Thursday, September 26, 2013

नारी स्वावलम्बन और समस्याएँ

आलेख

नारी स्वावलम्बन और समस्याएँ

- स्वप्ना नायर *
नारी स्वावलम्बन और समस्याएँ:

पति और पत्नी एक दूसरे के साथ भावनात्मक संबंध सूत्र में बंधकर एक प्रत्यक्ष अस्थायी और तर्कपूर्ण समझौते के बंधन में बंधने लगे और परिवार नितांत अस्वाभाविक और औपचारिक ढंग से संगठित होने लगे, जिनमें पति-पत्नी का संबंध केवल यौन आवश्यकताओं की सामयिक पूर्ति का साधन भर बन गया।
आज जिन परिवारों में पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं – वहाँ  आर्थिक सम्पन्नता भले ही अन्य परिवारों की अपेक्षा अधिक हो, पर दाम्पत्य जीवन के सुखद क्षणों में कमी आ रही है। दोनों अपने-अपने काम से जब घर लौटते हैं तो थकावट और काम के दबाव के कारण उनमें नीरसता आती है। वे दिन भर कड़ी मेहनत करके जो थोड़ा समय पाते हैं वो उसमें विश्राम करना पसंद करते हैं। केवल थकावट भरी नींद और घड़ी द्वारा अनुशासित भागदौड़ भरा सवेरा। ऐसी स्थिति में दाम्पत्य जीवन में तनाव की स्थिति उत्पन्न होती है और पारिवारिक जीवन कलह ग्रस्त हो जाते हैं। ऐसा ही उदाहरण है जेनेन्द्र का कल्याणी उपन्यास के असरानी दम्पति के बीच उत्पन्न होने वाली कटुता का प्रमुख कारण उनकी अत्यधिक व्यस्तता और व्यावसायिकता ही है।
असरानी अपनी पत्नी कल्याणी से कहता है – कानून हिन्दू स्त्री को हक नहीं देता पैसे पर अधिकार मेरा है। तुम समझती हो कि तुम कमाती हो... खैर अदालत की सहायता से ही मैं अपना अधिकार प्राप्त करूँगा... क्योंकि मैं कहूँगा की मेरे दस्तखत फर्जी हैं... तुम रह सकती हो। पर मातहत बनकर नहीं तो नहीं।
स्वावलम्बन और अच्छी आय के बावजूद डॉ. कल्याणी का दाम्पत्य जीवन सुखी नहीं है। यशपाल के झूठा सच के कनक तथा जयदेव पुरी का दाम्पत्य संबंध तो अत्यधिक व्यस्तता के कारण टूट ही जाता है।
पति-पत्नी अलग-अलग शहरों में नौकरी करते हैं वहाँ दाम्पत्य जीवन के सुखद क्षण और सीमित हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में परस्पर संदेह और अविश्वास के अवसर बढ़ जाते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि या तो परिवार टूट कर किन्हीं दूसरी झकाइयों से जुड़ते हैं और नया परिवार बनाते हैं या नितांत नीरस ढ़ंग से औपचारिक सम्बन्ध रखते हुए भी स्वच्छंद जीवन व्यतीत करते हैं।
इसके अतिरिक्त विभिन्न अन्तर्बाह्य परिस्थितियों के दबाव के कारण परम्परागत पारिवारिक सामंजस्य की भावना का भी उन परिवारों में ह्रास होता जा रहा है, जहाँ पति और पत्नी दोनों ही आत्मनिर्भर हैं। कभी-कभी तो नारी स्वावलम्बी न होकर भी अपनी शिक्षा दीक्षा और समाज में व्यवसाय के बढ़ते हुए अवसरों को देखकर अपने अह्म और अपनी स्वच्छंदता का इस सीमा तक विकास कर लेती है कि उसके व्यक्तित्व में सहनशीलता और सामंजस्य की भावना का अभाव उत्पन्न हो जाता है। जो पारिवारिक दाम्पत्य संबंधों के स्थायित्व के लिए इस प्रकार का अपशकुन ही सिद्ध होता है। अमृतराय के नागफनी का देश की बेला और रंजीत के दाम्पत्य संबंधों की कटुता का एक बड़ा कारण बेला का उपर्युक्त अंह भाव ही है। बेला का अपनी शिक्षा दीक्षा के कारण विश्वास है कि वह कभी भी आत्मनिर्भर हो सकती है। इसी विश्वास के बल पर वह रंजीत के प्रति पूर्णतया असहिष्णुता का व्यवहार करती है। परिणामतः एक दूसरे के लिए भार बन जाते हैं, बेला कहती है – मैं अपनी रोटी कमा सकती हूँ, मुझे किसी का सहारा नहीं चाहिए। मैं दुम नहीं हिला सकती किसी के सामने नहीं हिला सकती। कोई मुझसे दो हाथ दूर हटे, तो मैं बीस हाथ हटने को तैयार रहती हूँ।  इन वाक्यों से पता चलता है कि बेला में अहं का भाव है।
आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नारी समस्याएँ

