शोध-आलेख
अलका सरावगी के उपन्यासों
में नारी मुक्ति का बदलता रूप
अलका सरावगी Photo Courtesy - http://kalpana.it |
- सरिता विश्नोई*
नवें
दशक में भारतीय साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव नारी विमर्श के कारण आया,
जिसके कारण नारी ने साहित्य के केन्द्र बिन्दु से होकर मुख्यधारा में
अपनी जगह बनायी। हिन्दी कथा-साहित्य इससे सर्वाधिक प्रभावित हुआ। वर्तमान दौर में
स्त्री चेतना से जुड़ी स्त्री मुक्ति और अस्मिता के संकट व पहचान के संघर्ष को
व्यक्त करने वाली अनेकानेक कथा लेखिकाएँ हैं, जिनमें
उषा प्रियंवदा, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा, कृष्णा सोबती, शशिप्रभा शास्त्री, मेहरुन्निसा परवेज, मन्नू भंडारी, ममता
कालिया, मृदुला गर्ग, मृणाल
पांडेय, सूर्यबाला, राजी
सेठ, चन्द्रकान्ता, नासिरा
शर्मा, प्रभा खेतान, मैत्रेयी
पुष्पा, चित्रा मुद्गल, गीतांजलि
श्री, अलका सरावगी, अर्चना
वर्मा, अनामिका आदि प्रमुख हैं। इन महिला कथाकारों में
अलका सरावगी एक ऐसी लेखिका हैं, जिन्होंने अपने उपन्यासों ‘कलिकथा वाया
बाइपास’ (1998) ‘शेष कादम्बरी’ (2001), ‘कोई बात नहीं’ (2004) और ‘एक ब्रेक के बाद’ (2008) में स्त्री जीवन के विभिन्न पहलुओं और उसकी नितान्त बदली हुई तस्वीर
को सामने रखा है। अलका सरावगी चरित्रों और देशकाल को प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत
करने वाली कथाकार हैं। उनके उपन्यास स्त्री अस्मिता के नये प्रश्न हमारे सामने
रखते हैं।
अपने पहले उपन्यास ‘कलि-कथा: वाया बाइपास’ में लेखिका ने डेढ़ सौ साल
के मारवाड़ी समाज का चित्रण कर समाज में स्त्री की स्थिति को दर्शाया है।
‘कलि-कथा: वाया बाइपास’ उपन्यास के मारवाड़ी समाज में औरतों की स्थिति के बारे में
जहाँ किशोर बाबू सोचते हैं कैसी
जिन्दगी है हमारे घरों में औरतों की। सारे दिन घर में बंद रहती हैं। कभी बाहर
निकलना हुआ, तो जरीदार ओढ़नी ओढ़कर गरदन तक घूंघट
डालकर।’’ उसी मारवाड़ी समाज में विधवा स्त्री को बिना किनारी की सफेद साडि़यां
पहनने के सिवा कुछ और पहनने का अधिकार नहीं था। किशोर बाबू की भाभी जब यह सोच कर
कि ‘‘आज तो सब पढ़े-लिखे लोगों की जमात आएगी- खुले विचारों वाली। आज यह साड़ी
(खुशनुमा रंग के किनारी की) पहनने में कोई
हर्ज नहीं। बिना कनेर की सफेद साड़ीयां पहनते-पहनते उकता भी चली हैं। बहुत प्रसन्न
मन से वे साड़ी पहनकर शरमाती हुई कमरे से बाहर निकलीं।’[1] वहीं किशोर
बाबू अपनी पुरुषसत्ता व रूढि़गत मानसिकता के कारण यह स्वीकार नहीं कर पाते। वे
समाज की दुहाई देकर विधवा नारी को उसी स्थिति में बनाये रखना चाहते है, ‘‘तुम्हारा दिमाग क्या अब एकदम ही खराब हो गया है भाभी ? उम्र बढ़ने के साथ-साथ आदमी की अक्ल बढ़ती है, पर
मुझे लगता है यू. पी. (उत्तर प्रदेश) वालों की अक्ल कम होने लगती है। यह क्या इतने
चटक-मटक रंग की साड़ी पहनी है। क्या कहेंगे लोग देखकर। कुछ तो मर्यादा रखी होती
समाज में।’’[2] पुरुषसत्तात्मक
समाज में एक विधवा स्त्री का अच्छे कपड़े पहनने भर से ही मर्यादा खत्म होती है।
बंगाल
(कलकत्ता) में रहते हुए किशोर बाबू को मारवाड़ी समाज की स्त्रियों की पिछड़ी
स्थिति पर शर्म महसूस होती है। अपने समाज की रूढि़यों - घूंघट प्रथा, नाक छिदवाना आदि का विरोध करते हैं। किशोर बाबू अपनी लड़कियों को
