‘आषाढ़ का एक दिन’ में नाट्य शिल्प
-आर.के. जयमालिनी*
विषय प्रवेश:
नाटकीय कथानक ऐसा होना चाहिए जिसका बहिरंग पक्ष और अंतरंग पक्ष में आकर्षक
तत्व सम्मिलित हो। किसी भी नाटक में देश काल, वातावरण बहिरंग पक्ष है और पात्रों
की परिकल्पना अंतरंग पक्ष है। जिस समय कथानक का प्रयोग होता है उस समय का युगीन
परिवेश, रहन-सहन, भाषा और संवादों का जीता जागता वर्णन होना चाहिए। आगे आषाढ़ का
एक दिन के देश काल, वातावरण की योजना पर ध्यान दिया जाएगा।
इस नाटक का आधार ऐतिहासिक है परन्तु कवि कालिदास की जीवनी पर कथानक केंद्रित
होने से वातावरण जीवन्त हो उठता है। नाटक में कालिदास का प्रकृति-प्रेम का,
उज्जयिनी के राजवैभव की चर्चा का, काश्मीर प्रदेश के प्राकृतिक-सौन्दर्य का
निर्माण मन को हरनेवाली है। नाटक का आरंभ और अंत मल्लिका के घर में ही होता है जो
पात्रों के संग में रंग भर देता है। साथ-साथ कालिदास के ‘मेघदूत’, ‘कुमारसंभव’ के रचना काल की परिस्थिति का आभार भी मिलता है। नाटक में प्रियंगुमंजरी
द्वारा कश्मीर प्रदेश और उसके शासन की चर्चा देश काल, वातावरण को उचित रूप से
परिचित बना देती है।
जयशंकर प्रसादजी के ऐतिहासिक नाटकों में जैसी सजीवता पायी जाती है वैसी ‘आषाढ़ का एक दिन’ में नहीं। उस समय स्वतंत्र में ग्रामीण जनता की उपेक्षा की जाती थी। इसका
प्रमाण दंतुल के कथन से स्पष्ट होता है, “राजपुरुष के न्याय-अन्याय
करने का अधिकार आम पुरुषों को नहीं।”
संवाद योजना:
कथानक को आगे बढाने में तथा पात्रों के चरित्र निर्माण में संवाद का अतिमुख्य
भाग होता है। आम तौर पर संवाद संबोधन, विषय, संदर्भ, परिस्थिति, परिवेश, रुचि आदि
पर निर्भर होते हैं। इस संवाद के अंतर्गत मानसिकता, व्यंग्य, स्वार्थ, संघर्ष,
अंतरविरोध अश्लीलता आदि का प्रयोग करके नाटक को प्रभावशालिनी बनाया जाता है।
अम्बिका, मल्लिका की माँ है । लेकिन उसको अपनी बेटी की स्वच्छंदता से छिड़छिड़ापन होता है। प्रथम अंक में विलोम, अंबिका और
मल्लिका की भूमिका आवश्यक और आकर्षक है । संवाद परम्परा का पालन करके पात्रों के बीच में
मानसिक धरातल के संघर्ष के घात-प्रतिघात को निभाया गया है। जब कालिदास हरिणशावक से
करुणापूर्वक बात करता है वह हृद्यंगम करने की लालसा दिखाती है— “हम जियेंगे हरिणशावक । जियेंगे न ? एक बाण से आहत होकर हम प्राण नहीं देंगे। हमारा
शरीर कोमल है तो क्या हुआ? हम पीडा सह सकते हैं.... ”
पात्रोचित संवाद:
अम्बिका और मल्लिका के बीच में माँ, पुत्री का संवाद संघर्षमय है । माँ अपनी बेटी को चेतावनी देती हुई
कहती है— “तुम जिसे भावना कहती हो, वह केवल छलना और आत्म
प्रवंचना है ।” संवाद में मनोवैज्ञानिक आभास मिलता है। जब कालिदास सम्मान प्राप्त करने के लिए
उज्जैयिनी नहीं जाना चाहता है तब विलोम कालिदास से व्यंग्यात्मक बाण प्रहार करता
है— “राजधानी के वैभव में जाकर ग्राम प्रांतर को भूल तो
नहीं जाओंगे ?... सुना है वहाँ जाकर
व्यक्ति बहुत व्यस्त हो जाता है।”
मल्लिका कालिदास से प्रेम करती है । जब कालिदास सम्मान प्राप्त करके नहीं लौटता तो
मल्लिका अपनी हीन भावना प्रकट करती है— “मैं अनेकानेक साधारण
व्यक्तियों में से हूँ, वे असाधारण है, उन्हें जीवन में असाधारण का ही साथ चाहिए
था... सुना है राजदुहिता बहुत विदूषी है ।”
इसि नाटक के संवाद छोटे-छोटे और अर्थ गर्भित है, स्वभाविक भी है और प्रवाहमयी
है। उदाहरणार्थ अम्बिका और मल्लिका का संवाद देखे :
अम्बिका : और मुझे ऐसी भावना
से वितृष्ण होती है, पवित्र, कोमल और
अनश्वर!
हूँ!