पत्नी ही नहीं, अविवाहित लड़की भी आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो जाने पर अपने ऊपर अभिभावक का कोई नियंत्रण नहीं स्वीकार करती। इसके दुष्परिणाम पारिवारिक जीवन के साथ-साथ सामाजिक क्षेत्र में भी देखे जा सकते हैं। एक ओर उदाहरण से इसे स्पष्ट कर सकते हैं।
उपर्युक्त नारी वर्ग में अधिकांश अपनी परिस्थितियों को ही अपनी नियति मानकर उनके प्रति समर्पित हो जाती हैं। पर त्यागपत्र की मृणाली, मनुष्य के रूप की सीमा और आखिरी दाँव की चमेली व्यवस्था की एक खाई से निकलकर दूसरी खाई में गिर पड़ती हैं।
पति और परिवार से पलायन के बाद उन्हें जीवन में टिकने का स्वस्थ आधार नहीं मिल पाता, एक प्रकार की वेश्यावृति ही उनकी नियति बन जाती है। एक तीसरी स्थिति उस नारी वर्ग की भी है जिसका प्रतिनिधित्व यशपाल के झूठा सच की तारा करती है। तारा को परम्परागत व्यवस्था की घुटन की सामना करना पड़ता है। उसे भी पलायन के बाद ठिकाने का आधार नहीं मिल पाता। उसे भी अन्य स्त्रियों की तरह पुरुष की बर्बरता और पाश्विकता का सामना करना पड़ता है। तारा का अन्तर यह है कि तारा एक मूक पशु नहीं, जागरूक और शिक्षता नारी है जो अपने आपको परिस्थितियों के उथल-पुथल में समर्पित करती है।
तारा का यही व्यक्तित्व वास्तव में व्यवस्था की सडन में कूटे हुए उस अंकुर की भांति है जिसकी विकासशीलता नयी पौध की नयी अवस्थाओं तथा नये मूल्यों का जीता-जागता आदर्श साबित होता है।
वेश्यावृत्ति समस्या

हमारी संस्कृति में नारी का अपने रूप और यौवन को जीविका और ऐश का साधन बनाने की प्रथा नहीं हैं। समूची सामंती व्यवस्था इस सडांस से ग्रस्त है। परंतु आज वेश्याओं को पश्चिम से आयातित कालगर्ल तथा सोसायटी गर्ल जैसे नये-नये नाम दे दिए गए हैं और उनकी वृत्ति का ढंग भी बहुत कुछ परिवर्तित हो गया है। इसके अतिरिक्त वेश्या न कही जाने वाली सभ्य और गृहस्थ वेश्याओं की परंपरा भी नयी है। आधुनिकता के उन्मेष ने नारी और वेश्या के बीच की दीवार को बहुत पतली कर दिया है। अमृतलाल नागर के बूँद और समुद्र की कम्या के अनुसार अब नारी केवल वेश्या रह गई है। कहाँ की बराबरी? यह बराबरी भी एक झूठा ढोंग है। इस बराबरी में वेश्या में स्त्री अब स्त्री न रहकर गुड़िया रह गई है। पुराने आचार-विचारों ने उसे दासी और वेश्या बनाया था, अब वह महज वेश्या रह गई है।
वर्तमान युग में औद्योगीकरण के संदर्भ में यदि देखा जाए तो इसके प्रमुख कारण हैं – पूंजीवादी समाज व्यवस्था, व्यक्ति की आवश्यकताओं में आकस्मिक वृद्धि, अत्यधिक व्यावसायिकता तथा पश्चिम के वर्जनाहीन समाज के अनेक आयातित प्रभाव आदि।
भारत के वर्तमान युग की पूंजीवादी व्यवस्था के साथ-साथ अनेक ऐतिहासिक और सामाजिक कारण भी रहे हैं जो परिवेश में संघर्ष करती हुई नारी को अंत में वेश्यावृत्ति के कगार परला खड़ा करते हैं। इस संबंध में हिन्दी के उपन्यासों में बहुचर्चित पांडेय बैचेन शर्मा उग्र के फागुन के दिन चार की रोजी।
भगवती प्रसाद वाजपेयी के टूटा टी सेट की नीलकमल, भगवतीचरण वर्मा के आखिरी दौर की चमेली और राधा, यशपाल के मनुष्य के रूप की सीमा, अज्ञेय के अपने-अपने अजनबी की योके, कमलेश्वर की डाक बंगला की इरा और शीला आदि ऐसी ही स्त्रियाँ हैं जिन्हें अपनी परिस्थितियों से विवश होकर वेश्याओं या सम्पन्न लोगों की रखैलों का जीवन व्यतीत करना पड़ता है। राधा, रोजी, इरा और शीला की विवशताएँ अपने मौलिक रूप में आर्थिक ही है।
सेठ शिवकुमार की रखैल बन राधा अपने मनोभाव व्यक्त करती है क्योंकि उसका पति कमाऊ नहीं है पैसे की दुनिया है। पैसा भगवान है, पैसा धर्म है, पैसा इंसान है, पैसा सब कुछ खरीद सकता है – राधा ने अपनी रूप जवानी बेच दी – पैसे के आगे वह अपने को रोक न सकी। उसे बेचनी ही पड़ी।
वर्तमान युग की विवशताजन्य वेश्यावृत्ति सामंती व्यवस्था की विवशताजन्य वेश्यावृत्ति का एक नया बढ़ोत्तरी रूप है। इतना ही नहीं वर्तमान युग के अर्थ पिशाचों की वासनापूर्ति के लिए नारी का विधिवत् व्यवसाय भी होने लगा है ठीक उसी प्रकार जैसे भेड़-बकरियों का।
  
