Thursday, March 8, 2012

मुक्तिका:



.... बना लेते

संजीव 'सलिल'

*

न नयनों से नयन मिलते न मन-मंदिर बना लेते.

न पग से पग मिलाते हम न दिल शायर बना लेते..



तुम्हारे गेसुओं की हथकड़ी जब से लगायी है.

जगा अरमां तुम्हारे कर को अपना कर बना लेते..



यहाँ भी तुम, वहाँ भी तुम, तुम्हीं में हो गया मैं गुम.

मेरे अरमान को हँस काश तुम जेवर बना लेते..



मनुज को बाँटती जो रीति उसको बदलना होगा.

बनें मैं तुम जो हम दुनिया नयी बेहतर बना लेते..



किसी की देखकर उन्नति जला जाता है जग सारा

न लगती आग गर हम प्यार को निर्झर बना लेते..



न उनसे माँगना है कुछ, न उनसे चाहना है कुछ.

इलाही! भाई छोटे को जो वो देवर बना लेते..



अगन तन में जला लेते, मगन मन में बसा लेते.

अगर एक-दूसरे की ज़िंदगी घेवर बना लेते..



अगर अंजुरी में भर लेते, बरसता आंख का पानी.

'सलिल' संवेदनाओं का, नया सागर बना लेते..

समंदर पार जाकर बसे पर हैं 'सलिल' परदेसी.
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते..

1 comment:

India Darpan said...

बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
इंडिया दर्पण की ओर से शुभकामनाएँ