नवोदित हिंदी कवियों की कविता में नारी
- डॉ. रंजित माधवन, कोडुंगल्लूर
हर सच्ची कविता अपने आपमें विशिष्ट होती है. उसमें कुछ ऐसा ज़रूर
होता है जो अब तक न कहा गया हो , न देखा गया हो. ऐसा कुछ जिसे कोई दूसरा
माध्यम कह पाने में सक्षम न हो. क्योंकि कविता में आत्मा और अनुभव शामिल
रहते हैं. विशेषतः इक्कीसवीं सदी में आधुनिकता ने जिस मूल्य हीनता को जन्म
दिया है और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी ने मनुष्य को अपना एक उपकरण बना दिया
है, वहां संवेदनाओं से भरे मानव और मानव समाज के निर्माण केलिए कविता की
आवश्यकता होती है. मानव में संवेदना पैदा करने का एक और रास्ता है नारी. वह
अपनी समस्त रूपों में कविता की प्रेरणास्रोत रही है. इसी कारण से समकालीन
हिंदी कविता में नारी चित्रण के बारे में विचार करना समीचीन है.
भारतीय संस्कृत की खूबियों में से एक उसकी
देव परयानता थी. सभी वस्तुओं में देवता का रूप देखने की प्रथा ही भारतीय
संस्कृति को अब भी अक्षुण्ण बना रही है, ऐसे माननेवाले विचारकों की संख्या
बहुत है..हरीश नवल जी अपनी रचना " होते थे अम्मा बाबु जो"नामक कविता में यही
बात व्यक्त कर रहे हैं,
" बड़े गजब थे,बड़े अजब थे
एक होते थे बाबूजी
और एक हुआ करती थी अम्मा
मन से धन कमाते थे बाबूजी
तन लगा घर चलाने की दुआ करती थी अम्मा "
टेक्नॉलजी के इस युग में ऐसा भी कोई होगा क्या ? यह
शक होना स्वाभाविक है. नारी को प्रश्न करनेवालों से कोई शिकायत नहीं
है. माताचरण मिश्र ने अपनी वाणी हम तक 'काया और माया " कविता से पहुँचायी
है.
"पात्र ही है हम शायद
लेकिन,नाटकीयता नहीं है
हमारे अभिनय में
यही तो रहस्य है
इस संसार और इस खेल का भी "
शंकराचार्य जी ने ' मात्रु पंचकं ' में माता की जो
पीड़ा का वर्णन किया है, उसकी छाया जोम्यीर जीनी की 'मैं और मां' कविता में
दर्शनीय है,
"मेरे इस दुनिया में आने से पहले
तुझे पता था कौन हूँ मैं
तुझी में बसी थी मैं
खुद दर्द सहा तकलीफ उठाई
पर मुझ तक न पहुँचने दिए उन्हें
क्योंकी तुझे पता था कौन हूँ मैं "
नारी को माता की हैसियत देनेवाले समाज अपनी
संस्कृति को भूलकर आजकल उनको उपभोग की वस्तु मान मान रहे हैं. इससे खिन्न
नारी की आवाज़ दिविक रमेश ' शर्म खाऊँ तो क्यों मैं "में गूँज रहे हैं:
अपने तन को बिकाऊ चीज़ बनानेवाले समाज से प्रश्न करती है,
" मैं नंगा हूँ
और उनकी वजह से हूँ
अब वही बताएं
किस खुशी के लिए द्धाकूं
अपनी हथेलियों से
अपना नंगापन
केवल उनकी शान के लिए "
प्यार भी आज नारी को फँसने की जाल के रूप में बदल
चुकी है.' होली ;खुशियों का त्यौहार ' नामक कविता में शशिश कुमार तिवारी
जी यही बात बता रहे हैं -
"शायद इसलिए कि
ये सब बाज़ार से खरीदे गए हैं
दिल से नहीं
बड़ी देरी से खोज रहा हूँ
हाथ लगा के मैं प्यार को
पर उसका कहीं पता नहीं
जैसे उड़ गया वह बाष्प बन के
लगता है बहुत ऊपर चला गया है
शायद बादलों में "
अम्बिका प्रसाद दिव्य जी की "क्या विश्वास करे " कविता भी यही आशय वाला है -
" जीवन की है जटिल समस्या