विवाह की समस्या

वर्तमान युग की परिवर्तित होती हुई अर्थ व्यवस्थाओं एवं समाज व्यवस्थाओं के कारण वैवाहिक परिस्थितियों में भी क्रांतिकारी परिवर्तन उपस्थित हुआ।
विवाह अब पुरुष के लिए प्रेम और यौन आवश्यकताओं की पूर्ति और नारी के लिए आर्थिक संरक्षण का एक मात्र साधन रह गया।
विवाह के लिए कभी सम्पन्नता विपन्नता की अपेक्षा व्यक्ति की जाति, धर्म, कुल, संस्कार तथा व्यक्तिगत गुणों को अधिक महत्व दिया जाता था। वर का स्वाजातीय और पुरुषोचित्त गुणों से मंडित होना जितना आवश्यक था उतना ही कन्या में शील और सफल गृहिणी के संस्कार अपेक्षित थे। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के लिए पूरक का आदर्श लेकर जीवन में उतरते थे।
विषमताएँ उन युगों में भी थी, मुख्यतया उच्च वर्ग में पर साधारण गृहस्थ का दाम्पत्य जीवन आज की अपेक्षा कहीं अधिक सुखी और कहीं अधिक समन्वित था।
आज औद्योगिकरण और व्यावसायीकरण की प्रवृत्तियों को बढ़ते हुए चरण ने दाम्पत्य जीवन की सारी सुख शांति छीनकर विवाह की व्यर्थता प्रमाणित कर दी। उदाहरण से इसे स्पष्ट कर सकते हैं। यशपाल के झूठा सच की कुन्ती अपने लिए चुने गए वर से विवाह करना केवल इसलिए अस्वीकार करती है कि उसकी आय सीमित है। वह कहती – लड़के की पचहत्तर तनख्वाह है, भत्ता मिलाकर सौ हो जाता होगा। इतना बड़ा उनका परिवार है। घर में भैंस है। नौकर एक भी नहीं... बहिन जी ऐसा ब्याह करके चौके-बर्तन, बोबर में जिंदगी खपा देने से क्या सुख मिल जाएगा।
कमलेश्वर के डाक बंगला की इरा जो बतरा से शादी न कर उसकी रखैल बन कर रहती है मानती है कि शादी से आत्मा का कोई संबंध नहीं है। बिना विवाह और आत्मिक संबंध के भी दो व्यक्ति केवल शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के आधार पर एक दूसरे के साथ जीवन बिता सकते हैं। मनोभाव व्यक्त करते हुए कहते हैं – भावनाओं के बुलबुले शारीरिक सम्पर्क के लिए काफी होते हैं और एक साथ दोहरी जिंदगी चल सकती है। किसी को न चाहते हुए भी दुनिया की बातें ठीक चलती रह सकती है और शादी से कोई बड़ा फर्क नहीं आता क्योंकि शादी से आत्मा का कोई बड़ा सम्बंध नहीं हैं।

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 स्वप्ना नायर कर्पगम विश्व विद्यालय, कोयम्बत्तूर डॉ. पद्मावति अम्माल के निर्देशन में पी.एचडी. उपाधि के लिए शोधरत हैं ।

Wednesday, September 25, 2013

‘बाप न मारे मेढकी, बेटा तीरंदाज’

व्यंग्य

पूर्वजों की शिकारगाथा

‘बाप न मारे मेढकी, बेटा तीरंदाज’


-    सुशील यादव

‘बाप न मारे मेढकी, बेटा तीरंदाज’
अफ्लातुनो सम्हाल जाओ । अब ज्यादा फेकने का नइ।

उन दिनों बाप लोग जो मेढक भी नहीं मारा करते थे, बेटों  को डॉक्टर –इंजीनियर बनाने की बजाय ‘तीरंदाजी’ की तरफ धकेलते थे ।

उन दिनों, बच्चों को जब तक धकेला न जाए, मानो उनमें कुछ बनने की, अपने–आप में काबलियत ही नहीं होती थी?

वे बच्चे अपने दिमाग से नहीं चलते थे, उनका ‘रिमोट पावर’ माँ-बाप के हाथों हुआ करता था ।

आज के बच्चे कुछ समझदार होते ही, रिमोट हथिया लेते हैं । अव्यक्त वे कहना चाहते हैं, जो कुछ बनना है अपनी दम पर अपनी काबलियत, अपने हौसले के बूते से बनना  है, आप लगते कहाँ हो ?

निपुण तीरंदाज बच्चा, बुजुर्गों के लिए फक्र का मसला हुआ करता था ।

चार-जनों के बीच बैठे नहीं कि, बच्चे का गुणगान शुरू ।

’इसका’ निशाना इतना अच्छा है कि, उडती चिड़िया के जिस ‘पर’ को कहो...... निशाना लगा देता है ।

अर्जुन है अर्जुन......,

दूसरे बुजुर्ग हक्के-बक्के एक दुसरे का मुह ताकते रह जाते ......  कौन अर्जुन, महाभारत वाला.... ?

