Saturday, April 26, 2014

पेरियाळवार और सूरदास के काव्य में माधुर्य भाव


शोध-आलेख

 

पेरियाळवार और सूरदास के काव्य में 

              माधुर्य भाव

                  (चीर-हरन लीला)

- एस॰वीणा*  

 

 

      लोक में प्रीति के विभिन्न संबंधों में स्त्री-पुरुष के प्रेम में विशेष आकर्षण है।  स्त्री-पुरुष की परस्पर प्रीति को श्रृंगार रस की संजा दी गयी है। लोकानुभूत स्त्री-पुरुष के प्रेम संबन्ध की व्यापकता को देखकर भक्तों ने

भी ईश्‍वर के प्रति अपने आध्यात्मिक संबन्ध की अनुभूतियों को लौकिक श्रृंगार की भाषा और अन्योंक्तियों में प्रकट किया है। लोक पक्ष में जो श्रृंगार रस है वह भक्ति शास्त्र में मधुर रस कहलाता है । भारतीय मनीषियों का मत है कि भक्त में परमात्मा के प्रति उतना प्रेम होना चाहिये जितना कि स्त्री के हृदय में पुरुष के प्रति ।  ज्ञानमार्गी भक्त कवियों ने अपने को स्त्री रूप कल्पित कर परमात्मा पुरुष के प्रति  तीव्र प्रेम प्रकट किया है । कबीर इसका ज्वलन्त उदाहरण है।   आलवरों के अनेक पदों में इस मधुर भाव की भक्ति व्यांजित हुई है ।

 

    श्रृंगार शब्द शास्त्रीय है और रीतिकालीन है, ऐसा हम कह सकते हैं ।  श्रृंगार में जीवन का मधुर पक्ष है ।  शास्त्रीय दृष्टि से श्रृंगार को रसराज कहा गया है । श्रृंगार में नायक और नायिका दोनों पक्षों से संबंध भाव व्यक्त होता है । सूर और पेरियालवार के काव्य में गोपियों के भाव इसी प्रकार के हैं। सूर के काव्य में गोपियों के साथ-साथ राधा का नाम विशेष रूप से आता है । गोपिभाव, राधाभाव का इस दृष्टि से अलग-अलग रूप शास्त्रीय तथा दार्शनिक दृष्टियों से विचार किया जाता है । यहाँ इतना कहना है कि प्रेम का यह वर्णन मानवीय सम्बन्धों को किन रूपों में अभिव्यक्त करता है और इसका भाक्ति के साथ क्या संबंध है । सूर की भक्ति भावनाओं में प्रेम की प्रधानता है । इसे तो सभी स्वीकार करते हैं । यह प्रेम गोपियों में तथा ब्रजवसियों में इतना व्याप्त दिखलाया गया है कि इस अनुभव को तर्क तथा दर्शन के आधार पर दूर नहीं किया जा सकता । उद्धव-गोपी संवाद इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। प्रेम की इस व्यंजना में सगुण पक्ष उभरा है और कृष्ण को इस नाते से देखा गया है । श्रृंगार के इस संबंध भाव को भी या पेरियलवर और सूर  की प्रेम-व्यंजना को भी भाक्ति का अंग ही मानते है ।

     धीरे-धीरे मधुरा रति, सांद्र होती हुइ विभिन्न स्थितियों को पार करके महाभाव की सर्वश्रेष्ठ अवस्था में पहुँचती है । जैसे कि ईख का बीज ही इक्षु दंड, रस, गुड, खंड, शर्करा, मिश्री, सितोपल (आला) आदि अवस्था भेद से अनेक रूप धारण करता है, वैसे ही रति भी प्रेम, स्नेह, मान, प्रण्य, राग, अनुराग, भाव (महाभाव) की अवस्था तक पहुँचती है ।

संयोग श्रृंगार :

                 पारस्परिक प्रेम के वशीभूत होकर नायक-नायिका एक दूसरे के दर्शन मिलन, स्पर्श आलाप आदि में लीन होते हैं । विद्वानों ने इस अवस्था को संयोग और उसके वर्णन को संयोग श्रृंगार कहा है ।

पेरियालवार के काव्य में चीर-हरण लीला :

     चीर-हरण लीला को पेरियालवार दूसरा दशकम्‌ की दसवीं

  तिरुमोली में श्री कृष्ण की बालक्रीडा का वर्णन करते समय सिर्फ दो पदों में गाते हैं ।

    श्रीकृष्ण पर माँ यशोदा से गोपिकाएं शिकायत करती हैं , "यशोदा हम नदीं में जाकर खेलते समय श्री कृष्ण हमारे ऊपर कीचड फेंका, वलय तथा दुकूल छीनकर वायु से भी तेज दौडकर घर में घुस गया । हम पूछती हैं तो उत्तर न देनेवाले इस कान्हा से आज हम मारी गयीं । वलय के बारे में कुछ न बोलनेवाले से आज हम मारी गयी ।                  

 

