निराला जी के काव्य में नारी का चित्रण
- एम. रोशनी, कोयंबत्तूर
हिन्दी के आधुनिक कवियों की सूची बनाए तो उसमें पहले निराला का नाम ज़रूर लिखना पड़ेगा। वे पहले कवि हैं जिन्होंने कविता को छन्द-बंधन से मुक्त किया, उसके चरणों को स्वच्छन्द गति दी। उन्होंने छन्द को तोड़ा भी और छोड़ा भी नहीं। उनका मुक्त छन्द हिन्दी कविता का अपना छन्द बन गया। उनकी कविताओं में तमाम साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आन्दोलन तथा आलोचनात्मक सिद्धान्त सहज भाव से समाहित है। निराला का संपूर्ण जीवन संघर्षों की एक कहानी है।
काव्य में नारी के अनेक रूप होते हैं। कवियों के अनुसार नारी भोग्या, सुन्दरी, शक्तिरूपिनी, सौंदर्या, दयनीया, परिश्रमी, संघर्षमयी, प्रेरणा स्रोतस्विनी है। वे तो सिर्फ उच्च वर्ग की नारी को ही नहीं, भिखारिन, दलित, मज़दूर, पीड़ित, अछूत नारियों का भी हित चिंतन करने वाले व्यक्ति थे। नारी को महत्वपूर्ण स्थान देने के कारण ही उनके अधिकतर उपन्यास तथा कहानियों के शीर्षक भी नायिका के आधार पर हैं।
काव्य में उनको ध्यान का केन्द्र है नारी का सौन्दर्य। अनेक स्वच्छन्तावादी कवियों की रचनाओं में जिस अतृप्ति अथवा काल्पनिक कामेच्छापूर्ति का झलक मिलती है। वह निराला के काव्य में कम है। सुन्दरता को भी कामवासना से अलग करके देखना एक कला है। स्फटिकशिला में निराला द्वारा पानी में भीगी नारी का सुन्दर चित्रण ऐसा दिया गया है -
ऑंख पड़ी युवति पर, आई थी वो नहाकर
गीली धोती सटी हुई भरी देह में मधुर
उसे पुष्ट स्तन, दुष्ट मन को मरोड़कर
आयत दुगों का मुख खुला हुआ छोड़कर
बदन कहीं से नहीं कांपता,
कुछ भी संकोच नहीं ढांपता।
(स्फटिकशिला, पृ. 59)
निराला ने नारी के बाहरी सौंदर्य को ही देखा नहीं, उन्होंने नारी के हृदय के अंदर छिपा हुआ दुख और निराशा को भी छोड़ा नहीं। निराला के लिये नारी इस धरती पर रहने और विहार करने वाली अस्थि-माँस की नारी है। अगर नारी को कुछ कमी हो गया तो उसके जीवन में दुख का अंत नहीं, उस जीवन भर भोगना पड़ता है। इस प्रकार के कानी के दुख को निराला ने व्यक्त किया है। क्योंकि उसके लिए विवाह एक बडा प्रश्न बनकर उसके सामने खड़ा हो जाता है, पर उसका हृदय तो दूसरी सामान्य नारियों जैसा कल्पना में डूबा रहता है।
औरत की जात रानी ब्याह भला कैसे हो
कानी जो है वह
सुनकर कानी का दिल हिल गया।
कांपे कुल अंग
दाईं ऑंख से
ऑंसू भी वह चले माँ के दुख से
लेकिन वह बाईं ऑंख कानी
ज्यों-की-त्यों रह गई रखती निगरानी
(नये पत्तो - रानी और कानी, पृ.सं. 16)
निराला ने प्राकृतिक उपादानों में चेतना के आरोप से सौन्दर्य की सृष्टि की है जो अद्भुत है, मादक है। प्रकृति में जहाँ चेतना का आरोप हुआ है वह नारी के रूप में उभर कर आया है। वस्तुत: समस्त छायावादी काव्य में जहाँ भी प्रकृति में चेतना का आरोप हुआ है, वह नारी रूप में प्रस्तुत हुई है और कवियों ने सौन्दर्य का जम कर वर्णन किया है। निराला ने प्रकृति में चेतना के आरोप से नारी सौन्दर्य का अद्भुत वर्णन किया है। 'सन्ध्या सुन्दरी' नामक कविता में वे शाम के समय को नारी के साथ तुलना करके देखते हैं।
दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह सन्ध्या सुन्दरी परी-सी
धीरे धीरे धीरे।
उसी प्रकार 'जूही की कली' में भी निराला की सौन्दर्य चेतना का दिग्दर्शन होता है। इसके कुछ पंक्तियों में ही सौन्दर्य का पारावार है और कवि ने प्रकृति एवं नारी के संपूर्ण सौन्दर्य का अंकन कर दिया है।
विजन वन वल्लरी पर
सोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न
अमल कोमल तन तरुणी जूही की कली
दुग बन्द किए पत्रांक में।
सोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न
अमल कोमल तन तरुणी जूही की कली
दुग बन्द किए पत्रांक में।
निराला की सहानुभूति सिर्फ सुन्दर नारियों के प्रति ही नहीं किसान, मज़दूर, भिखारिन, विधवा आदि शोषित समाज के साथ भी रही है, जिनके विजय या मुक्ति के निराला प्रारंभ से कामना करते आये हैं। वे दलित, पीड़ित, अछूतों के लिए भी हित चिंतन करते थे।