हाँ-भई हाँ......।

उस जमाने में ‘अर्जुन-एवार्ड’ वाला डिपार्टमेंट नहीं हुआ करता था।    ’ओलंपिक, एशियाड’,स्तर के खेल,मोहल्ले-गावों के बीच  हो जाया करते  थे ।

 सखेद,कई जगह धक्के खाने के बाद , ‘तीरंदाजी   के उन माहिरों’ को क्लर्की मुहाल हो जाती थी ।

किसी पड़ौसी ने ज्यादा तारीफ के पुल बाँध दिए, तो कोई लड़की वाला, अच्छे दान-दहेज के साथ अपनी बेटी ब्याह देता था.... । मसलन लो तीरंदाजी का गोल्ड ।

हम जब कभी, नाना –नानी के घर, बारासिघे की सींगो को ,शेर की खाल को, दीवारों में टंगे देखकर,  कौतुहल दिखाते, तो वे बड़े फक्र से बताते कि उनके दादा को शिकार का खूब शौक था।  वे जंगलो में शिकार के वास्ते  दोस्तों के साथ हप्ते-महींनों  के लिए चल देते थे ।

 हम पूछते वे खाते क्या थे ?  वे बताते जंगल में कन्द-मूल ,फल और शिकार से मारे गए जीव-जंतु, मछली, गोस्त उनका लंच–डिनर होता था ।

हम महज किस्सा सुन के रोमांचित हो जाते थे।

कैसी रहती रही होगी तब की जिंदगी ?

......न बिजली ,न पंखा, न ए.सी ,न रेडियो, न  मोबाइल न टी.व्ही न स्कूटर न गाडी ,न बिसलरी वाटर ,न ढंग का खाना न पहनना ?

पहले जो आदि-मानव के किस्से हमें रोमांचित करते थे, अब उससे ज्यादा पिछले गुजरे पचास साल वाले मानव के रहन-सहन पर तरस आता है ।

उन दिनों के कम तनखाह वाले बाप,या कम पढ़े–लिखे बापों का, एक दौर गुजर गया ।  वे लोग जोर आजमाइश कर बमुश्किल, बच्चों को क्लर्क–बाबू, प्यून-चपरासी की हैसियत दिला पाते थे ।

इस कहावत के मायने निकालने का ख्याल आया तो नतीजे एक से एक  निकले;

एक जो करीब का मामला है वो ये कि
बाप पढ़े न फारसी, बेटा अफलातून

हमारे पड़ौस के सहदेव जी, खुद स्कूटर मेकेनिक थे,स्कूल वगैरह गए कि नहीं, पता नहीं ? मोहल्ले वालों ने कभी बस्ता लटकाए नहीं देखा ।

सामने के टेलर मास्टर ने अपने बयान  में कहा कि ,मेरी जानकारी में उनके घर से फटे पुराने पेंट का झोला बनाने के लिए कभी  आर्डर ही  नहीं आया, लिहाजा मै इत्मीनान से कह सकता हूँ कि सहदेव स्कूल गया ही नही। खैर छोडो ...बात बेटे की हो रही थी, बेटे को ओवरशियर की नौकरी मिल गई ।पी डब्लू डी का ओवरशियर मानी घर में मनी प्लांट, नोट की मशीन ।

बाप को समझ थी, बेटा बहुत बड़ा साहब बन गया है ।बेटा अपनी पोस्ट और  पैसे पर इतराता था ।चार-जनो की पंचायत जहाँ जुड जाए वो यूँ बताता   कि, जिस सड़क को उसने बनवाया है ,वो मिसाल है। कोलतार के आविष्कार के बाद, उसका प्रयोग जिस ढंग से, उसने किया है उसका लोहा सरकार मानती है । उसे सरकार छोड़ती ही नहीं । बड़े-बड़े  प्रोजेक्ट पर काम करने को कहती है ।

अभी ब्रिज का काम मिला है । वहाँ भी देखिए हम क्या कर दिखाते हैं । सीमेंट-सरिया तो कोलतार से मजबूत की चीज है न?  वो लाजवाब पक्की चीज देंगे कि दस बीस-साल ....., बीच में कोई  पढा-लिखा जवान कूद पड़े     कि  ,ब्रिज तो सौ-दो-सौ साल के लिए होनी चाहिए कि नहीं ?

अफलातून,  बाटन में  पल्टी मार के कहता है।मेरी बात सुने  नहीं कि बोल पड़े बीच में ! मैंने कब नही कहा कि सौ –दो सौ सालो वाला ब्रिज नहीं बनेगा ?  मेरा कहना था कि दस-बीस साल तक रंग रोगन की जरूरत नहीं रहेगी ।कम्लीट मेंटिनेंस फ्री, समझे मेरे दोस्त ।

अफलातून की वही ब्रिज, पूरी बनने  के छ: माह नहीं बीते, कि भरभरा के बैठ गई ।

इस ब्रिज हादसे के सबक के तौर पर ,अब हमें लगता है कि, बेटो की शादी के लिए लोग खानदान का अता-पता क्यों  लेते रहते हैं ।  उसके पीछे का मकसद, शायद  ‘अफलातून’ टेस्ट होता रहा होगा ।

यही ‘अफलातून- टेस्ट’ वाला नियम  अगर सब   इंटरव्य में लागू हो जाए तो ‘फारसी’ न पढ़े हुए बापों के  अफलातून बेटों  को नौकरी की पात्रता न के बराबर रह पाती । इंटरव्यू में अफ्लातुनो के मुँह से बोल, फूलों की  माफिक झरे नही कि, ‘गेट –आउट’ नेक्स्ट प्लीज  का फरमान जारी ।

