आलेख
नारी विषयक अवधारणा : वैदिक काल से आज तक
- इ. जयलक्ष्मी*
भारतीय नारी हमेशा कुलदेवी
समझी जाती है। वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति सभी प्रकार से अच्छी थी। उनको एक
ऊँचा स्थान प्राप्त था। लड़कियाँ ब्रह्मचर्य का पालन करती थीं। आश्रम में शिक्षा
प्राप्त करती थीं। सह शिक्षा का प्रचलन था।
चारों वेदों में नारी विषयक
सैकड़ों मंत्र दिये गये हैं, जिनसे स्पष्ट है कि वैदिक काल में समाज में नारी को
एक ऊँचा स्थान प्राप्त था। ऋग्वेद में 24 और यजुर्वेद में 5 विदुषियों का उल्लेख
है।
ऋग्वेद में नारी विषयक 422
मंत्र हैं। वेदों में कहा गया है कि गृहिणी गृहदेवी है। सुशील पत्नी गृहलक्ष्मी
है। नारी कुलपालक है। नारी कुटुम्ब का चिराग है। स्त्री अबला नहीं, सबला है।
स्त्री सरस्वती तुल्य प्रतिष्ठित है। शतपथ ब्राह्मण में नारी का गौरव-गाथा गाया
गया है। ब्राह्मण ग्रंथों में भी नारी को सावित्री कहा गया है। पत्नी के बिना जीवन
अधूरा रहता है। पत्नी साक्षत् श्री है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्र नार्यस्तु न पूज्यन्ते सर्वास्त जा फल क्रिया।
जो अपने परिवार का कल्याण
चाहते हैं, वे स्त्रियों का आदर-सम्मान करें। अथर्ववेद में पत्नी को ‘रथ की धुरी’ कहकर गृहस्थ का आधार माना गया है।
दक्षस्मृति में पत्नी को घर
का मूल माना गया है। यदि भार्या वश में हो तो गृहस्थाश्रम के तुल्य और कुछ नहीं।
पत्नी के द्वारा ही धर्म,
अर्थ, काम आदि त्रिवर्ग का फल प्राप्त होता है। गृह का निवास, सुख के लिए होता है
और घर के सुख का मूल पत्नी ही है। स्त्री के अर्धांकिनी रूप की स्वीकृति उपनिषद और
ब्राह्मण ग्रंथों में उल्लेखित है। यजुर्वेद के अनुसार वैदिक काल में कन्या का
उपनयन संस्कार होता था। उसे सन्ध्यावन्दन करने का अधिकार था।
पी.एन. प्रभु ने लिखा है कि
जहाँ तक शिक्षा का सम्बन्ध था, स्त्री-पुरुष की स्थिति सामान्यतः समान थी।
स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करती थीं। इस काल में अनेक विदुषी स्त्रियाँ होती थीं।
स्त्रियाँ चाहतीं तो अपना जीवन बिना विवाह किये व्यतीत कर सकती थीं। लड़कियाँ अपना
जीवन-साथी चुनने के लिए स्वतंत्र थीं।
महाभारत के अनुसार, ‘वह घर, घर नहीं जिसमें में पत्नी नहीं।’ गृहिणीहीन घर ‘जंगल’ है।
स्त्रियाँ सामाजिक संबंध
स्थापित करने के लिए स्वतन्त्र थीं। पर्दा-प्रथा नहीं थी। पुरुषों द्वारा
स्त्रियों की रक्षा करना परम कर्त्तव्य माना जाता था। विधवा स्त्री पुनर्विवाह कर
सकती थी। स्त्री-पुरुष समान रूप से धार्मिक कृत्यों को करते थे। किसी भी यज्ञ आदि
में पति-पत्नी दोनों का होना आवश्यक था।
अतः इससे यह स्पष्ट होता है
कि वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के समान अच्छी थी।
उत्तर वैदिक काल
ईसा से पूर्व 600 वर्ष से लेकर ईसा के 300 वर्ष बाद तक का काल उत्तर वैदिक काल
कहलाता है। वैदिक काल में तो स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी। परन्तु बाद में उनकी
स्थिति में परिवर्तन होने लगा।
उत्तर वैदिक काल के
प्रारंभिक वर्षों में स्त्रियों की स्थिति ठीक थी। वे इस काल में भी वेदों का
अध्ययन कर सकती थीं। वे अपने वर को स्वयं चुन सकती थीं। उनके धार्मिक और सामाजिक
अधिकार यथावत् थे। परन्तु इस काल में जैन और बौद्ध धर्म का प्रचार व्यापक रूप से
हो रहा था। अनेक स्त्रियों ने इन धर्मों के प्रचार का कार्य किया।
बौद्ध धर्म और जैन धर्म ने