पढ़ाने का फैसला लेते हैं, किन्तु अपनी पुरुषसत्तात्मक मानसिकता
से उभर नहीं पाते हैं, ‘‘सारी लड़कियों को उन्होंने कॉलेज भेजा-
यह अलग बात है कि उनमें से दो ने ही बी.ए. पास किया बाकी सबकी बीच में ही शादी हो
गई। उन्हें पढा़या-लिखाया, पर लड़कियों को रखा हमेशा एक सीमा में।
कभी उन्हें बरामदे में खड़े नहीं होने नहीं दिया ताकि सड़क के लोग उन्हें देख सके।
बस सड़क से उन्हें इतना ही जुड़ने दिया कि वे घर के दरवाजे से फुट-पाथ पार कर बाहर
खड़ी गाड़ी में बैठ जाए। कभी लड़कियों को अपनी सहेलियों के घर नहीं जाने दिया।
सहेलियों के साथ सिनेमा नहीं जाने दिया। कई बार लड़कियों ने रोना-धोना किया अपनी
दादी के सामने, पर किशोर बाबू टस-से-मस न हुए। इतनी
बड़ी ‘रिस्क’ वे कैसे ले सकते थे ? समाज में एक बार किसी बात की हवा उड़
गई, तो हमेशा के लिए बदनाम हो जाएंगे। इतने बरसों
का किया-कराया सब धरा का धरा रह जाएगा। पिंजरे के पक्षी को जन्म से ही पिंजरे में
रखा जाए, तो कष्ट नहीं मानता। पर एक बार खुले आकाश में
छोड़कर पिंजरे में बंद कर दें, तो वह अपना खाना-पीना छोड़ देता है।
आखिर लड़कियों को पराए घर जाना है, घर-गृहस्थी संभालनी है। ज्यादा पर
निकाल लिए तो मुसीबत हो जाएगी।’’[3] किशोर बाबू
लड़कियों के ज्यादा पढ़ने का भी विरोध करते हैं, ‘‘ज्यादा
पढ़ लेती तो ज्यादा पढ़े-लिखे लड़के की जरूरत होती। आखिर संभालनी तो घर-गृहस्थी ही
है लड़कियों को कोई हुंडी का भुगतान थोड़ी ही करना है।’[4]’ बदलते वक्त
के कारण किशोर बाबू भी अपनी पत्नी में स्वतन्त्र व्यक्तित्व का विकास चाहते हैं
किन्तु उनकी सारी चेष्टओं के बावजूद उनकी पत्नी के व्यक्तित्व का विकास नहीं हो
पाया। इसका कारण वे स्वयं स्वीकार करते हैं कि, ‘‘इसलिए
कि तुमने मेरी नकेल हमेशा अपने हाथों में कसकर पकड़े रखी। कभी अपने आप कोई निर्णय
नहीं लेने दिया- चाहे कितनी मामूली से मामूली बात क्यों न हो।’’[5] वे हमेशा
अपनी पत्नी को चाबी की गुडि़या की तरह चलाते रहे। अपनी पत्नी की काबिलियत पर कभी
भरोसा नहीं किया। सन्तान के रूप में लड़कियों के प्रति तिरस्कार की भावना सिर्फ
पुरुषों में ही नहीं है स्त्रियाँ भी सन्तान के रूप में पुत्र की कामना करती है।
किशोर की बड़ी लड़की पुत्र की कामना में तीसरा गर्भपात करवाती है।
अपने दूसरे उपन्यास ‘शेष कादम्बरी’ में लेखिका जहाँ एक ओर स्त्री मन
के कोमलतम उद्गारों को अभिव्यक्ति देती है, वहीं
पूर्ण संवेदना तथा साहस से स्त्री शोषण की विभीषिका को भी उद्घाटित करती है। ‘शेष
कादम्बरी’ के माध्यम से अलका सरावगी ने तीन पीढि़यों के द्वारा स्त्री जीवन की
विविध समस्याओं का यथार्थ रूप ही सामने नहीं रखा है, वरन्
अबला कही जाने वाली औरत के सशक्त व जुझारू व्यक्तित्व को भी दर्शाया है। उपन्यास
की प्रमुख पात्र रूबी दी के माध्यम से कलकत्ता के मारवाड़ी समाज में स्त्री की
स्थिति और भारतीय परिदृश्य में नारी जागृति के ऐतिहासिक विवेचन को देखा जा सकता
है। रूबी दी उपन्यास में एक ऐसे पात्र के रूप में उपस्थित है जो न पुरुष शासन से
शोषित है, न किसी से दमित जीवन जीती है, वह स्वतंत्र और आत्मनिर्भर जीवन जीती है। रूबी के माध्यम से अलका
सरावगी ने स्त्री से जुड़े विविध पहलुओं जैसे स्त्री की स्वतंत्रता, यातनातय जीवन जीते हुए संघर्षों में घिरी स्त्री से जुड़े प्रश्नों