मेढकी न मारे हुए बाप के तीरंदाज बेटे,या फारसी न पढे बाप के अफलातून  बेटे, अगर सम्हाल सकते हैं, तो केवल देश ।यहाँ लफ्फाजों की, निशानेबाजों की अफ्लातुनों की सदैव आपातकालीन  जरूरत होती है ।वे मजे से बता  सकते हैं कि प्याज,  डालर, रुपया, सांप सीडी का खेल है कब कौन चढ़ेगा- उतरेगा, ये आपकी किस्मत और डायस डालने के तरीके पर निर्भर है ।

विरोधियों की बात को किस कान से सुनना है किससे निकालना है ,कितना पेट में रखना है कितना पचाना है इसमें ये न केवल माहिर होते हैं बल्कि उल्टे उलटवार कर ये साबित कर देते हैं कि कटघरे में किसको खड़ा होना चाहिए ? 


# न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
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Tuesday, September 24, 2013

क्षेत्रीय सिद्ध अनुसंधान संस्थान में हिंदी सप्ताह सुसंपन्न

परंपरागत भारतीय ज्ञान-विज्ञान के संरक्षण में भारतीय भाषाएँ महती भूमिका निभा सकती हैं - डॉ. सी. जय शंकर बाबु


क्षेत्रीय सिद्ध अनुसंधान संस्थान, पुदुच्चेरी में दि.24.9.2013 को राजभाषा हिंदी सप्ताह का समापन समारोह सुसंपन्न हुआ ।  समारोह की अध्यक्षता संस्थान प्रभारी अनुसंधान अधिकारी डॉ. जे. अन्नताई ने की ।  मुख्य अतिथि के रूप में पांडिच्चेरी केंद्रीय विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफ़ेसर डॉ. सी. जय शंकर बाबु उपस्थित थे ।  इस अवसर पर अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि प्रशासन की भाषा के रूप में राजभाषा का जो महत्व है, उससे बढ़कर शिक्षा व अनुसंधान की भाषा के रूप में उसकी विशिष्ट भूमिका है ।  परंपरागत भारतीय ज्ञान-विज्ञान के संरक्षण में सभी भारतीय भाषाएँ महती भूमिका निभा सकती हैं ।  हिंदी के माध्यम से ऐसे ज्ञान का प्रसार हो तो अन्य भाषाओं में इसका अनुवाद होकर ज्ञान के विस्तार की संभावना बढ़ सकती है ।  हिंदी में सिद्ध चिकित्सा तकनीकों की जानकारी मिल जाने से देश-विदेश के कई लोग लाभान्वित हो सकते हैं ।  भारतीय संविधान में भाषाई संरक्षण की नीति और भारतीय भाषाओं के विकास की संकल्पना पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि ज्ञान के प्रसार में भारतीय भाषाओं का बड़ा योगदान हो सकता है ।  उन्होंने इस अवसर पर सिद्ध चिकित्सा से जुड़े चिकित्सकों तथा अनुसंधान अधिकारियों से अपील की कि विकसित सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए भारतीय भाषाओं में इस चिकित्सा ज्ञान को लोक प्रियता दिलवाने का प्रयास करें जो गरीब लोगों के लिए भी यह चिकित्सा सुविधा सस्ते मूल्यों में संभव है ।  
संस्थान की प्रभारी डॉ. जे. अन्नताई ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य सभी अधिकारियों से अपील की कि वे उत्साह से हिंदी सीखकर कार्यालय के प्रशासनिक कामकाज के साथ-साथ अनुसंधान के परिणामों के प्रचार-प्रसार में भी इसका उपयोग करें ।  समारोह में स्वागत भाषण सिद्ध अनुसंधान अध्येता डॉ. विजय कुमार ने दिया ।  उन्होंने कहा कि हिंदी सरल भाषा है और सरकारी कामकाज में इसका प्रयोग करना सभी सरकारी कर्मचारियों का दायित्व है ।  समारोह का संचालन संस्थान के चेन्नई केंद्र के हिंदी अनुवादक शेख अनवर बाबू ने किया और हिंदी कार्यान्वयन में प्रगति संबंधी वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत की और सबसे अनुरोध किया कि दैनिक कामकाज में हिंदी का प्रयोग करें । 
 इस अवसर पर आयोजित विभिन्न प्रतियोगिताओं में विजेताओं को नकद पुरस्कारों का वितरण किया गया ।  कार्यक्रम में अंत में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया ।






Tuesday, September 17, 2013

श्री चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती विश्वविद्यालय में हिंदी दिवस समारोह सुसंपन्न


"हिंदी राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़नेवाली कड़ी है"


– कुलपति आचार्य विष्णु पोत्ति


"हिंदी को अपनाओ - राष्ट्र गौरव बढ़ाओ" 


