स्वदेश भारती के उपन्यास आरण्यक पर समीक्षा गोष्ठी सम्पन्न
नवगठित संस्थान 'साहित्य की चौपाल, छत्तीसगढ़ के तत्वावधान में राष्ट्रीय हिन्दी अकादमी, कोलिकाता के अध्यक्ष डा. स्वदेश भारती के नक्सली समस्या पर केनिद्रत सध प्रकाषित उपन्यास 'आरण्यक पर सिंघर्इ विला, भिलार्इ में 6 मार्च, 2012 को समीक्षा गोष्ठी सम्पन्न हुर्इ। उल्लेखनीय है कि प्रथम प्रमोद वर्मा काव्य सम्मान सहित अनेकों राष्ट्रीय सम्मानों से विभूशित से चौथे सप्तक के कवि डा0 स्वदेश भारती के अब तक 24 काव्य संकलन सहित 10 उपन्यास प्रकाषित हैं तथा 40 से अधिक ग्रन्थों का उन्होंने सम्पादन भी किया है। वरिश्ठ कवि एवं छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के महामंत्री श्री रवि श्रीवास्तव एवं युवा आलोचक डा. जयप्रकाष साव ने विषेश टिप्पणी दी। 'साहित्य की चौपाल के संयोजक श्री अशोक सिंघर्इ ने आलेख प्रस्तुत किया जबकि शायर मुमताज़ ने गोष्ठी का कुषल संचालन किया व आभार भी व्यक्त किया। ज्ञातव्य है कि डा0 स्वदेश भारती एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती उत्तरा 4 मार्च से 6 मार्च तक एक राष्ट्रीय संगोष्ठी के लिये प्रवास पर भिलार्इ आये हुये थे।
आलेख में कवि व समालोचक श्री अशोक सिंघर्इ ने कहा कि किसी भी उपन्यास को जीवन का चित्र कुछ इस तरह प्रस्तुत करना चाहिये कि वह यथार्थ की वस्तुनिष्ठ प्रस्तुति करे। स्वदेश भारती जी का आलोच्य उपन्यास 'आरण्यक इस कसौटी पर कुन्दन की तरह खरा उतरता है। यह उपन्यास हमारे समय के, जो निरन्तरता में हमारे साथ-साथ ही बीतता है, संघर्षों, त्रासदियों और सभ्यताओं के साथ व्यवस्थाओं की विफलताओं का एक बहुआयामी चिन्तक दस्तावेज़ है।'आरण्यक का नायक भीमाराव समाज, धर्मों के तथाकथित झण्डाबरदारों के अन्याय, शोषण और दुष्चक्रों के खिलाफ़ कमर कसता है, समझौते की भाषा न समझने वाला भीमा एक-एक कर समाज के सभी प्रभावी पात्रों के मुखौटों में जाता है, पर अंतहीन महाभारत के अभिमन्यु की तरह अपने पीछे कर्इ प्रश्न छोड़ जाता है। आयशा, लाली, आशा जैसी महिला पात्रों के माध्यम से लेखक ने पुरुषवादी समाज के आदिम और बर्बर चेहरे को कर्इ बार बेनक़ाब किया है। इस उपन्यास में विचार आसवित रूप में हैं जिन्हें हज़म करने के लिये उसमें समय का जल श्रमपूर्वक मिलाना होगा। यदि पाठक के पास धैर्य हो और वह परिश्रमी हो तभी वह चिन्तन के इस प्रकाश को मानसिक आँखों से देख सकेगा। इस सिम्फनी का पूर्णत: रसास्वाद करने के लिये पाठक को विश्व साहित्य की अमर रचनाओं और पात्रों से पाठक को सुपरिचित होना होगा। भारती जी का उपन्यास मुझे अपने तर्इ कैडसिलकोप जैसा लगता है जिसे जब-जब घुमा-घुमा कर देखा जाये तो हर बार नये बिम्ब, नये चित्र नये अर्थ और अंतत: नये विचार उपसिथत होते जाते हैं। मनुश्य के आस्था, विष्वास और संघर्श की कहानी है 'आरण्यक। कुल मिलाकर भारती जी 'आरण्यक एक ऐसा औपन्यासिक अरण्य है जो उसी को मानसिक जीवन जीने देगा जो अरण्य में जाने और अरण्य में जी पाने की कला तथा क़ूबत रखते हैं।