जिस से प्रेम किया जाता है
दो वस्त्रों सा, दो देहों को
जिसमें हाथ सिया जाता है
बन जाता है वही पृथक हो
दुखदायी पाषाण कभी "
प्रेम के जाल में फँस कर कभी -कभी नारी वेश्याओं की
गली में पहुँच जाती है. उनकी तड़प परांज धर की 'उजाले में ' और 'रास्ते के
पत्थर है जीवन ' नामक कविताओं में दर्शनीय है-
"रास्ते का पत्थर है जीवन
उस समाज में
जहां वेश्याओं की गली
सेफ्टी वाल्व की कुंडा का
एक का अस्तित्व
कारण है दूसरे की अय्याशी का
या दूसरे की अय्याशी कारण है
पहले के अस्तित्व का "
वहां जानेवाले काम पूर्ती करके वापस आ जाते है
, कभी भी उनकी पीड़ा की और ध्यान नहीं देती, वहां उनकी ज़िन्दगी इस प्रकार
ही बीत रही है -
" ज़िंदगी रेंगती चली जा रही
अकेली और असहाय
बिलखती और तड़पती हुयी
दबा है यहाँ भयंकर तूफ़ान
सिकुड़े और सहमे पड़े हैं यहाँ
हज़ारों उदात्त विचार
दस्तक होती है जहां रोज़ रोज़
सुबह -श्याम ,घड़ी घड़ी
डरे बैठे वहां तीन -चार
दुर्बल किन्तु महत्वाकांक्षी जन "
उनके बारे में सोचने ,उनकेलिए कुछ करने
कोई क्रांतिकारी आता ही नहीं. कम से कम वहां पहुँचाई जानेवाली लड़कियों की
बहाव रोकने तक में वह असफल है, क्योंकि,
" समा गयी क्रांतिकारियों की
कितनी ही पंक्तियाँ
कमरे की अँधेरे में "
विवाह का विज्ञापन आज अखबारों में आ रहे
हैं.उ सी को आधा बनाकर पवन कारन जी ने " स्त्री सुबोधिनी 'नामक कविता में
स्त्री से की जानेवाली अपेक्षाओं का जिक्र किया है-
" हमें अपने इकलौते लड़के के लिए एक ऐसी बहू चाहिए
जो दुनिया की सबसे अच्छी बहू हो और उसे ये बात
कि वह दुनिया की सबसे अच्छी बहू हो पता न हो
जिसे बोलना भले ही आता हो , पर हो वह गूंगी
' न ' इस शब्द को वह पहचानती न हो
और ' हाँ ' उसकी जुबां पर दरवाजे के बाहर
हाथ बंधे खड़े नौकर की तरह रहता हो खड़ा
जिसे रोना न आता हो
चीखना तो वह जानती ही न हो "
सभ्य
समाज में यह घटना हो रही है. नारी को ज़िंदा रूप में नहीं लाश के रूप में
स्वीकारने के लिए तैयार समाज से ज्ञानेंद्रपति जी बता रहे हैं,
" यह मत सोचो कि
मुर्दा बोला नहीं करते
उसे देखो
वह जो है उस शव का खुला हुआ मुंह
एक चीख में खुला हुआ मुंह है
फ्रीज़ मोशन में शिलीभूत
एक नयी मकड़ी तान रही हैं
जिसमें अपने जीवन का पहला जाल "
भारतीय समाज में मानव के जन्म से
लेकर अन्त्येष्टी तक की प्रत्येक घटनाओं को संस्कार के रूप में अभिहित
किया है. विवाह संस्कार को भारत में मिले मूल्य आज कम हो रहा है. जन्म -जन्म
तक लम्बे विवाह की कामना करनेवाले भारत के सभ्य समाज और समकालीन समाज का
अंतर बहुत है. आज शादी ,कल पार्टी और परसों डैवोर्स (तलाक) - यही है आज का वैवाहिक
संबध. प्रतिमा वर्मा ' रास्ते क्यों बदल गए ' नामक कविता में यही सवाल उठा
रही है-
"वादा तो था ,साथ चलने का
हमारे रास्ते क्यों बदल गए
जिन राहों पर हम साथ चलें
वे राहें फूलों से थी भरी
काँटों की चुभन अब लगती भली
तो गिला किसी से क्यों करें "
यह आवाज़ कई कंठों से उठ रही हैं. ऐसी नारियों की संख्या बढ़ रही हैं.
