Saturday, April 19, 2014

राजनीति को आलोचना तो सहनी पड़ेगी

राजनीति को आलोचना तो सहनी पड़ेगी
सहिष्णु और लोकतांत्रिक बनें देश की राजनीतिक पार्टियां
 
 
-      यशवंत गोहिल
   
अजीब-सी बहस छिड़ी हुई है श्री संजय द्विवेदी पर। समझ नहीं पा रहा कि बहस की जरूरत ही क्यों? षड्यंत्र है। निश्चित रूप से। संजय द्विवेदी को झेलने की आदत है ऐसे षड्यंत्रों को, लेकिन सवाल ये है कि कांग्रेस की मति मारी गई है क्या? मध्यप्रदेश कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने आरोप लगाया है कि संजय द्विवेदी ने देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर अनर्गल टिप्पणी की है इस पर लेखक की आलोचना करते हुए उन्होंने उनको नौकरी से बर्खास्त करने की मांग भी कर डाली। क्या लेखकों को अपने लेखन की कीमत नौकरियां गवां कर चुकानी होगी? क्या देश में आपातकाल और सेंसरशिप के हालात हैं? अब देखें की इस शिकायत और कांग्रेस के गुस्से का आधार क्या है। वह है एक लेख, आडवाणी तो मैदान में, पर मनमोहन सिंह कहाँ हैं? इसमें संजय जी ने कुछ तथ्य रखे हैं, उन तथ्यों का विश्लेषण किया है। उन्होंने वही किया है, जो वे करते आए हैं। बिना किसी आग्रह-दुराग्रह-पूर्वाग्रह के एक सटीक टिप्पणी, सटीक विश्लेषण।

                                 
वे शब्दों के जादूगर हैं, व्यापारी नहीं
 
संजय जी को मैं तकरीबन 15 सालों से जानता हूँ। इन 15 सालों में वे मेरे गुरु भी रहे और दैनिक भास्कर, बिलासपुर और हरिभूमि-रायपुर में मेरे संपादक भी। इन बरसों में मैंने उन्हें हजारों लेख लिखते देखा है। लेकिन कभी भी, किसी भी लेख में कोई सौदा नहीं दिखा। कोई बाजार नहीं दिखा। वे शब्दों के जादूगर हैं, शब्दों के व्यापारी नहीं। लेख में आखिर उन्होंने कहा क्या है जो मध्यप्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता एक लेखक की कलम को धमका रहे हैं। चुनावी मौसम है। बड़े नेता आरोप-प्रत्यारोप कर रहे हैं। राहुल गांधी ने भाजपा पर आरोप लगाया कि नरेन्द्र मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी को बाहर कर दिया है और अडानी को अपना लिया है। तो संजय जी ने बेहद सभ्य, सटीक तरीके से तथ्यों के साथ अपनी बात रखी है इस लेख में। उन्होंने सवाल उठाया है कि आडवाणी तो अब भी मैदान में डंटे हुए हैं, चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन कांग्रेस के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कांग्रेस में कितना सम्मान है? बस। कहीं भी अनर्गल और अपमानजनक शब्दों का प्रयोग नहीं किया है पूरे लेख में। आप चाहें तो http://sanjayubach.blogspot.in/ संजय उवाच नामक उनके ब्लाग पर या फेसबुक पर वायरल हो चुके इस लेख को देख सकते हैं।
 
                किसके लिए इस्तेमाल हो रही है कांग्रेसः
 
कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता केके  मिश्रा जी की क्षुब्धता को मैं समझ हीं नहीं पाया। मैं समझ नहीं पाया कि माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के एक शिक्षक के खिलाफ शिकायत करने क्या हासिल करना चाह रहे हैं? बतौर पत्रकार मैं कई बड़े कांग्रेसी नेताओं के संपर्क में हूं लेकिन सारे के सारे संजय जी के खिलाफ की गई शिकायत से आश्चर्यचकित हैं। सवाल भी जेहन में उठ रहे हैं। ये मिश्रा जी का ही किया धरा है या फिर वे कांधे की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं। खैर! इसके पीछे जो भी हो, एक विचार को दबाने की ये कांग्रेस की कोशिश ही कही जाएगी। कांग्रेस देश की बड़ी पार्टी है। सबसे पुरानी पार्टी है लेकिन विचारों से उतनी ही दूर होती हुई पार्टी भी नजर आने लगी है। अगर समालोचना सह नहीं सकते तो लोकनीति के लिए राजनीति नहीं हो सकती।