लेखकीय उदबोधन में डा.स्वदेश भारती ने कहा कि साहित्य में षिगूफेबाजी नहीं होनी चाहिये। लोकप्रिय लेखन के लिये बहुतेरे तथाकथित बड़े लेखकों ने ऐसा किया और साहित्य, विषेशकर उपन्यास विधा को बहुत नुकसान पहुँचाया है। उन्होंने कहा कि मनुश्य अकेला आता है और अकेला ही चला जाता है और वह वस्तुत: अकेला ही चला जाता है। मनुश्य एकानितक और असहाय है। आम आदमी की व्यथा को यदि हम पाठकों तक नहीं लाते हैं तो अपने साहित्य कर्म से गददारी करते हैं तथा अपनी आस्था के स्वयं हत्यारे बन जाते हैं। मैंने अपनी रचनात्मकता में मनुश्य को अपने हृदय का प्यार दिया है। प्यार संघर्श का ही दूसरा नाम है और इस संघर्श में आत्म बलिदान और आत्म समर्पण होता है। हमें चाहिये कि हम मनुश्य की चेतना और व्यथा से जुड़ें तभी कुछ सार्थक लेखन सम्भव हो पायेगा।
उपन्यास पर अपना मन्तव्य व्यक्त करते हुये श्री रवि श्रीवास्तव ने कहा कि इस उपन्यास में मनुश्य के संज्ञान का सारा समय प्रतिबिमिबत होता है। इस उपन्यास से यह प्रतिध्वनि निकलती है कि मनुश्य एक डरावना मकान है जो कभी भी सम्पूर्ण नहीं हो पाता। उसके निर्माण में कुछ न कुछ कमियाँ रह ही जाती है और यही न्यूनता हमेषा सुधार और विकास की प्रेरणा स्रोत होती हैं। यह उपन्यास पाठक की परीक्षा लेता है। यदि वह पहले पचास पृश्ठों तक पढ़ने का श्रम और समझने की क्षमता का परिचय दे सके तब ही यह उपन्यास उसे अपने अंतस में प्रवेष करने देता है।
युवा आलोचक डा. जयप्रकाष साव ने विषेश टिप्पणी देते हुये कहा कि साहित्य की अन्य विधायें विशय से बँधी हुर्इ नहीं होती पर उपन्यास के लिये विशय पहली शर्त है। यथार्थ अपने नग्न रूप में उपन्यास में ही आता है और अपने समय की क्रूर सच्चाइयों को अभिव्यक्त करता है। दिक्कत यह है कि अधिकाँषत: लेखक षिल्प व कला के खेल में यथार्थ पर एक चमकदार लेप चढ़ा देते है जिससे यथार्थ की तल्ख़्ागी कम हो जाती है तथा रचना मर्मस्पर्षी नहीं हो पाती। 'आरण्यक इसका अपवाद है और नग्न सच्चाइयों को पूरी तरह से सीधे ही प्रस्तुत करता है। नक्सलवाद की आतंकवादी और पूरी तरह से भटकी हुर्इ मानवीय त्रासदी पर केनिद्रत यह उपन्यास विवरणमूलक गध, यथार्थ की वस्तुनिश्ठ तटस्थता का एक आदर्ष है। इसमें विलक्षण पठनीयता है।
इस अवसर पर वरिश्ठ कवि श्री शरद कोकास एवं श्री नासिर अहमद सिकंदर, कवयित्री श्रीमती शकुन्तला शर्मा, प्रो. सरोज प्रकाष, श्री प्रकाष, श्री एन.एन. पाण्डेय, श्री एस.एस. बिन्द्रा, शायर शेख निजामी, डा. नौषाद सिददीकी, श्री राधेष्याम सिन्दुरिया, श्री रामबरन कोरी 'कशिश, शायरा प्रीतिलता 'सरु, श्री षिवमंगल सिंह सहित बड़ी सँख्या में साहित्यकार व साहित्य प्रेमी उपसिथत थे।
- अशोक सिंघर्इ
संयोजक - साहित्य की चौपाल
भिलाई-दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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