Friday, April 30, 2010

कविता

जिन्दगी से अगरबत्तियों ने कहा—
- श्यामल सुमन

वो घड़ी हर घड़ी याद आती रहे
गम भुलाकर जो खुशियाँ सजाती रहे

जिन्दगी से अगरबत्तियों ने कहा
राख बन के भी खुशबू लुटाती रहे

कभी सुनता क्या बुत भी इबादत कहीं
घण्टियाँ क्यों सदा घनघनाती रहे

प्यार सागर से यूँ है कि दीवानगी
मिल के खुद को ही नदियाँ मिटाती रहे

डालियाँ सूनी है पर सुमन सोचता
काश चिड़ियाँ यहाँ चहचहाती रहे

आलेख - ग़ज़ल और गीत

ग़ज़ल और गीत

- आचार्य संजीव 'सलिल'

शब्द ब्रम्ह में अक्षर, अनादि, अनंत, असीम और अद्भुत सामर्थ्य होती है. रचनाकार शब्द ब्रम्ह कल प्रगट्य का माध्यम मात्र होता है. इसीलिए सनातन प्राच्य परंपरा में प्रतिलिपि के अधिकार (कोपी राइट) की अवधारणा ही नहीं है. श्रुति-स्मृति, वेदादि के रचयिता मन्त्र दृष्टा हैं, मन्त्र सृष्टा नहीं. दृष्टा उतना ही देख और देखे को बता सकेगा जितनी उसकी क्षमता होगी.

रचना कर्म अपने आपमें जटिल मानसिक प्रक्रिया है. कभी कथ्य, कभी भाव रचनाकार को प्रेरित करते है.कि वह 'स्व' को 'सर्व' तक पहुँचाने के लिए अभिव्यक्त हो. रचना कभी दिल(भाव) से होती है कभी दिमाग(कथ्य) से. रचना की विधा का चयन कभी रचनाकार अपने मन से करता है कभी किसी की माँग पर. शिल्प का चुनाव भी परिस्थिति पर निर्भर होता है. किसी चलचित्र के लिए परिस्थिति के अनुरूप संवाद या पद्य रचना ही होगी लघु कथा, हाइकु या अन्य विधा सामान्यतः उपयुक्त नहीं होगी.

गजल का अपना छांदस अनुशासन है. पदांत-तुकांत, समान पदभार और लयखंड की द्विपदियाँ तथा कुल १२ लयखंड गजल की विशेषता है. इसी तरह रूबाई के २४ औजान हैं कोई चाहे और गजल या रूबाई की नयी बहर या औजान रचे भी तो उसे मान्यता नहीं मिलेगी. गजल के पदों का भार (वज्न) उर्दू में तख्ती के नियमों के अनुसार किया जाता है जो कहीं-कहीं हिन्दी की मात्र गणना से साम्य रखता है कहीं-कहीं भिन्नता. गजल को हिन्दी का कवि हिन्दी की काव्य परंपरा और पिंगल-व्याकरण के अनुरूप लिखता है तो उसे उर्दू के दाना खारिज कर देते हैं. गजल को ग़ालिब ने 'तंग गली' और आफताब हुसैन अली ने 'कोल्हू का बैल' इसी लिए कहा कि वे इस विधा को बचकाना लेखन समझते थे जिसे सरल होने के कारण सब समझ लेते हैं. विडम्बना यह कि ग़ालिब ने अपनी जिन रचनाओं को सर्वोत्तम मानकर फारसी में लिखा वे आज बहुत कम तथा जिन्हें कमजोर मानकर उर्दू में लिखा वे आज बहुत अधिक चर्चित हैं.

गजल का उद्भव अरबी में 'तशीबे' (संक्षिप्त प्रेम गीत) या 'कसीदे' (रूप/रूपसी की प्रशंसा) से तथा उर्दू में 'गजाला चश्म (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप से हुआ कहा जाता है. अतः, नाज़ुक खयाली गजल का लक्षण हो यह स्वाभाविक है. हिन्दी-उर्दू के उस्ताद अमीर खुसरो ने गजल को आम आदमी और आम ज़िंदगी से बावस्ता किया. इस चर्चा का उद्देश्य मात्र यह कि हिन्दी में ग़ज़ल को उर्दू से भिन्न भाव भूमि तथा व्याकरण-पिंगल के नियम मिले, यह अपवाद स्वरूप हो सकता है कि कोई ग़ज़ल हिन्दी और उर्दू दोनों के मानदंडों पर खरी हो किन्तु सामान्यतः ऐसा संभव नहीं. हिन्दी गजल और उर्दू गजल में अधिकांश शब्द-भण्डार सामान्य होने के बावजूद पदभार-गणना के नियम भिन्न हैं, समान पदांत-तुकांत के नियम दोनों में मान्य है. उर्दू ग़ज़ल १२ बहरों के आधार पर कही जाती है जबकि हिन्दी गजल हिन्दी के छंदों के आधार पर रची जाती है. दोहा गजल में दोहा तथा ग़ज़ल और हाइकु ग़ज़ल में हाइकु और ग़ज़ल दोनों के नियमों का पालन होना अनिवार्य है किन्तु उर्दू ग़ज़ल में नहीं.

हिन्दी के रचनाकारों को समान पदांत-तुकांत की हर रचना को गजल कहने से बचना चाहिए. गजल उसे ही कहें जो गजल के अनुरूप हो. हिन्दी में सम पदांत-तुकांत की रचनाओं को मुक्तक कहा जाता है क्योकि हर द्विपदी अन्य से स्वतंत्र (मुक्त) होती है. डॉ. मीरज़ापुरी ने इन्हें प्रच्छन्न हिन्दी गजल कहा है. विडम्बनाओं को उद्घाटित कर परिवर्तन और विद्रोह की भाव भूमि पर रची गयी गजलों को 'तेवरी' नाम दिया गया है.