        "आट्ट्रिल्‌ इरुन्दु विलैयाडु वोङ्‍गलै

         सेट्ट्राल्‌ एरिन्दु वलै तुकिल्‌ कैक्‍कोण्डु

         काट्ट्रिल्‌ कडियनाय्‌ ओडियकम्बुक्‍कु

         माट्ट्रमुम्‌ तारानाल्‌ इन्डृ मुट्‍टृम्‌

                   वलैत्तिरम्‌ पेसानल्‌ इन्डृ मुट्‍टृम्‌ ||

 

     एक और पद में गोपिकाएं माँ यशोदा से कहती हैं, "यशोदा, श्रीकृष्ण के कानों में कुँडल लटकाते हैं, चिकुर मुँह पर लटकते हैं, सोने के कंठहार नाभी तक लटकता है । आठों दिशाओं के लोग प्रणत हो, पूजा कर स्तुति करते हैं । भ्रमरासीन सुंदर केश‍वालीयाँ हमरी दूकुल हरकर आकाश-स्पर्शी कूंद वृक्ष पर आरूढ करने वाला इस कान्ह से आज हम मारी गयीं । विनती करने पर भी वस्त्रों को न देनेवाले से आज हम मारी गयी ।

 

        कुण्डलम्‌ तालक्‌ कुलल्‌ ताल नाण्‌ ताल

          एण दिसैयोरुम इरैन्जित्‌ तोलुदेत्त

          वन्डमर्‌ पूङ्‍कुललार्‍ तुकिल कैक्‍कोण्डु

          विण्तोय मरत्‍तानाल इन्डृ मुट्‍टृम्‌

                वेणडवुम्‌ तारानाल्‌ इन्डृ, मुट्‍टृम्‌

 

सूरदास के काव्य में चीर-हरण लीला :   

 

    चीरहरण से भयभीत गोपियाँ आपस में विचार कर रही हैं कि सखी ! अब जमुना तट पर स्नान के लिये आना ठीक नहीं लगता । देखती नहीं सुन्दरश्याम तट पर खडे हैं ऐसे में जल में स्नानार्थ कैसे जाया जाये ? श्याम की उपस्थिति में कैसे हम अपने वस्त्रों को उतारें और कैसे हम जल में नग्न अवस्था में पैठें ? नन्द-नन्दन हमको देखेंगे तो स्वच्छन्द भाव से नहाना कैसे हो सकता है ? ये कृष्ण तो हमारी चोली, वस्त्र और हार आदि को लेकर भाग जाते हैं, आज भी भाग जाएंगे तो हम इन्हें कहाँ से पकाडकर लायेंगी ?(सूरदास कहते हैं) ये कृष्ण नग्नावस्था में नहाती हम गोपियों को बार-बार अपने आलिंगन में बांध लेते हैं , गोद में भर लेते हैं बस! हम लोग तो कल इस पथ पर नहीं आयेंगी ।

      बनत नहिं जमुना को ऐवौ ।

       सुंदर स्याम घाट पर ठाढे, कहौ कौन विधि जैबौ ॥

       कैसें बसन उतारि धरैं हम , कैसें जलहिं समैबौ ।

       नँद-नँदन हमकौ देखैंगे, कैसें करि जु अन्हैवौ ॥

       चोली, चीर, हार लै भाजत, सो कैसें करी पैबौ ।

       अंकन भरि-भरि लेत सूर प्रभु, काल्हि न इहिं पथ ऐबौ ॥

 

    श्री कृष्ण को पतिरूप में पाने के लिये गोपियों ने अपने शरीर को गलाकर भली प्रकार  तप किया है, इसे देखने के लिये मुरारी श्री कृष्ण ने स्वयं कदम्ब के वृक्ष पर चढकर देखा और उनकी तपस्या को स्वीकार कर लिया । श्री कृष्ण मन ही मन कहते हैं कि गोपियों! तुमने मुझे पाने की कामना से वर्ष भर अनेक व्रत, उपवास, नियम-संयम किये हैं, अनेक प्रकार से तपस्या का श्रम किया है ; यह मेरी प्रतिज्ञा और मुझे अपने विरद (प्रतिज्ञा) की लाज निभानी पडती है कि कोई भी मुझे किसी भाव से भजे, मैं उसे उसी रूप में प्राप्त होता हूँ, तुम जब तरुणि गोपियों ने वर्ष भर शीत और गर्मी की परवाह न करते हुए मुझे काम भाव से भजा है ; तुम धन्य-धन्य हो कि तुमने अनेक कठिनाइयों को झेलते हुए भी अपने व्रत को सफलतापूर्वक पूर्ण किया है । ऐसा कहकर कृपानाथ कृपालु भगवान्‌ श्री कृष्ण ने अपने भक्तोंपीडा को जानते हुए निश्चय किया कि इनका चीर हरण करके मैं इनकी इच्छा को पूर्ण कारूंगा।

 

