Saturday, February 27, 2010

रंगों का पर्व होली की हार्दिक शुभकामनाएँ


कवि कुलवंत सिंह के चार होली गीत

1. होली के रंग

रंग होली के कितने निराले,
आओ सबको अपना बना लें,
भर पिचकारी सब पर डालें,
पी को अपने गले लगा लें ।

रक्तिम कपोल आभा से दमकें,
कजरारे नैना शोखी से चमकें,
अधर गुलाबी कंपित दहकें,
पलकें गिरगिर उठ उठ चहकें ।

पीत अंगरिया भिगी झीनी,
सुध बुध गोरी ने खो दीनी,
धानी चुनर सांवरिया छीनी,
मादकता अंग अंग भर दीनी ।

हरे रंग से धरा है निखरी,
श्याम वर्ण ले छायी बदरी,
छन कर आती धूप सुनहरी,
रंग रंग की खुशियां बिखरीं ।

नीला नीला है आसमान,
खुशियों से बहक रहा जहान,
मस्ती से चहक रहा इंसान,
होली भर दे सबमें जान ।



2. किससे खेलूं होली रे !

पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूं होली रे !
रंग हैं चोखे पास
पास नही हमजोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूं होली रे !
देवर ने लगाया गुलाल
मै बन गई भोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूं होली रे !
ननद ने मारी पिचकारी,
भीगी मेरी चोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूं होली रे !
जेठानी ने पिलाई भांग,
कभी हंसी कभी रो दी रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूं होली रे !

सास नहीं थी कुछ कम,
की उसने खूब ठिठोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मैं किससे खेलूं होली रे !

देवरानी ने की जो चुहल
अंगिया मेरी खोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूं होली रे !
बेसुध हो मै भंग में
नन्दोई को पी बोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूं होली रे !


3. होली का त्यौहार

होली का त्यौहार ।
रंगों का उपहार ।

प्रकृति खिली है खूब ।
नरम नरम है दूब ।

भांत भांत के रूप।
भली लगे है धूप ।

गुझिया औ मिष्ठान ।
खूब बने पकवान ।

भूल गये सब बैर ।
अपने लगते गैर ।

पिचकारी की धार ।
पानी भर कर मार ।

रंगों की बौछार ।
मस्ती भरी फुहार ।

मीत बने हैं आज
खोल रहे हैं राज ।

नीला पीला लाल
चेहरों पे गुलाल ।

खूब छनी है भांग ।
बड़ों बड़ों का स्वांग ।

मस्ती से सब चूर ।
उछल कूद भरपूर ।

आज एक पहचान ।
रंगा रंग इनसान ।

4. होली आई

हम बच्चों की मस्ती आई
होली आई होली आई ।
झूमें नाचें मौज करं सब
होली आई होली आई ।

रंग रंग में रंगे हैं सब
सबने एक पहचान पाई ।
भूल गए सब खुद को आज
होली आई होली आई ।

अबीर गुलाल उड़ा उड़ा कर
ढ़ोल बजाती टोली आई ।
अब अपने ही लगते आज
होली आई होली आई ।

दही बड़ा औ चाट पकोड़ी
खूब दबा कर हमने खाई ।
रसगुल्ले गुझिया मालपुए
होली आई होली आई ।

लाल हरा और नीला पीला
है रंगों की बहार आई ।
फागुन में रंगीनी छाई
होली आई होली आई ।

1 comment:

Vivek Ranjan Shrivastava said...

लगाते हो जो मुझे हरा रंग
मुझे लगता है
बेहतर होता
कि, तुमने लगाये होते
कुछ हरे पौधे
और जलाये न होते
बड़े पेड़ होली में।
देखकर तुम्हारे हाथों में रंग लाल
मुझे खून का आभास होता है
और खून की होली तो
कातिल ही खेलते हैं मेरे यार
केसरी रंग भी डाल गया है
कोई मुझ पर
इसे देख सोचता हूँ मैं
कि किस धागे से सिलूँ
अपना तिरंगा
कि कोई उसकी
हरी और केसरी पट्टियाँ उधाड़कर
अलग अलग झँडियाँ बना न सके
उछालकर कीचड़,
कर सकते हो गंदे कपड़े मेरे
पर तब भी मेरी कलम
इंद्रधनुषी रंगों से रचेगी
विश्व आकाश पर सतरंगी सपने
नीले पीले ये सुर्ख से सुर्ख रंग, ये अबीर
सब छूट जाते हैं, झट से
सो रंगना ही है मुझे, तो
उस रंग से रंगो
जो छुटाये से बढ़े
कहाँ छिपा रखी है
नेह की पिचकारी और प्यार का रंग?
डालना ही है तो डालो
कुछ छींटे ही सही
पर प्यार के प्यार से
इस बार होली में।

-विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र'