एक प्रश्न यह कि जिस तरह हिन्दी गजलों से काफिया, रदीफ़ तथा बहर की कसौटी पर खरा उतरने की उम्मीद की जाती है वैसे ही अन्य भाषाओँ (अंग्रेजी, बंगला, रूसी, जर्मन या अन्य) की गजलों से की जाती है या अन्य भाषाओँ की गजलें इन कसौटियों पर खरा उतरती हैं? अंग्रेजी की ग़ज़लों में पद के अंत में उच्चारण नहीं हिज्जे (स्पेलिंग) मात्र मिलते हैं लेकिन उन पर कोई आपत्ति नहीं होती. डॉ. अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल सन्ग्रह 'ऑफ़ एंड ओन' की रचनाओं में पदांत तो समान है पर लयखंड समान नहीं हैं.

हिन्दी में दोहा ग़ज़लों में हर मिसरे का कुल पदभार तो समान (१३+११) x२ = ४८ मात्रा होता है पर दोहे २३ प्रकारों में से किसी भी प्रकार के हो सकते हैं. इससे लयखण्ड में भिन्नता आ जाती है. शुद्ध दोहा का प्रयोग करने पर हिन्दी दोहा ग़ज़ल में हर मिसरा समान पदांत का होता है जबकि उर्दू गजल के अनुसार चलने पर दोहा के दोनों पद सम तुकान्ती नहीं रह जाते. किसे शुद्ध माना जाये, किसे ख़ारिज किया जाये? मुझे लगता है खारिज करने का काम समय को करने दिया जाये. हम सुधार के सुझाव देने तक सीमित रहें तो बेहतर है.

गीत का फलक गजल की तुलना में बहुत व्यापक है. 'स्थाई' तथा 'अंतरा' में अलग-अलग लय खण्ड हो सकते है और समान भी किन्तु गजल में हर शे'र और हर मिसरा समान लयखंड और पदभार का होना अनिवार्य है. किसे कौन सी विधा सरल लगती है और कौन सी सरल यह विवाद का विषय नहीं है, यह रचनाकार के कौशल पर निर्भर है. हर विधा की अपनी सीमा और पहुँच है. कबीर के सामर्थ्य ने दोहों को साखी बना दिया. गीत, अगीत, नवगीत, प्रगीत, गद्य गीत और अन्य अनेक पारंपरिक गीत लेखन की तकनीक (शिल्प) में परिवर्तन की चाह के द्योतक हैं. साहित्य में ऐसे प्रयोग होते रहें तभी कुछ नया होगा. दोहे के सम पदों की ३ आवृत्तियों, विषम पदों की ३ आवृत्तियों, सम तह विषम पदों के विविध संयोजनों से नए छंद गढ़ने और उनमें रचने के प्रयोग भी हो रहे हैं.

हिन्दी कवियों में प्रयोगधर्मिता की प्रवृत्ति ने निरंतर सृजन के फलक को नए आयाम दिए हैं किन्तु उर्दू में ऐसे प्रयोग ख़ारिज करने की मनोवृत्ति है. उर्दू में 'इस्लाह' की परंपरा ने बचकाना रचनाओं को सीमित कर दिया तथा उस्ताद द्वारा संशोधित करने पर ही प्रकाशित करने के अनुशासन ने सृजन को सही दिशा दी जबकि हिन्दी में कमजोर रचनाओं की बाढ़ आ गयी. अंतरजाल पर अराजकता की स्थिति है. हिन्दी को जानने-समझनेवाले ही अल्प संख्यक हैं तो स्तरीय रचनाएँ अनदेखी रह जाने या न सराहे जाने की शिकायत है. शिल्प, पिंगल आदि की दृष्टि से नितांत बचकानी रचनाओं पर अनेक टिप्पणियाँ तथा स्तरीय रचनाओं पर टिप्पणियों के लाले पड़ना दुखद है.

छंद मुक्त रचनाओं और छन्दहीन रचनाओं में भेद ना हो पाना भी अराजक लेखन का एक कारण है. छंद मुक्त रचनाएँ लय और भाव के कारण एक सीमा में गेय तथा सरस होती है. वे गीत परंपरा में न होते हुए भी गीत के तत्व समाहित किये होती हैं. वे गीत के पुरातन स्वरूप में परिवर्तन से युक्त होती हैं, किन्तु छंदहीन रचनाएँ नीरस व गीत के शिल्प तत्वों से रहित बोझिल होती हैं.

हिंद युग्म पर 'दोहा गाथा सनातन' की कक्षाओं और गोष्ठियों के ६५ प्रसंगों तथा साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचना शास्त्र' में अलंकारों पर ५८ प्रसंगों में मैंने अनुभव किया है कि पाठक को गंभीर लेखन में रुची नहीं है. समीक्षात्मक गंभीर लेखन हेतु कोई मंच हो तो ऐसे लेख लिखे जा सकते हैं.

Saturday, April 24, 2010

हिंदुस्तान पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड, मंगलूर एल.पी.जी. आयात सुविधा कार्यालय में हिंदी कंप्यूटर प्रशिक्षण संपन्न



