नारी की प्रगति-यात्रा
- श्रीमती रोशनी*
महान भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल के नाम का उच्चारण करते समय ही हरेक महिला भी सुगर्वित होती है और उसका मन यह घोषणा करना चाहता है कि ये हमारी जाती की है। श्रीमती सानिया गांधी देश की प्रधान पार्टी की अध्यक्षा के रूप में सुशोभित हैं और अन्य अनेक महिलाएँ भी उच्च पदों पर पर आसीन होकर प्रगति के रास्ते में दिन-ब-दिन बढती जा रही हैं । क्या ऐसा गौरवपूर्ण स्थान पहले से महिला को मिला था? पहले औरत की दशा क्या थी, और इस परिणाम का मूल क्या है? इस विषयों पर आगे की पंक्तियों प्रकाश डालने की कोशिश मैंने की है ।
पौराणिक काल की महिला से लेकर आज की राष्ट्रपति तक स्त्री की प्रगति-यात्रा चलती आ रही है। आज तो स्त्री को समाज में समान अधिकार मिला है, पर इसे पाने के लिए हमें लड़ना पड़ा। सच में देखे तो उन्नत कहे जानेवाले पश्चिमी देशों में भी स्त्रियों के लिए अधिकार पाने अधिक लड़ना पड़ा। उनके साथ तुलना करके देखे तो हमें यह अधिकार पाने के लिए अलग संघर्ष नहीं करना पड़ा। यह एक आश्चर्यजनक घटना और अभूतपूर्व सफलता है।
पुरुष और स्त्री समाज-निर्माण के दो परस्पर पूरक तत्व होते हैं। पर समाज-संचालन में एक की सक्रियता और दूसरे को बाध्यता। इस मनोभाव को दूर कराने के लिए स्त्री को वैदिक युग से लेकर आज तक समाज में सक्रिय संघर्ष करना पड़ा।
वैदिक युग
वेदों में नारी की शिक्षा, गुण, कर्तव्य और अधिकारों का विशद वर्णन है। आर्यों के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में हमें यह जानकारी मिलती है कि उस काल में नारियों की स्थिति उन्नत थी । उस काल की मूर्तियों में देवत्व पद पर भी स्त्री के सुशोभित होने का प्रमाण है। उस समय सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त करने में भी स्त्रियों पर कोई प्रतिबंध न था। चारों वेदों में सैकडों नारी विषयक मंत्र दिए गए हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि वैदिक काल में समाज में नारी का भी बराबर स्थान था। चारों वेदों में सावित्री मंत्र, गायत्री मंत्र, इंद्राणी मंत्र आदि सैकडों नारी विषयक मंत्र दिए गए हैं। वेदों में स्त्री को गृहलक्ष्मी, कुलपालक, परिवार की स्वामिनी, सबला, सरस्वती के तुल्य प्रतिष्ठित - ऐसे अनेक नाम दिए गए हैं।
वैदिक काल में भारतीय नारी लड़कों की तरह ब्रह्मचर्य का पालन करके शिक्षा प्राप्त करती थीं। गुरुओं के आश्रमों में गुरु पत्नी के संरक्षण में रहकर उच्च शिक्षा प्राप्त करती थीं। बाल विवाह की प्रथा नहीं थी। वे स्वयंवर के द्वारा अपना जीवन साथी चुनती थीं। पति-पत्नी दोनों के लिए प्रचलित 'दंपति' शब्द से सिध्द होता है कि नारी धार्मिक जीवन में भी पति की सहयोगिनी थी। पूजा पाठ के कार्यों में दोनों मिलकर भाग लेते थे। धार्मिक उपासना के कर्मकांड दंपति मिलकर करते थे। पारिवारिक यज्ञों में भी नारी का क्रियात्मक सहयोग मिलता था।
रामायाण और महाभारत में नारी का महत्व
'राजकुमारी। सिखावनु सुन हूँ।
आन भांति जिय जनि कछु गुन हूँ।
आपन मोर नीक जौं बह हूँ।
बचनु हमार मानि गृह रह हूँ।
आयसु मोर सासु सेवकाई।
सब विधि भामिनि भवन भलाई॥
