँव में एक ज़मीनदार घराने के ठाकुर प्रताप सिंह के यहाँ हुआ। चित्राजी की माँ विमला ठाकुर उत्तर प्रदेश के जनपद प्रतापगढ़ के बयालीस गाँवों के तालुकेदार की बेटी थी। चित्राजी के पिताजी ठाकुर प्रताप सिंह भारतीय नौसेना में अधिकारी थे। पिताजी का तबादला चेन्नई, मुम्बई, गोवा, विशाखापट्टणम आदि स्थानों पर होता रहता था। सभी जगह वे अपने परिवार के साथ ही जाते थे। पिताजी के साथ अनेक स्थानों पर जाने और रहने के कारण उनका अनुभव बढ़ता गया। भारत के चेन्नई से लेकर अस्साम के विभिन्न हिस्सों के लोगों की जिन्दगी और समस्याओं को निकट से देखने का अवसर चित्राजी को मिला।
पिताजी की सामंतवादी मानसिकता एवं कार्यों ने चित्राजी के बाल मन को बहुत प्रभावित किया। उन की माँ, सीधी सादी घर में ही पढ़ी-लिखी घरेलु औरत थीं। उन के माता-पिता के बीच मेल नहीं था। चित्राजी के अनुसार, माँ के साथ पिताजी का व्यवहार असंतोषजनक और बुरा था।इसके कारण चित्राजी के मन में माँ के प्रति लगाव बढ़ा, वहीं पिताजी के प्रति विद्रोह की भावना जन्मी। चित्राजी के पिताजी अंग्रेज़ी में रोमांटिक कविताएँ और नाटक लिखते थे। एक प्रकार से कह सकते हैं कि चित्राजी को लेखन कौशल विरासत में मिला था।
शिक्षा :
चित्राजी की प्रारंभिक शिक्षा मुम्बई के सेंट्रल स्कूल में हुई थी। उसके बाद बालिका चित्रा को अपने दादाजी के गाँव निहाली खेडा में भेज दिया गया। वहाँ की कन्या पाठशाला में चित्राजी की दूसरी, तीसरी और चौथी कक्षा की पढ़ाई संपन्न हुई। निहाली खेडा में अपने दादाजी के घर में रह कर पढ़ते समय उन के शिशु मन ने देखा कि उन के घर में काम करने वाले निम्न वर्ग के लोग उन के घर वालों द्वारा कैसे शोषित और पीडित है। अपने बचपन की कुछ घटनाएँ चित्राजी के मन में अविस्मरणीय रूप से अंकित है। उन घटनाओं के कारण ही चित्राजी के मन में विद्रोह की भावना बचपन से ही जागने लगी थी। एक बार उन के दादाजी के घर में काम करने वाले भीखू नामक लड़के को गेहूँ की चोरी करने की बात को लेकर उन के ताऊजी ने नीम के पेड के तने से बाँध कर इतना पीटा कि उन का शरीर लहूलुहान हो गया। भीखू के माता-पिता ने ताऊजी के पैर पकड़ कर क्षमा माँगी। फिर भी उन का मन नहीं पसीजा। मार खा-खा कर भीखू की गर्दन बँधी देह पर एक ओर लुढ़क गई थी। यह दर्दनाक दृश्य चित्राजी ने स्वयं देखा और वे डर गईं। तभी से बालिका चित्रा के मन में विद्रोह का भाव पैदा हुआ। मेरी रचना प्रक्रिया में चित्राजी स्वयं लिखती है; “जब वह मेरे जैसा ही है, फिर इसे जो खाना दिया जाता है, वह इतना कम क्यों होता है कि उसे अनाज की चोरी करनी पड़ती है, क्यों बड़े पापा इसे इतनी निर्दयता से मारते हैं?”
पाँचवीं कक्षा से आगे की पढ़ाई फिर मुम्बई में हुई। मुम्बई के घाट कोपर के हिन्दी हाईस्कूल में वे उन दिनों पढ़ा करती थीं। पिताजी के विरोध करने पर भी चित्राजी स्कूल में नृत्य सीखती रही। उसके बाद चित्राजी ने 1963 में मुम्बई के सोमैया कॉलेज में इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की। सन् 1966 में चित्राजी ने मुम्बई के जे. जे. स्कूल ऑफ फाइन आर्ट्स से चित्रकला में डिप्लोमा ग्रहण किया। चित्रकला तथा नृत्य दोनों में उन के पिताजी को रूचि नहीं थी। वे चाहते थे कि चित्रा बन्दुक चलाना तथा घुडसवारी करना सीखें।
विवाह और पारिवारिक जीवन :
चित्राजी का विवाह साहित्य में रूचि रखनेवाले अवधनारायण मुद्गल के साथ हुआ, उन का प्रेम विवाह था। अवधनारायण ब्राह्मण थे और चित्राजी ठाकुर। चित्राजी के पिताजी तथा घर वालों को यह विवाह बिलकुल स्वीकार्य नहीं था। अतः चित्राजी को अपना घर छोड़ना पड़ा। बाद में ससुराल में उन को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आर्थिक तंगी के कारण अवधनारायण मुद्गल ने कविताएँ और कहानियों की दुनिया छोड़ कर एजन्सियों में विज्ञापन लिखना शुरू किया और चित्राजी ने अनुवाद कार्य को आगे बढ़ाया।
चित्राजी के एक बेटे और एक बेटी थे। बेटे का नाम राजीव और बेटी का नाम अपर्णा। दोनों पढ़ाई में बहुत तेज़ थे। माँ-बाप के समान बेटा भी साहित्य में अभिरूचि रखने वाला है। वह भी कविताएँ तथा नाटक लिखता है। चित्राजी के जीवन में सबसे दुखद घटना उन की युवा कन्या और दामाद की मृत्यु है। एक कार दुर्घटना में दोनों की मृत्यु हो गई। जिसे याद करने से आज भी उन की आँखें आँसू से भर जाती है। इस पर चित्राजी का कहना है, मैं समाज की हर युवा लड़कियों में अपनी ही लड़की देखती हूँ, जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है।


