Tuesday, September 29, 2009

कविता

हृदय काश पत्थर का होता

- महेश चंद्र गुप्त खलिश

दर्द की ऐसे घात न होती
नैनों से बरसात न होती
ठंडी सहमी रात न होती
हृदय काश पत्थर का होता

दुनिया आखिर बहुत पड़ी है
तुमसे ही क्या एक कड़ी है
मगर मुसीबत यही बड़ी है
हृदय काश पत्थर का होता

हम भी इठलाते- लहराते
चोट प्यार की तुरत भुलाते
किसी और से नेह लगाते
हृदय काश पत्थर का होता

ऐसा हृदय तुम्हीं ने पाया
वादा तुमने नहीं निभाया
छुआ न तुमको ग़म का साया
हृदय काश पत्थर न होता.

हिंदुस्तान पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड में हिंदी पखवाड़ा संपन्न

हम अपने देश की ‘राष्‍ट्रभाषा-हिंदी’ सीखें - डॉ. भवानी
हिंदुस्‍तान पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड, तिरूनेलवेली डिपो में दि, 25. 9. 2009 को प्रबंधक श्री दामोदरन की अध्‍यक्षता में हिंदी पखवाड़े से संबंधित पुरस्‍कार वितरण का आयोजन हुआ। मुख्‍य अतिथि के रूप में आमंत्रित मनोनमय सुंदरनार विश्‍वविद्यालय की हिंदी विभागाध्‍यक्ष डॉ. भवानी ने हिंदी की विशेषता के संबंध में सारगर्भित भाषण देकर स्‍टाफ सदस्‍यों को हिंदी सीखने केलिए प्रेरित किया तथा विजेताओं को पुरस्‍कार प्रदान किये। इस अवसर पर श्री नवनीतम द्वारा प्रस्‍तुत “मेरा भारत महान” कविता तथा श्री राजेंद्रन द्वारा “मातृभाषा व राष्‍ट्रभाषा की विशेषता” पर प्रस्‍तुत भाषण प्रमुख आकर्षण रहा ।


सब को हिंदी सीखनी चाहिए - आर राधाकृष्णन

हिंदुस्तान पेट्रोलियम का.लि, आंचलिक कार्यालय, चेन्नै में दि 1 से 15 सितंबर तक आयोजित विविध प्रतियोगिताओं से संबंधित पुरस्कार वितरण 16.9.2009 को श्री आर राधाकृष्णन, महाप्रबंधक की अध्य‍क्षता में संपन्न हुआ । ‍सरस्वती वंदना, कविता पाठ, हास्य स्किट, मातृभाषा की विशेषता पर रोचक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया ।
श्री आर श्रीधर, उप महाप्रबंधक - वित्‍त,श्री चौधरी उप महाप्रबंधक – रिटेल उन्‍नयन , श्री सादु सुंदर,मुख्‍य प्रबंधक (मा सं) ने विजेताओं को पुरस्‍कार प्रदान किये। डा0 एस.बशीर, उप प्रबंधक रा0भा0 ने कार्यक्रम का संचालन किया। सुश्री डी. अर्चना, हिंदी सहायिका ने कार्यक्रम का आयोजन किया।

Thursday, September 24, 2009

ग़ज़ल

बाज़ार






मृत्युंजय कुमार, इंदौर

उठती है निगाह जिधर बाज़ार नज़र आता है
कोई बिकता हुआ कोई खरीदार नज़र आता है

सिर्फ जरूरतों के उसूल पर जीता है जमान,
जो न किसी काम का वो बेकार नज़र आता है

आते-जाते हर शख्स की है निगाह मुझ पर,
शायद मुझमें कोई कारोबार नज़र आता है

ख्वाहिशों के दश्त में हर आदमी गुम है,
रूह है गिरवी जेबों में उधार नज़र आता है

Tuesday, September 15, 2009

आलेख

निराला जी के काव्य में नारी का चित्रण
- एम. रोशनी, कोयंबत्तूर


हिन्दी के आधुनिक कवियों की सूची बनाए तो उसमें पहले निराला का नाम ज़रूर लिखना पड़ेगा। वे पहले कवि हैं जिन्होंने कविता को छन्द-बंधन से मुक्त किया, उसके चरणों को स्वच्छन्द गति दी। उन्होंने छन्द को तोड़ा भी और छोड़ा भी नहीं। उनका मुक्त छन्द हिन्दी कविता का अपना छन्द बन गया। उनकी कविताओं में तमाम साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आन्दोलन तथा आलोचनात्मक सिद्धान्त सहज भाव से समाहित है। निराला का संपूर्ण जीवन संघर्षों की एक कहानी है।

काव्य में नारी के अनेक रूप होते हैं। कवियों के अनुसार नारी भोग्या, सुन्दरी, शक्तिरूपिनी, सौंदर्या, दयनीया, परिश्रमी, संघर्षमयी, प्रेरणा स्रोतस्विनी है। वे तो सिर्फ उच्च वर्ग की नारी को ही नहीं, भिखारिन, दलित, मज़दूर, पीड़ित, अछूत नारियों का भी हित चिंतन करने वाले व्यक्ति थे। नारी को महत्वपूर्ण स्थान देने के कारण ही उनके अधिकतर उपन्यास तथा कहानियों के शीर्षक भी नायिका के आधार पर हैं।

