Thursday, September 24, 2009

ग़ज़ल

बाज़ार






मृत्युंजय कुमार, इंदौर

उठती है निगाह जिधर बाज़ार नज़र आता है
कोई बिकता हुआ कोई खरीदार नज़र आता है

सिर्फ जरूरतों के उसूल पर जीता है जमान,
जो न किसी काम का वो बेकार नज़र आता है

आते-जाते हर शख्स की है निगाह मुझ पर,
शायद मुझमें कोई कारोबार नज़र आता है

ख्वाहिशों के दश्त में हर आदमी गुम है,
रूह है गिरवी जेबों में उधार नज़र आता है

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