चित्राजी के कृतित्व :
चित्राजी की साहित्यिक यात्रा सन् 1964 से शुरू होती है। उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लिए कहानी, लेख, रिपोर्ट, कविता, समाचार आदि का लेखन किया जो धर्मयुग, हंस, रसरंग, पराग, सबरंग, माधुरी, सारिका, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स आदि में निरंतर प्रकाशित होता रहा। शुरू में पत्र-पत्रिकाओं में लेखन कार्य विशेष कर कहानी लेखन के लिए तो उन को अपने ही परिवार वालों से बहुत संघर्ष करना पड़ा। इस बात की गंभीरता उन के अपने शब्दों में सुन सकते हैं—बाकी सारी दुनिया पर लिखो पर खानदान की ओर अपनी उँगली कभी नहीं उठनी चाहिए, वरना....परिणाम बहुत बुरा होगा।
चित्राजी अपने सृजन कार्य में कथा साहित्य को अधिक जोर देते हुए आगे बढ़ रही है। उन का मानना है कि अपने चारों ओर फैले अन्याय, शोषण, अत्याचार, अमानवीयता आदि का खुला प्रतिवाद करने के लिए कथा साहित्य ही एक सशक्त माध्यम है। यही कारण है कि उन के कथा साहित्य में व्यवस्था का क्रूर, अमानवीय और जनविरोधी चरित्र बार बार उभरता है।
चित्राजी ने आवां, गिलिगडु, एक ज़मीन अपनी, दि क्रसिड़ आदि उपन्यास लिखे हैं। एक काली एक सफेद नामक उपन्यास अभी निकल चुका है। उन्होंने माधवी कन्नगी, मनीमैखले, जीवन चिंतामनी नामक बाल उपन्यास भी लिखे हैं। चित्राजी ने गुजराती, मराठी, अंग्रेज़ी, पंजाबी, आसामी तथा तमिल भाषाओँ से कहानियाँ हिन्दी में अनुवादित भी की हैं। उन की गुजरात की श्रेष्ठ व्यंग्य कथाएँ नामक पुस्तक बहुचर्चित है।
चित्राजी के जहर ठहरा हुआ, लाक्षागृह, अपनी वापसी, इस इमाम में, ग्यारह लंबी कहानियाँ, जंगदब बाबू गाँव आ रहे हैं, चर्चित कहानियाँ, मामला आगे बढेगा अभी, जीनावर, केंचुल, भूख, बयान, लपटे, आदि-अनादि (3 भाग) आदि कहानी संग्रह निकल चुके हैं।
चित्राजी ने असफल दाम्पत्य की कहानियाँ, टूटे परिवारों की कहानी, दूसरी औरत की कहानी, भीगी हुई रात, पुरस्कृत कहानियाँ, देह दहेरी, मुन्शी प्रेमचन्द की कहानियाँ आदि पुस्तकों का संपादन भी किया है। इस के अलावा उन्होंने नाटक, शिक्षा संस्थानों में अध्ययनार्थ साहित्य, दूरदर्शन में कई धारावाहिक सीरियल का निर्माण, फिल्म निर्माण में योगदान आदि सभी में अपनी कार्यकुशलता दिखाई है।
चित्राजी ने भारतीय नारी को बहुत निकटता से देखा है। उन का यह मानना है कि भारतीय समाज में नारी का स्थान हमेशा दोयम दर्जे का रहा है। चित्राजी इस स्थिति को तोडना चाहती है। उन का संकल्प स्त्री को दोयम दर्जे की स्थिति को समाप्त करके हमारे भारतीय समाज में उसे पुरुष के समकक्ष स्थान दिलाना है। यही मूल स्वर उन के कथा साहित्य में बार-बार उद्घाटित होता है कि नारी को उसके मूल अधिकार मिलना चाहिए। यही चित्राजी का हिन्दी साहित्य के लिए प्रदेय है।
* * * * *