काव्य में उनको ध्यान का केन्द्र है नारी का सौन्दर्य। अनेक स्वच्छन्तावादी कवियों की रचनाओं में जिस अतृप्ति अथवा काल्पनिक कामेच्छापूर्ति का झलक मिलती है। वह निराला के काव्य में कम है। सुन्दरता को भी कामवासना से अलग करके देखना एक कला है। स्फटिकशिला में निराला द्वारा पानी में भीगी नारी का सुन्दर चित्रण ऐसा दिया गया है -

ऑंख पड़ी युवति पर, आई थी वो नहाकर
गीली धोती सटी हुई भरी देह में मधुर
उसे पुष्ट स्तन, दुष्ट मन को मरोड़कर
आयत दुगों का मुख खुला हुआ छोड़कर
बदन कहीं से नहीं कांपता,
कुछ भी संकोच नहीं ढांपता।
(स्फटिकशिला, पृ. 59)

निराला ने नारी के बाहरी सौंदर्य को ही देखा नहीं, उन्होंने नारी के हृदय के अंदर छिपा हुआ दुख और निराशा को भी छोड़ा नहीं। निराला के लिये नारी इस धरती पर रहने और विहार करने वाली अस्थि-माँस की नारी है। अगर नारी को कुछ कमी हो गया तो उसके जीवन में दुख का अंत नहीं, उस जीवन भर भोगना पड़ता है। इस प्रकार के कानी के दुख को निराला ने व्यक्त किया है। क्योंकि उसके लिए विवाह एक बडा प्रश्न बनकर उसके सामने खड़ा हो जाता है, पर उसका हृदय तो दूसरी सामान्य नारियों जैसा कल्पना में डूबा रहता है।

औरत की जात रानी ब्याह भला कैसे हो
कानी जो है वह
सुनकर कानी का दिल हिल गया।
कांपे कुल अंग
दाईं ऑंख से
ऑंसू भी वह चले माँ के दुख से
लेकिन वह बाईं ऑंख कानी
ज्यों-की-त्यों रह गई रखती निगरानी

(नये पत्तो - रानी और कानी, पृ.सं. 16)

निराला ने प्राकृतिक उपादानों में चेतना के आरोप से सौन्दर्य की सृष्टि की है जो अद्भुत है, मादक है। प्रकृति में जहाँ चेतना का आरोप हुआ है वह नारी के रूप में उभर कर आया है। वस्तुत: समस्त छायावादी काव्य में जहाँ भी प्रकृति में चेतना का आरोप हुआ है, वह नारी रूप में प्रस्तुत हुई है और कवियों ने सौन्दर्य का जम कर वर्णन किया है। निराला ने प्रकृति में चेतना के आरोप से नारी सौन्दर्य का अद्भुत वर्णन किया है। 'सन्ध्या सुन्दरी' नामक कविता में वे शाम के समय को नारी के साथ तुलना करके देखते हैं।

दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह सन्ध्या सुन्दरी परी-सी
धीरे धीरे धीरे।

उसी प्रकार 'जूही की कली' में भी निराला की सौन्दर्य चेतना का दिग्दर्शन होता है। इसके कुछ पंक्तियों में ही सौन्दर्य का पारावार है और कवि ने प्रकृति एवं नारी के संपूर्ण सौन्दर्य का अंकन कर दिया है।

विजन वन वल्लरी पर
सोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न
अमल कोमल तन तरुणी जूही की कली
दुग बन्द किए पत्रांक में।

निराला की सहानुभूति सिर्फ सुन्दर नारियों के प्रति ही नहीं किसान, मज़दूर, भिखारिन, विधवा आदि शोषित समाज के साथ भी रही है, जिनके विजय या मुक्ति के निराला प्रारंभ से कामना करते आये हैं। वे दलित, पीड़ित, अछूतों के लिए भी हित चिंतन करते थे।

भारतीय हिन्दु समाज ने यहाँ की विधवाओं के साथ जो अत्याचार किया है, वह किसे से छिपा नहीं है। भारतीय विधवाएँ अपनी समस्त आकांक्षाओं को अपने में समेट सिसकी भरती हुई अपने कोमल फूल-से शरीर को अतृप्ति के अग्नी में झोंक देते हैं। प्रकृति में व्याप्त नारी मूर्ति के रूप लावण्य के भीतर कवि को जीवन की यातना से त्रस्त एवं भाग्य की विडम्बना की मारी नारी का यथार्थ चित्र दीख पड़ता है और वह उसी तन्मयता के साथ इसका भी चित्रांकन करता है, विधवा की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
वह इष्टदेव के मंदिर की पूजा-सी
वह दीपशिखा-सी शांत भाव में लीन
वह क्रूर काल ताण्डव की स्मृति रेखा-सी
वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन
दलित, भारत की ही विधवा है।
(विधवा)