भी स्त्री का समर्थन किया है। स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है कि वे ही देश उन्नति
कर सकते हैं, जहाँ स्त्रियों को उचित स्थान प्राप्त होता है। पुराने ज़माने में
स्त्री के बिना कोई भी मंगल कार्य नहीं किया जाता था। उदाहरण में सीता की
अनुपस्थिति में श्रीराम ने सीता की स्वर्ण प्रतिमा को वाम भाग में बिठाकर ही यज्ञ किया
था। बाद में जब इन धर्मों का पतन हुआ तो उसके साथ ही स्त्रियों की स्थिति में भी
परिवर्तन आने लगा।
पुरुष वर्ग की सुविधा के
अनुसार नारियों की स्वतंत्रता पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिये गये। यज्ञ करना तथा
वेदों का अध्ययन प्रतिबन्धित हो गये। विधवा पुनर्विवाह पर रोक लगा दी गयी। शिक्षा
प्राप्त करना कठिन हो गया।
स्मृति युग में स्त्रियों के
समस्त अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। स्मृतिकारों ने स्त्री को प्रत्येक अवस्था
में परतंत्र बना दिया। उसे बचपन में पिता के संरक्षण में, युवास्था में पति के और
वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में रहने के आदेश दिये गये।
पिता रक्षति कौमारे
भर्ता रक्षति यौवने
पुत्रो रक्षति
वार्द्धक्ये
न स्त्री
स्वतंत्रग्यमर्हति
स्त्री के लिए एक मात्र
कर्त्तव्य पति की सेवा करना रह गया। विधवा – पुनर्विवाह बन्द कर दिये गये तथा सति
का प्रावधान निश्चित कर दिया गया। इस प्रकार स्त्रियों की स्थिति दयनीय और शोचनीय
हो गयी।
धर्मशास्त्र काल
यह काल ईसा के पश्चात् तीसरी शताब्दी से लेकर 11वीं शताब्दी तक का है। जो कुछ
मनुस्मृति में स्त्रियों के प्रतिबन्धों के बारे में लिखा गया था उसे धर्मशास्त्र
काल में व्यावहारिक रूप दिया गया। सभी ग्रंथों की रचना मनुस्मृति के आधार पर होने
लगी। पराशर विष्णु और याज्ञवल्क्य संहिताओं की रचना इसका साक्षी है। समाज और
स्त्रियों पर अधिक प्रतिबन्ध लगाये गये। स्त्री-शिक्षा पर पाबन्दी लग गयी। कन्याओं
के विवाह की आयु घटकर 10-12 वर्ष रह गयी।
बाल-विवाह का प्रचलन बढ़
गया। वर के चुनाव में कन्या का अधिकार समाप्त हो गया। कुलीन विवाह तथा अनमेल विवाह
तथा बाल विवाह का महत्व बढ़ने से बहुपत्नी सम्प्रदाय होने लगे। रखैल रखने की
रिवाज़ प्रारंभ हो गयी। विधुर चाहें तो 8 या 10 वर्ष की कन्या से विवाह कर सकता
था। लेकिन 8 या 10 वर्ष की कन्या का पति मर जाए तो वह आजीवन विधवा बनकर रहने के
लिए मज़बूर हो जाती थी। तो विधवाओं की संख्या बढ़ने लगी। स्त्रियाँ माता से सेविका
और गृहलक्ष्मी से याचिका बन गयीं। स्त्रियों के लिए विवाह ही एकमात्र धार्मिक
संस्कार रह गया।
इस काल ने नारी को उपभोग की
वस्तु मात्र बना दिया। इस काल में स्त्रियों का स्थान सभी क्षेत्रों में पुरुष से
निम्न हो गया। स्त्रियों के पतन का सबसे अधिक ज़िम्मेदार धर्मशास्त्र काल रहा है।
मध्यकाल
11वीं शताब्दी से लेकर 18वीं तक का समय मध्यकाल कहलाता है। मध्यकाल के आते-आते
स्त्री की दशा दयनीय होने लगी। समाज में उसका स्थान गौण हो गया। उसके सारे अधिकार
छील लिये गये। एक ओर उसके पैरों में पराधीना की बेड़ी पहनायी गयी तो दूसरी ओर
पुरुष उसपर मनमाना अत्याचार करता रहा।
11वीं शताब्दी के प्रारंभ
में मुसलमान भारत में आकर अपने पैर ज़माने लगे। उनका प्रभाव भारत पर बढ़ने लगा।
हिन्दू धर्म और संस्कृति को मुस्लिम धर्म और संस्कृति से सुरक्षित रखने के लिए
अनेक प्रयत्न किये गये। परन्तु उसके विपरीत फल होने लगा। स्त्रियों की स्थिति और