  
निश्चित रूप से संजय जी एक विचारधारा से जुड़े हुए हैं। और ये किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है कि वे अपनी विचारधारा को चुनने के लिए स्वतंत्र हैं, तब तक जब तक वो देश के अहित में न हो। ये बड़ी बात भी नहीं है कि वे किसी विचारधारा से जुड़े हुए हैं। बड़ी बात ये है कि एक विचारधारा से जुड़े होने के बावजूद बतौर लेखक, बतौर विश्लेषक वे कभी भी अपनी विचारधारा को थोपते नहीं। उनके लेखन को मैंने कभी भी दुराग्रही नहीं पाया और न ही ये आरोप कोई लगा सका। वे तथ्यों को रखते हैं, उन तथ्यों के आधार पर अपनी बात साबित करते हैं। जाहिर है वे बिके हुए लेखक नहीं हैं। इसे प्रमाणित भी कर सकता हूँ। देश के बड़े कांग्रेसी नेता स्व. अर्जुन सिंह पर जो अभिनंदन ग्रंथ छपा, उसके संपादक मंडल में वे शामिल रहे। मध्यप्रदेश सरकार में चार-चार बार के मंत्री रहे कांग्रेस के नेता श्री बी.आर.यादव पर छपी किताब कर्मपथ को उन्होंने ही संपादित किया। जिसके लोकापर्ण समारोह में दिग्विजय सिंह, चरणदास महंत, रवींद्र चौबे से लेकर विनय दुबे से लेकर रधु ठाकुर तक बिलासपुर आए। उनकी अन्य पुस्तकों के विमोचन समारोह में अजीत जोगी, सत्यनारायण शर्मा, स्व. नंदकुमार पटेल जैसे कांग्रेस नेता आते रहे। संजय द्विवेदी का कवरेज एरिया बहुत व्यापक है वे राजनेताओं ही नहीं समाज के बौद्धिक वर्ग में खासी आमद रफ्त रखते हैं।
उदार लोकतांत्रिक व्यक्तित्वः
 
ऐसा नहीं है कि संजय जी ने केवल कांग्रेस की आलोचना ही की है। उन्होंने कई लेख ऐसे भी लिखे हैं जिसमें उन्होंने राहुल गांधी की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। उन्हें भविष्य का नेता बताया है। वे अन्ना हजारे के आंदोलन में अन्ना हजारे के साथ भी खड़े दिखाई देते हैं। आंदोलन और संघर्ष के समय उनकी कलम अरविंद केजरीवाल के साथ दिखती है तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की बारंबार आलोचना करते हैं, तीखी आलोचना करते हैं। माओवाद के सवाल पर उनके लेख देश भर के पत्रों में छपते हैं। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की कारगुजारियों पर कैसे वे भाजपा सरकार पर बरसते हैं। वे कैसे दरभा कांड में मारे गए कांग्रेसियों के साथ खड़े दिखते हैं? छत्तीसगढ़ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष स्व. नंदकुमार पटेल का संभवतः आखिरी इंटरव्यू देखिए, जो संजय जी ने लिया था बी.आर.यादव जी के लिए। ये महज चंद उदाहरण हैं। उनकी निष्पक्षता को प्रमाणित करने के लिए। लेखक समय पर लिखता है, काल पर लिखता है, सत्य लिखता है और संजय जी लिख रहे हैं। मेरी नजर में उनके भीतर एक उदार लोकतांत्रिक मनुष्य बैठा हुए है जो गुण व दोष की परख करते हुए ही संवाद करता है। किसी पार्टी के विचारधारा के लिए कम से कम संजय जी तो नहीं लिखते, नहीं लिख सकते?

