Tuesday, September 29, 2009

कविता

हृदय काश पत्थर का होता

- महेश चंद्र गुप्त खलिश

दर्द की ऐसे घात न होती
नैनों से बरसात न होती
ठंडी सहमी रात न होती
हृदय काश पत्थर का होता

दुनिया आखिर बहुत पड़ी है
तुमसे ही क्या एक कड़ी है
मगर मुसीबत यही बड़ी है
हृदय काश पत्थर का होता

हम भी इठलाते- लहराते
चोट प्यार की तुरत भुलाते
किसी और से नेह लगाते
हृदय काश पत्थर का होता

ऐसा हृदय तुम्हीं ने पाया
वादा तुमने नहीं निभाया
छुआ न तुमको ग़म का साया
हृदय काश पत्थर न होता.

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