– वक्ताओं का आह्वान














तमिलनाडु के कांचीपुरम स्थित श्री चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती विश्वविद्यालय में मंगलवार दि.17 सितंबर, 2013 को हिंदी दिवस समारोह हिंदी भाषाई निष्ठा एवं गरिमा के साथ मनाया गया ।  विश्वविद्यालय के श्री आदिशंकर सभागार में आयोजित समारोह की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति आचार्य वी.एस. विष्ण पोत्ति जी ने की ।  इस समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में पांडिच्चेरी केंद्रीय विश्वविद्यालय के सहायक आचार्य डॉ. सी. जय शंकर बाबु उपस्थित थे ।

कुलपति आचार्य विष्णु पोत्ति अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि हर देश की उनकी ही राष्ट्रभाषा होती है, जो समूची जनता भावात्मक एकता का माध्यम बन जाती है ।  हिंदी भारत को एक सूत्र में जोड़नेवाली मझबूत कड़ी है, इसी आलोक में भारतीय संविधान सभा ने 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को भारत संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकृति दी है ।  बहुभाषाई परिवेश में एक संपर्क भाषा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि भाषाओं की विविधता की वजह से हमारी भावनाएँ एक दूसरे से पृथक न करें, इसके लिए एक माध्यम भाषा की जरूरत होती है जिससे एकता संभव है और भारत में ऐसी विशिष्ट भूमिका हिंदी निभा रही है ।  दक्षिण में हिंदी प्रचार-प्रसार की जरूरत एवं महत्व के आलोक में ही देश के कई विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्ययन विभागों की स्थापना की गई है ।  उन्होंने कहा कि श्री चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की स्थापना इसी उद्देश्य से की गई है जिसका उत्तरोत्तर विकास स्नातकोत्तर एवं शोध अध्ययन की सुविधाओं के साथ सुनिश्चित किया जाएगा ।  विश्वविद्यालय के मानविकी एवं  संस्कृत विद्यापीठ के अध्यक्ष आचार्य नारायण जी झा ने अपने संबोधन में कहा कि संस्कृत की सबसे प्यारी बेटी हिंदी है ।  हिंदी को जो स्थान व्यावहारिक धरातल पर मिलना चाहिए वह कुछ निहित स्वार्थों की वजह से वंचित है ।  यह दुरवस्था हमेशा के लिए नहीं रहेगी, हिंदीतर प्रदेश में हिंदी के प्रति आदर व लोकप्रियता ही इसका प्रमाण है कि हिंदी का भविष्य उज्जवल है ।  समारोह में प्रबंधन विद्यापीठ के अध्यक्ष आचार्य के.पी.वी. रमणकुमार, अभियांत्रिकी विद्यापीठ के अध्यक्ष आचार्य के. श्रीनिवास, शिक्षा एवं विज्ञान विद्यापीठ के अध्यक्ष आचार्य के.वी.एस.एन. मूर्ति, विशिष्ट अतिथि के रूप में उप स्थित श्री कांचीकामकोटि पीठाधिपति जगद्गुरु श्री शंकराचार्य श्री मठ संस्थानम् के प्रतिनिधि श्री शर्मा जी तथा राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ के साहित्य विभाग के अध्यक्ष, आचार्य जी.एस.आर. कृष्णमूर्ति ने अपने वक्तव्य में हिंदी के महत्व, हिंदी के सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विशिष्टता के विविध आयामों पर प्रकाश डालते हुए हिंदी को अपनाने की प्रासंगिकता पर बल दिया तथा अपील की कि हिंदी को अपनाकर राष्ट्र गौरव बढ़ाओ ।

मुख्य अतिथि एवं पांडिच्चेरी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के सहायक प्रोफ़ेसर डॉ. सी. जय शंकर बाबु ने अपने विस्तृत भाषण में हिंदी के ऐतिसाहिसिक परिप्रेक्ष्य और बहुभाषाई परिवेश में एक संपर्क भाषा के महत्व पर प्रकाश डाला और छात्रों द्वारा हिंदी अपनाने, हिंदी में अध्ययन व शोध के लाभों तथा रोज़गार के अवसरों से अवगत कराया । दक्षिण में हिंदी के प्रवेश के संबंध में स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि लगभग एक हजार वर्षों पूर्व ही तीर्थाटन के माध्यम से दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचलन हुआ था ।  दक्षिण भारत को भाषाई सद्भावना की उर्वरभूमि के रूप में अभिहित करते हुए उन्होंने कहा कि 18 वीं सदी में केरल तिरुवितांकूर के राजवंश में जन्म राजा रामवर्मा ने हिंदुस्तानी व ब्रज के कई गीत रचे थे ।  स्वाति तिरुनाल के नाम से वे संगीत जगत में विख्यात हुए हैं ।  आजादी आंदोलन के दौरान हिंदी प्रचार-प्रसार एवं शिक्षण के प्रयासों के संबंध में स्पष्ट करते हुए उन्होंने यह तथ्य उजागर किया कि दक्षिण में गांधी जी के आह्वान पर हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा हिंदी प्रचार अभियान शुरू होने से लगभग एक दर्जन वर्ष पूर्व ही 1907 में ही तमिल के महाकवि सुब्रमण्य भारती ने चेन्नई के तिरुवितांकूर (वर्तमान ट्रिप्लिकेन में) हिंदी कक्षाओं का आयोजन करवाया था और उन्होंने भाषाई प्रेम का विशिष्ट उदाहरण उपस्थित करते हुए उसी अवधि में अपने संपादन में प्रकाशित इंडिया अखबार में हिंदी पाठ धारावाहिक प्रकाशित करके जनता को हिंदी सीखने की प्रेरणा दी थी ।  गांधीजी ने 1918 मार्च में इंदौर में संपन्न हिंदी साहित्य सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशन के सभापति के रूप में यह इच्छा जतायी थी कि दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार-प्रसार किया जाए ।  गांधीजी मानते थे कि हिंदी भारत को एकता के सूत्र में जोड़नेवाली कड़ी है ।  गांधीजी तथा आजादी आंदोलन में शामिल लगभग समूचे नेताओं ने एक संपर्क भाषा के रूप में हिंदी के प्रचार पर बल दिया था, जिसके परिणामस्वरूप और बड़ी संख्या में बोली व समझी जानेवाली जन भाषा होने के नाते हिंदी को आजाद भारत की संविधान सभा ने राजभाषा के रूप में स्वीकृति दी थी ।  उन्होंने राजभाषा संबंधी संवैधानिक प्रावधानों के आलोक में तत्पश्चात राजभाषा अधिनियम व नियम के बनने और देश में राजभाषा के रूप में वर्तमान स्थिति के आलोक में युवा पीढ़ी को आह्वान दिया कि अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की एक राजभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकृति दिलाने की दिशा में हमें हर किसी को अपनी भूमिका सुनिश्चत करने की जरूरत है ।  उपलब्ध सूचना एवं संचार तकनीकों का प्रयोग करते हुए हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं के विकास में युवा पीढ़ी निश्चय ही योगदान दे सकती हैं जिससे कि विविधता में एकता वाली संकल्पना साकार हो जाएगी ।  हिंदी में उपलब्ध रोज़गार के अवसरों पर भी उन्होंने विस्तार से प्रकाश डाला ।