निराला ने विधवा के वैधव्य-जनित दुख को साकार कर दिया है। नारी की हीन-दशा को सामाजिक पतन मानते हैं। उनका विश्वास है कि नारी मुक्ति के बिना, जाति, समाज और राष्ट्र का उध्दार कभी संभव नहीं हो सकता। वे मजदूरनी के परिश्रम का वर्णन को एक कविता में व्यक्त किया है। उस मजदूरनी तो रूई के समान भू को जलाने वाली तत्प लू में भी अपने काम में लगी है। वह अपने पेट के भूख को शांत कराने के लिए उस धूप को तुच्छ मानकर परिश्रम करती है। वह कहीं भी आश्रय नहीं ले सकती, क्योंकि यह उसकी विवशता है।

''वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत-मन,
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार बार प्रहार।''

(अनामिका-तोड़ती पत्थर, पृ. 81)

निराला जी का कहना है कि नारी संपूर्ण समाज की निर्मात्री है, इसलिये स्त्रियाँ यदि अनपढ़ रह गईं, यदि उन्हीं की जबान मंजी तो बच्चा पढ़कर भी कुछ कर नहीं सकता। मौलिकता का मूल बच्चे की माता है। नारी विषयक दासता के प्रबल विरोधी हैं। उनका संदेनशील मन नारी के भोले भाले पुराने परंपरागत विचारों को लेकर दुखी होता था। वे नारी अत्याचारों के संदर्भ में विद्रोह भी करने लगता है। सति के अतिरिक्त विष्व में और कुछ नहीं। आत्म-समर्पण भारतीय नारी की सर्वोत्कृष्ट विभूति है। इस विचार पर व्यंग्यात्मक ढंग से उन्होंने ऐसा लिखा है -

''उसमें कोई चाह नहीं है
विषय वासना तुच्छ, उसे कोई परवाह नहीं है
उसकी साधना
केवल निज सरोजमुख पति को ताकना।''
(बहू)

इन्होंने व्यक्तिगत संकीर्ण छंदों का परित्याग तो किया हो, सडे सामाजिक बन्धनों की भी अवहेलना की। अपनी कन्या सरोज के विवाह में भी इन्होंने किसी को निमंत्रण नहीं दिया। कुछ ही साहित्यिकों के सामने स्वयं निराला ने पुरोहित का आसन ग्रहण किया था। इन सामाजिक बन्धनों को नकारते हुए कहते हैं -

''तुम करो ब्याह तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम
लग्न के पढूँगा स्वयं मंत्र
यदि पंडित जो होंगे स्वतंत्र।''
(सरोज स्मृति)
नारी मुक्ति के सन्दर्भ में निराला का साहित्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनके काव्य में नारी की सामाजिक परतंत्रता का विरोध मुखरित हुआ है। निराला का विश्वास है कि नारी स्वच्छन्द समीर के समान है। हमेशा के लिए निराला नारी स्वतंत्रता के समर्थक हैं -

तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा
पत्थर की निकली फिर गंगा जल धारा
गृह-गृह की पार्वती
पुन: सत्य सुन्दर शिव की सँवारती।
(अनामिका)

निराला जी के समस्त साहित्य को भी देखें तो हमें यह पता चलेगा कि निराला ने नारी को भोग्या न मानकर सदैव और सर्वत्र प्रेरणा का स्रोत माना है। इनके विचार और साहित्य के कारण ही ये 'क्रान्तिकारी निराला' माने जाते हैं।

Sunday, September 13, 2009

हिंदी दिवस की शुभकामनाएँ

हिंदी दिवस का संकल्प


भारतीय संस्कृति एवं विरासत की रक्षा तथा भारत की सार्थक उन्नति के लिए संकल्पबद्ध भारतीय संविधान की मूलभावना भारतीय भाषाओं की श्रीवृद्धि के पक्ष में है । आइए आज हम संकल्प करें भारतीय भाषाओं के विकास के लिए प्रतिबद्ध होने का, भारतीय भाषाओं का निष्ठापूर्वक प्रयोग, प्रचार एवं प्रसार करने का । हमारे प्रयासों से जनमानस की भाषाएं विकसित हो, भारत की एकता एवं अखंडता बनी रहे ।

हिंदी का अभिवंदन

डा.स.बशीर चेन्नै


वीणा का नाद है
वाणी का वाद है
सब का आकर्षण है
राष्ट्र की शान है

समाज का दर्पण है
साहित्य का सृजन है
ज्ञान की धरा है
सब ने इसे वारा है -ये हिंदी है
विनय की भाषा है
संस्कृति की परिभाषा है
आत्मा का निवेदन है
दिलों की धड़कन है-ये हिंदी है

सब वाखिफ हैं इसकी गरिमा
विश्व में ये भाषा सरताज है
इस का भविष्य है बड़ा उज्ज्वल
करते हैं इस भाषा का शत-शत
अभिवंदन

