Friday, February 19, 2010

शोध-लेख


दोहे की प्राचीन परंपरा: 1

आचार्य संजीव 'सलिल'



भाषा सागर मथ मिला, गीति काव्य रस कोष.
समय शंख दोहा करे, शाश्वतता का घोष..

हिंदी के वर्तमान रूप का उद्भव संस्कृत तथा अपभ्रंश से हुआ. समय प्रवाह के साथ हिंदी ने भारतीय भू भाग के विविध अंचलों में प्रचलित भाषाओँ-बोलिओं के शब्द-भंडार तथा व्याकरण-पिंगल को अंगीकार कर स्वयं को समृद्ध किया. संस्कृत-प्राकृत के पिंगल कोष से दोहा रत्न प्राप्त कर हिंदी ने उसे सजाया,

सँवारा, महिमा मंडित किया.

ललित छंद दोहा अमर, छंदों का सिरमौर.
हिंदी माँ का लाडला, इस सा छंद न और..


आरम्भ में 'दूहा' से हिंदी भाषा के पद्य का आशय लिया जाता था तथा प्रत्येक प्रकार के पद्य या छंद काव्य 'दूहा; ही कहलाते थे.१. कालांतर में क्रमशः दोहा का मानक रूप आकारित, परिभाषित तथा रूपायित होता गया.
लगभग दो सहस्त्र वर्ष पूर्व अस्तित्व में आये दोहा छंद को दूहा, दूहरा, दोहरा, दोग्धक, दुवअह, द्विपथा, द्विपथक, द्विपदिक, द्विपदी, दो पदी, दूहड़ा, दोहड़ा, दोहड़, दोहयं, दुबह, दोहआ आदि नामों संबोधित किया गया. आरंभ में इसे वर्णिक किन्तु बाद में मात्रिक छंद माना गया. दोहा अपने अस्तित्व काल के आरंभ से ही लोक जीवन, लोक परंपरा तथा लोक मानस से संपृक्त रहा है. २
दोहा में काव्य क्षमता का समावेश तो रहता ही है, संघर्ष और विचारों का तीखा स्वाद भी रहता है. दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है. ३
संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों को दोहा-लेखन का मूल माना जा सकता है किन्तु लचीले छंद अनुष्टुप के प्रभाव तथा संस्कृत व्याकरण के अनुसार हलंत व् विसर्ग को उच्चारित करने पर मात्र गणना में न गिनने के कारण इस काल में रची गयी द्विपदियाँ दोहा के वर्तमान मानकों पर खरी नहीं उतरतीं. श्रीमदभगवत की निम्न तथा इसी तरह की अन्य द्विपदियाँ वर्तमान दोहा की पूर्वज कही जा सकती हैं.

नाहं वसामि वैकुंठे, योगिनां हृदये न च.
मद्भक्ता यात्रा गायंति, तत्र तिष्ठामि नारद..

बसूँ न मैं बैकुंठ में, योगी-उर न निवास.
नारद! गएँ भक्त जहँ, वहीं करूँ मैं वास..

नारद रचित 'संगीत मकरंद' में कवि के गुण-धर्म वर्णित करती निम्न पंक्तियाँ दोहा के निकट प्रतीत होती हैं.

शुचिर्दक्षः शान्तः सुजनः, विनतः सूनृततरः.
कलावेदी विद्वानति मृदु पदः काव्य चतुरः..

रसज्ञौ दैवज्ञः सरस हृदयः, सत्कुलभवः.
शुभाकारश्ददं दो गुण गण विवेकी सच कविः..

नम्र निपुण सज्जन विनत, नीतिवान शुचि शांत.
काव्य-चतुर मृदुपद रचे, कहलाये कवि कांत..

जो रसज्ञ-दैवज्ञ है, सरस ह्रदय सुकुलीन.
गुणी-विवेकी कुशल कवि, छवि-यश हो न मलीन..

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सन्दर्भ: १. बरजोर सिंह 'सरल', हिंदी दोहा सार, २. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र', भूमिका शब्दों के संवाद- आचार्य भगवत दुबे, ३. आचार्य पूनमचंद तिवारी, समीक्षा दृष्टि.

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