अर्थात् - राजकुमारी मेरी बात सुन। यदि तुम अपना और मेरा कल्याण चाहती हो तो मेरी बात मानकर वन चलने का हठ छोड़ो, घर पर ही बनी रहो। मेरी तो यही आज्ञा है कि तुम घर पर रहकर सास-ससुर की सेवा करो। पर उसमें ही कैकेयी को विदूषी के रूप में चित्रित किया गया है। वह दशरथ के साथ युद्धभूमि जाकर उनको बचाती है। रामायण काल में धोबी द्वारा संदेह व्यक्त करने पर राम जैसे महापुरुष भी सीता को वनवास भेजना, सीता अग्निप्रवेश करना आदि पुरुषों के मनोभाव के प्रमाण हैं। महाभारत में भी अपनी पत्नी की अनुमति के बिना युधिष्ठर अपनी पत्ना द्रौपदी को जुए के दाँव पर लगा देना पुरुषों के मनमाने अधिकारों की पुष्टि करता है।
प्राचीन काल में नारी का स्थान विदुषी के रूप में भी चित्रित है। तमिल की एक महान कवयित्री अव्वई की नीति कविताओं में तमिल जीवन की सुंदर अभिव्यक्ति है।
मध्य युग
मध्य युग में विशेष रूप से भारत पर मुसलमानों के आक्रमणों और मुगलों के राज्य-स्थापन के बाद भारत में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आई। लड़कियों की शिक्षा समाप्त हो गई। पर्दा-प्रथा प्रारंभ होने लगा। विवाह की आयु घटती रही। बहुत कम उम्र में ही उनकी विवाह किए जाने लगा। स्त्री का जीवन का दायरा घर की चारदीवारी तक सीमित हो गया। मध्ययुग में साधारण स्त्रियों का हाल ऐसा होने पर भी रजिया बेगम, चाँद बीबी, ताताबाई आदि स्त्रियों के नाम चमकने लगे।
यह ग़लत धारणा है कि मुसलमान नारियों की स्वतंत्रता सीमित है। इस्लाम धर्म नारी उद्धार के विरुद्ध नहीं है। मुस्लिम पर्सनल लॉ ने मुस्लिम महिलाओं को जो अधिकार दिए हैं, उसकी मिसाल दूसरे धर्मों में कहीं नहीं मिलती। उदाहरण के लिए दूसरे धर्मों में विवाह एक धार्मिक कृत्य और पवित्र बंधन माना गया, इस्लाम में वह समझौता मात्र माना जाता है। कुरान में महिला के संपत्ति-अधिकार, शादी के समय इजाजत के साथ शादी, विवाह के अवसर पर लड़की की सुरक्षा के लिए 'मेहर' या स्त्री धन की व्यवस्था कर दी जाती है। आधुनिक मुस्लिम परिवारों की लड़कियाँ तो अब रूढ़ियाँ तोड, परदे से बाहर आकर नौकरी करने लगी हैं। नजमा हेपतुल्ला, पतन सैयीद आदि महिलाएँ उदाहरण हैं।
नवजागरण काल
स्त्रियों के सभी समस्याओं का मूल उनकी निरक्षरता, अंधविश्वास और अज्ञानता है। इसलिए राजा राम मोहनराय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, पंडिता रमाबाई, स्वामी दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी आदि समाज-सुधारकों का ध्यान स्त्री शिक्षा पर पड़ा। मोहनराय द्वारा सती प्रथा का उन्मूलन हुआ, बाल-विवाह पर प्रतिबंध, विधवा विवाह की स्वीकृति, स्त्रियों को संपत्ति अधिकार आदि पर बल दिया गया । इसी समय सभी लोग स्त्री शिक्षा को महत्व देने लगे। वे समझ गए कि स्त्री शिक्षा से घरों का सुधार होता है और मानवीय संसाधनों का पूर्ण विकास भी।
ब्रिटिश काल
ब्रिटिश काल में शिक्षा की व्यवस्था होने लगी। लड़कियों के लिए अलग विद्यालय या कालेजों खोले गये। शिक्षण के लिए प्रशिक्षण दिया गया। 1922 से 1947 तक समाजसुधार एवं गांधीजी द्वारा संचालित आंदोलनों से लड़कियों के प्रति माता-पिता के मन में समानता की भावना का प्रादुर्भाव हुआ।
स्वतंत्रता संग्राम में नारी