शत-शत नमन-हिंदी को

मु.सादिक चेन्नै

तन-मन की भाषा है हिंदी
भारत की आशा है हिंदी
भारत का दर्शन है हिंदी
हमसब संप्रेषण हैं हिंदी

सभी भाषाओँ की आकर्षण है हिंदी
भारत का उत्कर्षण है
राष्ट्र चेतना का स्वर है
हिमालय का सर है –हिंदी

शायरों के दिलों की धड़कन
भक्तों के लिए नमन है
कविओं का अमन है
हरा भरा देश का चमन है हिंदी


मेल्बर्न में हिन्दी दिवस

-हरिहर झा

साहित्य-सन्ध्या के तत्वावधान में ५ सितम्बर शनिवार को क्यू-लाइब्रेरी में हिन्दी दिवस मनाया गया । इसके प्रथम चरण का संचालन प्रोफेसर नलिन शारदा ने किया । श्री दिनेश जी श्रीवास्तव ने दीप प्रज्ज्वलित किया । मंच की अध्यक्षता करते हुये अपने भाषण में उन्होने संस्कृति को बनाये रखने के लिये हिन्दी की आवश्यकता पर बल दिया । उन्होने बताया कि आस्ट्रेलिया में हिन्दी को उसका स्थान दिलाने के लिये किन किन कठिनाइयों से गुजरना पड़ा ।

तत्पश्चात सुभाष शर्मा ने मधुर कंठ से मातृभाषा हिन्दी पर गीत गाया व हिन्दी दिवस के उपलक्ष में कवितायें सुनाई ।मैंने एक हिन्दी-गज़ल सुनाई व ’बिखरा पड़ा है’ - नवगीत का पाठ किया । राजेन्द्र चोपड़ा ने रक्षा-बन्धन के पर्व पर इस युग की मजबूर परिस्थितियों की पृष्ठ-भूमि में भाई-बहन के प्रेम-भाव का ह्दय विदारक चित्र खींचा । प्रोफेसर सुरेश भार्गव ने हास्य और करूण रस का अनोखा संगम कर दिया जब बताया कि क्या हुआ जब एक सिपाही को कविता लिखने का शौख चर्राया ।

दूसरा सत्र – “अपने लोग –अपनी बातें” के संचालन का कार्य-भार मुझे सौपा गया । मैंने फादर कामिल बुल्के के हिन्दी प्रेम, तुलसी-प्रेम व उनके हिन्दी-साहित्य में योगदान के विषय में बताया ।

रतनजी मूलचन्दानी ने कुछ चुटकुलों से हँसाने के पश्चात ’अभिव्यक्ति’ में प्रकाशित मुकेश पोपली की कहानी ’अपील’ की विवेचना की तथा बताया कि किस तरह छोटे छोटे प्रयास किसी गरीब की जिन्दगी बदलने में सहायक हो सकते हैं और छोटे छोटे प्रयास दीन-हिन बनी हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में सहायक हो सकते हैं ।

सुमनजी ने एक जादूगर के माध्यम से आधुनिक युग की स्वार्थी भावनाओं के कटु-यथार्थ पर व्यंग्य किया । अनीताजी ने कहा कि भारत में जो विविधता में एकता दिखाई पड़ती है वह अन्यत्र दुर्लभ है और इस विषय में उन्होने मातृभाषाओं की भूमिका को सराहा । सर्वेश कुमार सोनी की कविता के बाद हरिजी झुल्का ने एक जवाब के साथ सौ सवाल खड़े हो जाने की परिस्थीति का चित्रण किया । राजेश रामनाथन ने “टू द साईलेन्ट ग्रेव” कविता सुनाई जिसके प्रत्युत्तर में मुझे अपनी दो पंक्तिया याद आ गई – “काल ने विकराल सी खींची जो रेखा है । मौत को निकट तक आते हुये देखा है ।“

सुभाष शर्मा के धन्यवाद प्रस्ताव के साथ गुरजिन्दर जी कौर ने देश-प्रेम के गीत से कार्यक्रम का समापन किया ।

अपना हर पल है हिन्दीमय

- आचार्य संजीव सलिल

अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की भाषा.
जिसकी ऐसी
गलत सोच है,
उससे क्या
पालें हम आशा?
इन जयचंदों
की खातिर
हिंदीसुत
पृथ्वीराज बन जाएँ...
ध्वनिविज्ञान-
नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में
माने जाते.
कुछ लिख,
कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम
हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि,
उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में
साम्य बताएँ...
अलंकार,
रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की
बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी
भाषा में मिलते,
दावे करलें
चाहे झूठे.
देश-विदेशों में
हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन
बढ़ते जाएँ...
अन्तरिक्ष में
संप्रेषण की
भाषा हिंदी
सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और
विस्तृत वर्णन में
हिंदी है
सर्वाधिक
सक्षम.
हिंदी भावी
जग-वाणी है
निज आत्मा में
'सलिल' बसाएँ...

