गीतिका
- आचार्य संजीव 'सलिल'
'सलिल' को दे दर्द अपने, चैन से सो जाइए.
नर्मदा है नेह की, फसलें यहाँ बो जाइए.
चंद्रमा में चांदनी भी और धब्बे-दाग भी.
चन्दनी अनुभूतियों से पीर सब धो जाइए.
होश में जब तक रहे, मैं-तुम न हम हो पाए थे.
भुला दुनिया मस्त हो, मस्ती में खुद खो जाइए.
खुदा बनने था चला, इंसा न बन पाया 'सलिल'.
खुदाया अब आप ही, इंसान बन दिखलाइए.
एक उँगली उठाता है जब भी गैरों पर; सलिल'
तीन उँगली चीखती हैं, खुद सुधर कर आइए.
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