को उभारा है। स्त्री के जीवन की नियति की ओर संकेत करते हुए लिखा है,‘‘ऐ औरत तूने जब भी किसी कोने में पुरुष से अलग अपना कुछ बनाया है,
तो तुझे इसकी कीमत देनी पड़ी है। लेकिन तुम इस ‘अपने’ पैसे की,
जो कभी तुम्हारा नहीं था और न कभी तुम्हारे हाथ में था, आखिर कितनी कीमत चुकाओगी?’’[6] इस उपन्यास में मारवाड़ी समाज का सच
अन्तर्बाह्य अनेक रूपों में खुलता है। रूबी दी की दुनिया का सच हमारे समाज का सच
सिद्ध होता है,‘‘क्यों नहीं सोचा कि सुधारक आप लड़के के
ब्याह करते समय हो सकते हैं, लड़की का ब्याह करते समय नहीं। आप
दुनिया की रस्मों को न मानकर अपने को दुनिया से अलग और ऊपर समझ सकते हैं, पर उससे आप दुनिया से बच नहीं सकते।’’[7] जीवन की ऐसी
ही अनेक चोटें खाकर रूबी दी परामर्श संस्थान के द्वारा स्त्री मात्र का दुख दूर
करने का बीड़ा उठाती है। रूबी दी का जीवन के प्रति दृष्टिकोण एक प्रेरणादायी
व्यक्तित्व के रूप में सामने आता है, जीवन में तमाम
तरह की तकलीफों, कष्टों व अकेलेपन को झेलती हुई वे
मानती हैं कि जीवन है तो उसका कोई अर्थ है जरूर, समझ
में आए या न आए। उसे अपने मन में खत्म करना कभी सही नहीं हो सकता।’’[8] उपन्यास के
अन्य पात्र सविता, माया बोस, फरहा,
कादम्बरी आदि स्त्री अस्मिता से जुड़े प्रश्न उठाने और साथ ही स्त्री
के यथार्थ की आवाज बुलन्द करने में सक्षम हैं। समय के साथ स्त्री की
सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति में आए बदलाव को लेखिका ने बारीकी से पकड़ा है।
अलका
सरावगी का ‘कोई बात नहीं’ उपन्यास मोटे तौर पर शारीरिक रूप से अक्षम एक बेटे शशांक
और उसकी माँ के प्रेम और दुख की साझीदारी की कहानी है। शशांक का जीवन कई तरह की
कथाओं से भरा हुआ है। शशांक के जीवन की कथाओं के माध्यम से अलका सरावगी शशांक की
माँ, मौसी, दादी आदि
स्त्रियों की जिन्दगी की कहानियाँ कहती हुई समाज में स्त्री की स्थिति पर प्रकाश
डालती है। शशांक की दादी का विवाह पन्द्रह साल की उम्र में एक रूढि़वादी परिवार
में हुआ जहाँ उन्हें अपने कमरे में जाने के लिए सास-ससुर के कमरे से होकर जाना
होता था। ऐसी स्थिति में उन्हें अपने कमरे में जाने के लिए भी किसी के साथ की
जरूरत थी। बड़ों के सामने मुँह खोलना उस जमाने में कोई सोच भी नहीं सकता था। शशांक
की दादी उसे बताती हैं कि ‘‘बंगाल में कोई अपनी लड़की नाम सीता नहीं रखता।
जनकनंदिनी सीता ने सारे जीवन दुख ही दुख जो देखा था। लेकिन मेरी माँ ने मेरा नाम
पता नहीं क्या सोचकर सीता रख दिया।’[9]’
दहेज
की समस्या नारी जीवन में हमेशा से रही है। शशांक की दादी बताती है कि
सर्वगुणसम्पन्न होने के बावजूद भी उनका विवाह दहेज की वजह से बहुत मुश्किल से होता
है।‘‘उस जमाने में बिना माँ की बेटी का ब्याह होना कोई आसान था ?माँ के बिना कौन दहेज-दायजा देता ? शादी
के बाद कौन लाड़-चाव करता ? तिस पर मेरे कोई भाई नहीं। बच्चों के
ब्याह में बहन को चुनड़ी उढ़ाने के लिए भाई तो चाहिए। माँ-बाप के बाद तो पीहर
भाइयों से ही होता है।’[10]’ इसीलिए
शशांक सोचने के लिए मजबूर हो जाता है कि, ‘‘लड़की
की शादी के समय बीस साल बाद उसके बच्चों की शादी के वक्त चूनड़ी उढ़ाने के लिए भाई
की भी चिंता उसी समय कर ली जाती है ?’’[11] दादी अपने जीवन के माध्यम से स्त्री
जीवन के सच को उद्घाटित करती है, ‘‘बेटा, वह