Wednesday, September 9, 2009

श्रद्धांजलि



महाशोक: डॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' नहीं रहीं


- आचार्य संजीव सलिल



संस्कारधानी जबलपुर, ८ सितंबर २००९, बुधवार. सनातन सलिल नर्मदा तीर पर स्थित महर्षि जाबाली, महर्षि महेश योगी और महर्षि रजनीश की तपस्थली संस्कारधानी जबलपुर में आज सूर्य नहीं उगा, चारों ओर घनघोर घटायें छाई हैं. आसमान से बरस रही जलधाराएँ थमने का नाम ही नहीं ले रहीं. जबलपुर ही नहीं पूरे मध्य प्रदेश में वर्षा की कमी के कारण अकाल की सम्भावना को देखते हुए लगातार ४८ घंटों से हो रही इस जलवृष्टि को हर आम और खास वरदान की तरह ले रहा है. यहाँ तक की २४ घंटों से अपने उड़नखटोले से उपचुनाव की सभाओं को संबोधित करने के लिए आसमान खुलने की राह देखते रहे और अंततः सड़क मार्ग से राज्य राजधानी जाने के लिए विवश मुख्यमंत्री और राष्ट्र राजधानी जाने के लिए रेल मार्ग से जाने के लिए विवश वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री भी इस वर्षा के लिए भगवन का आभार मान रहे हैं किन्तु कम ही लोगों को ज्ञात है कि भगवान ने देना-पावना बराबर कर लिया है. समकालिक साहित्य में सनातन मूल्यों की श्रेष्ठ प्रतिनिधि डॉ. चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' को अपने धाम ले जाकर प्रभुने इस क्षेत्र को भौगोलिक अकाल से मुक्त कर उसने साहित्यिक बौद्धिक अकाल से ग्रस्त कर दिया है.

ग्राम होरीपूरा, तहसील बाह, जिला आगरा उत्तर प्रदेश में २० सितम्बर १९३९ को जन्मी चित्राजी ने विधि और साहित्य के क्षेत्र में ख्यातिलब्ध पिता न्यायमूर्ति ब्रिजकिशोर चतुर्वेदी बार-एट-ला, से सनातन मूल्यों के प्रति प्रेम और साहित्यिक सृजन की विरासत पाकर उसे सतत तराशा-संवारा और अपने जीवन का पर्याय बनाया. उद्भट विधि-शास्त्री, निर्भीक न्यायाधीश, निष्पक्ष इतिहासकार, स्वतंत्र विचारक, श्रेष्ठ साहित्यिक समीक्षक, लेखक तथा व्यंगकार पिता की विरासत को आत्मसात कर चित्रा जी ने अपने सृजन संसार को समृद्ध किया.

ग्वालियर, इंदौर तथा जबलपुर में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त चित्रा जी ने इलाहांबाद विश्व विद्यालय से १९६२ में राजनीति शास्त्र में एम्.ए. तथा १९६७ में डी. फिल. उपाधियाँ प्राप्तकर शासकीय स्वशासी महाकौशल कला-वाणिज्य महाविद्यालय जबलपुर में प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष के रूप में कर्मठता और निपुणता के अभिनव मानदंड स्थापित किये.

चित्राजी का सृजन संसार विविधता, श्रेष्ठता तथा सनातनता से समृद्ध है.

द्रौपदी के जीवन चरित्र पर आधारित उनका बहु प्रशंसित उपन्यास 'महाभारती' १९८९ में उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा प्रेमचंद्र पुरस्कार तथा १९९९३ में म.प्र. साहित्य परिषद् द्वारा विश्वनाथ सिंह पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

ययाति-पुत्री माधवी पर आधारित उपन्यास 'तनया' ने उन्हें यशस्वी किया. लोकप्रिय मराठी साप्ताहिक लोकप्रभा में इसे धारावाहिक रूप में निरंतर प्रकाशित किया गया.

श्री कृष्ण के जीवन एवं दर्शन पर आधारित वृहद् उपन्यास 'वैजयंती' ( २ खंड) पर उन्हें १९९९ में उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा पुनः प्रेमचंद पुरस्कार से अलंकृत किया गया.

उनकी महत्त्वपूर्ण काव्य कृतियों में प्रथा पर्व (महाकाव्य), अम्बा नहीं मैं भीष्म (खंडकाव्य), तथा वैदेही के राम खंडकाव्य) महत्वपूर्ण है.

स्वभाव से गुरु गम्भीर चित्रा जी के व्यक्तित्व का सामान्यतः अपरिचित पक्ष उनके व्यंग संग्रह अटपटे बैन में उद्घाटित तथा प्रशंसित हुआ.

उनका अंतिम उपन्यास 'न्यायाधीश' शीघ्र प्रकाश्य है किन्तु समय का न्यायाधीश उन्हें अपने साथ ले जा चुका है.