कंप्यूटर के माध्यम से राजभाषा कार्यान्वयन में तेजी लाना संभव – श्री छतर सिंह


हिंदुस्तान पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड, मंगलूर एल.पी.जी. आयात सुविधा कार्यालय में दि.24 अप्रैल, 2010 को हिंदी कंप्यूटर प्रशिक्षण कार्यशाला आयोजित की गई । हिंदी समन्वयक श्री कमल दीप ने अतिथियों तथा प्रतिभागियों का स्वागत किया । कार्यशाला में टर्मिनल के 25 अधिकारी शामिल हुए । कार्यशाला का उद्घाटन श्री छतर सिंह, वरिष्ठ प्रबंधक ने किया । इस अवसर पर उन्होंने कहा कि मंगलूर एल.पी.जी. आयात सुविधा की सभी इकाइयों में राजभाषा कार्यान्वयन में प्रगति है, हिंदी में पत्राचार के अलावा राजभाषा अधिनियम और नियमों के अनुपालन के लिए निष्ठापूर्वक प्रयास किया जा रहा है । उन्होंने कंप्यूटरों में हिंदी प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए कंप्यूटर प्रशिक्षण कार्यशाला का विशिष्ट महत्व है । उन्होंने सभी प्रतिभागियों से अनुरोध किया कि कार्यशाला में प्रशिक्षित होने के बाद कंप्यूटर में हिंदी का भरपूर प्रयोग करते हुए राजभाषा कार्यान्वयन संबंधी सभी लक्ष्य हासिल करने में सहयोग दें ।
एचपीसीएल आंचलिक कार्यालय, चेन्नै के उप प्रबंधक (राजभाषा) डॉ. एस. बशीर ने कार्यशाला के उद्देश्य से प्रतिभागियों को अवगत कराते हुए राजभाषा कार्यान्वयन के महत्व पर प्रकाश डाला । कार्यशाला में व्याख्यान एवं प्रशिक्षण डॉ. सी. जय शंकर बाबु, सदस्य सचिव, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, कोयंबत्तूर एवं सहायक निदेशक (राजभाषा), कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, कोयंबत्तूर द्वारा दिया गया । कंप्यूटर में यूनिकोड का प्रयोग, भाषाई कंप्यूटिंग के लिए उपलब्ध संसाधन, हिंदी शब्द संसाधन के आसान तरीकों से पवरपाइंट प्रस्तुति के साथ उन्होंने अवगत कराया । श्री सुरेश किनी एवं श्री सुनील सालियन ने कार्यशाला के सफल आयोजन के लिए समन्वय का दायित्व सफलतापूर्वक निभाया । अंत में श्री कमलदीप के धन्यवाद ज्ञापन के साथ कार्यशाला सुसंपन्न हुई ।
कार्यशाला में शामिल मंगलूर मंगलूर एल.पी.जी. आयात सुविधा की इकाइयों के अधिकारियों की सूची इस प्रकार है – श्री छतरसिंह, श्री सुरेश किणी, श्री सदानंद शेट्टी, श्री व. महादेवन, श्री वेणूमाधव, श्री रामचंद्र नारायण राव, श्री लूईस पी.वी., श्री राजन कुट्टियाल, श्रीमती नूतन शेट्टी, श्री एन. सतीश कुमार, श्री वी. प्रदीप चंद्रा, श्री नीरज चक, श्री वासु नायक, श्री कमल दीप, श्री प्रभाकर वा. कोकणे, श्री असीम कुमार बिश्वास, श्री चि. मांगीलाल, श्रीमती यशोधरा, श्री सुनील सालियन, श्रीमती वीणा यादव, श्री थंगवेल.मु, श्री दीपक कुमार वर्मा, जी.एस. हरगोपाल, श्री कुमार राउत, श्री महेंद्र सिंह यादव, श्रीमती अनिता शेट्टी

Friday, April 23, 2010

कण्णूर नराकास के तत्वावधान में दक्षिण-पश्चिम क्षेत्रीय राजभाषा संगोष्ठी का शुभारंभ