विश्वविद्यालय के कुल सचिव आचार्य डॉ. जी. श्रीनिवासु ने स्वागत भाषाण दिया और हिंदी विभाग के सहायक आचार्य डॉ. डी. नागेश्व राव ने कार्यक्रम का संचालन किया ।  हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित विविध प्रतियोगिताओं के विजेताओं को कुलपति, मुख्य अतिथि तथा कुल सचिव के करकमलों से पुरस्कार व प्रमाणपत्र वितरित किए गए ।  हिंदीतर प्रदेश में हिंदी दिवस के इस कार्यक्रम में हिंदी के अनूठे महौल ने श्रोताओं को अभिभूत कर दिया ।



Wednesday, September 11, 2013

कविता - वो लड़की...


कविता

वो लड़की...

आदिल रशीद 

वो लड़की क्या बताऊँ तुमको कितनी खूबसूरत थी
बस अब ऐसा समझ लीजे परी सी खूबसूरत थी

हवा के जैसी थी चंचल, नदी के जैसी थी निर्मल 
महक उसके बदन की ज्यूँ महकता है कोई संदल

सुनहरी ज़िंदगी के थे हसीं गुलदान आँखों में 
बसाये रखती थी साजन के जो अरमान आँखों में


वही जो आईने के सामने सजती संवरती थी
वो शर्मीली सी इक लड़की जो खुद से प्यार करती थी

वही जो आईने के सामने घूंघट उठाती थी 
उठा कर अपना ही घूँघट जो खुद से ही लजाती थी


वही जो फूल के जैसे ही हंसती खिलखिलाती थी
ये दुनिया खूबसूरत है वो हर इक को बताती थी 

ये दुनिया खूबसूरत है वो अब इनकार करती है 
वो लड़की आईने के सामने जाने से डरती है


ये शतरूपा की बेटी है, यही हव्वा की बेटी है 
यही ज़ैनब, यही मरयम, यही राधा की बेटी है 


जिसे अल्लाह ने पैदा किया है मर्द की ख़ातिर 
वो कितने दुःख उठाती है उसी हमदर्द की ख़ातिर 


सता कर जो भी मासूमों को खुद को मर्द कहते हैं
जो इन्सां हैं वो ऐसे लोगों को नामर्द कहते हैं

अब इन वहशी दरिंदों को यूँ गर्क़ ए आब कर दीजे 
सज़ा तेज़ाब की दुनिया में बस तेज़ाब कर दीजे 


ग़र्क़ ए आब = पानी में ग़र्क़ करना, पानी में डुबो देना 
आदिल =न्याय करने वाला 
 

Monday, September 9, 2013

अंतिम व्यक्ति न भूलना ही महानताः दिग्विजय सिंह
      वरिष्ठ पत्रकार और राजनेता बी.आर.यादव पर 
एकाग्र पुस्तक कर्मपथ का लोकार्पण




 मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अखिलभारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव दिग्विजय सिंह का कहना है कि पद पर रहते हुए अंतिम व्यक्ति को न भूलना ही राजनीतिज्ञ की महानता होती है। वे यहां मप्र शासन में मंत्री रहे वरिष्ठ पत्रकार श्री बी.आर.यादव के लोक अभिनंदन और उन पर एकाग्र पुस्तक 'कर्मपथ का विमोचन समारोह को संबोधित कर रहे थे। पुस्तक का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया है।
   मीडिया विमर्श पत्रिका द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम के मुख्यअतिथि की आसंदी से संबोधित करते हुए श्री दिग्विजय सिंह ने कहा कि श्री बीआर यादव से उनका संबंध 1977 से है पर उन्होंने भूल से भी किसी की कभी बुराई नहीं की। यादव एक नेता होने से ज्यादा समाजवादी हैं। पद पर रहते हुए भी उन्हें राज्य के अंतिम व्यक्ति की चिंता रहती थी। उनकी राजनीतिक सूझबूझ के सिर्फ वे ही नहीं, दूसरे नेता भी कायल रहे हैं। यही वजह कि मैं अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में हमेशा उनसे सलाह करके ही कोई कदम उठाता था।
  कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे छत्तीसगढ़ विधानसभा के अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने कहा कि श्री बी.आर. यादव का समूचा जीवन सादा जीवन और उच्च विचार का उदाहरण है। अपने कार्यकाल में वे एक अच्छे राजनीतिज्ञ रहे जो पक्ष-विपक्ष दोनों से तालमेल बिठाकर चलते थे। इसलिए वे सभी के चहेते हैं। उनका कोई विरोधी नहीं है। राजनीति के क्षेत्र में जो उचाईयां पहले थीं आज नहीं रह गयी हैं। किंतु श्री यादव जैसे नेताओं का अनुसरण करके आगे वह दौर वापस लाया जा सकता है।
  केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री डा. चरणदास महंत ने कहा कि बीआर यादव उन नेताओं में हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य के गठन में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया के नारे को भी उन्होंने जीवंत बनाया।
अजातशत्रु हैं बी.आर.यादवः  
   छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल ने कहा कि यादवजी राजनीति के अजातशत्रु हैं। वे ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनका न तो कोई पहले शत्रु था न आज है। राजनीति में उनका नाम ऐसे नेताओं में शामिल है, जिसकी प्रशंसा सभी करते हैं। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रवींद्र चौबे, विधायक धर्मजीत सिंह, समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर, पत्रकार पं.श्यामलाल चतुर्वेदी, गोविंदलाल वोरा, पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर, मप्र लोकसेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष विनयशंकर दुबे ने भी आयोजन को संबोधित किया। इस अवसर पर नगर की अनेक संस्थाओं ने श्री बीआर यादव को शाल-श्रीफल देकर सम्मान किया।
संजय द्विवेदी का सम्मानः
 इस अवसर पर मुख्यअतिथि दिग्विजय सिंह ने कर्मपथ के संपादक संजय द्विवेदी को शाल-श्रीफल और प्रतीक चिन्ह देकर सम्मानित किया। उन्होंने कहा पुस्तक का संपादन कर संजय द्विवेदी ने एक ऐतिहासिक काम किया है। क्योंकि इससे राजनीतिक इतिहास का एक संदर्भ बनेगा जिससे आने वाली पीढियां इस दौर के नायक बीआर यादव को जान-समझ सकेंगीं।

क्या है पुस्तक मेः
    श्री बी.आर. यादव पर केंद्रित पुस्तक कर्मपथ में मप्र और छत्तीसगढ़ के अनेक प्रमुख राजनेताओंपत्रकारों एवं साहित्यकारों के लेख हैं। इस किताब के बहाने 1970 के बाद और छत्तीसगढ़ गठन के पूर्व की राजनीति और सामाजिक स्थितियों का आकलनकिया गया है। श्री बीआर यादव के बहाने यह किताब सही मायने में एक विशेष समय की पड़ताल भी है।  पुस्तक में सर्वश्री मोतीलाल वोरा,दिग्विजय सिंह,कमलनाथबाबूलाल गौरडा. रमन सिंहचरणदास महंतबृजमोहन अग्रवालचंद्रशेखर साहू,सत्यनारायण शर्माअमर अग्रवालअजय सिंह राहुलरधु ठाकुरमूलचंद खंडेलवालपं. श्यामलाल चतुर्वेदीस्व. नंदकुमार पटेल,पद्मश्री विजयदत्त श्रीधररमेश वल्यानीगिरीश पंकज,अरूण पटेलउमेश त्रिवेदीबसंत कुमार तिवारीरमेश नैयरधरमलाल कौशिकधीरेंद्र कुमार सिंहप्रो. कमल दीक्षितस्वराज पुरीसतीश जायसवालआनंद मिश्राबजंरग केडियाराधेश्याम शुक्ला,परितोष चक्रवर्तीडा. सुशील त्रिवेदीहरीश केडियाबबन प्रसाद मिश्रडा. सुधीर सक्सेनाडा. सच्चिदानंद जोशीआर.एल.एस.यादव,चंद्रप्रकाश वाजपेयीबल्लू दुबेप्रवीण शुक्लारूद्र अवस्थीबेनीप्रसाद गुप्ताडा. कालीचरण यादवडा. रमेश अनुपमविनयशंकर दुबे,उमाशंकर शुक्लमनोज कुमारडा.श्रीकांत सिंहडा.सोमनाथ यादवबुधराम यादव आदि के लेख शामिल हैं।

पुस्तक का नामः कर्मपथ 
मूल्यः 300 रूपए (सजिल्द), 150 रूपए( पेपरबैक)
प्रकाशकः मीडिया विमर्श,428-रोहित नगरफेज-1, भोपाल-39


                                                                    (संजय द्विवेदी)