हमारे पूर्व इतिहास में रानी दुर्गावती, माता जीजाबाई, पन्ना दाई, रानी पद्मिनी आदि वीर नारियाँ थीं जिन्होंने मातृभूमि और अपनी अस्मिता की रक्षा में अपनी जान की परवाह नहीं की। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भी रानी लक्ष्मीबाई, जीनत महल, नाना की पलिता बेटी मैना, फिरोजशाह की पत्नी आदि अनेक स्त्रियाँ अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़े थे। मार्गरेट नोबल, एनी बेसंट आदि विदेशी महिलाओं का हाथ नारी की प्रगति यात्रा में था। 1925 में श्रीमती सरोजिनी नायुडु कांग्रेस अध्यक्ष की गद्दी पर सुशोभित हुई। गांधीजी के आश्रम में स्त्रियों को पुरुषों के समान दर्जा दिया गया। 1930 में नमक-सत्याग्रह आंदोलन में अनेक महिलाओं ने सक्रिय भागदारी लीं। 1942 में असहयोग आंदोलन के समय अनेक पुरुषों को अपना व्यवसाय और नौकरियाँ छोड़नी पड़ी। इस पर महिलाओं ने उस बोझ को हर्ष के साथ स्वीकार किया। इस आंदोलन में अनेक नारियों को गिरफ़्तार होकर जेल में रहना पड़ा। 1942 का 'भारत छोड़ो' स्वतंत्रता संग्राम का अंतिम आंदोलन था। इसमें माता कस्तूरबा भी गांधीजी के साथ गिरफ़्तार होकर जेल चली गईं, वहाँ से वह फिर जीवित नहीं लौटीं।
स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माण में भी महिलाओँ का हाथ था। स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारत संविधान में स्त्री-पुरुषों को समान अधिकार का आश्वासन दिया गया। आज़ादी से पूर्व आई.सी.एस. सूची में एक भी महिला का नाम नहीं मिलता। कुमारी अन्ना जार्ज 1950 में प्रथम आई.ए.एस. बनकर सामने आईं। प्रथम आई.पी.एस. किरण बेदी थी। पर आज अनेक स्त्रियाँ इन पदों पर सुशोभित हैं। यह नारी उन्नति का विकास है। प्रधानमंत्री के पद पर इंदिरा गांधी का आरूढ़ होना महिलाओं की सबसे बड़ा उपलब्धि है।
आज यद्यपि हमारे देश में महिला अभियंता, वैज्ञानिक, विशेषज्ञ, विमानचालक, व्यापार-व्यवसाय संचालक बनकर होने पर भी नए क्षेत्रों में और उच्च पदों में उनकी संख्या अभी भी संतोषजनक नहीं है। पर आजकल यह संख्या भी बढ़ती जा रही है और जरूर कुछ ही सालों में ऐसी स्थिति उत्पन्न होगी कि नारियों का हाथ पुरुषों से भी बढ़कर रहेगा। राजनीति में गिरते हुए चारित्रिक व नैतिक मूल्यों के कारण भारतीय संस्कृति में पली नारी इसके प्रति उदासीन हो गई है। इसलिए राजनीति में महिलाओं की संख्या कम है। पर यह हाल आगे चलकर सुधरेगा। आजकल केंद्रीय केबिनेट मंत्री, राज्यमंत्री, उपमंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपाल के रूप में इतनी महिलाओं के नाम सामने आ चुके हैं, इन्हें गिनना संभव नहीं।
समाज-कल्याण के क्षेत्र में भी नारी का स्थान उनकी दयालु और ममतामयी प्रकृति के कारण महत्वपूर्ण है। सहानुभूति, सेवा, त्याग और दूसरों के लिए कष्टसहन की भावनाओं की जड़ें हमारी संस्कृति में बहुत गहरी हैं। इन गुणों के कारण ही नारी का स्थान आदरणीय है। इन गुणों के कारण ही नारी के पास अद्वितीय क्षमता है। अगर नारी अपनी आंतरिक शक्ति को पहचान लेगी तो ज़रूर उनकी प्रगति बहुत आसान होगी। इसी प्रकार उन्नति के रास्ते में आत्मविश्वास के साथ बढ़े तो कुछ ही सालों में शिखर तक पहुँचेंगे और देश की उन्नति भी ज़रूर संभव होगा। हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुलकलाम का सपना हासिल होगा।
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*प्रवक्ता, हिंदी विभाग, के.एस.आर. कला एवं विज्ञान महाविद्यालय, तिरुचेंगोड
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naaree kee pragaty yatra vydik kaalse lekar aaj tak vshleshan saargharbhit rahaa pratibha paatil se shru kar dr apj ke saath anth karnaa achhaalagaa subh kaamanaaye
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