कण्णूर, दि.23.4.2010 - कण्णूर नराकास के तत्वावधान में दक्षिण-पश्चिम क्षेत्रीय राजभाषा संगोष्ठी का उद्घाटन होटल मलबार रेसीडेन्सी, कण्णूर में राजभाषा विभाग के निदेशक (कार्यान्वयन एवं अनुसंधान) श्री रमेशबाबू अणियेरी के करकमलों से संपन्न हुआ । उद्घाटन कार्यक्रम की अध्यक्षता सिंडिकेट बैंक प्रधान कार्यालय, मणिपाल के उप महाप्रबंधक (का – राभा) ने की । केंद्रीय विद्यालय, कण्णूर के छात्र-छात्राओं के द्वारा भक्तिमय सरस्वती वंदना और दीप प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ । नराकास कण्णूर के अध्यक्ष एवं सिंडिकेट बैंक, क्षेत्रीय कार्यालय, कण्णूर के सहायक महाप्रबंधक श्री वी पी गोपालकृष्णन नायर जी के स्वागत वचनों तथा सदस्य-सचिव श्री गंगाधर तिवारी के संचालन में उद्घाटन सत्र का आरंभ हुआ ।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री रमेश बाबू अणियेरी ने अपने उद्घाटन भाषण में राजभाषा विभाग की गतिविधियों पर विस्तार से प्रकाश डाला । राजभाषा कार्यान्वयन के लिए किए गए प्रावधानों के आलोक में व्यावहारिक कार्यान्वयन की दिशा में कई पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए विभिन्न उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायालय में कंप्यूटर में हिंदी के प्रयोग के संबंध में दायर विविध मामलों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आज कंप्यूटर का युग है, अतः कंप्यूटर पर हिंदी के प्रयोग पर बल दिया जाना जरूरी है और हिंदी से संबंद्ध अधिकारी इसके समस्त तकनीकों से परिचित होना आवश्यक है । सूचना अधिकार अधिनियम के आलोक में राजभाषा कार्यान्यन की रिपोर्टों की आंकडों की जानकारी की मांग भी की जा रही है, अतः इनकी सच्चाई एवं वास्तविकता की ओर ध्यान देना आवश्यक है ।
सिंडिकेट बैंक मुख्यालय के उप महाप्रबंधक श्री एच एन विश्वेश्वर ने उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए वक्तव्य दिया कि भारत में कुल 281 नराकास जिनमें 111 ग क्षेत्र में है, राजभाषा के अलख जगा रहे हैं और ये समितियाँ राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं । उन्होंने आह्वान दिया कि राजभाषा कार्यान्वयन की दिशा में हम दो कदम ही सही, अच्छे एवं सच्चे ढंग से बढ़ाएँ ।
पूर्वाह्न का चर्चा-सत्र का आरंभ क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय, कोच्चिन के उप निदेशक (कार्यान्वन) डॉ. वी. बालकृष्णन के द्वारा राजभाषा कार्यान्वयन पर समीक्षात्मक भाषण के साथ आरंभ हुआ । उन्होंने राजभाषा कार्यान्वयन के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि हमें हिंदी का नहीं मगर हिंदी में काम करना है । कण्णूर नराकास की ओर से आयोजित इस संगोष्ठी में चर्चा के दौरान जिक्र होनेवाली तमाम समस्याओं की रिपोर्ट उच्च स्तरीय समितियों और मंचों तक पहुँचाकर राजभाषा कार्यान्वयन की समस्याओं के लिए समाधान ढूँढने का प्रयास किया जाना चाहिए ।
कण्णूर नराकास के तत्वावधान में दक्षिण-पश्चिम क्षेत्रीय राजभाषा संगोष्ठी संपन्न
कण्णूर, दि.23.4.2010 - कण्णूर नराकास के तत्वावधान में दक्षिण-पश्चिम क्षेत्रीय राजभाषा संगोष्ठी का उद्घाटन होटल मलबार रेसीडेन्सी, कण्णूर में राजभाषा विभाग के निदेशक (कार्यान्वयन एवं अनुसंधान) श्री रमेशबाबू अणियेरी के करकमलों से संपन्न हुआ । दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र के नराकासों के अध्यक्षों, सदस्य-सचिवों, विभिन्न कार्यालयों के हिंदी अधिकारी आदि उपस्थित संगोष्ठी का उद्घाटन कार्यक्रम की अध्यक्षता सिंडिकेट बैंक प्रधान कार्यालय, मणिपाल के उप महाप्रबंधक (का – राभा) ने की । केंद्रीय विद्यालय, कण्णूर के छात्र-छात्राओं के द्वारा भक्तिमय सरस्वती वंदना और दीप प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ । नराकास कण्णूर के अध्यक्ष एवं सिंडिकेट बैंक, क्षेत्रीय कार्यालय, कण्णूर के सहायक महाप्रबंधक श्री वी पी गोपालकृष्णन नायर जी के स्वागत वचनों तथा सदस्य-सचिव श्री गंगाधर तिवारी के संचालन में उद्घाटन सत्र का आरंभ हुआ ।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री रमेश बाबू अणियेरी ने अपने उद्घाटन भाषण में राजभाषा विभाग की गतिविधियों पर विस्तार से प्रकाश डाला । राजभाषा कार्यान्वयन के लिए किए गए प्रावधानों के आलोक में व्यावहारिक कार्यान्वयन की दिशा में कई पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए विभिन्न उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायालय में कंप्यूटर में हिंदी के प्रयोग के संबंध में दायर विविध मामलों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आज कंप्यूटर का युग है, अतः कंप्यूटर पर हिंदी के प्रयोग पर बल दिया जाना जरूरी है और हिंदी से संबंद्ध अधिकारी इसके समस्त तकनीकों से परिचित होना आवश्यक है । सूचना अधिकार अधिनियम के आलोक में राजभाषा कार्यान्यन की रिपोर्टों की आंकडों की जानकारी की मांग भी की जा रही है, अतः इनकी सच्चाई एवं वास्तविकता की ओर ध्यान देना आवश्यक है ।
सिंडिकेट बैंक मुख्यालय के उप महाप्रबंधक श्री एच एन विश्वेश्वर ने उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए वक्तव्य दिया कि भारत में कुल 281 नराकास जिनमें 111 ग क्षेत्र में है, राजभाषा के अलख जगा रहे हैं और ये समितियाँ राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं । उन्होंने आह्वान दिया कि राजभाषा कार्यान्वयन की दिशा में हम दो कदम ही सही, अच्छे एवं सच्चे ढंग से बढ़ाएँ ।
पूर्वाह्न का चर्चा-सत्र का आरंभ क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय, कोच्चिन के उप निदेशक (कार्यान्वन) डॉ. वी. बालकृष्णन के द्वारा राजभाषा कार्यान्वयन पर समीक्षात्मक भाषण के साथ आरंभ हुआ । उन्होंने राजभाषा कार्यान्वयन के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि हमें हिंदी का नहीं मगर हिंदी में काम करना है । कण्णूर नराकास की ओर से आयोजित इस संगोष्ठी में चर्चा के दौरान जिक्र होनेवाली तमाम समस्याओं की रिपोर्ट उच्च स्तरीय समितियों और मंचों तक पहुँचाकर राजभाषा कार्यान्वयन की समस्याओं के लिए समाधान ढूँढने का प्रयास किया जाना चाहिए ।
अपराह्न के सत्र में डॉ. सी. जय शंकर बाबु, सदस्य-सचिव, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, कोयंबत्तूर ने भाषाई कंप्यूटिंग के लिए उपलब्ध संसाधनों तथा कंप्यूटर पर यूनिकोड के पवरपाइंट प्रस्तुति के साथ व्याख्यान दिया तथा प्रतिभागियों के प्रश्नों एवं जिज्ञासाओं की संतुष्टि की । सिंडिकेट बैक मुख्यालय मुख्य प्रबंधक (राभा) के डॉ. श्यामकिशोर पांडेय ने राजभाषा हिंदी के कार्यान्वयन में वास्तविक समस्याएं एवं व्यावहारिक समाधान विषयक प्रपत्र का वाचन किया । चेन्नई नराकास की सदस्य-सचिव श्रीमती राधा रामकृष्णन तथा तिरुवनंतपुरम नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति की सदस्य-सचिव श्रीमती विशालक्ष्मी ने अपने-अपने नराकास की गतिविधियों की जानकारी एवं उपलब्धियों का ब्यौरा दिया । तदनंतर केंद्रीय विद्यालय के छात्रों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति आकर्षक रहा । नराकास, कण्णूर के सदस्य-सचिव श्री गंगाधर तिवारी के धन्यवाद ज्ञापन के साथ संगोष्ठी सुसंपन्न हुई ।

Friday, April 16, 2010

ग़ज़ल

कर रहे थे मौज-मस्ती.........