उनके खंडकाव्य 'वैदेही के राम' पर कालजयी साहित्यकार डॉ. विद्यानिवास मिश्र का मत- ''डॉ चित्रा चतुर्वेदी ने जीवन का एक ही संकल्प लिया है कि श्री राम और श्री कृष्ण की गाथा को अपनी सलोनी भाषा में अनेक विधाओं में रचती रहेंगी. प्रस्तुत रचना वैदेही के राम उसी की एक कड़ी है. सीता की करूँ गाथा वाल्मीकि से लेकर अनेक संस्कृत कवियों (कालिदास, भवभूति) और अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओँ के कवियों ने बड़ी मार्मिकता के साथ उकेरी है. जैस अकी चित्रा जी ने अपनी भूमिका में कहा है, राम की व्यथा वाल्मीकि ने संकेत में तो दी, भवभूति ने अधिक विस्तार में दी पर आधुनिक कवियों ने उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया, बहुत कम ने सोचा कि सीता के निर्वासन से अधिक राम का ही निर्वासन है, अपनी निजता से. सीता-निर्वासन के बाद से राम केवल राजा रह जाते हैं, राम नहीं रह जाते. यह उन्हें निरंतर सालता है. लोग यह भी नहीं सोचते कि सीता के साथ अन्याय करना, सीता को युगों-युगों तक निष्पाप प्रमाणित करना था.''

चित्रा जी के शब्दों में- ''आज का आलोचक मन पूछता है कि राम ने स्वयं सिंहासन क्यों नहीं त्याग दिया बजे सीता को त्यागने के? वे स्वयं सिंहासन प् र्बैठे राज-भोग क्यों करते रहे?इस मत के पीछे कुछ अपरिपक्वता और कुछ श्रेष्ठ राजनैतिक परम्पराओं एवं संवैधानिक अभिसमयों का अज्ञान भी है. रजा या शासक का पद और उससे जुड़े दायित्वों को न केवल प्राचीन भारत बल्कि आधुनिक इंग्लॅण्ड व अन्य देशों में भी दैवीय और महान माना गया है. रजा के प्रजा के प्रति पवित्र दायित्व हैं जिनसे वह मुकर नहीं सकता. अयोग्य राजा को समाज के हित में हटाया जा सकता था किन्तु स्वेच्छा से रजा पद-त्याग नहीं कर सकता था....कोइ भी पद अधिकारों के लिया नहीं कर्तव्यों के लिए होता है....''

चित्रा जी के मौलिक और तथ्यपरक चिंतन कि झलक उक्त अंश से मिलती है.
'महाभारती में चित्रा जी ने प्रौढ़ दृष्टि और सारगर्भित भाषा बंध से आम पाठकों ही नहीं दिग्गज लेखकों से भी सराहना पाई. मांसलतावाद के जनक डॉ . रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के अनुसार- ''पारंपरिक मान्यताओं का पालन करते हुए भी लेखिका ने द्रौपदी कि आलोकमयी छवि को जिस समग्रता से उभरा है वह औपन्यासिकता की कसौटी पर निर्दोष उतरता है. डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' के मत में- ''द्रौपदी के रूप में उत्सर्ग्शीला नारी के वर्चस्व को अत्यंत उदात्त रूप में उभरने का यह लाघव प्रयत्न सराहनीय है.''

श्री नरेश मेहता को ''काफी समय से हिंदी में ऐसी और इतनी तुष्टि देनेवाली रचना नजर नहीं आयी.'' उनको तो ''पढ़ते समय ऐसा लगता रहा कि द्रौपदी को पढ़ा जरूर था पर शायद देखना आज हुआ है.''

आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के अनुसार- ''द्रौपदी को महाभारती कहना अपने आप में एक विशिष्ट उपलब्धि है.''

स्वयं चित्रा जी के अनुसार- ''यह कहानी न्याय पाने हेतु भटकती हुई गुहार की कहानी है. आज भी न्याय हेतु वह गुहार रह-रहकर कानों में गूँज रही है. नारी की पीडा शाश्वत है. नारी की व्यथा अनंत है. आज भी कितनी ही निर्दोष कन्यायें उत्पीडन सह रही हैं अथवा न सह पाने की स्थिति में आत्मघात कर रही हैं.

द्रुपदनन्दिनी भी टूट सकती थी, झंझाओं में दबकर कुचली जा सकती थी. महाभारत व रामायण काल में कितनी ही कन्याओं ने अपनी इच्छाओं का गला घोंट दिया. कितनी ही कन्याओं ने धर्म के नाम पर अपमान व कष्ट का हलाहल पान कर लिया. क्या हुआ था अंबा और अंबालिका के साथ? किस विवशता में आत्मघात किया था अंबा ने? क्या बीती थी ययाति की पुत्री माधवी पर? अनजाने में अंधत्व को ब्याह दी जाने वाली गांधारी ने क्यों सदा के लिए आँखें बंद कर ली थीं? और क्यों भूमि में समां गयीं जनकनन्दिनी अपमान से तिलमिलाकर? द्रौपदी भी इसी प्रकार निराश हो टूट सकती थी.