(थोमसकुट्टी पी.एम. कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावती अम्मा के निर्देशन में पीएच.डी., के लिए कार्यरत है।)


नवगीत में पारम्परिक हिंदी छंद

लेख : 

नवगीत में पारम्परिक हिंदी छंद

डॉ. साधना वर्मा 
हिंदी गीतिकाव्य की सनातन परंपरा में छंद का जो विशाल भंडार समाहित है वह विश्व की किसी अन्य भाषा में नहीं है ।  छायावादोत्तर काल में खड़े हुई तथाकथित प्रगतिशील काव्यांदोलन ने छंद को नकारकर छंदहीनता के जिस रचना संसार को जन्म दिया उसकी नीरसता ने कविता से पाठक को दूर कर दिया। गीत और छंद के मरने की घोषणा करनेवाले दंभी समीक्षक-रचनाकार स्वयं न रहे किन्तु छंद और गीत नव शक्ति के साथ जनगण के मन में स्थान बनाने में सफल हो गये।

सतत परिवर्तित होते समय और परिवेश से सामंजस्य बैठाने को आकुल गीत को महाकवि निराला ने छंद मुक्ति के महामार्ग पर गतिमान किया। तब से अब तक नवगीत सतत बहुआयामी  विषयोंप्रसंगोंशिल्पोंभाव-भूमियों एवं अनुभूतियों को रचनाकारों से रसज्ञ पाठकों-श्रोताओं  तक पहुँचाने में सेतु बना है। इस दशक के नवगीतकारों और नवगीतों में विशिष्ट अभिजात्यता से मुक्त होकर सामान्य जन तक पहुँचने की आकुलता-व्याकुलता बढ़ती दिख रही है. चाँद देशज शब्दों के टटकेपन के स्थान पर बुंदेलीअवधीभोजपुरी आदि देशज भाषारूपों के नवगीत सामने आये हैं। बिम्ब-प्रतीकरूपकों में भाषिक शुद्धता के स्थान पर युवा जगत में प्रयुक्त बहुभाषिक शब्दावली का प्रयोग आम हो गया है। अलंकार से कथ्य के कमजोर होने की धारणा भी बदल रही है और अनेक नवगीतकार आलंकारिक शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं।  