-डॉ० डंडा लखनवी

कर रहे थे मौज-मस्ती जो वतन को लूट के।
रख दिया कुछ नौजवानों ने उन्हें कल कूट के।।

सिर छिपाने की जगह सच्चाई को मिलती नहीं,
सैकडों शार्गिद पीछे चल रहे हैं झूट के।।

तोंद का आकार उनका और भी बढता गया,
एक दल से दूसरे में जब गए वे टूट के।।

मंत्रिमंडल से उन्हें किक जब पड़ी ऐसा लगा-
गगन से भू पर गिरे ज्यों बिना पैरासूट के।।

शाम से चैनल उसे हीरो बनाने पे तुले,
कल सुबह आया जमानत पे जो वापस छूट के।।

फूट के कारण गुलामी देश ये ढ़ोता रहा-
तुम भी लेलो कुछ मजा अब कालेजों से फूट के।।

अपनी बीवी से झगड़ते अब नहीं वो भूल के-
फाइटिंग में गिर गए कुछ दाँत जबसे टूट के।।

फोन पे निपटाई शादी फोन पे ही हनीमून,
इस क़दर रहते बिज़ी नेटवर्क दोनों रूट के॥

यूँ हुआ बरबाद पानी एक दिन वो आएगा-
सैकड़ों रुपए निकल जाएंगे बस दो घूट के।।

Sunday, April 11, 2010

श्यामल सुमन की दो कविताएँ

है शिकार इन्सान

दूर हुआ कर्तव्य से अधिकारों का ज्ञान।
बना शिकारी आदमी है शिकार इन्सान।।

मतलब की बातें हुईं अब तो छोड़ो साथ।
बिना स्वार्थ के आजकल कौन मिलाता हाथ।।

बाहर में सुख है कहाँ ओछे कारोबार।
अपने अन्दर झाँकिये बहुत सुखद संसार।।

चेहरे पर दुख न दिखे चिपकाया मुस्कान।
यह नकली मुस्कान क्या रोक सके तूफान।।

हमें जानवर दे रहा देखो कितनी सीख।
श्रम से हक पाते सदा कभी न माँगे भीख।।

आम लोग न खा सके बाजारों से आम।
आम हुआ है खास अब यह साजिश परिणाम।।

अमन चाहते हैं सभी बागी होता कौन।
लेकिन जो हालात हैं रहे सुमन क्यों मौन।।


कितना कठिन है यारो


इक दीप को जलाना कितना कठिन है यारो
रो करके मुस्कुराना कितना कठिन है यारो

जीवन मेरा सँवरता मुश्किल से खेलकर ही
खुद को सदा सजाना कितना कठिन है यारो

कितनों को गिरा करके महलों का सफर होता
गिरने से नित बचाना कितना कठिन है यारो

चाहा था दिल से जिसको गर दूर चला जाए
उसे रूह में बसाना कितना कठिन है यारो

पाने से त्यागना ही अच्छा लगा सुमन को
मदहोश को जगाना कितना कठिन है यारो

Saturday, April 3, 2010

कविता

सोचो तो असर होता

- श्यामल सुमन

जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता

इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता

होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता

अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता

आगे बढ़ी है दुनिया मौसम बदल रहा है
बदेले सुमन का जीवन इक ऐसा पहर होता


ख़बरदार कविता:


- संजीव 'सलिल'



नेताओं का शगल है, करना बहसें रोज.
बिन कारण परिणाम के, क्यों नाहक है खोज..
रोजी-रोटी स्वार्थ है, धंधा- बोलें झूठ.
धर्म एक- जितना बनें जनता को लें लूट..
नारी माता भगिनी है, नारी संगिनी दिव्य.
सुता सखी भाभी बहू, नारी सचमुच भव्य..
शारद उमा रमा त्रयी, ज्ञान शक्ति श्री-खान.
नर से दो मात्रा अधिक, नारी महिमावान..
तैंतीस की बकवास का, केवल एक जवाब.
शत-प्रतिशत के योग्य वह, किन्तु न करे हिसाब..
देगा किसको कौन क्यों?, लेगा किससे कौन?
संसद में वे भौंकते, जिन्हें उचित है मौन..