मल्लिका : माँ, तुम मुझपर विश्वास क्यों नहीं करती?
प्रियंगुमंजरी राजपरिवार की है। शिक्षिता है। राजनीति में
पारंगत है। उसके संवाद से उसी विद्वत्ता का परिचय मिलता है— “राजनीति साहित्य नहीं है, उसके एक एक क्षण का महत्व है,
राजनीतिक जीवन की दुही में बने रहने के लिये व्यक्ति को बहुत जागरू रहना पड़ता है।”
ऐसा नाटक रुचि प्रधान नहीं होता जिसमें एकाध स्थानों पर
हास्योत्पादक संवाद न हो। प्रियंगुमंजरी के आने के पहले उसकी परिचारक मल्लिका के
यहाँ पहुँचती है और घर की व्यवस्था परिमार्जित करते हुए आपस में हास्योत्पादक
संवाद करते हैं जैसे—
अनुनासिक : तो कुम्भों को भी यहीं रहने दिया जाय।
अनुस्वार : ये वस्त्र?
अनुनासिक : वस्त्र अभी गिले हैं, इसलिए इन्हें नहीं हटाना चाहिए।
अनुस्वार : क्यों?
अनुनासिक : शास्त्रीय प्रमाण ऐसा है।
इस प्रकार ‘आषाढ़ का एक दिन’ में नाटककार मोहन राकेश का संवाद कौशल खूब दिखायी देती है । संवादों में व्यंग्य-विदग्धता, वाक-चातुर्य,
गंभीरता, रोचकता, समानुकुलता, परिस्थिति की अनुकूलता आदि दिखायी पड़ती है ।
भाषा-शैली:
नाटक के हर पात्र की शैली, संवाद की
शैली, वातावरण की शैली अलग अलग होती है। भाव पक्ष को प्रस्फुटित करनेवाली शैली
मात्र ही है। भाषा-शैली के बारे में डॉ. गोविन्द चातक का कहना है— “नाटक की भाषा सम्पूर्ण, सम्प्रेषण की भाषा है जिसमें जो
एक-एक शब्द कहा गया है वह महत्वपूर्ण है ।”
मोहन राकेश का अभिप्राय है कि नाटक की
भाषा जानने की नहीं होती बल्कि जीने की होती है।
‘आषाढ़ का एक दिन’ में पात्रोचित भाषा का प्रयोग हुआ है। ऐतिहासिक कथानक का
स्मरण रखते हुए संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग किया गया है। नाटक की भाषा इसलिये
कलात्मक और प्रभावशालिनी बनी है कि पात्रों की मानसिकता के अनुसार भावों के
उतार-चढाव का परिचय मिलता है। कभी-कभी भाषा संवेदनशील बनी है जैसे कालिदास भावुक
होकर कहता है— “भीगना भी जीवन की
एक महत्वाकांक्षा हो सकती है, वर्षों के बाद भीगा हूँ, अभी सूखना नहीं चाहता।” भाषा द्वारा मनोविकारों का उचित विवेचन किया गया है।
द्वंद्व पूर्ण स्थिति में कालिदास का करुणामय संवाद है— “मन में कहीं ये आशंका भी वह वातावरण मुझे छा लेगा और मेरे
दिनों की दिशा बदला देगा और ये आशंका निराधार नहीं थी।”
‘आषाढ़ का एक दिन’ में लाक्षणिक भाषा के प्रयोग का उदाहरण दर्शनिय है जैसे
कालिदास मल्लिका के घर पर रहकर कहता है— “कहूँ, आजकल नये
छंद का अभ्यास कर रहे हो। व्यंग्यात्मक भाषा का भी परिचय मिलता है।” विलोम कालिदास से ईर्ष्या करके मल्लिका से कहता है— “कालिदास उज्जैयिनी चला जाएगा और मल्लिका जिसका नाम उसके
कारण सारे प्रांत में अपवाद का विषय बना है, पीछे यहाँ पडी रहेगी।”
काव्यात्मक भाषा का प्रयोग देखने लायक है
जैसे कालिदास की ये उक्ति – “मैं राजकीय
मुद्राओं से क्रीत होने के लिए नहीं हूँ।”
भाषा में मुहावरों का प्रयोग भी है जैसे
धर्म संकट खडा होना, जलते अंगारे-सी दृष्टि, बुरी हीन चक्र की तरह, तिलतिले पर
गलना, आँखें गीली होना आदि।
निष्कर्ष:
पूरे नाटक में पात्रों का चरित्र संवाद
द्वारा प्रकट किया गया है। स्वभाविक शैली में प्रत्येक पात्र का संवाद अर्थ गर्भित
और ओजपूर्ण है। कालिदास, मल्लिका, प्रियंगुमंजरी तथा अम्बिका भावों-विचारों के
अनुरूप सहज, सरल, प्रवाहमय नाटकीय भाषा का प्रयोग कलात्मक ढंग से किया गया है।
* * * * *
* कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर,
तमिलनाडु में डॉ. के. पी. पद्मावति अम्माल के मार्गदर्शन में पीएच.डी., के लिए शोधरत हैं
।
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