भारतीय हिन्दु समाज ने यहाँ की विधवाओं के साथ जो अत्याचार किया है, वह किसे से छिपा नहीं है। भारतीय विधवाएँ अपनी समस्त आकांक्षाओं को अपने में समेट सिसकी भरती हुई अपने कोमल फूल-से शरीर को अतृप्ति के अग्नी में झोंक देते हैं। प्रकृति में व्याप्त नारी मूर्ति के रूप लावण्य के भीतर कवि को जीवन की यातना से त्रस्त एवं भाग्य की विडम्बना की मारी नारी का यथार्थ चित्र दीख पड़ता है और वह उसी तन्मयता के साथ इसका भी चित्रांकन करता है, विधवा की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
वह इष्टदेव के मंदिर की पूजा-सी
वह दीपशिखा-सी शांत भाव में लीन
वह क्रूर काल ताण्डव की स्मृति रेखा-सी
वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन
दलित, भारत की ही विधवा है।
वह दीपशिखा-सी शांत भाव में लीन
वह क्रूर काल ताण्डव की स्मृति रेखा-सी
वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन
दलित, भारत की ही विधवा है।
(विधवा)
निराला ने विधवा के वैधव्य-जनित दुख को साकार कर दिया है। नारी की हीन-दशा को सामाजिक पतन मानते हैं। उनका विश्वास है कि नारी मुक्ति के बिना, जाति, समाज और राष्ट्र का उध्दार कभी संभव नहीं हो सकता। वे मजदूरनी के परिश्रम का वर्णन को एक कविता में व्यक्त किया है। उस मजदूरनी तो रूई के समान भू को जलाने वाली तत्प लू में भी अपने काम में लगी है। वह अपने पेट के भूख को शांत कराने के लिए उस धूप को तुच्छ मानकर परिश्रम करती है। वह कहीं भी आश्रय नहीं ले सकती, क्योंकि यह उसकी विवशता है।
''वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत-मन,
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार बार प्रहार।''
(अनामिका-तोड़ती पत्थर, पृ. 81)
निराला जी का कहना है कि नारी संपूर्ण समाज की निर्मात्री है, इसलिये स्त्रियाँ यदि अनपढ़ रह गईं, यदि उन्हीं की जबान मंजी तो बच्चा पढ़कर भी कुछ कर नहीं सकता। मौलिकता का मूल बच्चे की माता है। नारी विषयक दासता के प्रबल विरोधी हैं। उनका संदेनशील मन नारी के भोले भाले पुराने परंपरागत विचारों को लेकर दुखी होता था। वे नारी अत्याचारों के संदर्भ में विद्रोह भी करने लगता है। सति के अतिरिक्त विष्व में और कुछ नहीं। आत्म-समर्पण भारतीय नारी की सर्वोत्कृष्ट विभूति है। इस विचार पर व्यंग्यात्मक ढंग से उन्होंने ऐसा लिखा है -
''उसमें कोई चाह नहीं है
विषय वासना तुच्छ, उसे कोई परवाह नहीं है
उसकी साधना
केवल निज सरोजमुख पति को ताकना।''
''उसमें कोई चाह नहीं है
विषय वासना तुच्छ, उसे कोई परवाह नहीं है
उसकी साधना
केवल निज सरोजमुख पति को ताकना।''
(बहू)
इन्होंने व्यक्तिगत संकीर्ण छंदों का परित्याग तो किया हो, सडे सामाजिक बन्धनों की भी अवहेलना की। अपनी कन्या सरोज के विवाह में भी इन्होंने किसी को निमंत्रण नहीं दिया। कुछ ही साहित्यिकों के सामने स्वयं निराला ने पुरोहित का आसन ग्रहण किया था। इन सामाजिक बन्धनों को नकारते हुए कहते हैं -
''तुम करो ब्याह तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम
लग्न के पढूँगा स्वयं मंत्र
यदि पंडित जो होंगे स्वतंत्र।''
(सरोज स्मृति)
नारी मुक्ति के सन्दर्भ में निराला का साहित्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनके काव्य में नारी की सामाजिक परतंत्रता का विरोध मुखरित हुआ है। निराला का विश्वास है कि नारी स्वच्छन्द समीर के समान है। हमेशा के लिए निराला नारी स्वतंत्रता के समर्थक हैं -
तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा
पत्थर की निकली फिर गंगा जल धारा
गृह-गृह की पार्वती
पुन: सत्य सुन्दर शिव की सँवारती।
(अनामिका)
निराला जी के समस्त साहित्य को भी देखें तो हमें यह पता चलेगा कि निराला ने नारी को भोग्या न मानकर सदैव और सर्वत्र प्रेरणा का स्रोत माना है। इनके विचार और साहित्य के कारण ही ये 'क्रान्तिकारी निराला' माने जाते हैं।
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