***

Thursday, April 1, 2010

कविता - सुमन के भीतर आग है



सुमन के भीतर आग है



- श्यामल सुमन



हार जीत के बीच में जीवन एक संगीत।
मिलन जहाँ मनमीत से हार बने तब जीत।।

डोर बढ़े जब प्रीत की बनते हैं तब मीत।
वही मीत जब संग हो जीवन बने अजीत।।

रोज परिन्दों की तरह सपने भरे उड़ान।
यदि सपन जिन्दा रहे लौटेगी मुस्कान।।

रौशन सूरज चाँद से सबका घर संसार।
पानी भी सबके लिए क्यों होता व्यापार।।

रोना भी मुश्किल हुआ आँखें हैं मजबूर।
पानी आँखों में नहीं जड़ से पानी दूर।।

निर्णय शीतल कक्ष से अब शासन का मूल।
व्याकुल जनता हो चुकी मत कर ऐसी भूल।।

सुमन के भीतर आग है खोजे कुछ परिणाम।
मगर पेट की आग ने बदल दिया आयाम।।

साहित्य में पुरस्कारों की राजनीति

- राम शिव मूर्ति यादव*


पुरस्कारों की समाज में प्राचीनकाल से ही एक लम्बी परम्परा रही है। उत्कृष्ट व सृजनात्मक कार्य को सम्मानित-पुरस्कृत करके जहाँ सम्बन्धित व्यक्ति को प्रोत्साहित किया जाता है, वहीं अन्य लोगों हेतु यह एक नजीर भी पेश करता है। पुरस्कार भावनात्मक, आर्थिक या अन्य किसी भी रूप में हो सकते हैं। सभ्यता के विकास के साथ ही पुरस्कारों के रूप, उद्देश्य व प्रयोजन में भी मात्रात्मक परिवर्तन होते गये। साहित्य में रचनाधर्मिता भी पुरस्कारों से अछूती नहीं है। कभी-कभी तो रचना स्वयं किसी के सम्मान में कही जाती है, यहाँ पर रचना स्वयं में पुरस्कार बन जाती है।

साहित्य को पुरस्कृत करना मानवीय संवेदनाओं और अनुभूतियों की पहचान को दर्शाता है। साहित्य कई तत्वों से संचालित होती है और आधुनिक दौर में एक तत्व पुरस्कार भी शामिल हो गया है। स्वत:सुखाय लिखकर पन्ने फाड़ने वाले साहित्यकार अतीत की चीज हो गये हैं, अब तो साहित्य बकायदा लिखा ही नहीं जाता, बल्कि प्रायोजित भी किया जाता है। आजकल रचनाधर्मिता स्वानुभूति मात्र नहीं होती बल्कि इसमें सहानुभूति का तत्व भी जुड़ गया है। साहित्य संवेदनाओं, स्वानुभूति और सहानुभूति की त्रिविलि में एक बाजार तैयार करता है। बाजार की इस दौड़ में साहित्य की पहचान सिर्फ पाठक ही नहीं बल्कि पुरस्कार और सम्मान भी निर्धारित करते हैं।

साहित्य में आज पुरस्कारों की भीड़ सी हो गई है और इसे लेने वालों में भी होड़ मची है। कभी पुरस्कारों की राजनीति राजधानियों में ही दिखती थी परन्तु अब तो लगता है कि पुरस्कारों का भी विकेन्द्रीकरण हो गया है। राजधानियों से ज्यादा साहित्यिक संस्थायें तेजी से उभरते नगरों और कस्बों में विद्यमान हैं। इन संस्थाओं के लिए पुरस्कार एक ऐसी वस्तु के समान है, जिसके माध्यम से वे लोगों को सम्मानित कर स्वयं उपकृत होते हैं, कारण इनके पीछे लोगों से प्राप्त धनराशि। वस्तुत: पुरस्कार बटुये में रखे उन सिक्कों की तरह हो गये हैं, जिन्हें किसी मंदिर में चढ़ाकर ईश्वर को सम्मानित किया जाता है, परन्तु इसके पीछे अपनी दानशीलता का ढिंढोरा पीटकर स्वयं को सम्माननीय बनाने की भावना छुपी होती है।

पुरस्कारों की दौड़ ने साहित्य को कोई सार्थक लाभ तो नहीं पहुँचाया परन्तु इसकी ओट में तमाम व्यक्ति, संस्थायें एवं शासन-प्रशासन में पदासीन लोग अवश्य लाभान्वित हो रहे हैं। आज पुरस्कार लोगों की हैसियत के आधार पर बंटने लगे हैं, जितना बड़ा नाम उतना बड़ा पुरस्कार। सरकारी संस्थाओं द्वारा दिये जाने वाले पुरस्कारों में जाति, धर्म, क्षेत्र व सत्ताधारी दल की राजनीति इतनी बुरी तरह पैठ कर गई है कि एक बारगी सोचना पड़ता है कि इस सम्मान से साहित्य का कोई उध्दार होगा भी या नहीं। किसी ने क्या खूब कहा भी है कि उस पुरस्कार या सम्मान का कोई अर्थ नहीं, जिससे साहित्य की कोई कोंपल भी नहीं हिले।

पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर ही पढ़ने को मिल जाता है कि अमुक साहित्यकार किसी रोग से ग्रस्त होकर अपने अन्तिम दिन गिन रहा है और साहित्य के नाम पर रोटी सेंकने वाले मठाधीश और सरकार को उसका हाल-चाल लेने की फुर्सत ही नहीं। गौर कीजिए, जब कोई राजनैतिक व्यक्ति अस्पताल में भर्ती होता है तो सुबह से शाम तक उससे मिलने वालों की भीड़ लगी रहती है, इसमें उसके विरोधी राजनैतिक दल के भी शीर्ष नेता शामिल होते हैं। इसे चाहे राजनेताओं की एकता कहें या अवसरवादिता, दुर्भाग्यवश साहित्य के क्षेत्र में यह नजारा विरले ही मिलता है। शहनाई सम्राट बिस्मिल्लाह खान की प्रतिभा की दुनिया कायल है, परन्तु जीवन के अन्तिम दिनों में जिस तरह से अपने बेटे के लिए उन्होंने एक अद्द सरकारी नौकरी की सरकार से अपेक्षा की, वह इस देश की साहित्य-कला-संस्कृति का चेहरा दिखाने के लिए काफी है। असलियत यही है कि जिन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी सृजनता में लगा दी, उनकी कोई पूछ तक नहीं जबकि राजधानियों में रहकर येन-केन-प्रकरेण तमाम सम्मानों व पुरस्कारों से नवाजे जाते लोग, विभिन्न अकादमियों में बिठाये गये लोग या साहित्य-कला-संस्कृति के नाम पर सरकारी धन पर विदेशों की सैर करते लोगों के अवदान का मूल्यांकन किया जाय तो जो सच्चाई सामने आयेगी, वह समाज को आईना दिखाने के लिए काफी है।

