तीन चौपदे
- आचार्य संजीव 'सलिल'
दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया.
दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया.
दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-
दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया.
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कर न बेगाना मुझे तू, रुसवा ख़ुद हो जाएगा.
जिस्म में से जाँ गयी तो बाकी क्या रह जाएगा?
बन समंदर तभी तो दुनिया को कुछ दे पायेगा-
पत्थरों पर 'सलिल' गिरकर व्यर्थ ही बह जाएगा.
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कौन किसी का है दुनिया में. आना-जाना खाली हाथ.
इस दरवाजे पर मय्यत है उस दरवाजे पर बारात.
सुख-दुःख धूप-छाँव दोनों में साज और सुर मौन न हो-
दिल से दिल तक जो जा पाये 'सलिल' वही सच्चे नगमात.
1 comment:
दिलकाश दिल की दिल्लगी दिल को भाई
dr.s.basheer(hpcl)
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