लेख :
नवगीत में पारम्परिक हिंदी छंद
- डॉ. साधना वर्मा
हिंदी गीतिकाव्य की सनातन परंपरा में छंद का जो विशाल भंडार समाहित है वह विश्व की किसी अन्य भाषा में नहीं है । छायावादोत्तर काल में खड़े हुई तथाकथित प्रगतिशील काव्यांदोलन ने छंद को नकारकर छंदहीनता के जिस रचना संसार को जन्म दिया उसकी नीरसता ने कविता से पाठक को दूर कर दिया। गीत और छंद के मरने की घोषणा करनेवाले दंभी समीक्षक-रचनाकार स्वयं न रहे किन्तु छंद और गीत नव शक्ति के साथ जनगण के मन में स्थान बनाने में सफल हो गये।
सतत परिवर्तित होते समय और परिवेश से सामंजस्य बैठाने को आकुल गीत को महाकवि निराला ने छंद मुक्ति के महामार्ग पर गतिमान किया। तब से अब तक नवगीत सतत बहुआयामी विषयों, प्रसंगों, शिल्पों, भाव-भूमियों एवं अनुभूतियों को रचनाकारों से रसज्ञ पाठकों-श्रोताओं तक पहुँचाने में सेतु बना है। इस दशक के नवगीतकारों और नवगीतों में विशिष्ट अभिजात्यता से मुक्त होकर सामान्य जन तक पहुँचने की आकुलता-व्याकुलता बढ़ती दिख रही है. चाँद देशज शब्दों के टटकेपन के स्थान पर बुंदेली, अवधी, भोजपुरी आदि देशज भाषारूपों के नवगीत सामने आये हैं। बिम्ब-प्रतीक, रूपकों में भाषिक शुद्धता के स्थान पर युवा जगत में प्रयुक्त बहुभाषिक शब्दावली का प्रयोग आम हो गया है। अलंकार से कथ्य के कमजोर होने की धारणा भी बदल रही है और अनेक नवगीतकार आलंकारिक शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं।
नवगीत में पिंगल वर्णित छंदों का प्रयोग आरम्भ से वर्जित रहा है चूँकि नवगीत का जन्म ही छंद मुक्ति की कामना से हुआ किन्तु अब समयचक्र पुनः नवगीत में पिंगलीय छंदों को स्थापित करने की ओर उन्मुख है. जिन नवगीतकारों ने अपने नवगीतों में पारम्परिक और नवीन छंदों को स्थान दिया है उनमें आचार्य संजीव 'सलिल' प्रमुख हैं. सलिल जी के भारतीय छंदों में दोहा, सोरठा, आल्हा, हरिगीतिका आदि भारतीय छंदों के साथ हाइकु आयातित जापानी छंद में नवगीत प्रकाशित हो चुके हैं।
आचार्य संजीव 'सलिल'
निम्न नवगीत में वासव जातीय मात्रिक छंद रामनिवासी का प्रयोग दृष्टव्य है । इस नवगीत का वैशिष्ट्य मात्रिक के साथ-साथ सुप्रतिष्ठा जातीय वर्णिक छंद यशोदा की उपस्थिति है । वर्ण मात्रिक छंदों का ऐसा मणिकांचनीय संयोग पिंगल शास्त्र पर अधिकार पाये बिना संभव नहीं है।
नवगीत
अड़े खड़े हो
न राह रोको
यहाँ न झाँको
वहाँ न ताको
उसे न घूरो
इसे न देखो
परे हटो भी
न व्यर्थ टोको
इसे बुलाओ
उसे बताओ
न राज खोलो
कभी बताओ
न फ़िक्र पालो
न भाड़ झोंको
.
हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय कालजयी छंद दोहा पर आधरित निम्न नवगीत में सलिल जी ने वर्त्तमान समय के विसंगतियों को सशक्तता से शब्दांकित किया है। प्रथम पद में पाखंडी संतों, द्वितीय पद में सस्ती लोकप्रियता के ललचती युवा शक्ति और तृतीय पद में पर्यावरणीय प्रदूषण को उभरता यह दोहा नवगीत रचनाकार की सामर्थ्य का परिचायक है। इसके पूर्व वे कई दोहा गीत और दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़ल) रच चुके हैं।
दोहा नवगीत:
.
सच की अरथी उठाकर
झूठ मनाता शोक
.
बगुला भगतों ने लिखीं
ध्यान कथाएँ खूब
मछली चोंचों में फँसीं
खुद पानी में डूब
जाँच कर रहे केंकड़े
रोक सके तो रोक
.
बार-बार जब फेंकता
जाल मछेरा झूम
सोनमछरिया क्यों फँसे
किसको है मालूम?
उतनी ज्यादा चाह हो
जितनी होती टोंक
.
कर पूजा-पाखंड हम
कचरा देते दाल
मैली होकर माँ नदी
कैसे हो खुशहाल?
मनुज न किंचित चेतते
श्वान थके हैं भौंक
पेशे से अभियंता आचार्य सलिल प्रयोगधर्मी हैं। निम्न नवगीत में उन्होंने मुखड़े में दोहे तथा
अँतरे में सोरठे का प्रयोग किया है।आतंकवादियों द्वारा पाकिस्तान के पेशावर में शालेय छात्रों की
नृशंस हत्या ने विश्व को दहला दिया। नफरत के अंत की कामना करते इस नवगीत में दोहे-सोरठे
का संगुफन दृष्टव्य है.
