समकालीन महिला लेखिका चित्रा मुद्गल : व्यक्तित्व
एवं कृतित्व
-पी.एम. थोमसकुट्टी*
समकालीन कहानी-लेखन में चित्रा मुद्गल का महत्वपूर्ण स्थान है। चित्रा मुद्गल की कहानियों ने
हिन्दी कहानी के क्षेत्र में न केवल अपनी खास पहचान बना ली है, बल्कि कहानी को
समृद्ध भी किया है। वे एक बहुमुखी एवं विलक्षण प्रतिभा की लेखिका हैं। उन के कहानी
साहित्य का प्रमुख स्वर ‘नारी मुक्ति’ ही है।
व्यक्तित्व : जीवन परिचय :
चित्राजी का जन्म 10 दिसम्बर 1944 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के निहाली
खेडा गाँव में एक ज़मीनदार घराने के ठाकुर प्रताप सिंह के यहाँ हुआ। चित्राजी की
माँ विमला ठाकुर उत्तर प्रदेश के जनपद प्रतापगढ़ के बयालीस गाँवों के तालुकेदार की
बेटी थी। चित्राजी के पिताजी ठाकुर प्रताप सिंह भारतीय नौसेना में अधिकारी थे।
पिताजी का तबादला चेन्नई, मुम्बई, गोवा, विशाखापट्टणम आदि स्थानों पर होता रहता था।
सभी जगह वे अपने परिवार के साथ ही जाते थे। पिताजी के साथ अनेक स्थानों पर जाने और
रहने के कारण उनका अनुभव बढ़ता गया। भारत के चेन्नई से लेकर अस्साम के विभिन्न
हिस्सों के लोगों की जिन्दगी और समस्याओं को निकट से देखने का अवसर चित्राजी को
मिला।
पिताजी की सामंतवादी मानसिकता एवं कार्यों ने चित्राजी के बाल मन को बहुत
प्रभावित किया। उन की माँ, सीधी सादी घर में ही पढ़ी-लिखी घरेलु औरत थीं। उन के
माता-पिता के बीच मेल नहीं था। चित्राजी के अनुसार, “माँ के साथ पिताजी का
व्यवहार असंतोषजनक और बुरा था।” इसके कारण
चित्राजी के मन में माँ के प्रति लगाव बढ़ा, वहीं पिताजी के प्रति विद्रोह की
भावना जन्मी। चित्राजी के पिताजी अंग्रेज़ी में रोमांटिक कविताएँ और नाटक लिखते
थे। एक प्रकार से कह सकते हैं कि चित्राजी को लेखन कौशल विरासत में मिला था।
शिक्षा :
चित्राजी की प्रारंभिक शिक्षा मुम्बई के सेंट्रल स्कूल में
हुई थी। उसके बाद बालिका चित्रा को अपने दादाजी के गाँव निहाली खेडा में भेज दिया
गया। वहाँ की कन्या पाठशाला में चित्राजी की दूसरी, तीसरी और चौथी कक्षा की पढ़ाई
संपन्न हुई। निहाली खेडा में अपने दादाजी के घर में रह कर पढ़ते समय उन के शिशु मन
ने देखा कि उन के घर में काम करने वाले निम्न वर्ग के लोग उन के घर वालों द्वारा
कैसे शोषित और पीडित है। अपने बचपन की कुछ घटनाएँ चित्राजी के मन में अविस्मरणीय
रूप से अंकित है। उन घटनाओं के कारण ही चित्राजी के मन में विद्रोह की भावना बचपन
से ही जागने लगी थी। एक बार उन के दादाजी के घर में काम करने वाले भीखू नामक लड़के
को गेहूँ की चोरी करने की बात को लेकर उन के ताऊजी ने नीम के पेड के तने से बाँध
कर इतना पीटा कि उन का शरीर लहूलुहान हो गया। भीखू के माता-पिता ने ताऊजी के पैर
पकड़ कर क्षमा माँगी। फिर भी उन का मन नहीं पसीजा। मार खा-खा कर भीखू की गर्दन
बँधी देह पर एक ओर लुढ़क गई थी। यह दर्दनाक दृश्य चित्राजी ने स्वयं देखा और वे डर
गईं। तभी से बालिका चित्रा के मन में विद्रोह का भाव पैदा हुआ। ‘मेरी रचना प्रक्रिया’ में चित्राजी
स्वयं लिखती है; “जब वह मेरे जैसा ही है, फिर इसे जो खाना
दिया जाता है, वह इतना कम क्यों होता है कि उसे अनाज की चोरी करनी पड़ती है, क्यों
बड़े पापा इसे इतनी निर्दयता से मारते हैं?”