  
एक बात और सोचिए। संजय द्विवेदी इस समय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के शिक्षक हैं, गुरु हैं। वे कोई राकेट साइंस नहीं पढ़ाते। आमतौर पर पत्रकारिता विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षकों को मैंने देखा है कि वे उन व्यावहारिक बातों को दरकिनार कर जाते हैं, जो पत्रकारिता के छात्रों के लिए जरूरी है। छात्र ऐसे शिक्षकों में पत्रकार नहीं ढूंढ पाते। जबकि संजय जी जिस बात की शिक्षा दे रहे हैं, उनका धर्म भी निभा रहे हैं। वे सिर्फ उस बात को नहीं पढ़ा रहे, जिसे उन्होंने पढ़ा है, बल्कि उस बात को पढ़ा रहे हैं, जिसे उन्होंने जिया है। और इसी कारण उनका लेखन किसी भी रूप में गलत नहीं कहा जा सकता। पत्रकारिता के शिक्षक को भी पत्रकार होना ही चाहिए। संजय जी की तरह। मीडिया विमर्श को देखिए। अनवरत् निकलने वाली ये पत्रिका आज इतिहास रच रही है। कौन है, जिसने मीडिया के विमर्श के लिए मंच उपलब्ध कराया? देश में कई जगह काम हो रहे हैं, अच्छे काम हो रहे हैं, लेकिन ऐसे कामों के लिए अगर कांग्रेस रचनाशील लोगों को दंड देने की मांग करती है, तो मानसिकता को समझा जा सकता है। जबकि सच्चाई यह है कि 13 पुस्तकों के लेखक-संपादक और कुशल पत्रकार संजय द्विवेदी सही मायने में पत्रकारिता के छात्रों के रोल माडल हैं। क्योंकि उनकी पत्रकारिता की तरह उनका जीवन भी निष्कलंक है।

  
लोकमंगल के लिए है उनका लेखनः
 
  हम सभी को आज संजय जी के साथ खड़े रहने की जरूरत है। जो लोग चाहते हैं कि लेखकों को बांध दिया जाए, डरा दिया जाए, धमका दिया जाए, ऐसे लोगों को रोकने की जरूरत है। राजनीति को आलोचना तो सहनी ही पड़ेगी। जहाँ विपक्ष कमजोर होता है, वहां अखबार और मीडिया ही सशक्त भूमिका निभाते हैं। दुर्भाग्यवश मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस एक कमजोर विपक्ष के रूप में ही रहा और कलमकारों ने सरकार को झिंझोडे़ रखा। अब एक कमजोर विपक्ष के कमजोर सिपाही सशक्त विपक्ष को अंगुली दिखा रहा है। ये आक्षेप केवल संजय जी पर नहीं लगा है, बल्कि उन सभी पर लगा है, जो देश के एक विचार देना चाहते हैं, जो देश के लिए सोचने पर जोर दे रहे हैं, जो अतिवादी ताकतों के खिलाफ सिर उठा रहे हैं, जो काम कर रहे हैं सिर्फ और सिर्फ लोक कल्याण के लिए और जिसका अंतिम उद्देश्य है अंतिम व्यक्ति का हित। इसलिए ये आक्षेप आप पर भी है, हम पर भी है। इसका प्रतिकार, इसका विरोध जरूरी है। मैं तो उनका शिष्य और सहयोगी रहा हूं किंतु देश के जाने-माने साहित्यकार और आलोचक विजयबहादुर सिंह की सुन लीजिए, वे कहते हैं- विचारों के धरातल पर हम दोनों यानि संजय और मैं- लगभग अलग-अलग हैं। फिर भी संजय द्विवेदी का घर-परिवार मेरा अपना घर-परिवार है, पर उस तरह नहीं जैसा कि सत्ता पक्ष और विपक्ष हुआ का परस्पर हुआ करता है। संजय चाहते हैं मेरा भी गौरव बढ़े और मैं हर पल सोचा करता हूं कि संजय अभ्युदय के श्रेयकारी पथ पर चलते रहें। लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि हम दोनों का भरोसा उस लोकतंत्र में है, जो न तो असहमतियों के बगैर बनता न ही बगैर ईमानदार साझेपन के। हम दोनों ईमानदार हैं कि नहीं, कहना कठिन है पर साझेपन की गहरी जरूरत को महसूस करते हुए हम तिरंगे के तीनों रंगों को अपना सामूहिक रंग मानते हैं। इस अर्थ में स्वतंत्र होकर भी हम कहीं से सांप्रदायिक नहीं जिससे कठिन और हिंसक असहिष्णुता पनपती है।(संदर्भः मीडिया विमर्श, सितंबर,2013, पेज-12)
   ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या संजय द्विवेदी पर सवाल उठा रहे लोग इस लोकतंत्र में होने के मायने भी समझते हैं?
 
(लेखक एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र में समाचार संपादक हैं)

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