" नहीं लगता अब अकेले से दर मुझे
भय मुक्त हो उस राह पर चलती हुई
मेरी तरह इस दुनिया में है ,' बहुत'
फिर मन को भयाक्रांत क्यों करें ?"
मदन गोप्पल जी ने अपनी ' उसकी तबीयत खराब है ' कविता में
समकालीन दंपतियों का सही अंकन किया है,
" आँखों में जलन है
गले में खराश है
हवा इतनी भारी है यहाँ
कि बोल फूत्त्ते नहीं
फूस फूस कर रह जाते है
कहीं कोई सपना "
चारों ओर ख़तरा ही ख़तरा है. नारी , नारीत्व की
रक्षा करने में मग्न है. सपनों में वे आपदाओं से दूर होने की कामना करती
हैं. सरस्वती माथुर की रचना ' एक मुस्कान की तरह ' में ऐसी नारी की वर्णन कर
रही है .
" मेरा दिल
एक गाती चिड़िया से हैं
जो गाते गाते कभी
उड़ जाती है
सपनों की उड़ान पर
मेरा दिल एक इंद्र धनुष सा
कभी उतर जाता है बतियाता हुआ
सूरज से सागर की छोर तक "
हमारे समाज का
निर्माता ही नारी है. मगर हमें होनेवाला बच्चा लड़की है जानकार भ्रूण हत्या
करने में लगे हैं. गर्भ से बची बच्ची अपनी माँ से मिन्नत कर रही है,
" माँ एक बार तो निहार मुझे
तुम्हारा ही आशा हूँ मैं
मुझे भी है जीने का अधिकार
स्वीकार करो मेरी मनुहार
ऐसे न करो अत्याचार
इससे पहले की टूट न जाऊं मैं
बस, बचा लो मुझे
विश्व में चमकूंगी सितारा बन
फले फोल्ले यदि मेरा जीवन
पूछती हूँ एक प्रश्न
करके मेरा हनन क्या तुम
जी पाओगी अपना जीवन "
सुरेखा शर्मा जी कि 'बेटी की व्यथा ' में जो सवाल उठाई है,उ सका जवाब कौन देंगे?
नारियों पर चिढ़ -चाढ़ करने की आदतें आज बढ़ रही
हैं. उसकी ओर भी हिन्दी कविता का ध्यान गया है. नलिन तिवारी की ' महाभारत एक खोज
'इसका मिसाल है -
" खींचते ही रहती है यहाँ
रोज़ असंख्य द्रौपदियों के
बसों, ट्रेनों ,फुट्पातों पर
विवश पितामह के समक्ष "
ऐसी ज्वलंत मुद्दा समाज में होते
वक्त भी कुछ नारी कैसे जी रही है, इसकी सूचना 'आलोचना' के संपादक अरुण कमल
जी की 'क्लब घर और बीवियां ' कविता में दिया है,
"क्लब घर के लान में बैठ
बीवियां पुनः बातें कर रही हैं
उस नए बुटिक के बारे में
लाली पुते चेहरों के साथ
तंग या ठेला जींस पहने
मंडरा रही है बेटियाँ आसपास "
ऐसी माँ के और गरीब माँ के बच्चों का चित्रण अशोक अन्जुइल जी अपनी दोहा में किया है-
" माओं की गोदियों में कुछ फूल से खिले हैं
फुट पाठ पर है रोते कुछ जार जार बच्चे "
प्रकृति में नारी की सूरत देखने की
प्रथा अज्ज भी है. चन्द्र बाबू अग्निहोत्री जी ने ' याद तुम्हारी ' कविता
में लिखा है -
" है नित्य सितारे क्रीड करते रजनी के नव यौवन से
नित निशा सुन्दरी रूप गर्वित हो प्रस्वेदित प्रणयन से
