Monday, July 30, 2012

तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय में ‘दक्षिण भारत में हिन्दी’ विषय पर त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित






तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय, तिरुवारूर में दि. 26-28 जुलाई, 2012 को दक्षिण भारत में हिन्दीविषय पर त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के अंतर्गत राजभाषा कार्यान्वयन में सूचना प्रौद्योगिकी का अनुप्रयोग विषय पर राजभाषा कार्यशाला, हिन्दी क्लब का उद्घाटन एवं संगोष्ठी संयोजक एवं निदेशक श्री आनंद पाटील द्वारा संपादित (तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय की पहली पुस्तक) हिन्दी : विविध आयाम का लोकार्पण कार्यक्रम आयोजित किया गया। ध्यातव्य है कि इस विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय स्तर की यह प्रथम संगोष्ठी थी और रेखांकित करने की बात है कि यह हिन्दी की संगोष्ठी थी।
इस त्रिदिवसीय कार्यक्रम के लिए मुख्य अतिथि के रूप में केरल के प्रसिद्ध कवि, लेखक, आलोचक एवं महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रति कुलपति प्रो. ए. अरविंदाक्षन तथा अध्यक्ष के रूप में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बी. पी. संजय जी उपस्थित थे।
कार्यक्रम का श्रीगणेश दि. 26 जुलाई, 2012 को हिन्दी क्लब के उद्घाटन समारोह में दीप प्रज्ज्वलन से हुआ। हिन्दी क्लब के उद्घाटन समारोह के इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में डॉ. घनश्याम शर्मा, अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, बाबू जगजीवन राम महाविद्यालय (उस्मानिया विश्वविद्यालय) हैदराबाद, बीज व्याख्यान के लिए आमंत्रित गुरुकुल विद्यापीठ, इब्राहिमपट्टणम् के डॉ. प्रेमचन्द्र तथा कार्यक्रम के अध्यक्ष के रूप में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बी. पी. संजय जी उपस्थित थे।
हिन्दी क्लब उद्घाटन समारोह के अवसर पर डॉ. घनश्याम जी ने कहा कि विश्वविद्यालय प्रणाली में हिन्दी क्लब पूर्णतः नवीन संकल्पना है। लेकिन इस क्लब की स्थापना के पीछे जो उद्देश्य है, वह बहुत ही उम्दा है। इस क्लब के ज़रिए हिन्दी को लोकप्रिय बनाने का काम किया जाएगा। विद्यार्थी, अधिकारी, संकाय सभी एक प्लैटफार्म पर एकत्रित होंगे और हिन्दी के कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगे और हिन्दी सीखने, समझने, समझाने का काम करेंगे। यह इज़ी लर्निंग मेथड़ वाला मार्ग है। डॉ. प्रेमचन्द्र ने शैक्षिक क्षेत्र में क्लब जैसी संकल्पना की आवश्यकता पर प्रकाश डाला तथा संयोजक की दूरदर्शिता को सराहा। वहीं इस बात की ओर भी इंगित किया गया कि इसे हिन्दी के संघ के रूप में ग्रहण न किया जाए।
माननीय कुलपति प्रो. बी. पी. संजय जी ने हिन्दी क्लब को एक बेहतर ज़रिया मानते हुए, इसकी स्थापना को स्वीकार किया। इस अवसर पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दी क्लब के ज़रिए विद्यार्थियों में सक्रियता बढ़ायी जा सकती है। हिन्दी को लेकर उनके मन में जो भय है, उसे निकाल बाहर किया जा सकता है। एक बेहतर साधन के रूप में इस क्लब को देखने की आवश्यकता है।
इस क्लब का उद्घाटन कम्प्यूटर एनिमेटेड विज्ञान कथा आधारित फ़िल्म वॉल-ई (अकादमिक पुरस्कार विजेता फ़िल्म) का प्रदर्शन तथा प्रदर्शनोपरांत लघु चर्चा, डॉ. अनिल पतंग द्वारा लिखित नाटक दिल ही तो है (निर्देशन : श्री आनंद पाटील) का मंचन तथा अन्य रंगारंग कार्यक्रमों के साथ हुआ।
दि. 27 जुलाई, 2012 को दक्षिण भारत में हिन्दी राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में प्रो. ए. अरविंदाक्षन जी ने कहा कि विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग नहीं है, केवल हिन्दी अनुभाग है और उसमें भी केवल एक ही अधिकारी है, जो राजभाषा से संबंधित कामकाज देखता है। बावजूद इसके हिन्दी का इतना भव्य आयोजन किया गया है और बहुत ही व्यापक विषय पर चर्चा करने के लिए अनेकानेक विद्वानों को आमंत्रित किया गया है। प्रायः हममें यही बात प्रचलित है कि तमिल लोग हिन्दी बोलना नहीं जानते अथवा बोलना पसंद नहीं करते। जबकि सत्य तो यह है कि काफ़ी तमिल भाषी कर्मचारी, विद्यार्थी हिन्दी बोल रहे हैं। इस पहल के लिए उन्होंने श्री आनंद पाटील की पहल को सराहा। उन्होंने अपने उद्घाटन भाषण में दक्षिण में हिन्दी की स्थिति एवं गति, दशा एवं दिशा पर विस्तार से बात की।
प्रो. बी. पी. संजय जी ने संगोष्ठी को इंटलेक्च्युअल ओपननेस कहा। उन्होंने स्पष्ट किया कि सामाजिक विकास के लिए एक-दो पीढ़ियों को बलिदान करना होगा। उन्होंने आगे कहा कि हम सभी भाषाओं का प्रसार करने में विश्वास रखते हैं और उनका आदर करते हैं। उन्होंने आमंत्रित विद्वानों से उम्मीद की कि इस विशद विषय के अलग-अलग पहलुओं पर सार्थक चर्चा करेंगे और विश्वविद्यालय को सुझाव देंगे कि आगे किस तरह के कदम उठाये जाने चाहिए।
संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में ही प्रो. अरविंदाक्षन, प्रो. बी. पी. संजय तथा श्री वी. के. श्रीधर जी ने तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित श्री आनंद पाटील की पुस्तक हिन्दी : विविध आयाम का लोकार्पण किया।
इस त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में अन्य अतिथि वक्ताओं के रूप में प्रो. कृष्ण कुमार सिंह, साहित्य विभाग, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा ; प्रो. ए. भवानी, अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, मनोम्ननियन सुंदरनार विश्वविद्यालय, तिरुनेलवेली ; डॉ. सी. अन्नपूर्णा, अध्यक्ष, अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा ; डॉ. एम. श्यामराव, हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद ; डॉ. चिट्टी अन्नपूर्णा, अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, मद्रास विश्वविद्यालय, चेन्नै ; श्री प्रकाश जैन, महाप्रबंधक, डेली हिन्दी मिलाप, हैदराबाद ; डॉ. सी. जयशंकर बाबू, हिन्दी विभाग, पांडिचेरी विश्वविद्यालय, पांडिचेरी ; डॉ. आत्माराम, हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद ; डॉ. चंदू खंदारे, हिन्दी विभाग, गांधीग्राम ग्रामीण विश्वविद्यालय, गांधीग्राम ; श्री एम. संजीवी कानी, सहायक प्रबंधक (राजभाषा), भारतीय रिज़र्व बैंक, बैंगलुरु ; श्री विनायक काले, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद ; श्रीमती अनीता पाटील, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद ने दक्षिण भारत में हिन्दी के विविध पहलुओं पर अपने शोध पत्र/व्याख्यान प्रस्तुत किये।
वहीं राजभाषा कार्यान्वयन में सूचना प्रौद्योगिकी का अनुप्रयोग विषय पर आयोजित राजभाषा कार्यशाला में प्रतिभागियों के रूप में राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बांदरसिंदरी के हिन्दी अधिकारी श्री प्रतीश कुमार दास तथा हिंदुस्थान पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड, चेन्नई के हिन्दी अधिकारी श्री बशीर उपस्थित थे।
इस त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं राजभाषा कार्यशाला में एक बात बारंबार उभरकर आयी कि हिन्दी को संपर्क भाषा, आम अवाम की ज़रूरतों की भाषा के रूप में स्वीकार किया जा रहा है। लेकिन राजभाषा के रूप में आज भी विरोध हो रहा है, कारण कि राजभाषा कहते ही राज चलाने की भाषा के रूप में उसे ग्रहण किया जाता है। वहीं केन्द्र में भी हिन्दी अनुवाद के बूते पर चलती है, जिसमें उसकी क्लिष्टता के कारण वह आम अवाम की समझ में नहीं आती है। वास्तविकता यह है कि वह अपनी प्रयोजमूलकता से कोसों मिल दूर होती है। मंत्रियों से लेकर सरकारी अधिकारियों तक अंग्रेज़ी में काम करते हैं और मंचों से, टीवी चैनलों पर बोलते हुए भी अंग्रेज़ी का प्रयोग करते हैं। ऐसे में हिन्दी को राजभाषा के रूप में लादना यथोचित नहीं जान पड़ता। श्री प्रकाश जैन, डॉ. घनश्याम, डॉ. चिट्टी अन्नपूर्णा जी ने इस बात पर सिलसिलेवार प्रकाश डाला। हिन्दी अनुवाद के ज़रिए, संचार माध्यमों के ज़रिए, साहित्य और तुलनात्मक अध्ययन के ज़रिए, व्यवसाय के ज़रिए बाज़ार में छा गयी है और एक विश्व पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर चुकी है। ऐसे में उसके वैश्विक रूप से कोई इन्कार नहीं करता, लेकिन राजभाषा के रूप में लादना सबको खलता है।
माननीय कुलपति प्रो. बी. पी. संजय जी ने मुख्य अतिथि प्रो. ए. अरविंदाक्षन जी को उनकी हिन्दी सेवा के लिए मान पत्र एवं स्मृति चिह्न देकर तथा अन्य अतिथियों को प्रमाणपत्र एवं स्मृति चिह्न देकर सम्मानित किया।
तीन दिन के इस कार्यक्रम का सत्र संचालन विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों में अध्ययनरत एकीकृत स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के विद्यार्थी यथा – सुश्री यालिनी, श्री विजय बाबू, श्री राम कृपाल कुमार, श्री अभिषेक कुमार, सुश्री सिव पवित्रा, सुश्री स्वाति ने किया।
श्री ए. आर. वेंकटकृष्णन, उप कुलसचिव (अकादमिक) ; श्री एम. पी. बालामुरुगन, उप कुलसचिव (स्थापना एवं प्रशासन) ; डॉ. वी. मधुरिमा, भौतिकी विभाग ; डॉ. वी. पी. रमेश, गणित विभाग ; डॉ. के. वी. रघुपति, अंग्रेज़ी विभाग ने  संगोष्ठी के अलग-अलग सत्रों में आभार प्रकट किया।

Wednesday, July 25, 2012

विश्व हिंदी सम्मेलन में चर्चा के विषय


विदेश मंत्रालय दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी शिक्षा संघ एवं अन्य भागीदारों के सहयोग से 22-24 सितम्बर 2012 को जोहान्सबर्ग, दक्षिण अफ्रीका में 9वां विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित कर रहा है। सम्मेलन का आयोजन सैंडटन कन्वेन्शन सेंटर, दूसरा तल, मौड स्ट्रीट, सैंडटन-2196, जोहान्सबर्ग, दक्षिण अफ्रीका में किया जाएगा।

9वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी के प्राचीन एवं आधुनिक पहलुओं से संबंधित परम्परागत और समसामयिक दोनो प्रकार के विषयों पर चर्चाएं होंगी। सम्मेलन का विषय 'भाषा की अस्मिता और हिन्दी का वैश्विक संदर्भ' रखा गया है। सम्मेलन में नौ शैक्षिक सत्र होंगे। शैक्षिक सत्रों के विषय इस प्रकार होंगेः

1. महात्मा गांधी की भाषा दृष्टि और वर्तमान का संदर्भ

2. हिंदीः फिल्म, रंगमंच और मंच की भाषा

3. सूचना प्रौद्योगिकीः देवनागरी लिपि और हिंदी का सामर्थ्य

4. लोकतंत्र और मीडिया की भाषा के रूप में हिंदी

5. विदेश में भारतः भारतीय-ग्रंथों की भूमिका

6. ज्ञान-विज्ञान और रोजगार की भाषा के रूप में हिंदी

7. हिंदी के विकास में विदेशी/प्रवासी लेखकों की भूमिका

8. हिंदी के प्रसार में अनुवाद की भूमिका

9. दक्षिण अफ्रीका में हिंदी शिक्षा-युवाओं का योगदान।


      विश्व शांति, अहिंसा, समानता और सम्पूर्ण मानव जाति के न्याय के लिए लंबे समय तक महात्मा गांधी द्वारा और उनके जीवन से प्रभावित दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति डा. नेल्सन मंडेलाद्वारा चलाए गए संघर्ष को देखते हुए सम्मेलन के उद्घाटन स्थल का नाम गांधीग्राम, पूर्ण सत्र हॉल का नाम नेल्सन मंडेला सभागार तथा अन्य सत्रों वाले स्थलों का नाम शांति, सत्य, अहिंसा, नीति और न्याय रखा गया है।


Friday, July 20, 2012

नवोदित हिंदी कवियों की कविता में नारी

 नवोदित हिंदी   कवियों की कविता में नारी
- डॉ. रंजित माधवन, कोडुंगल्लूर 

                           हर सच्ची कविता अपने आपमें विशिष्ट होती है.  उसमें कुछ ऐसा ज़रूर होता है जो अब तक न कहा गया हो , न देखा गया हो.  ऐसा कुछ जिसे कोई दूसरा माध्यम कह पाने में सक्षम न हो.  क्योंकि कविता में आत्मा और अनुभव शामिल रहते हैं.  विशेषतः इक्कीसवीं सदी में आधुनिकता ने जिस मूल्य हीनता को जन्म दिया है और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी ने मनुष्य को अपना एक उपकरण बना दिया है, वहां संवेदनाओं से भरे मानव और मानव समाज के निर्माण केलिए कविता की आवश्यकता होती है.  मानव में संवेदना पैदा करने का एक और रास्ता है नारी.  वह अपनी समस्त रूपों में कविता की प्रेरणास्रोत रही है.  इसी कारण से समकालीन हिंदी कविता में नारी चित्रण के बारे में विचार करना समीचीन है.
 
                         भारतीय संस्कृत की खूबियों में से एक उसकी देव परयानता थी.  सभी वस्तुओं में देवता का रूप देखने की प्रथा ही भारतीय संस्कृति को अब भी अक्षुण्ण बना रही है, ऐसे माननेवाले विचारकों की संख्या बहुत है..हरीश नवल जी अपनी रचना " होते थे अम्मा बाबु जो"नामक कविता में यही बात व्यक्त कर रहे हैं,
                         " बड़े गजब थे,बड़े अजब थे
                           एक होते थे बाबूजी
                           और एक हुआ करती थी अम्मा
                           मन से धन कमाते थे बाबूजी 
                           तन लगा घर चलाने की दुआ करती थी अम्मा "

                     टेक्नॉलजी के इस युग में ऐसा भी कोई होगा क्या ?  यह शक होना स्वाभाविक है.  नारी को प्रश्न करनेवालों से कोई शिकायत नहीं है.  माताचरण मिश्र ने अपनी वाणी हम तक 'काया और माया " कविता से पहुँचायी है.
                          "पात्र ही  है हम शायद
                            लेकिन,नाटकीयता नहीं है
                            हमारे अभिनय में 
                             यही तो रहस्य है
                             इस संसार और इस खेल का भी "
 
                        शंकराचार्य जी ने ' मात्रु पंचकं ' में माता की जो पीड़ा का वर्णन किया है, उसकी छाया जोम्यीर जीनी की 'मैं और मां' कविता में दर्शनीय है,
 
                         "मेरे इस दुनिया में आने से पहले
                          तुझे  पता था कौन हूँ मैं 
                           तुझी में बसी थी मैं
                           खुद दर्द सहा तकलीफ उठाई  
                          पर मुझ तक न पहुँचने दिए उन्हें 
                          क्योंकी  तुझे पता था कौन हूँ मैं "
 
                          नारी को माता की हैसियत देनेवाले समाज अपनी संस्कृति को भूलकर आजकल उनको उपभोग की वस्तु मान मान रहे हैं.  इससे खिन्न नारी की आवाज़ दिविक रमेश ' शर्म खाऊँ तो क्यों मैं "में  गूँज रहे हैं: अपने तन को बिकाऊ चीज़ बनानेवाले समाज से प्रश्न करती है,
                             " मैं नंगा हूँ 
                                और उनकी वजह से हूँ 
                                अब वही बताएं
                                 किस खुशी के लिए द्धाकूं 
                                 अपनी हथेलियों से 
                                 अपना नंगापन
                                 केवल उनकी शान के लिए "
                           प्यार भी आज नारी को फँसने की जाल के रूप में बदल चुकी है.' होली ;खुशियों का त्यौहार ' नामक कविता में शशिश कुमार तिवारी जी यही बात बता रहे हैं -
                             "शायद इसलिए कि  
                             ये सब बाज़ार से खरीदे गए हैं
                             दिल से नहीं 
                             बड़ी देरी से खोज रहा हूँ 
                             हाथ लगा के मैं प्यार को 
                             पर उसका कहीं पता नहीं
                             जैसे उड़ गया वह बाष्प बन  के  
                             लगता है बहुत ऊपर चला गया है 
                             शायद बादलों में "
                         
 अम्बिका प्रसाद दिव्य जी की  "क्या विश्वास करे " कविता भी यही आशय वाला है -
                            " जीवन की है जटिल समस्या
                               जिस से प्रेम किया जाता है
                               दो वस्त्रों सा, दो देहों को
                               जिसमें हाथ सिया जाता है
                               बन जाता है वही पृथक हो 
                               दुखदायी पाषाण कभी "
 
                            प्रेम के जाल में फँस कर कभी -कभी नारी वेश्याओं की गली में पहुँच जाती है.  उनकी तड़प परांज धर की  'उजाले में ' और  'रास्ते के पत्थर है जीवन '  नामक कविताओं में दर्शनीय है-
                         "रास्ते का पत्थर है जीवन
                          उस समाज में
                          जहां वेश्याओं की गली
                          सेफ्टी वाल्व की कुंडा का 
                          एक का अस्तित्व 
                          कारण है दूसरे की अय्याशी का 
                           या दूसरे की अय्याशी कारण है
                           पहले के अस्तित्व का "
                       वहां जानेवाले काम पूर्ती करके वापस आ जाते है , कभी भी उनकी पीड़ा की और ध्यान नहीं देती, वहां उनकी ज़िन्दगी इस प्रकार ही बीत रही है -
                       " ज़िंदगी रेंगती चली जा रही 
                          अकेली और असहाय 
                          बिलखती और तड़पती हुयी 
                         दबा है यहाँ भयंकर तूफ़ान 
                         सिकुड़े और सहमे पड़े हैं यहाँ 
                         हज़ारों उदात्त विचार        
                         दस्तक होती  है जहां रोज़ रोज़ 
                         सुबह -श्याम ,घड़ी घड़ी 
                         डरे बैठे  वहां तीन -चार
                          दुर्बल किन्तु महत्वाकांक्षी जन "
                                 
उनके बारे में सोचने ,उनकेलिए कुछ करने कोई क्रांतिकारी आता ही नहीं. कम से कम वहां पहुँचाई जानेवाली लड़कियों की बहाव रोकने तक में वह असफल है, क्योंकि,
                          " समा गयी क्रांतिकारियों की 
                           कितनी ही पंक्तियाँ 
                           कमरे की अँधेरे में " 

                               विवाह का विज्ञापन आज अखबारों में आ रहे हैं.उ  सी को आधा बनाकर पवन कारन जी ने " स्त्री सुबोधिनी 'नामक कविता में स्त्री से की जानेवाली अपेक्षाओं का जिक्र किया है-
                            " हमें अपने इकलौते लड़के के लिए एक ऐसी बहू चाहिए 
                              जो दुनिया की सबसे अच्छी बहू हो और उसे ये बात
                              कि वह दुनिया की सबसे अच्छी बहू हो पता न हो 
                              जिसे बोलना भले ही आता हो , पर हो वह गूंगी 
                              ' न ' इस शब्द को वह पहचानती न हो
                               और ' हाँ ' उसकी जुबां पर दरवाजे के बाहर 
                               हाथ बंधे खड़े नौकर की तरह रहता हो खड़ा
                              जिसे रोना न आता हो
                              चीखना तो वह जानती ही न हो "
                              
सभ्य समाज में यह घटना हो रही है.  नारी को ज़िंदा रूप में नहीं लाश के रूप में स्वीकारने के लिए तैयार समाज से ज्ञानेंद्रपति  जी बता रहे हैं,
                            " यह मत सोचो कि 
                               मुर्दा बोला नहीं करते
                               उसे देखो
                                वह जो है उस शव का खुला हुआ मुंह
                                एक चीख में खुला हुआ मुंह है
                                फ्रीज़ मोशन में शिलीभूत 
                                एक नयी मकड़ी तान रही हैं
                                जिसमें अपने जीवन का पहला जाल "
                                      
 भारतीय समाज में मानव के जन्म से लेकर अन्त्येष्टी तक की प्रत्येक घटनाओं को संस्कार के रूप में अभिहित किया है.  विवाह संस्कार को भारत में मिले मूल्य आज कम हो रहा है.  जन्म -जन्म तक लम्बे विवाह की कामना करनेवाले भारत के सभ्य समाज और समकालीन समाज का अंतर बहुत है.  आज शादी ,कल पार्टी और परसों डैवोर्स (तलाक) - यही है आज का वैवाहिक संबध.  प्रतिमा वर्मा ' रास्ते क्यों बदल गए ' नामक कविता में यही सवाल उठा रही है-
                                  "वादा तो था ,साथ चलने का 
                                    हमारे रास्ते क्यों बदल गए 
                                    जिन राहों पर हम साथ चलें 
                                    वे राहें फूलों से थी भरी
                                    काँटों की चुभन अब लगती भली
                                    तो गिला किसी से क्यों करें "
                              
 यह आवाज़ कई कंठों  से  उठ रही हैं. ऐसी नारियों की संख्या बढ़ रही हैं.
                               " नहीं लगता अब अकेले से दर मुझे
                                 भय मुक्त हो उस राह पर चलती हुई 
                                 मेरी तरह इस दुनिया में है ,' बहुत'
                                 फिर मन को भयाक्रांत क्यों करें ?"
                                         
मदन गोप्पल जी ने अपनी ' उसकी तबीयत खराब है ' कविता में समकालीन दंपतियों का सही अंकन किया है,
                                 " आँखों में जलन है  
                                    गले में खराश है
                                    हवा इतनी भारी है यहाँ 
                                    कि बोल फूत्त्ते नहीं
                                    फूस फूस कर रह जाते है
                                    कहीं कोई सपना "

                                                चारों ओर ख़तरा ही ख़तरा है.  नारी , नारीत्व की रक्षा करने में मग्न है.  सपनों में वे आपदाओं से दूर होने की कामना करती हैं.  सरस्वती माथुर की रचना ' एक मुस्कान की तरह ' में ऐसी नारी की वर्णन कर रही है .
                                      " मेरा दिल
                                        एक गाती चिड़िया से हैं
                                         जो गाते गाते कभी
                                         उड़ जाती है
                                         सपनों  की उड़ान पर
                                         मेरा दिल एक इंद्र धनुष सा 
                                         कभी उतर जाता है बतियाता हुआ 
                                          सूरज से सागर की  छोर तक "
                       हमारे समाज का निर्माता ही नारी है.  मगर हमें होनेवाला बच्चा लड़की है जानकार भ्रूण हत्या करने में लगे हैं.  गर्भ से बची बच्ची अपनी माँ से मिन्नत कर रही है,
                                     " माँ एक बार तो निहार मुझे
                                        तुम्हारा ही आशा हूँ मैं
                                         मुझे   भी है जीने का अधिकार
                                         स्वीकार करो मेरी मनुहार
                                         ऐसे न करो अत्याचार
                                         इससे पहले की टूट न जाऊं मैं
                                         बस, बचा लो मुझे 
                                         विश्व में चमकूंगी सितारा बन
                                         फले फोल्ले यदि मेरा जीवन
                                          पूछती हूँ एक प्रश्न
                                         करके   मेरा हनन क्या तुम
                                         जी पाओगी अपना जीवन "
                                                सुरेखा शर्मा जी कि 'बेटी की व्यथा ' में जो सवाल उठाई है,उ सका जवाब कौन देंगे?
                                                       नारियों पर चिढ़ -चाढ़ करने की आदतें आज बढ़ रही हैं.  उसकी ओर भी हिन्दी कविता का ध्यान गया है.  नलिन तिवारी की ' महाभारत एक खोज 'इसका मिसाल है -

                                    " खींचते ही रहती है यहाँ
                                      रोज़  असंख्य द्रौपदियों के
                                      बसों, ट्रेनों ,फुट्पातों पर
                                      विवश पितामह के समक्ष "
 
                          ऐसी ज्वलंत मुद्दा समाज में होते वक्त भी कुछ नारी कैसे जी रही है, इसकी सूचना 'आलोचना' के संपादक अरुण कमल जी की 'क्लब घर  और बीवियां ' कविता में दिया है,
                                    "क्लब घर के लान में बैठ
                                     बीवियां पुनः बातें कर रही हैं
                                     उस नए बुटिक के बारे में
                                     लाली पुते चेहरों के साथ
                                     तंग या ठेला जींस पहने
                                     मंडरा रही है बेटियाँ आसपास "
                                    
ऐसी  माँ के और गरीब माँ के बच्चों का चित्रण अशोक अन्जुइल जी अपनी दोहा में किया है-
                               " माओं की गोदियों में कुछ फूल से खिले हैं
                                  फुट पाठ पर है रोते कुछ जार जार बच्चे "
                             
प्रकृति में नारी की सूरत देखने की प्रथा अज्ज भी है. चन्द्र बाबू अग्निहोत्री जी ने ' याद तुम्हारी ' कविता में लिखा है -
                              " है नित्य सितारे क्रीड करते रजनी के नव यौवन से
                                नित निशा सुन्दरी रूप गर्वित हो प्रस्वेदित प्रणयन से 
                               जब वक्ष धरा का गीला होता  ,प्रियतम नभ के चुम्बन से
                                तब प्रणय, मिलन स्पंदित होते , दिल की बढ़ती धड़कन से '
                                        
नारी शक्ति है, उसे सच मानने से कुछ लोग अब भी हिचक रहे हैं. समाज में उनको सम्मानित करते वक्त मुँह फेरनेवालों से आर्य जी 'नारी स्वतन्त्रता' नामक कविता में बता रहे हैं,
                            "नारी को दुर्बल समझना बहुत भारी भूल है
                              दया,भाव,प्यार,ममता एवं प्रगति की मूल है                       
                             नारी बिन रैन बसेरा मानो , खाली पत्थर थूल है
                             दारोमदार उसी पर सबला, सभी घरों की चूल है
                             नारी के विकास के बिना कोई सामजिक सरोकार नहीं है "
                                     
नारी को अपनी क्षमताएं पहचानकर काम करना है और आनेवाली पीथियों से काम करवानी है. आर्य जी आगे बता रहे हैं
                           " बेटियों का सशक्तिकरण करें, अच्छी दो तालीम 
                             ज्ञानवंत , गुनवंत हो और साथ में क्षमाशील
                             सावधान हो आगे बढ़ो , न बनो अश्लील
                             चारों ओर कब्जा करने में, मत दो अब ढील "
                                    यह आह्वान सभी सुनती तो है, मगर फ़ायदा कम ही होता है.  इसका कारण के बारे में निर्मला जोसी जी ने 'शब्दों के अर्थ ' में दिखाई है-
                             "शब्दों के अर्थ बड़े गोल-माल हो गए हैं आजकल
                              समूचा संसार संक्रमित हो चला है
                              युगों से चले आ रहे शब्दों के 
                              वास्तविक अर्थ खो गए हैं
                              शब्द  अब भी वही है
                              उनकी  परिभाषा  बदल गयी है
                              आज हर दूजे वर्ष शब्द की मूल अर्थ 
                              सांप की कैंचुली की तरह
                              अपना चेला उतार नवीन अर्थ धार लेते हैं."
                         
                    नारी की मान से लेकर वेश्या तक का चित्रण समकालीन कविताओं में मिलता है.  गलियों में बिकती नारी और अखबारों के विवाह विज्ञापन में आती नारी में क्या फर्क है ?  इसके बारे में सोचने का 'वक्त'हमारे पास नहीं है.  पहलीवाली भी कभी किसी की बहन-बेटी थी .  लेकिन आज उसकी नियति बदल गयी है.   विवाह संबध जन्मों तक का बंधन कहलाता था, लेकिन आज जल्दी ही टूटने का कारण क्या है ?  नारी तलाकशुदा होकर अकेले जीने की कामना करती है.  नारी के चारों और साजिश से जाल बिछाए हुए हैं . उसे हमेशा डर लगता रहता है कि यह जाल कब , कौन खींचेगा ? सपने में भी वह निर्भय नहीं रह पाती.
                           
        नारी जीवन के चोट दर चोट इन कविताओं में हम महसूस कर सकते हैं.  नारी की  शक्ति को पहचानकर वह आगे बढ़ेगी तो आगामी समाज पृथ्वी को सुन्दर बनाने में सक्षम होगी. यही सन्देश समकालीन कवि अपनी कविताओं द्वारा दे रहे हैं.  उस सन्देश को आत्मसात करके आगे बढ़ने में मानव मात्र की भलाई है.
 
 सन्दर्भ ग्रन्थ
            साहित्य अमृत --दिसंबर.नवम्बर,अक्टूबर,सितंबर,अगस्त,जून,जुलाई,--२०११
            बिंदिया---दिसंबर २०११
            मधुमती - दिसंबर  ,नवम्बर,अक्टूबर -२०११

Thursday, July 19, 2012

9वें विश्व हिन्दी सम्मेलन के 'लोगो' और 'वेबसाइट' का लोकार्पण समारोह


Ninth World Hindi Conference
22-24 September, 2012
Johannesburg [South Africa]


9वें विश्व हिन्दी सम्मेलन के 'लोगो' और 'वेबसाइट' का लोकार्पण समारोह


18 जुलाई 2012 को नई दिल्ली में आयोजित एक समारोह में माननीय विदेश राज्य मंत्री श्रीमती प्रनीत कौर द्वारा 9वें विश्व हिन्दी सम्मेलन के 'लोगो' और 'वेबसाइट' का लोकार्पण किया गया। सम्मेलन 22-24 सितम्बर, 2012 को जोहान्सबर्ग, दक्षिण अफ्रीका में आयोजित किया जाएगा। सम्मेलन का विषय है 'भाषा की अस्मिता और हिन्दी का वैश्विक संदर्भ'।

विश्व हिन्दी सम्मेलनों की सार्थकता के बारे में बोलते हुए श्री सत्यव्रत्त चतुर्वेदी, संसद सदस्य एवं 9वें विश्व हिन्दी सम्मेलन की संचालन समिति के सदस्य ने कहा कि किसी भी देश की संस्कृति और भाषा उसकी पहचान परिभाषित करती है। विश्व भर में, भारत की पहचान भी उसकी सामासिक संस्कृति और भाषा से है।
इस अवसर पर बोलते हुए विदेश राज्य मंत्री श्रीमती प्रनीत कौर ने कहा कि हालांकि विश्व हिन्दी सम्मेलनों में अधिक से अधिक लोग भाग ले रहे हैं फिर भी इन सम्मेलनों में बड़ी संख्या में विद्यार्थियों तथा युवाओं को शामिल करने तथा आकर्षित करने के प्रयास किए जा रहे हैं।

मीडिया के साथ बातचीत के दौरान मंत्री जी ने कहा कि विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित करना हमारे लिए गर्व की बात है क्योंकि यह हमारे देश की राजभाषा है। उन्होंने यह भी कहा कि ये विश्व हिन्दी सम्मेलन अब तक ऐसे देशों में आयोजित किए गए है जिनमें भारतीय समुदाय के लोग बड़ी संख्या में हैं और जिनके लिए ऐसे सम्मेलनों का विशेष महत्व है। 
इससे पहले मंत्री महोदया ने सम्मेलन के 'लोगो' और 'वेबसाइट'www.vishwahindisammelan.gov.in का लोकार्पण किया। यह वेबसाइट हिन्दी व अंग्रेजी दोनो भाषाओं में है। इस पर सम्मेलन से संबंधित सभी ब्यौरा उपलब्ध है जैसेकि शैक्षिक सत्रों के विषय और कार्यक्रम, भारत और अन्य देशों के प्रतिभागियों द्वारा पंजीकरण कराने की प्रक्रिया, आवास, परिवहन, वीजा आदि। वेबसाइट के अभिलेखागार भाग में विगत में आयोजित सभी आठ विश्व हिन्दी सम्मेलनों का विवरण शामिल है।
विदेश मंत्रालय द्वारा आयोजित विश्वस्तरीय प्रतियोगिता के बाद इस सम्मेलन के 'लोगो' का चयन किया गया था। विजेता प्रविष्टि का डिज़ाइन जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट, मुम्बई के श्री जोग शुभानन्द गोपाल द्वारा किया गया था। मंत्री महोदया द्वारा श्री जोग को नकद पुरस्कार प्रदान किया गया।

इस अवसर पर संसद सदस्य, 9वें विश्व हिन्दी सम्मेलन के लिए गठित संचालन समिति एवं उपसमितियों के सदस्य, प्रतिष्ठित हिन्दी विद्वान, लेखक, पत्रकार, वरिष्ठ अधिकारी उपस्थित थे।

Monday, July 16, 2012

अंतर्राष्ट्रीय अनुवाद सम्मेलन संपन्न

भारतीय अनुवादक संघ और Linguaindia के द्वारा संयुक्त रूप से पंजाब टेक्निकल यूनिवर्सिटी और Instituto Cervantes के साथ निकट सहयोग में आयोजित अनुवाद,प्रौद्योगिकी और बहुभाषी प्रसंग में वैश्वीकरण पर  3सरा अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन , 23-26जून, 2012, नई दिल्ली, भारत के अनुवादकों और दुभाषिया समुदाय के लिए नए मानक बनाते हुए. 26 जून, 2012 को सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।
सम्मेलन का उद्घाटन सत्र जो भारत में स्पेन के दूतावास के आधिकारिक सांस्कृतिक केन्द्र, Instituto Cervantes द्वारा आयोजित स्पेनिश दिवस समारोह का हिस्सा बना, 23 जून, 2012 को एक साझा मंच पर चार कुलपतियों की उपस्थिति का साक्षी बना। 200 से अधिक भाषा पेशेवरों, शिक्षाविदों, और दुनिया भर से अनुवादकोंकी उपस्थिति में, महामहिम, कोलंबिया के राजदूत, श्री जुआन अल्फ्रेडो पिंटो सावेद्रा ने मुख्य अतिथि के रूप में, मेजबान Instituto Cervantes के निदेशक डॉ. ऑस्कर पुजोल, डॉ. रजनीश अरोड़ा, वाइस चांसलर, कल यूनिवर्सिटी की प्रतिनिधि डा. प्रभजोत कौर, डा. ब्रज किशोर कुठियाला, कुलपति, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, डा. जेन्सी जेम्स, कुलपति, केन्द्रीय विश्वविद्यालय,केरल, श्री अतुल कोठारी, राष्ट्रीय सचिव, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, श्री रवि कुमार,संस्थापक अध्यक्ष, भारतीय अनुवादक एसोसिएशन की उपस्थिति में उद्घाटन किया।
सम्मेलन के उद्घाटन के दौरान जबकि सभी गणमान्य व्यक्तियों ने देश की सामाजिक और आर्थिक प्रगति में अनुवाद के महत्व पर बल दिया, पंजाब टैक्निकल यूनिवर्सिटी की डा. प्रभजोत कौर ने इस अवसर पर पंजाब टैक्निकल यूनिवर्सिटी के मोहाली परिसर में तकनीकी अनुवाद और भाषांतरण में B.Sc तथा पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा के शुभारंभ की औपचारिक रूप से घोषणा की।
भारतीय अनुवादक एसोसिएशन के लिए भी यह गर्व का क्षण था जब श्री रवि कुमार द्वारा संपादित पुस्तक "राष्ट्र निर्माण में अनुवाद की भूमिका" को डॉ. ऑस्कर पुजोल द्वारा जारी किया गया। विचारोत्तेजक सामग्री के लिए पुस्तक ने भारी प्रशंसा प्राप्त की है और इसका उपयोग भारत में अनुवाद अध्ययन के लिए पाठ्य पुस्तक के रूप में किया जा सकता है।
इस अवसर पर मुख्य वक्ताओं के रूप में डा. मूसा न्योंग्वा, कनाडा, श्री पुरनेंद्र किशोर, भारत और डॉ. मनीरत सवासदिवात ने, क्रमशः कनाडा के अनुवाद उद्योग,अनुवाद- 2022 तक भारत को एक कौशल महाशक्ति बनाने वाला मुख्य संबल और अनुवाद उद्योग के एशियाई एसोसिएशन के गठन पर प्रकाश डाला।
23 जून से 26 जून, 2012 लगातार 04 दिन तक 100 से अधिक विशेषज्ञों ने अपने पत्र प्रस्तुत किए तथा वैश्वीकरण, अंतर्राष्ट्रीयकरण, स्थानीयकरण और अनुवाद (GILT),अनुवाद भाषाओं, संचार और जनसंपर्क माध्यमों के चैनलों के प्रति सरकार की नीतियों; अनुवाद एवं भाषांतरण में शिक्षण और प्रशिक्षण; अनुवाद के प्रति सैद्धांतिक दृष्टिकोण, अनुवाद में अध्यापन चुनौतियों, विशेषज्ञतायुक्त पाठ (वैज्ञानिक, तकनीकी,चिकित्सा आदि), अनुवाद में गुणवत्ता मानकों, शब्दावली प्रबंधन और अनुवाद में परियोजना प्रबंधन; प्रकाशन उद्योग और अनुवाद; अनुवाद में मशीन और स्मृति उपकरणों;अनुवाद में प्रौद्योगिकी और नवीनता आदि सहित विभिन्न विषयों पर अपने दृष्टिकोण साझा किए।
सम्मेलन के समापन के दिन, सम्मेलन संयोजक और भारतीय अनुवादक एसोसिएशन के अध्यक्ष श्री रवि कुमार द्वारा परियोजना प्रबंधन और अनुवाद में प्रौद्योगिकी एकीकरण पर एक समर्पित कार्यशाला आयोजित की गई। कार्यशाला में150 से अधिक अनुवादकों और शिक्षाविदों ने भाग लेकर परियोजना प्रबंधन, गुणवत्ता नियंत्रण और अनुवाद सेवाओं और ग्राहकों की संतुष्टि की प्राप्ति में तकनीकी एकीकरण की मूल बातें सीखीं।
सम्मेलन के सभी सहभागी सदस्य इस आम सहमति पर पहुँचे कि अनुवादकों को व्यावसायिक प्रस्थिति प्रदान करने और अनुवाद अध्ययन के लिए पाठ्यक्रम मॉड्यूल तैयार करने के लिए कदम उठाने की तत्काल आवश्यकता है ताकि शिक्षाविदों और उद्योग के बीच की खाई को भरा जा सके।

(भारतीय अनुवादक एसोसिएशन 
के-5बी, लोअर ग्राउंड फ्लोर, कालकाजी
नई दिल्ली - 110019
दूरभाष:   0091-11-26291676/41675530 )

Saturday, July 14, 2012

गीता का हिंदी काव्य अनुवाद विमोचित

गीता का हिंदी काव्य अनुवाद विमोचित



 गीताधाम, ग्वारीघाट जबलपुर में प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्धद्वारा श्रीमद भगवत गीता के समस्त संस्कृत श्लोको का हिन्दी काव्य मे श्लोकषः अनुवाद कर तैयार ग्रंथ का विमोचन महा मण्डलेश्वर नृसिंह पीठाधीश्वर डॉ. स्वामी श्यामदास जी महाराज, गीताधाम, जबलपुर, महा मण्डलेष्वर स्वामी अखिलेष्वरानंद गिरि अध्यक्ष समन्वय परिवार ट्रस्ट एवं श्री कृष्णकांत चतुर्वेदी पूर्व निदेषक कालीदास अकादमी के करकमलो से संपन्न हुआ। कार्यक्रम का संचालन श्री राजेश पाठक प्रवीण द्वारा किया गया। इस अवसर पर नगर की सक्रिय साहित्यिक संस्थाओ वर्तिका के संस्थापक श्री साज जबलपुरी महिला प्रकोष्ठ की अध्यक्ष श्रीमती सुनीता मिश्रा, कादम्बरी के श्री भगवत दुबे एवं श्री गार्गीशरण मिश्र, पाथेय के संस्थापक एवं वरिष्ठ रचनाकार श्री राजकुमार तिवारी सुमित्त, गुजन कला सदन के श्री ओमकार श्रीवास्तव, म.प्र. साहित्य अकादमी की नगर ईकाई पाठक मंच जबलपुर के श्री विवेक रजंन श्रीवास्तव एवं गणमान्य रचानाकारो, साहित्यकारो, अध्यात्म प्रेमियो, मेडिकल कालेज के भूतपूर्व डीन डा. बी.एन. श्रीवास्तव, वरिष्ठ स्वाध्यायी श्री ए.एन. सिंग, गीताधाम के श्री स्वामी नृसिंह दास जी एवं भक्त मंडली की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही। प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव विदग्धः ने अपने उद्बोधन मे कहा कि भगवत गीता एक विष्व ग्रंथ है जिसकी उपयोगिता सदैव बनी रही है। म.प्र. शासन ने बच्चो मे संस्कारो के लिये ही गीता के पठन पाठन को शालेय पाठ्यक्रम मे भी शामिल किया है। आज के समय मे बच्चे अंग्रेजी माध्यम से षिक्षा ग्रहण कर रहे है जिस कारण भगवत गीता जैसे महान ग्रंथो से समाज दूर होता जा रहा है। उन्होने आशा व्यक्त की कि इस हिंदी अनुवाद से गीता सामान्य व्यक्ति की समझ मे भी आ सकेगी। आयोजन मे महामण्डलेश्वर डा. स्वामी श्यामदास जी , महामण्डलेश्वर स्वामी अखिलेश्वरानंद गिरी जी, डा. कृष्णकांत चतुर्वेदी जी को शाल श्रीफल एवं अलंकरण से सम्मानित भी किया गया। इस अवसर पर श्रीमद भगवत गीता हिंदी अनुवाद के रचियता एवं ईशाराधन, वतन को नमन, अनुगुजंन आदि अनेक ग्रंथो के लेखक कवि एवं षिक्षाषास्त्री तथा चिंतक अध्यात्म प्रेमी प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव को आध्यात्म श्री अलंकरण से सम्मानित किया गया। 

गीता विष्व मान्य अनुपम आध्यात्मिक गं्रथ है। मानव जीवन की संपूर्ण व्याख्या है। सरल, सात्विक, पवित्र जीने का भगवान कृष्ण का दिया हुआ पावन मंत्र है- गीता के कुछ महत्वपूर्ण मंत्र इस तरह है-

मंत्र-1-नहि ज्ञानेन सदृषं पवित्रम इह विधते- जीवन में ज्ञान के बिना काम चलना असभंव है। यह प्रगति का मूलमंत्र है। सही ज्ञान के बिना कर्म संभव नहीं है।

मंत्र-2-कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन् - कर्म करने से ही सफलता प्राप्त होती है। हर कर्म का फल अवश्य मिलता है। सोच समझ कर कर्म किया जाना चाहिये। मन की एकाग्रता से कर्म मे गुणवत्ता आती है। मन के भटकाव कार्य परिणाम में सफलता नहीं देते। कार्य करने पर ही व्यक्ति का पूरा अधिकार है उसके फल पर नही, इससे दत्तचित्त हो कर्म करें।

मंत्र-3-योगःकर्मसु कौषलम् - योग का आषय है जुडाव। व्यक्ति जब मन लगाकर किसी काम को करता है तो निपुणता से काम हो सकता है और निपुणता से काम करने पर ही कर्म फलदायी होता है।

मंत्र-4-आलस्य हि मनुष्यानां शरीरस्थे महानरिपुः
  आत्मैव आत्मनः बंधुः आत्मैव रिपु अत्मनः - मनुष्य का सबसे बडा शत्रु आलस्य है। व्यक्ति अपना मित्र स्वतः है और अपना शत्रु भी खुद ही है। अपने कर्मों से ही मनुष्य अपना भाग्य बनाता या बिगाडता है। जो जैसी करनी करें सो वैसा फल पाये। अपने कर्मों से ही व्यक्ति पूजा जाता है या पीटा जाता है।

मंत्र-5-ईश्वरः सर्व भूतांना हृदयेषे अर्जुन तिष्ठति
       भ्रामयन्सर्वभूतादि मंत्रारूढानि मायया- ईश्वर सभी प्राणियो के शरीर मे उपस्थित है। अपनी माया से सबको यंत्र मे बैठे हुये के समान घुमाता है। हृदय मे ही चेतना का निवास है। यह चेतना ही उर्जा के रूप मे ईश्वर है। इसी चेतना से व्यक्ति सोचना विचारता तथा सारे कर्म करता है। यह चेतना ही सर्व शक्तिमान है जो इच्छा अनिच्छा को जगाती है और प्राणी उससे प्रभावित हो सब कार्य करने मे उद्धत होता है। अर्थात इसी चेतना से ही संसार संचालित होता है। चेतना ही सबको झूले पै बैठे हुये के समान झुलाती रहती है। इसीलिये सभी संतो ने कहा है कि ईश्वर कही और जगह नही अन्तःकरण मे है। वही उसके दर्शन करना चाहिये। वही भले बुरे विचारों का जन्मदाता है। इससे ही मन की पवित्रता और पानवता की प्रार्थना की जाती है जिससे सत्कार्यो का संपादन संभव हो सके। आत्मविश्वास से बढे। ईश्ववर के प्रति श्रद्धा और विश्वास ही सदाचार और सफलता की कुंजी है।

गीता के उपदेशक श्री कृष्ण ने भी इसी से अर्जुन से सार रूप मे कहा है-
सर्वधर्मान पदित्यज्य मां एंक शरंण ब्रज
अंह त्वां सर्व पापेभ्यो मोक्षिस्यामि मा शुचः।।
सब झंझटो को छोड तू मेरी शरण मे आ जा। मै तुझे सब परेशानियों से बचा लूंगा। शोक मत कर। संसार मे ईश्वर की शरण ही सबको सब कष्टो से बचा के शांति देती है। इसके लिये शुद्ध मन से अपना कर्तव्य निष्काम भाव से करना चाहिये। सत्कर्म ही ईश्वर की सच्ची पूजा है। जगन्नियन्ता के प्रति श्रद्धा और निरंतर निष्ठा से कर्तव्य करते जाना ही जीवन मे सिद्धि प्राप्ति का मार्ग है। ऐसा करके ही उदासी, निराशा और तनाव से व भटकाव से मुक्ति संभव है।

भगवान का उपदेश है-
मन प्रसन्न रख शोक और इच्छाओं को त्याग
सम दृष्टि से भक्तिमय कर मुझमें अनुराग।

(प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध‘)