किन्तु अद्भुत था द्रुपदसुता का आत्मबल. जितना उस पर अत्याचार हुआ, उतनी ही वह भभक-भभककर ज्वाला बनती गयी. जितनी बार उसे कुचला गया, उतनी ही बार वह क्रुद्ध सर्पिणी सी फुफकार-फुफकार उठी. वह याज्ञसेनी थी. यज्ञकुंड से जन्म हुआ था उसका. अन्याय के प्रतिकार हेतु सहस्त्रों जिव्हाओंवाली अक्षत ज्वाला सी वह अंत तक लपलपाती रही.

नीलकंठ महादेव ने हलाहल पान किया किन्तु उसे सावधानी से कंठ में ही रख लिया था. कंठ विष के प्रभाव से नीला हो गया और वे स्वयं नीलकंठ किन्तु आजीवन अन्याय, अपमान तथा पीडा का हलाहल पी-पीकर ही दृपद्न्न्दिनी का वर्ण जैसे कृष्णवर्ण हो गया था. वह कृष्ण हो चली, किन्तु झुकी नहीं....''

चित्रा जी का वैशिष्ट्य पात्र की मनःस्थिति के अनुकूल शब्दावली, घटनाओं की विश्वसनीयता बनाये रखते हुए सम-सामयिक विश्लेषण, तार्किक-बौद्धिक मन को स्वीकार्य तर्क व मीमांसा, मौलिक चिंतन तथा युगबोध का समन्वय कर पाना है.
वे अत्यंत सरल स्वभाव की मृदुभाषी, संकोची, सहज, शालीन तथा गरिमामयी महिला थीं. सदा श्वेत वस्त्रों से सज्जित उनका आभामय मुखमंडल अंजन व्यक्ति के मन में भी उनके प्रति श्रृद्धा की भाव तरंग उत्पन्न कर देता था. फलतः, उनके कोमल चरणों में प्रणाम करने के लिए मन बाध्य हो जाता था.

मुझे उनका निष्कपट सान्निध्य मिला यह मेरा सौभाग्य है. मेरी धर्मपत्नी डॉ. साधना वर्मा और चित्रा जी क्रमशः अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में एक ही महाविद्यालय में पदस्थ थीं. चित्रा जी साधना से भागिनिवत संबंध मानकर मुझे सम्मान देती रहीं. जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं ईंट-पत्थर जुडवाने के साथ शब्द-सिपाही भी हूँ तो उनकी स्नेह-सलिला मुझे आप्लावित करने लगी. एक-दो बार की भेंट में संकोच के समाप्त होते ही चित्रा जी का साहित्यकार विविध विषयों खासकर लेखनाधीन कृतियों के कथानकों और पात्रों की पृष्ठभूमि और विकास के बारे में मुझसे गहन चर्चा करने लगा. जब उन्हें किसी से मेरी ''दोहा गाथा'' लेख माला की जानकारी मिली तो उनहोंने बिना किसी संकोच के उसकी पाण्डुलिपि चाही. वे स्वयं विदुषी तथा मुझसे बहुत अधिक जानकारी रखती थीं किन्तु मुझे प्रोत्साहित करने, कोई त्रुटि हो रही हो तो उसे सुधारने तथा प्रशंसाकर आगे बढ़ने के लिए आशीषित करने के लिए उन्होंने बार-बार माँगकर मेरी रचनाएँ और लंबे-लंबे आलेख बहुधा पढ़े.
'दिव्या नर्मदा' पत्रिका प्रकाशन की योजना बताते ही वे संरक्षक बन गयीं. उनके अध्ययन कक्ष में सिरहाने-पैताने हर ओर श्रीकृष्ण के विग्रह थे. एक बार मेरे मुँह से निकल गया- ''आप और बुआ जी (महीयसी महादेवी जी) में बहुत समानता है, वे भी गौरवर्णा आप भी, वे भी श्वेतवसना आप भी, वे भी मिष्टभाषिणी आप भी, उनके भी सिरहाने श्री कृष्ण आपके भी.'' वे संकुचाते हुए तत्क्षण बोलीं 'वे महीयसी थीं मैं तो उनके चरणों की धूल भी नहीं हूँ.'

चित्रा जी को मैं हमेशा दीदी का संबोधन देता पर वे 'सलिल जी' ही कहती थीं. प्रारंभ में उनके साहित्यिक अवदान से अपरिचित मैं उन्हें नमन करता रहा और वे सहज भाव से सम्मान देती रहीं. उनके सृजन पक्ष का परिचय पाकर मैं उनके चरण स्पर्श करता तो कहतीं ' क्यों पाप में डालते हैं, साधना मेरी कभी बहन है.' मैं कहता- 'कलम के नाते तो कहा आप मेरी अग्रजा हैं इसलिए चरणस्पर्श मेरा अधिकार है.' वे मेरा मन और मान दोनों रख लेतीं. बुआ जी और दीदी में एक और समानता मैंने देखी वह यह कि दोनों ही बहुत स्नेह से खिलातीं थीं, दोनों के हाथ से जो भी खाने को मिले उसमें अमृत की तरह स्वाद होता था...इतनी तृप्ति मिलती कि शब्द बता नहीं सकते. कभी भूखा गया तो स्वल्प खाकर भी पेट भरने की अनुभूति हुई, कभी भरे पेट भी बहुत सा खाना पड़ा तो पता ही नहीं चला कहाँ गया. कभी एक तश्तरी नाश्ता कई को तृप्त कर देता तो कभी कई तश्तरियाँ एक के उदार में समां जातीं. शायद उनमें अन्नपूर्णा का अंश था जो उनके हाथ से मिली हर सामग्री प्रसाद की तरह लगती.