जब वक्ष धरा का गीला होता ,प्रियतम नभ के चुम्बन से
तब प्रणय, मिलन स्पंदित होते , दिल की बढ़ती धड़कन से '
नारी शक्ति है, उसे सच मानने से कुछ लोग अब भी हिचक रहे हैं. समाज में
उनको सम्मानित करते वक्त मुँह फेरनेवालों से आर्य जी 'नारी स्वतन्त्रता'
नामक कविता में बता रहे हैं,
"नारी को दुर्बल समझना बहुत भारी भूल है
दया,भाव,प्यार,ममता एवं प्रगति की मूल है
नारी बिन रैन बसेरा मानो , खाली पत्थर थूल है
दारोमदार उसी पर सबला, सभी घरों की चूल है
नारी के विकास के बिना कोई सामजिक सरोकार नहीं है "
नारी को अपनी क्षमताएं पहचानकर काम
करना है और आनेवाली पीथियों से काम करवानी है. आर्य जी आगे बता रहे हैं
" बेटियों का सशक्तिकरण करें, अच्छी दो तालीम
ज्ञानवंत , गुनवंत हो और साथ में क्षमाशील
सावधान हो आगे बढ़ो , न बनो अश्लील
चारों ओर कब्जा करने में, मत दो अब ढील "
यह आह्वान सभी सुनती तो है, मगर फ़ायदा कम ही होता है. इसका कारण
के बारे में निर्मला जोसी जी ने 'शब्दों के अर्थ ' में दिखाई है-
"शब्दों के अर्थ बड़े गोल-माल हो गए हैं आजकल
समूचा संसार संक्रमित हो चला है
युगों से चले आ रहे शब्दों के
वास्तविक अर्थ खो गए हैं
शब्द अब भी वही है
उनकी परिभाषा बदल गयी है
आज हर दूजे वर्ष शब्द की मूल अर्थ
सांप की कैंचुली की तरह
अपना चेला उतार नवीन अर्थ धार लेते हैं."
नारी की मान
से लेकर वेश्या तक का चित्रण समकालीन कविताओं में मिलता है. गलियों में
बिकती नारी और अखबारों के विवाह विज्ञापन में आती नारी में क्या फर्क है
? इसके बारे में सोचने का 'वक्त'हमारे पास नहीं है. पहलीवाली भी कभी किसी की
बहन-बेटी थी . लेकिन आज उसकी नियति बदल गयी है. विवाह संबध जन्मों तक का
बंधन कहलाता था, लेकिन आज जल्दी ही टूटने का कारण क्या है ? नारी तलाकशुदा
होकर अकेले जीने की कामना करती है. नारी के चारों और साजिश से जाल बिछाए हुए
हैं . उसे हमेशा डर लगता रहता है कि यह जाल कब , कौन खींचेगा ? सपने में भी वह
निर्भय नहीं रह पाती.
नारी जीवन
के चोट दर चोट इन कविताओं में हम महसूस कर सकते हैं. नारी की शक्ति को
पहचानकर वह आगे बढ़ेगी तो आगामी समाज पृथ्वी को सुन्दर बनाने में सक्षम
होगी. यही सन्देश समकालीन कवि अपनी कविताओं द्वारा दे रहे हैं. उस सन्देश को
आत्मसात करके आगे बढ़ने में मानव मात्र की भलाई है.
सन्दर्भ ग्रन्थ
साहित्य अमृत --दिसंबर.नवम्बर,अक्टूबर,सितं बर,अगस्त,जून,जुलाई,--२०११
बिंदिया---दिसंबर २०११
मधुमती - दिसंबर ,नवम्बर,अक्टूबर -२०११
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