हम यह भूल जाते हैं कि भारत गाँवों का देश है। ग्रामीण स्तर पर जितनी प्रतिभायें सीमित संसाधनों के साथ आगे बढ़ रही हैं, यदि उन्हें समुचित मार्गदर्शन व संसाधन उपलब्ध कराये जायें तो साहित्य के क्षेत्र में तमाम नये प्रतिमान स्थापित हो सकते हैं। सवाल यह है कि यह कार्य कौन करेगा? एक व्यवस्था के तहत यह किसी व्यक्ति के बलबूते की बात नहीं। अन्तत:, बात सरकार के पाले में जाती है, जहाँ वो लोग बैठे हैं जो अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने का गुमान पाले हुए हैं। ऐसे में उनसे ऐसे किसी रचनात्मक कदम की उम्मीद रखना व्यर्थ ही है।

साहित्य की तमाम विधायें लिखी जाती रही हैं और लिखी जाती रहेंगी। कोई भी पुरस्कार या सम्मान इनकी आवाज को तात्कालिक रूप से भले ही दबा ले, पर सृजनधर्मिता पुन: अपनी जीवटता के साथ खड़ी हो जाती है। यह अनायास ही नहीं है कि तमाम क्रान्तियों से पहले साहित्य के द्वारा लोगों को जागृत किया जाता है। पुरस्कार साहित्य की तकदीर नहीं लिखते पर इतना अवश्य है कि क्षणिक रूप में ही सही वे उसे प्रोत्साहन देते हैं। ऐसे में यदि प्रोत्साहन ही गलत लोगों को मिलने लगे तो सार्थक साहित्य कहाँ से उभरेगा? पुरस्कारों की राजनीति बन्द होनी चाहिए और उन्हें ही पुरस्कृत करना चाहिए, जो वाकई इसके हकदार हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य-कला-संस्कृति किसी भी समाज की रीढ़ हैं और यदि रीढ़ को ही कमजोर करने की कोशिशें की जायेंगी तो इस पर आधारित किसी भी समाज को भहराने में देरी नहीं लगेगी।



*स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी (सेवानिवृत्त

तहबरपुर, पोस्ट- टीकापुर आजमगढ़
(उ0प्र0)-276208

सत्यमेव जयते


- कृष्ण कुमार यादव*


'सत्यमेव जयते'- प्राचीन भारतीय साहित्य में मुंडकोपनिषद् से लिया गया यह सूत्र वाक्य आज भी मानव जगत की सीमा निर्धारित करता है । 'सत्य की विजय हो' का विपरीत होगा 'असत्य की पराजय हो' । सत्य-असत्य, सभ्यता के आरम्भ से ही धर्म एवं दर्शन के केद्र-बिंदु बने हुये हैं। रामायण में भगवान राम की रावण पर विजय को असत्य पर सत्य की विजय बताया गया और प्रतीकस्वरूप हम आज भी इसे दशहरा पर्व के रूप में मनाते हैं तथा रावण का पुतला जलाकर सत्य की विजय का शंखनाद करते हैं। महाभारत में भी एक कृष्ण के नेतृत्व और पाँच पाण्डवों की सौ कौरवों और अट्ठारह अक्षौहिणी सेना पर विजय को सत्य की असत्य पर विजय बताया गया। कालांतर में वेद और पुराण के विरोधी बुद्व व जैन ने भी सत्य को पंचशील व पंचमहाव्रत का प्रमुख अंग माना।

'सत्य' एक बेहद सात्विक पर जटिल शब्द है। ढाई अक्षरों से निर्मित यह शब्द उतना ही सरल है जितना कि 'प्यार' शब्द, पर इस मार्ग पर चलना उतना ही कठिन है जितना कि सच्चे प्यार के मार्ग पर चलना। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, जिन्हें सत्य का सबसे बड़ा व्यवहारवादी उपासक माना जाता है ने सत्य को ईश्वर का पर्यायवाची कहा। उनके शब्दों में- ''सत्य ही ईश्वर है एवं ईश्वर ही सत्य है।'' यह वाक्य ज्ञान, कर्म एवं भक्ति योग की त्रिवेणी है। सत्य की अनुभूति अगर ज्ञान योग है तो इसे वास्तविक जीवन में उतारना कर्मयोग एवं अंतत: सत्य रूपी सागर में डूबकर इसका रसास्वादन लेना ही भक्ति योग है। शायद यही कारण है कि लगभग सभी धर्म सत्य को केन्द्र बिन्दु बनाकर ही अपने नैतिक और सामाजिक नियमों को पेश करते हैं।

सत्य का विपरीत असत्य है। सत्य अगर धर्म है तो असत्य अधर्म का प्रतीक है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं- ''जब-जब इस धरा पर अधर्म का अभ्युदय होता है तब-तब मैं इस धरा पर जन्म लेता हूँ।'' भारत सरकार के राजकीय चिह्न अशोक-चक्र के नीचे लिखा 'सत्यमेव जयते' शासन एवं प्रशासन की शुचिता का प्रतीक है। यह हर भारतीय को अहसास दिलाता है कि सत्य हमारे लिये एक तथ्य नहीं वरन् हमारी संस्कृति का सार है । साहित्य, फिल्म एवं लोक विधाओं में भी अंतत: सत्य की विजय का उद्धोष होता है ।