पाँचवीं कक्षा से आगे की पढ़ाई फिर मुम्बई में हुई। मुम्बई
के घाट कोपर के हिन्दी हाईस्कूल में वे उन दिनों पढ़ा करती थीं। पिताजी के विरोध
करने पर भी चित्राजी स्कूल में नृत्य सीखती रही। उसके बाद चित्राजी ने 1963 में
मुम्बई के सोमैया कॉलेज में इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की। सन् 1966 में चित्राजी
ने मुम्बई के जे. जे. स्कूल ऑफ फाइन आर्ट्स से चित्रकला में डिप्लोमा ग्रहण किया। चित्रकला
तथा नृत्य दोनों में उन के पिताजी को रूचि नहीं थी। वे चाहते थे कि चित्रा बन्दुक
चलाना तथा घुडसवारी करना सीखें।
विवाह और पारिवारिक जीवन :
चित्राजी का विवाह साहित्य में रूचि रखनेवाले अवधनारायण
मुद्गल के साथ हुआ, उन का प्रेम विवाह था। अवधनारायण ब्राह्मण थे और चित्राजी
ठाकुर। चित्राजी के पिताजी तथा घर वालों को यह विवाह बिलकुल स्वीकार्य नहीं था।
अतः चित्राजी को अपना घर छोड़ना पड़ा। बाद में ससुराल में उन को आर्थिक कठिनाइयों
का सामना करना पड़ा। आर्थिक तंगी के कारण अवधनारायण मुद्गल ने कविताएँ और कहानियों
की दुनिया छोड़ कर एजन्सियों में विज्ञापन लिखना शुरू किया और चित्राजी ने अनुवाद
कार्य को आगे बढ़ाया।
चित्राजी के एक बेटे और एक बेटी थे। बेटे का नाम राजीव और
बेटी का नाम अपर्णा। दोनों पढ़ाई में बहुत तेज़ थे। माँ-बाप के समान बेटा भी
साहित्य में अभिरूचि रखने वाला है। वह भी कविताएँ तथा नाटक लिखता है। चित्राजी के
जीवन में सबसे दुखद घटना उन की युवा कन्या और दामाद की मृत्यु है। एक कार दुर्घटना
में दोनों की मृत्यु हो गई। जिसे याद करने से आज भी उन की आँखें आँसू से भर जाती
है। इस पर चित्राजी का कहना है, “मैं समाज की हर
युवा लड़कियों में अपनी ही लड़की देखती हूँ, जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है।
चित्राजी के
कृतित्व :
चित्राजी की साहित्यिक यात्रा सन् 1964 से शुरू होती है।
उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लिए कहानी, लेख, रिपोर्ट, कविता, समाचार आदि का
लेखन किया जो ‘धर्मयुग’, ‘हंस’, ‘रसरंग’, ‘पराग’, ‘सबरंग’, ‘माधुरी’, ‘सारिका’, ‘जनसत्ता’, ‘नवभारत टाइम्स’ आदि में निरंतर
प्रकाशित होता रहा। शुरू में पत्र-पत्रिकाओं में लेखन कार्य विशेष कर कहानी लेखन
के लिए तो उन को अपने ही परिवार वालों से बहुत संघर्ष करना पड़ा। इस बात की
गंभीरता उन के अपने शब्दों में सुन सकते हैं—“बाकी सारी दुनिया