नवगीत:
बस्ते घर से गए पर
लौट न पाये आज
बसने से पहले हुईं
नष्ट बस्तियाँ आज
.
है दहशत का राज
नदी खून की बह गयी
लज्जा को भी लाज
इस वहशत से आ गयी
गया न लौटेगा कभी
किसको था अंदाज़?
.
लिख पाती बंदूक
कब सुख का इतिहास?
थामें रहें उलूक
पा-देते हैं त्रास
रहा चरागों के तले
अन्धकार का राज
.
ऊपरवाले! कर रहम
नफरत का अब नाश हो
दफ़्न करें आतंक हम
नष्ट घृणा का पाश हो
मज़हब कहता प्यार दे
ठुकरा तख्तो-ताज़
.
चर्चा के लिए चयनित अगले नवगीत में हरिगीतिका छंद का प्रयोग किया गया है।शांत रस का यह नवगीत गलत के त्याग और सही के चुनने की प्रेरणा देता है।
नवगीत:
.
करना सदा
वह जो सही
.
तक़दीर से मत हों गिले
तदबीर से जय हों किले
मरुभूमि से जल भी मिले
तन ही नहीं मन भी खिले
वरना सदा
वह जो सही
भरना सदा
वह जो सही
.
गिरता रहा, उठता रहा
मिलता रहा, छिनता रहा
सुनता रहा, कहता रहा
तरता रहा, मरता रहा
लिखना सदा
वह जो सही
दिखना सदा
वह जो सही
.
हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल दे, मत मूल दे
सहना सदा
वह जो सही
तहना सदा
वह जो सही
.
हरिगीतिका जैसा पारम्परिक छंद की नवगीत जैसी विधा में उपस्थिति चौंकाती है। निम्न
नवगीत में पहली बार मुखड़े के बिना हरिगीतिका छंद के ३ पदों का प्रयोग किया गया है।
नवगीत:
संजीव
.
पहले गुना
तब ही चुना
जिसको ताजा
वह था घुना
सपना वही
सबने बना
जिसके लिए
सिर था धुना
अरि जो बना
जल वो भुना
वह था कहा
सच जो सुना
.
मध्य तथा उत्तर भारत के ग्राम्यांचलों में लोकगीत आल्हा गायन की परंपरा आज भी जीवंत है।
वीर रस प्रधान इस छंद में सलिल जी ने हास्य रस रचनाएँ पहले प्रस्तुत की हैं। सलिल जी भारत-
पाकिस्तान की सीमाओं पर होते रहते संघर्ष की पृष्ठ भूमि में आल्हा-नवगीत की रचनाकर
नवगीत को एक और नया आयाम देते हैं।
आल्हा नवगीत:
.
भारतवारे बड़े लड़ैया
बिनसें हारे पाक सियार
.
घेर लओ बदरन नें सूरज
मचो सब कऊँ हाहाकार
ठिठुरन लगें जानवर-मानुस
कौनौ आ करियो उद्धार
बही बयार बिखर गै बदरा
धूप सुनैरी कहे पुकार
सीमा पार छिपे बनमानुस
कबऊ न पइयो हमसें पार
.
एक सिंग खों घेर भलई लें
सौ वानर-सियार हुसियार
गधा ओढ़ ले खाल सेर की
देख सेर पोंके हर बार
ढेंचू-ढेचूँ रेंक भाग रओ
करो सेर नें पल मा वार
पोल खुल गयी, हवा निकर गयी
जान बखस दो करें पुकार
.
नवगीत प्रयोगधर्मी वृत्ति से हुआ है। चंद समीक्षकों तथा रचनाकारों के द्वारा चयनित कुछ मानकों
के पिंजरे की कैद से निकालकर मुक्ताकाश में विचरकर कथ्य, शिल्प, भाव, रस, छंद आदि की
नवता के प्रति सचेष्ट रचनाधर्मियों, पाठकों-श्रोताओं को सलिल की प्रयोगशीलता लुभाती ही नहीं
चकित भी करती है । सलिल का लगभग समूचा साहित्य अंतरजाल पर है, जबकि पुस्तकाकार
रूप में उनका सृजन अनुपलब्ध है । ५०० से अधिक पुस्तकों का व्यक्तिगत संकलन रखनेवाले
सलिल पुस्तकों के महत्त्व से इंकार नहीं करते पर अपने साहित्य को अपने पैसे से छापने की
कुप्रथा के पक्ष में नहीं है । किसी सुधि प्रकाशक के मिलाने तक उन्हें अंतरजाल पर ही पढ़ना
होगा। उनके नवगीतों की प्रयोगधर्मिता नवगीतों के सर्जन को नए आयाम देगी । नवगीत के इस
पक्ष पर व्यापक शोध होना भी आवश्यक है ।
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*सहायक प्राध्यापक, शासकीय स्वशासी महाकौशल कला-वाणिज्य महाविद्यालय
सिविल लाइन्स, जबलपुर ४८२००१
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