बिगड़ने लगी। स्त्रियों के सतीत्व तथा रक्त की शुद्धता के लिए अब 5 या 6 वर्ष की
आयु में ही कन्याओं का विवाह होने लगा। स्त्रियों को चारदीवारी में रखा जाने लगा।
पर्दे की प्रथा प्रचलित हुई। स्त्री-शिक्षा पर रोक लगा दी गयी। विधवा-पुनर्विवाह
पर रोक लगा दी गयी। सम्पत्ति में स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं था। आर्थिक
दृष्टिकोण से स्त्रियाँ परतंत्र हो गयीं।
अतः ये ही तथ्य हमारे सामने
आते हैं कि मध्यकाल में धर्म के नाम पर तथा मुसलमानों से हिन्दू धर्म और संस्कृति
की रक्षा की आड़ में नारी पर अनेक प्रतिबन्ध लगाकर उसका घोर शोषण किया गया।
ब्रिटिश काल
18वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों से लेकर 1947 तक के समय को ब्रिटिश काल मानते
हैं। ब्रिटिश शासन काल में हिन्दू स्त्रियों के सुधार के लिए भी अंग्रेज़ी सरकार
ने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया।
परिवार का मुखिया पुरुष होता
था। स्त्री तो केवल सन्तानें पैदा करने का तथा घर-गृहस्थी के कार्य करने का उपकरण
बन गयी। पति कैसा भी हो, स्त्री को विवाह-विच्छेद करने का अधिकार नहीं था। विधवा
होने पर उसकी स्थिति बड़ी करुणामयी हो जाती थी। मनोरंजन के कोई साधन नहीं थे।
बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा के कारण घर के बाहर जाकर उसे औपचारिक शिक्षा प्राप्त
करने का अधिकार नहीं था। समाज में उसका कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं था। सम्पन्न
परिवारों में बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी।
स्त्रियों का कार्यक्षेत्र
मात्र घर की चारदीवारी था। सन् 1937 से पहले तक स्त्री को आर्थिक क्षेत्र में कोई
विशेषाधिकार प्राप्त नहीं थे। उसके बाद स्त्रियों को केवल स्त्री-धन संबंधी अधिकार
प्राप्त थे। स्त्रियाँ घर के बाहर जाकर कोई आर्थिक कार्य नहीं कर सकती थीं।
संयुक्त परिवार में उन्हें कोई भी सम्पत्ति संबंधी अधिकार प्राप्त नहीं थे।
राजनैतिक क्षेत्र में सन्
1919 तक स्त्रियों को मताधिकार देने का अधिकार पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं था।
महात्मा गाँधी ने स्त्रियों को घर के बाहर लाने का प्रयास किया, जिसके फलस्वरूप
स्त्रियों ने स्वतंत्रता-आन्दोलन आदि में भाग लेना प्रारंभ किया।
आधुनिक काल
पुरुषों ने नारी जाति के सारे स्वप्नों का अपहरण किया। भारतीय समाज ने एक मत
में स्वीकार किया कि स्त्री स्वतंत्रता की अधिकारी नहीं है।
पुरुषों ने उसे घर की
चहारदिवारी के अन्दर बंद कर दिया। शिक्षा से भी वह वंचित रह गयी और उसे आर्थिक
स्वतंत्रता भी प्राप्त नहीं थी। भारतीय हिन्दू समाज में सति की प्रथा आरंभ हो गयी।
यद्यपि आज इसपर कानूनी रोक लगा दी गयी है तो भी उत्तर भारत के कुछ प्रदेशों में आज
भी पुलिस की आँख बचाकर यह लुके-छिपे चल रही है। आज नारी की स्थिति यही है कि अपने
घरों में अपनों के हाथों से पिटने, जलीन होने और मर्दानी ताकत के आगे घुटने टेक
पुरुष के सभी अत्याचारों को अपना नसीब मानकर सहते रहने की रिवाज़ लम्बे अरसों से
चली आ रही है।
आज गर्भ से लेकर समाज तक के
सफ़र में वह हर कहीं असुरक्षित है। आज के शिक्षित समाज में भी कितनी बेटी-भ्रूण
हत्याएँ दिनोंदिन होती रहती हैं। आज समाचार-पत्र खोलते ही स्त्री उत्पीडन की बातें
ही दिखाई देती हैं।
अब हम दहेज को ही लें। आज
दहेज भारतीय समाज के माथे पर एक बहुत बड़ा कलंक बन चुका है। आज लड़की बाज़ार बिकनेवाली