पर लिखो पर खानदान की ओर अपनी उँगली कभी नहीं उठनी चाहिए, वरना....परिणाम बहुत
बुरा होगा।”
चित्राजी अपने सृजन कार्य में कथा साहित्य को अधिक जोर देते
हुए आगे बढ़ रही है। उन का मानना है कि अपने चारों ओर फैले अन्याय, शोषण,
अत्याचार, अमानवीयता आदि का खुला प्रतिवाद करने के लिए कथा साहित्य ही एक सशक्त
माध्यम है। यही कारण है कि उन के कथा साहित्य में व्यवस्था का क्रूर, अमानवीय और
जनविरोधी चरित्र बार बार उभरता है।
चित्राजी ने ‘आवां’, ‘गिलिगडु’, ‘एक ज़मीन अपनी’, ‘दि क्रसिड़’ आदि उपन्यास लिखे हैं। ‘एक काली एक सफेद’ नामक उपन्यास अभी निकल चुका है। उन्होंने ‘माधवी कन्नगी’, ‘मनीमैखले’, ‘जीवन चिंतामनी’ नामक बाल उपन्यास
भी लिखे हैं। चित्राजी ने गुजराती, मराठी, अंग्रेज़ी, पंजाबी, आसामी तथा तमिल
भाषाओँ से कहानियाँ हिन्दी में अनुवादित भी की हैं। उन की ‘गुजरात की श्रेष्ठ व्यंग्य कथाएँ’ नामक पुस्तक बहुचर्चित है।
चित्राजी के ‘जहर ठहरा हुआ’, ‘लाक्षागृह’, ‘अपनी वापसी’, ‘इस इमाम में’, ‘ग्यारह लंबी
कहानियाँ’, ‘जंगदब बाबू गाँव आ
रहे हैं’, ‘चर्चित कहानियाँ’, ‘मामला आगे बढेगा
अभी’, ‘जीनावर’, ‘केंचुल’, ‘भूख’, ‘बयान’, ‘लपटे’, ‘आदि-अनादि’ (3 भाग) आदि कहानी संग्रह निकल चुके हैं।
चित्राजी ने ‘असफल दाम्पत्य की
कहानियाँ’, ‘टूटे परिवारों की कहानी’, ‘दूसरी औरत की
कहानी’, ‘भीगी हुई रात’, ‘पुरस्कृत कहानियाँ’, ‘देह दहेरी’, ‘मुन्शी प्रेमचन्द
की कहानियाँ’ आदि पुस्तकों का संपादन भी किया है। इस
के अलावा उन्होंने नाटक, शिक्षा संस्थानों में अध्ययनार्थ साहित्य, दूरदर्शन में
कई धारावाहिक सीरियल का निर्माण, फिल्म निर्माण में योगदान आदि सभी में अपनी
कार्यकुशलता दिखाई है।
चित्राजी ने भारतीय नारी को बहुत निकटता से देखा है। उन का
यह मानना है कि भारतीय समाज में नारी का स्थान हमेशा दोयम दर्जे का रहा है।
चित्राजी इस स्थिति को तोडना चाहती है। उन का संकल्प स्त्री को दोयम दर्जे की
स्थिति को समाप्त करके हमारे भारतीय समाज में उसे पुरुष के समकक्ष स्थान दिलाना
है। यही मूल स्वर उन के कथा साहित्य में बार-बार उद्घाटित होता है कि नारी को उसके
मूल अधिकार मिलना चाहिए। यही चित्राजी का हिन्दी साहित्य के लिए प्रदेय है।
* * * * *
(थोमसकुट्टी
पी.एम. कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावती
अम्मा के निर्देशन में पीएच.डी., के लिए कार्यरत है।)
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