क्यों ?
-संजीव 'सलिल'
शब्द सस्ते नहीं होते
ब्रम्ह का हैं रूप वे ।
अर्थ सस्ते दे हमीं ने
शब्द-अवमूल्यन किया ।
बहिन शीला,
मैया मुन्नी,
हमें क्यों ना भा रही ?
देह दर्शन से नहीं क्यों
घिन हमें अब आ रही ?
सजा नारी बदन को
जो बेचते हैं रात-दिन
क्यों उन्हीं की सर्जना के
गीत दुनिया गा रही ?
सिर्फ मस्ती-मौज ही
क्यों आज युव का ध्येय है ?
लक्ष्मी पाना ही क्यों
मानव ने माना श्रेय है ?
शारदा की अदेखी क्यों ?
क्यों अदेखी ज्ञान की ?
परिश्रम है क्यों अदेखा ?
बात है यह आन की ।.
सोच बदलो,
राह बदलो,
चाह बदलो,
वाह बदलो ।
शब्द तब ही अर्थ देंगे ।
तब नहीं वे व्यर्थ होंगे ।
कहो कब तक खायेंगे हम
मूल्य तज कर व्यर्थ गोते
शब्द सस्ते नहीं होते ।
***
2 comments:
वर्त्तमान परिपेक्ष्य में ये आम है ..घबराइए नहीं ..
मेरा ब्लॉग भी देखे ...
http://achal-anupam.blogspot.com/
बहुत ही अच्छी कविता है आप का बहुत शुक्रिया साझा करने के लिए
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