वे बहुत कृपण थीं अपनी रचनाएँ सुनाने में. सामान्यतः साहित्यकार खासकर कवि सुनने में कम सुनाने में अधिक रूचि रखते हैं किन्तु दीदी सर्वथा विपरीत थीं. वे सुनतीं अधिक, सुनातीं बहुत कम.

अपने पिताश्री तथा अग्रज के बारे में वे बहुधा बहुत उत्साह से चर्चा करतीं. अपनी मातुश्री से लोकजीवन, लोक साहित्य तथा लोक परम्पराओं की समझ तथा लगाव दीदी ने पाया था.

वे भाषिक शुद्धता, ऐतिहासिक प्रमाणिकता तथा सम-सामयिक युगबोध के प्रति सजग थीं. उनकी रचनाओं का बौद्धिक पक्ष प्रबल होना स्वाभाविक है कि वे प्राध्यापक थीं किन्तु उनमें भाव पक्ष भी सामान रूप से प्रबल है. वे पात्रों का चित्रण मात्र नहीं करती थीं अपितु पात्रों में रम जाती थीं, पात्रों को जीती थीं. इसलिए उनकी हर कृति जादुई सम्मोहन से पाठक को बाँध लेती है.

उनके असमय बिदाई हिंदी साहित्य की अपूरणीय क्षति है. शारदापुत्री का शारदालोक प्रस्थान हिंदी जगत को स्तब्ध कर गया. कौन जानता था कि ८ सितंबर को न उगनेवाला सूरज हिंदी साहित्य जगत के आलोक के अस्त होने को इंगित कर रहा है. कौन जानता था कि नील गगन से लगातार हो रही जलवृष्टि साहित्यप्रेमियों के नयनों से होनेवाली अश्रु वर्षा का संकेत है. होनी तो हो गयी पर मन में अब भी कसक है कि काश यह न होती...

चित्रा दीदी हैं और हमेशा रहेंगी... अपने पात्रों में, अपनी कृतियों में...नहीं है तो उनकी काया और वाणी... उनकी स्मृति का पाथेय सृजन अभियान को प्रेरणा देता रहेगा. उनकी पुण्य स्मृति को अशेष-अनंत प्रणाम.

Wednesday, September 2, 2009

ओणम की शुभकामनाएँ

सभी पाठकों को ओणम पर्व की हार्दिक मंगलकामनाएँ

मलयालियों का प्रतीक त्यौहार - ओणम

हर वर्ष श्रावण नक्षत्र मास में विश्व के मलयालियों द्वारा
धूम - धाम से मनाया जानेवाला परम - पुनीत त्यौहार है

“ओणम”
जिसे ‘नौका पर्व भी कहा जाता है (*)
जिस में भाग लेने वाले
तन्मय से गाते हैं---“वंचिप्पाटुट”।
ओणम के दिन घरों को फूलो के शिंगार को कहते हैं
---- “पुक्कलम”।
पूरे वर्ष, कड़ी मेहनत से किसान
तरह - तरह के अनाज़ का करता है उत्पादन
खट्टे - मीठे जीवन अनुभवों को समेट
’अवियल’, ‘पुलिइंजी ’, ‘अप्पम’’ से करता
अभिव्यक्त रसास्वादन
बांटता परिजनों से “सद्या” प्रीतिभोज
‘मोहिनी अट्टम’’, ‘तिरूवादिरा ’ सांप्रदायिक नृत्यों से
हर्षौल्लास के साथ गूंज उठती हैं दस दिशायें
सुख -शांति व समृद्वि को, जीवन में
भर देती है नई आशायें।
गरीब किसान कहते है
”काणम् विट्टुम ओणम उण्णणम”
यानी जमीन बेच कर भी
‘ओणम’ मनाना चाहिए
पुराणों की कथानुसार
’वामनवतार ’ के बलि चक्रवर्ती
पाताल से धर्ती पर आकर
मलयालियों को देतें है आर्शीवचन
उस दिन को ‘ओणम ’ कहते है जो केरलियों का प्रतीक बन
प्रकट करता है अपनापन
विराट करता अपनी पहचान
विकास करवाता मान - सम्मान
(*) “भगवान का अपना देश”
केरल का राष्ट्रीय त्यौहार है - ओणम



डी. अर्चना, चेन्नै