महावीर जयंती (13 अप्रैल, 2014) के अवसर पर...
महावीर को जाने ही नहीं, जीएँ भी
-आचार्य महाप्रज्ञ
हर युग की अपनी समस्याएँ होती हैं । वर्तमान की भी अपनी समस्याएँ हैं। आदमी सदा अपनी समस्या का समाधान खोजता है और खोजता रहा है। तो क्या समस्या भी वर्तमान की और समाधान भी वर्तमान का, यही पर्याप्त है या इसके सिवाय दूसरा भी कोई विकल्प हमारे सामने है?
मैंने पढ़ा अमेरिका की एक पत्रिका ‘टाइम्स’ में कि अब सिंगापुर, चीन आदि में कंफ्यूशियस को फिर लाया जा रहा है। यानी कि वर्तमान समस्या का समाधान अतीत में खोजने का प्रयत्न किया जा रहा है।
हमें महावीर को समझना है तो शाश्वत और अशाश्वत दोनों को समझना होगा। अतीत और वर्तमान, दोनों को समझना होगा। हमारी कुछ समस्याएँ शाश्वतवादियों ने उत्पन्न की हैं और कुछ समस्याएँ अशाश्वतवादियों ने उत्पन्न की हैं। जो केवल शाश्वत में विश्वास करते हैं, उन्होंने समस्याएँ पैदा की हैं। जो केवल वर्तमान को मानते हैं उन्होंने भी समस्याएँ पैदा की हैं और जो केवल अतीत को पकड़े बैठे हैं, उन्होंने भी समस्याएँ पैदा की हैं। समस्या का समाधान किसी एकांगी दृष्टिकोण में नहीं होता। सबसे पहले हमारी समझ सही होनी चाहिए अन्यथा समाधान नहीं होगा।
एक सेठ ने अपने माली से कहा-सुबह के चार बज गए, बगीचे में पौधों की सिंचाई करो। माली बोला-बरसात बहुत हो रही है। मालिक ने कहा-इसमें कौन-सी कठिनाई है, छाता ले जाओ और पानी सींचो।
वह नहीं समझ सका कि जब बरसात हो रही है तो फिर सिंचाई क्यों की जाए? छाता लेने की जरूरत क्या है? पर जब दृष्टिकोण में क्षमता नहीं होती समस्या का सही आकलन करने की तो समस्या तक पहुँच ही नहीं होती।
कुछ लोगों में समस्या के प्रति एक सहज दृष्टिकोण होता है, क्षमता होती है पर दृष्टिकोण विपर्यय में चला जाता है तो भी समाधान नहीं मिलता।
बरसात बहुत तेज थी। पूरा आँगन पानी से भर गया और भीतर आने की तैयारी करने लगा। मालिक ने नौकर से कहा-सावधान रहना, पानी कमरे के भीतर न आने पाए। वह बोलाµआप चिंता न करें, दरवाजे में ताला लगा है, चाबी मेरे पास है, मेरी स्वीकृति के बिना कोई भी भीतर नहीं आ सकता।
जब हमारा दृष्टिकोण सही नहीं है तो समस्या का समाधान नहीं हो सकता। महावीर को मानना पर्याप्त बात नहीं है, छोटी बात है। महावीर को जानना, उससे आगे की बात है। जो लोग मान्यता के घेरे में बैठे हैं, वे महावीर को नहीं समझ सकते। महावीर को जानना बड़ी बात है, पर वह भी अंतिम बात नहीं है। अंतिम बात है महावीर को जीना। जिन लोगों ने दर्शन को माना है, स्वीकृति दी है, वे दर्शन के साथ न्याय नहीं कर सकते। जब तक दर्शन को जीया नहीं जाता, तब तक उसका कोई बहुत मूल्य नहीं होता। महावीर ने स्वयं साधना का जीवन जीया था। वे किसी दर्शन को लेकर नहीं चले, किसी मान्यता को लेकर नहीं चले। साधना का जीवन जीते हुए उसमें से जो तत्त्व निकला वह महावीर का दर्शन बन गया।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि परतंत्रता का एक चक्र चलता है दुनिया में और वह स्वतंत्र रूप से जीने नहीं देता। महावीर की प्रथम घोषणा है-‘प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है। किसी को किसी पर हुकूमत करने का कोई अधिकार नहीं है।“ यह स्वतंत्रता का महान आदर्श भगवान महावीर ने संपूर्ण मानव समाज के सामने प्रस्तुत किया जो आज भी बहुत मूल्यवान बना हुआ है।