        "नीकैं तप कियौ तनु गारि ।

         आपु देखत कदम पर चढ़ि, मानि लियौ मुरारि ॥

         वर्ष भर व्रतनेम-संजम, स्रम कियौ मोहिं काज ।

         कैसे हूँ मोहिं भजै कोऊ मोहिं बिरद की लाज ॥

         धन्य ब्रत इन कियौ पूरन,सीत तपनि निवारि ।

         काम-आतुर भजौ मोकौ, नव तरुनि ब्रज-नारि

         कृपा-नाथ कृपाल भए तब, जानि जन की पीर ।

         सूर-प्रभु अनुमान कीन्हौ, हरौं इनके चीर ॥"

 

 

   काम भाव से भजने वाली गोपियों का व्रत पूर्ण करने के लिये श्रीकृष्ण सोलह हजार गोप कन्यओं के वस्त्रों और अंगें पर धारन करने वाले समसत आभूषणों को एक साथ लेकर विशाल कदम्ब के वृक्ष पर चाढ गये । पीले वस्त्रों रेश्मी वस्त्रों, साडियों, पीत , श्‍वेत और लाल रंग की चुनरियों को अति विस्तृत  और फैले हुए कदम्ब की डारों पर जहाँ-तहाँ लटका  दिया । मणिमय आभूषण और विविध वर्णा वस्त्रों को कदम्ब की प्रत्येक डाल पर लटका देखकर उनकी सुन्दरता पर ही कृष्ण का मन मोहित हो रहा है । सूरदास कहते हैं कि स्याम ने गोपियों के व्रत को पूर्ण करने के लिये वस्त्राभूषणों को फल के रूप में कदम्ब की प्रत्येक डाली पर प्रतिफलित कर दिया कवि कहता है की कदम्ब की डालों पर लटके वस्त्र और आभूषनॊ ऐसे प्रतीत हो रहे हैं मानो ये व्रतपूर्ण  के फल है जिनको श्रि कृष्ण ने कदम्भ की प्रत्येक डाली पर फलीभूत कर दिया है ।

     " बसन हरे सब कदम चढाये ।

       सोरह सहस गोप-कन्यनि के,  अंग अभूषन सहित  चुराये ॥

       नीलांबर,   पाटंबर,  सारी,  सोत पीत  चुनरि,   अरुनाये ।

       अति बिस्तार नीप तरु तामौं,  लै-लै जहाँ तहाँ    लटकाये॥

       मनि-आभरन डार डारनि प्रति, देखत छबि मनहीं अँटकाये ।

       सूर, स्याम जु तिनि व्रत पूरन, कौ फल डारनि कदम फराये ॥"

   चिर के लिये बार-बार आग्रह करने पर कृष्ण गोपियों से कहते हैं कि गोपियो ! अपने को लाज की ओट में छिपाना अब दूर करो, मैं जैसा कहूँ तुम वैसा ही करो, बेचारी लज्जा को इस प्रकार धारण किये रहने से क्या होगा ? तुम जल से बाहर आकर हाथ जोडकर प्रार्थना करो- मैं तुम्हें इसी रूप में देखना चाहता हूँ; यह समझ लो कि तुमने मुझे काम रूप में भजा है- तुम्हारा वह व्रत अब पूरा हो गया है,  इसके लिये गुरुजनों की शंका दूर करो- (तुम्हारे नग्न आने पर गुरुजन तुम्हें क्या कहेंगे) इस बात की लज्जा या शंका की परवाह मत करो । अब तुम मुझसे (तन-मन का) कोई अन्तर-दूरी  मत रखो-अगर बार-बार हठ करके यह दूरी बनाये रखोगी तो सोच लो तुम्हारा व्रत पूरा नहीं होगा, सूरदास कहते हैं, देखो, अब मैं, तुम्हारे वस्त्र दे रहा  हूँ, इनको लेकर मेरे सामने ही अपना सम्पूर्ण श्रृंगार करो ।

 

     "लाज ओट यह दूरी करौ ।

      जोइ मैं कहौं करौ तुम सोई, सकुच बापुरिहि कहा करौ ॥

      जल तौं तीर आइ कर जोरहु, मैं देखौँ तुम बिनय करौ ।

      पूरन ब्रत अब भयौs तुम्हारौ, गुरुजन संका दूरि करौ ॥

      अब अंतर मोसौं जनि राखहु, बार-बार हठ वृथा करौ । 

      सूर स्याम कहौं चींर देत हौं, मौ आगें सिँगार करौ ॥ "

 

निष्कर्ष :

    इसी तरह पेरियलवर और सूरदास दोनें ने चीर-हरन लीला के बारे में लिखा हैं।  पेरियालवार गोपिकाओं के शिकायत के रूप में वर्णन किया है लेकिन सूर ने विस्तार रूप से श्रीकृष्ण का आग्रह, गोपिकावों का व्रत आदि के बारे मे उल्लेखन किया हैं ।

* एस॰वीणा   कर्पगम विश्वविद्यालयकोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावति अम्माल के निर्देशन में शोधरत हैं |

 

No comments: