सरोज कांत झा की पांच ग़ज़लें
ग़ज़ल -1
रूठ के चल दिये जमाने से।
काश! आ जाते तुम मनाने से।।
हाथ छुटा और साथ अपना छुट गया
अब क्या हो अपनापन जताने से
कैसा चढ़ा है जुनून, है ये कैसी सनक
रौशनी होती नहीं घर को जलाने से
तुम मुझे लाख दो बद्दुआ ये मेरे रकीब
हस्ती मिटती नहीं है मिटाने से
क्यू करू मैं किसी से कोर्इ शिकवा-गिला
दर्द होता नहीं है कम दिखाने से
जो हुआ उसको अपना मुक्कदर ही कहा
गम का सबब न पूछो तुम दिवाने से
ग़ज़ल -2
जब किसी से कोर्इ गिला रखना
हो सके तो रोज उनसे मिला करना
हाथ छुटे तो रिश्ते नहीं छुटे हमदम
बस अपने दिल को तुम मिला रखना
रोज लिखते हैं दर्द के उजालों में
बस अपने दर्दों का ये सिलसिला रखना
कौन किसका हुआ है इस जमाने में
बुरे वक्त में बस तुम हौसला रखना
कबतक प्यासे रहे हम तेरे दर पे
अश्क न सही तो जहर ही पिला रखना
ग़ज़ल -3
इन परिंदों को जरा सा पर दे दो।
हम गरीबों को अपना कोर्इ घर दे दो।।
माना है तुझको अपना साथी, माना
है मसीहा
भूले से सही इक नजर दे दो
बड़ें जालिम हो, बेखौफ होकर
घुमते हो
ये खुदा इनको जरा सा डर दे दो
हर हाथों में मशाल हो, जुबांन पर
इंकलाब
इस मुल्क में ऐसी गदर दे दो
ये तेरा है, ये मेरा है सब
कहते हैं
सबका हो अपना इक शहर दे दो
ग़ज़ल - 4
उम्मीदों पर खरा उतरने का हर बार मैंने प्रयास
किया।
अपनों के बीच अपनों को मैंने तलाश किया।।
ये क्या कि हम हर कदम पर मिटते गये
और वो मेरे मरने का उपहास किया
कब तलक़ मैं चोट खाकर हंसने का स्वांग करूं
छलक पड़ते हैं आंसू मेरे जब अपनो ने निराश किया
विराने में मरता तो गम न होता ये खुदा
अपनों के बीच ही मैं इक जिंदा लाश हुआ
बेगाने ने दगा दी, दर्द दी कोर्इ
बात नहीं
गम तो ये हैं कि प्यास बुझाने वालों ने प्यास
दिया
ग़ज़ल - 5
आया हूँ तेरे शहर में अजनबी की तरह
अपना ले या मुझकों ठुकरा दे तू सभी की तरह
मैं इक ख़्वाब नहीं हूँ आसंमा के जैसा
मैं हकीकत हूँ इस जमीं की तरह
दोस्त है, महफिल है,
है
शानो-शौकत बहुत
पर तेरे बिन जिंदगी में है कुछ कमी की तरह
तुम शौक से बनो खुदा या बनो मसीहा
मैं आदमी हूँ, रहूँगा आदमी की
तरह
बदल जाये हालात तो हकीकत नहीं बदलते
तुम मेरी आंखों में हो नमी की तरह
ग़ज़लकार का संक्षिप्त परिचय
नाम: सरोज कांत झा
पत्राचार: जयप्रकाशनगर, पोस्ट आफिस:
भुरकुण्डा बाजार
थाना: भुरकुण्डा जिला: रामगढ़(झारखण्ड)
मोबार्इल नंबर: 9431394154
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