नवगीत में पिंगल वर्णित छंदों का प्रयोग आरम्भ से वर्जित रहा है चूँकि नवगीत का जन्म ही छंद मुक्ति की कामना से हुआ किन्तु अब समयचक्र पुनः नवगीत में पिंगलीय छंदों को स्थापित करने की ओर उन्मुख है. जिन नवगीतकारों ने अपने नवगीतों में पारम्परिक और नवीन छंदों को स्थान दिया है उनमें आचार्य संजीव 'सलिलप्रमुख हैं. सलिल जी के भारतीय छंदों में दोहासोरठाआल्हाहरिगीतिका आदि भारतीय छंदों के साथ हाइकु आयातित जापानी छंद में नवगीत प्रकाशित हो चुके हैं। 

 आचार्य संजीव 'सलिल'

      निम्न नवगीत में वासव जातीय मात्रिक छंद रामनिवासी का प्रयोग दृष्टव्य है । इस नवगीत का वैशिष्ट्य मात्रिक के साथ-साथ सुप्रतिष्ठा जातीय वर्णिक छंद यशोदा की उपस्थिति है । वर्ण मात्रिक छंदों का ऐसा मणिकांचनीय संयोग पिंगल शास्त्र पर अधिकार पाये बिना संभव नहीं है।

नवगीत

अड़े खड़े हो
न राह रोको

यहाँ न झाँको
वहाँ न ताको
उसे न घूरो
इसे न देखो
परे हटो भी
न व्यर्थ टोको

इसे बुलाओ
उसे बताओ
न राज खोलो
कभी बताओ
न फ़िक्र पालो
न भाड़ झोंको
.

        हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय कालजयी छंद दोहा पर आधरित निम्न नवगीत में सलिल जी  ने वर्त्तमान समय के विसंगतियों को सशक्तता से शब्दांकित किया है। प्रथम पद में पाखंडी संतों,  द्वितीय पद में सस्ती लोकप्रियता के ललचती युवा शक्ति और तृतीय पद में पर्यावरणीय प्रदूषण  को उभरता यह दोहा नवगीत रचनाकार की सामर्थ्य का परिचायक है। इसके पूर्व वे कई दोहा  गीत और दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़लरच चुके हैं। 

दोहा नवगीत:
.
सच की अरथी उठाकर
झूठ मनाता शोक
.
बगुला भगतों ने लिखीं
ध्यान कथाएँ खूब
मछली चोंचों में फँसीं
खुद पानी में डूब
जाँच कर रहे केंकड़े
रोक सके तो रोक
.
बार-बार जब फेंकता
जाल मछेरा झूम
सोनमछरिया क्यों फँसे
किसको है मालूम?
उतनी ज्यादा चाह हो
जितनी होती टोंक
.
कर पूजा-पाखंड हम
कचरा देते दाल
मैली होकर माँ नदी
कैसे हो खुशहाल?
मनुज न किंचित चेतते
श्वान थके हैं भौंक

पेशे से अभियंता आचार्य सलिल प्रयोगधर्मी हैं। निम्न नवगीत में उन्होंने मुखड़े में दोहे तथा

अँतरे में सोरठे का प्रयोग किया है।आतंकवादियों द्वारा पाकिस्तान के पेशावर में शालेय छात्रों की 

नृशंस हत्या ने विश्व को दहला दिया। नफरत के अंत की कामना करते इस नवगीत में दोहे-सोरठे 

का संगुफन दृष्टव्य है.
   

नवगीत:

बस्ते घर से गए पर

लौट न पाये आज

बसने से पहले हुईं

नष्ट बस्तियाँ आज
.

है दहशत का राज

नदी खून की बह गयी

लज्जा को भी लाज

इस वहशत से आ गयी

गया न लौटेगा कभी

किसको था अंदाज़?
.
लिख पाती बंदूक

कब सुख का इतिहास?

थामें रहें उलूक

पा-देते हैं त्रास

रहा चरागों के तले

अन्धकार का राज
.
ऊपरवाले! कर रहम

नफरत का अब नाश हो

दफ़्न करें आतंक हम

नष्ट घृणा का पाश हो

मज़हब कहता प्यार दे

ठुकरा तख्तो-ताज़
.

चर्चा के लिए चयनित अगले नवगीत में हरिगीतिका छंद का प्रयोग किया गया है।शांत रस का यह नवगीत गलत के त्याग और सही के चुनने की प्रेरणा देता है।

नवगीत:
.
करना सदा
वह जो सही
.
तक़दीर से मत हों गिले
तदबीर से जय हों किले
मरुभूमि से जल भी मिले
तन ही नहीं मन भी खिले
वरना सदा
वह जो सही
भरना सदा
वह जो सही
.
गिरता रहाउठता रहा
मिलता रहाछिनता रहा
सुनता रहाकहता रहा
तरता रहामरता रहा
लिखना सदा
वह जो सही
दिखना सदा
वह जो सही
.
हर शूल लेहँस फूल दे
यदि भूल होमत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल देमत मूल दे
सहना सदा
वह जो सही
तहना सदा
वह जो सही
.

हरिगीतिका जैसा पारम्परिक छंद की नवगीत जैसी विधा में उपस्थिति चौंकाती है। निम्न 
नवगीत में पहली बार मुखड़े के बिना हरिगीतिका छंद के ३ पदों का प्रयोग किया गया है।

नवगीत:
संजीव
.
पहले गुना
तब ही चुना
जिसको ताजा
वह था घुना

सपना वही
सबने बना
जिसके लिए
सिर था धुना

अरि जो बना
जल वो भुना
वह था कहा
सच जो सुना
.
मध्य तथा उत्तर भारत के ग्राम्यांचलों में लोकगीत आल्हा गायन की परंपरा आज भी जीवंत है।
वीर रस प्रधान इस छंद में सलिल जी ने हास्य रस  रचनाएँ पहले प्रस्तुत की हैं। सलिल जी भारत-
पाकिस्तान की सीमाओं पर होते रहते संघर्ष की पृष्ठ भूमि में आल्हा-नवगीत की रचनाकर 
नवगीत को एक और नया आयाम देते हैं।  

आल्हा नवगीत:
.
भारतवारे बड़े लड़ैया
बिनसें हारे पाक सियार
.
घेर लओ बदरन नें सूरज
मचो सब कऊँ हाहाकार
ठिठुरन लगें जानवर-मानुस
कौनौ आ करियो उद्धार
बही बयार बिखर गै बदरा
धूप सुनैरी कहे पुकार
सीमा पार छिपे बनमानुस
कबऊ न पइयो हमसें पार
.
एक सिंग खों घेर भलई लें
सौ वानर-सियार हुसियार
गधा ओढ़ ले खाल सेर की
देख सेर पोंके हर बार
ढेंचू-ढेचूँ रेंक भाग रओ
करो सेर नें पल मा वार
पोल खुल गयीहवा निकर गयी
जान बखस दो करें पुकार
.

नवगीत प्रयोगधर्मी वृत्ति से हुआ है। चंद समीक्षकों तथा रचनाकारों के द्वारा चयनित कुछ मानकों 

के पिंजरे की कैद से निकालकर मुक्ताकाश में विचरकर कथ्यशिल्पभावरसछंद आदि की 

नवता के प्रति सचेष्ट रचनाधर्मियोंपाठकों-श्रोताओं को सलिल की प्रयोगशीलता लुभाती ही नहीं 

चकित भी करती है ।  सलिल का लगभग समूचा साहित्य अंतरजाल पर हैजबकि पुस्तकाकार 

रूप में उनका सृजन अनुपलब्ध है ।  ५०० से अधिक पुस्तकों का व्यक्तिगत संकलन रखनेवाले 

सलिल पुस्तकों के महत्त्व से इंकार नहीं करते पर अपने साहित्य को अपने पैसे से छापने की 

कुप्रथा के पक्ष में नहीं है । किसी सुधि प्रकाशक के मिलाने तक उन्हें अंतरजाल पर ही पढ़ना 

होगा। उनके नवगीतों की प्रयोगधर्मिता नवगीतों के सर्जन को नए आयाम देगी ।  नवगीत के इस 

पक्ष पर व्यापक शोध होना भी आवश्यक है ।

***

*सहायक प्राध्यापकशासकीय स्वशासी महाकौशल कला-वाणिज्य महाविद्यालय
सिविल लाइन्सजबलपुर ४८२००१