जमाना खराब था। बिना मिर्च-मसाले का खाना लड़कियों को मिलता, जिससे उनका मासिक देर से शुरू हो। नहीं तो ब्याहने की हड़बड़ मच
जाती। यदि कभी चाची से सुपारी माँगकर खा लेती, तो
दादी मुँह भींचकर सुपारी थुकवा देती- ‘पराए घर जाएगी। सुपारी खाती है।’ और बिन माँ
की लड़की पर सबकी नजरें खराब! तुझे क्या बताऊँ, बेटा
बड़ी मुश्किल से इज्जत बचती। जिसे मौका लगता, भींच
लेता।’’[12] औरत की
परिवार में स्थिति को बताते हुए अलका सरावगी ने लिखा है, ‘‘औरत
की जिन्दगी भी क्या है सचमुच ! बीस साल बाद भी वह पराए घर की ही रहती है। यहाँ तक
कि अपने बच्चों की नजर में भी।’[13]’
अपने
उपन्यास ‘एक ब्रेक के बाद’ में अलका सरावगी द्वारा कार्पोरेट दुनिया के स्त्री
चरित्रों का चित्रण अपने आप में स्त्री-विमर्श को नई दिशा देता है। इस उपन्यास में
भट्ट और उसकी पत्नी के माध्यम से अलका सरावगी स्त्री के सहने के शक्ति पर प्रकाश
डालती हैं, ‘‘भट्ट जानता था कि उसकी पत्नी उससे वह
सवाल नहीं पूछेगी जो हर घड़ी पूछना चाहती थी- ‘‘और कितना दुख दोगे मुझे ? या फिर ‘और कितना भटकोगे और भटकाओगे इस तरह ?’’[14] इसीलिए भट्ट सोचता है कि ‘‘सचमुच,
मेरा भारत महान् है क्योंकि यहाँ ऐसी पत्नियाँ मिलती हैं।’’[15] भट्ट सोचता
है कि, ‘‘वह अपनी पत्नी पर कभी उस तरह तानाशाही नहीं
चलाएगा जिस तरह दुनिया में पिताजी जैसे तमाम पति अपनी पत्नियों पर चलाते आए हैं और
रहेंगे।’’[16]
उपन्यास के अन्य पात्र के. वी की पत्नी ‘सोशल वेलफेयर होम’ के सिलसिले में बंगाल
के मुख्यमंत्री तक सम्मान ले चुकी थी। पढ़ी-लिखी व विशुद्ध अंग्रेजी बोलने वाली
महिला थी। खुद के. वी. ने किसी जमाने में उनकी बोलने और समझने की प्रतिभा पर रीझ
कर उनके प्रेम में पड़े थे। किन्तु के. वी. अपनी रूढ़िगत सोच से उभर नहीं पाता,
‘‘के. वी. की पत्नी ने इन दिनों ध्यान दिया था कि के. वी. उन्हें जब भी
कोई नई बात समझाते हैं, इस तरह बोलते हैं जैसे वे कोई अनपढ़
गँवार महिला हो। यहाँ तक कि के. वी. ने अपने बेटे को भी उनसे इसी तरह बात करना
सिखा दिया था। वह अदना-सा लड़का भी कुछ भी पूछने पर उनसे ऐसे बात करता था, जैसे वे दसवीं फेल हो। और उनमें कुछ भी समझने की योग्यता न हो। के.
वी. का छुपा हुआ ब्राह्मणत्व यानी दूसरों से ऊँचा होने का अंहकार उनके बेटे पर सौ
प्रतिशत हावी हो जायेगा, इसकी के. वी. की पत्नी ने कभी कल्पना
भी नहीं की थी।’[17]’
के. वी. की पत्नी सोचती भी हैं, ‘‘इन पुरुषों का अंहकार कभी कम होनेवाला
नहीं है। दुनिया की इन्हीं लोगों के कारण यह हालत है। सारे लड़ाई-झगड़े खत्म हो
जाएं, अगर ये लोग अपने को उतना ही काबिल समझने लग
जाएँ जितने की असल में हैं।’’[18]
अलका
सरावगी की विशिष्टता यह है कि वे स्त्री की प्रचारित और प्रचलित छवि को तोड़ती है।
अलका सरावगी अपने उपन्यासों के माध्यम से पुरुषों के द्वारा स्त्री पर किये गये
शोषण के साथ स्त्री जीवन के अन्य पक्षों पर भी सोचने के लिए मजबूर करती हैं। जिससे
उनके उपन्यास स्त्री जीवन की समस्याओं को उकेरने वाले महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बन
जाते हैं।
संदर्भ -
[1] अलका सरावगी,
कली-कथा: वाया बाइपास, आधार प्रकाशन,
पंचकूला (हरियाणा), तीसरा संस्करण,
2007, पृ.60
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