सत्य के विलोम असत्य का सबसे व्यापक रूप आज भ्रष्टाचार है। ऐसा नहीं है कि समाज में पहले भ्रष्टाचार नहीं था। कोटिल्य ने अर्थशास्त्र में 27 प्रकार के भ्रष्टाचारों का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि-''जिस प्रकार जिह्वा पर रखे गये शहद का स्वाद न लेना मनुष्य हेतु असम्भव है, उसी प्रकार सरकारी कर्मचारी हेतु राजकोष के एक अंश का भक्षण न करना असम्भव है।'' भ्रष्टाचार एक ऐसा विष बेल है जो समाज में नित्य फैल रहा है। इसे खत्म करने हेतु कड़े से कड़े दण्ड अपनाये गये, पर इसका विष और भी गहरा होता गया। यही कारण है कि एक दौर में भ्रष्टाचार को विश्वव्यापी समस्या कहकर इसका सामान्यीकरण करने की कोशिश की गयी तो देखते ही देखते भ्रष्टाचार को शिष्टाचार का पर्याय माना जाने लगा। निश्चितत: जब आप किसी व्यक्ति से काम निकलवाने हेतु उसे रिश्वत न देकर उसके जन्म दिन पर एक मँहंगा और खूबसूरत उपहार प्रदान करते हैं तो आप अपनी बुरी नीयत को छुपाने का एक शिष्ट तरीका अपना रहे होते हैं।

वस्तुत: भ्रष्टाचार स्वयं व्यवस्था के अन्दर से ही जन्म लेता है। नियमों की जटिलता, न्याय में देरी, जागरूकता का अभाव, शार्टकट तरीकों से लक्ष्य पाने की होड़ और मानव का स्वार्थी स्वभाव ही इसका मूल कारण है। इन सबसे निपटने हेतु स्वतन्त्र न्यायपालिका, स्वतन्त्र प्रेस, लोकायुक्त व लोकपाल संस्था, सतर्कता आयोग, भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो जैसी संस्थायें गठित की गयी । वर्तमान में उदारीकरण व्यवस्था के द्वारा लाइसेंस- परमिट राज की समाप्ति, सूचना-तकनीक के बढ़ते दायरे के साथ हर किसी पर मीडिया की नजर , सिटिजन-चार्टर के माध्यम से विभिन्न विभागों द्वारा नागरिकों को जागरूक बनाना, ई-गर्वनेस के द्वारा प्रशासन में कागजी बोझ कम करके कम्प्यूटराइजेशन द्वारा पारदर्शिता लाना व तत्काल सेवा मुहैया कराना, सिविल सोसायटी द्वारा अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना, सूचना का अधिकार लागू करने व स्टिंग आपरेशन जैसे तत्वों के द्वारा भी भ्रष्टाचार पर काबू करने के प्रयास किये गये हैं।

भ्रष्टाचार उस दीमक की तरह है जो समाज को अन्दर ही अन्दर खोखला करता है। यही कारण है कि इसे समाप्त करने हेतु हमें उस मर्म पर चोट करनी होगी, जहाँ से भ्रष्टाचार रूपी गेंद उछलती है, न कि उस जगह जहाँ पर वह गिरती है। भ्रष्टाचार पर अनेकों सेमिनार हुये, बड़े-बड़े पन्ने इसे खत्म करने के दावे से रंगे गये और तमाम जबानी जमा खर्च हुयी पर हम इस तथ्य की अवहेलना कर रहे हैं कि भ्रष्टाचार अन्तत: एक नैतिक एवं वैयक्तिक समस्या है। जब तक हर व्यक्ति स्वयं को इस दोष से मुक्ति दिलाने का प्रयास नहीं करता तब तक भ्रष्टाचार उन्मूलन एक नारा मात्र ही रहेगा। भगवान राम अन्त तक रावण के दस सिरों को तीरों से बींधते रहे पर उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा, अन्तत: विभीषण के इशारे पर उन्होंने रावण की नाभि पर तीर चलाया और उसे धराशायी करने में सफल रहे। ऐसा ही भ्रष्टाचार के साथ भी है।
भ्रष्टाचार एक सामाजिक समस्या भी है। इससे निजात पाने हेतु जरूरी है कि लोग वैयक्तिक व मानसिक रूप से भ्रष्टाचार से मुक्त हों। गाँधीजी ने सत्याग्रह का प्रतिपादन करते हुये कहा था कि इसे पूर्ण रूप में अपनाने हेतु जरूरी है कि सर्वप्रथम मानव अपने दुराग्रहों से मुक्ति पाये एवं तत्पश्चात दूसरों हेतु एक आदर्श उपस्थित कर उन्हें सत्य की राह दिखाये। इस सम्बन्ध में गाँधीजी का एक सूत्र वाक्य दृष्टव्य है-


पाप से घृणा करो, पापी से नहीं ।
शायद पूर्ण निष्पाप, तुम भी नहीं॥


दर्शन की भाषा में कहें तो हर व्यक्ति ईश्वर का चित् होने के कारण सत् है। उसके दुराग्रह ही उसे बन्धनों में बाँधते हैं। इन बन्धनों से मुक्ति के विभिन्न रास्ते बताये गये हैं, जिसको अपनाने के पश्चात व्यक्ति मोक्ष की अवस्था को प्राप्त करता है। मोक्ष प्राप्ति के पश्चात व्यक्ति इस संसार के पुनर्जन्म चक्र से मुक्त हो जाता है।

यह सत्य है कि भ्रष्टाचार की जड़ें समाज में काफी गहरी हैं, पर इतनी भी गहरी नहीं कि कोई चाहकर भी उन्हें नहीं हिला सके। यही कारण है कि भ्रष्टाचार पर पड़ी हर चोट उसे झकझोर कर रख देती है। सत्य भले ही कम चोट करता है, पर जब करता है तो वह बेहद तीक्ष्ण होती है। जरूरत भ्रष्टाचार को एक लाइलाज रोग मानकर शान्त बैठने की नहीं, वरन् इसे समाप्त करने हेतु प्रयास करने की है-


कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता।
एक पत्थर को तबियत से उछालो तो यारों ॥



*भारतीय डाक सेवा
निदेशक डाक सेवाएं
अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर-744101