वस्तु की तरह बन गयी है। लड़का जितना पढ़ा-लिखा और जितने संपन्न परिवार का होगा,
उसकी उतनी ही ज़्यादा कीमत बाज़ार में आंकी जाती है।
सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप
से आज के शिक्षित समाज में भी स्त्री, पुरुष के अधीन है। भारतीय साहित्य में
स्त्री की स्तुति की गयी है तो भी व्यावहारिक तौर पर बात कुछ उल्टी है। पुरुष
मानसिकता प्रायः सभी जाति – समुदायों में एक जैसी ही है। मुस्लिम समुदायों में माँ
को ‘पाँवों तले जन्नत’ कहा है। लेकिन जहाँ
बात नारी की है वहाँ पुरुष समाज अधिकांश तौर पर स्त्री को भाग्य की दृष्टि से ही
देखते हैं।
महिलाओं के सामने आज भी
चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है। आज भी औरत का दर्जा एक उपेक्षित स्तर तक सीमित है।
प्राथमिक विद्यालयों में प्रवेश करनेवाली 100 लड़कियों में सिर्फ़ 30% ही पढ़ाई पूरी करके बाहर आती हैं। शिक्षा एवं मानव सभ्यता के क्रमिक विकास के
प्रयासों से शहरी समाज की उच्च एवं मध्यवर्गीय महिलाओँ की स्थिति में अवश्य
परिवर्तन आया है। पर मुट्ठीभर की महिलाओं की स्थिति बदलने से समाज की तस्वीर
बदलनेवाली नहीं है। महिलाएँ किसी भी देश की आबादी का आधा भाग है। उनको अनदेखी करके
वास्तविक विकास को मूर्त रूप नहीं दिया जा सकता।
लड़की की शारीरिक रचना को
लेकर बनाये गये सामाजिक सांस्कृतिक नियम तथा परंपराएँ उसे लड़के के पीछे चलने को
मज़बूर कर देती हैं। उसके मन में हमेशा पुरुष से बचकर रहने की चिन्ता रहती है,
जिससे उसे अपना समूचा जीवन रक्षात्मक होकर जीना पड़ता है।
प्रेमविवाह, सेक्स इत्यादि
में बराबर की ज़िम्मेदारी होने पर भी कलंक या अपमान की छींटें लड़की के हिस्से में
ही आती हैं। बलात्कार अधिकतर स्त्री की अनिच्छा और पुरुष की ज़बरदस्ती से ही होता
है। लेकिन स्त्री को ही समाज दोषी बताता है। समाज की दृष्टि में वेश्या को समाज का
कोढ मानकर अपमान के गढ्डे में ढकेल दिया जाता है। उदाहरण में ‘सेवासदन’ की सुमन की बात लें – सुमन का प्रेमी सदन भी उसे अंत में
देश्या कहकर उसकी निन्दा करता है। समाज की दृष्टि में सदन निष्कलंक है। सुमन को
गाँव से बाहर निकालते हैं। सुमन का पति गजाधर आत्महत्या करने के श्रम से उसे बचाकर
सेवासदन में प्रवेश दिलाकर एक नवजीवन उसे प्रदान कर देता है। लेकिन पत्नी के रूप
में उसे स्वीकार करने के लिए वह तैयार नहीं होता।
आज आधुनिक नारी को पग-पग पर
अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कहीं अपने माँ-बाप से है तो कहीं अपने
पति से, कहीं समाज से है तो कहीं अन्य लोगों से। आज सृष्टि की दात्री का भाग्य
इतना दयनीय क्यों?
उपसंहार
बदलाव प्रकृति का नियम है, समय की परिभाषा है। आज नारी के जीवन में हर मोड़
में बदलाव परिलक्षित है। उसके व्यक्तित्व में ठहराव नहीं, गतिशीलता है। वह एक स्रोत
है, जो कभी नहीं सूखता। निरन्तर प्रवाहमान है। यह प्रवाहधारा जो है, वह अविरत गति
से बहती रहती है। लेकिन मंद नहीं पड़ती। वही मानवता का हेतु है और वही है मानवता
का सेतु भी। नारी को खुली किताब की संज्ञा दें तो उसमें अतिशयोक्ति नहीं, उस ममता
का आंचल सबको आश्रय देता है, सभी रिश्ते उससे जुड़कर सार्थक होते हैं।
*****
*इ. जयलक्ष्मी कर्पगम विश्वविद्यालय, कोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में
डॉ. के.पी. पद्मावति अम्माल के निर्देशन में पी.एचडी. उपाधि के लिए शोधरत हैं ।
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