इसी प्रकार स्वतंत्रता की भी अपनी समस्या है। जहाँ स्वतंत्रता होगी वहाँ भिन्नता भी होगी, विचार-भेद होगा। आदमी यंत्र नहीं है। हर व्यक्ति अपने चिंतन में स्वतंत्र है तो भिन्नता स्वाभाविक है। समस्या तब पैदा होती है जब स्वतंत्रता सृजन करती है भिन्नता का और भिन्नता विरोध के लिए बनाई जाती है। इस समस्या के समाधान के लिए महावीर ने समता का दर्शन दिया। बीच में आने वाली भिन्नता स्वयं समाप्त हो जाएगी। वह हमारे लिए शृंगार बनेगी, बाधक नहीं। हमारी पाँचों उँगलियाँ स्वतंत्र हैं। यदि ये पाँचों एक हो जाती तो आदमी का सारा विकास ठप्प हो जाता। आदमी का सारा विकास हो रहा है इसीलिए कि उसे दस उँगलियाँ प्राप्त हैं। यह विचार-भेद, चिंतन-भेद, संप्रदाय-भेद महावीर के दर्शन के अनुसार कोई अस्वाभाविक प्रक्रिया नहीं है। इसे कभी मिटाया भी नहीं जा सकता।
आदमी जब तक आदमी है, उसे जब तक सोचने का अधिकार है, अपने पैरों पर जब तक चलने का अधिकार है तब तक इस भिन्नता को कभी मिटाया नहीं जा सकता। मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ कि यदि यह भिन्नता दुनिया से मिट जाए तो यह दुनिया इतनी कुरूप हो जाएगी कि इसे देखने को किसी का मन नहीं करेगा। भिन्नता होना बहुत आवश्यक है हमारे सौंदर्य के लिए। भेद के आधार पर ही सत्यं, शिवं, सुंदरं की परिकल्पना की जा सकती है। बगीचे में एक ही प्रकार के फूल-पौधे हों तो वे किसी को आकर्षित नहीं कर सकते। भेद कोई बुरा नहीं। वह बुरा तब बनता है जब हम निरपेक्ष बन जाते हैं। महावीर ने इस समस्या के समाधान के लिए सापेक्षता का दर्शन दिया। हर आदमी एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। न केवल आदमी बल्कि प्रत्येक पदार्थ एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। हमारी विचार-तरंगें, हमारी वाणी की तरंगे, संसार की तरंगों से जुड़ी हुई हैं। आदमी कहीं से कटा हुआ नहीं है। दुनिया में ऐसी कोई शक्ति नहीं जो पदार्थ को तोड़ सके, भिन्न कर सके। सारा विश्व एक शंृखला में जुड़ा हुआ है। इसी आधार पर आचार्य उमास्वामी ने लिखा था-‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’, जीव का स्वभाव है एक-दूसरे का आलंबन बनना, सहारा बनना। यह ‘स्ट्रंगल फार सरवाइवल’ या ‘स्ट्रगल फाॅर एक्जिसटेंस’ वाली बात अहिंसा के क्षेत्र में मान्य नहीं हो सकती। आदमी ने अहिंसा के आधार पर विकास किया है, एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करने के आधार पर विकास किया है।
आज की यह विचारधारा बन गई है कि ‘या मैं या तुम’। या तो पूँजीवाद या साम्यवाद। दोनों साथ नहीं चल सकते। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना इसीलिए हुई कि विरोधी विचारधारा वाले राष्ट्र भी एक साथ रह सकें, विकास कर सकें। पं0 नेहरू और डाॅ0 राधाकृष्णन् ने भगवान महावीर के बारे में कहा था-आज यह जो पूरा लोकतंत्र जीया जा रहा है, महावीर के आधार पर जीया जा रहा है।
वर्तमान की समस्या के समाधान के लिए हमारी दृष्टि वर्तमान पर ही न रहे, वह पीछे की ओर भी जाए। अतीत में भी हमारी समस्या के बहुत से समाधान छिपे हुए हैं। उनका साक्षात्कार करें। इसी से हमारा नया जन्म होगा।
प्रस्तुति: ललित गर्ग
# ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट
25, आई0पी0 एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
फोन: 22727486
No comments:
Post a Comment