मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का, मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?
- जय नारायण त्रिपाठी
मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का,
मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?
वो कूकेगी आम्र वृक्ष की शाखाओं पर,
मृदु किसलयों की ओट में
खुद को छिपलाकर
क्या तनिक उसे ये भान नहीं,
एक दिन वो हरित डाल भी सूखेगी ?
मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का,
मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?
मेरे शूलों का स्नेह त्याग,
औ' बैठ वहां, छेड़ती विहग राग
मुझे दर्प में ठुकराया पर,
एक दिन ये स्वर लहरी भी तो रूखेगी !
मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का,
मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?
फल न दे पाऊ मैं भले,
मगर जलने को तन तो दे सकता हूँ
प्रीत की खातिर मुझे बचाने तब,
क्या बार बार वो फूकेगी ?
मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का,
मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?
3 comments:
संवेदना की अभिव्यक्ति सुंदर ढंग से की है आपने इस कविता में, आपकी लेखनी से ऐसी कई और भावनाएँ सृजित हो, अभिनंदन सहित..
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति त्रिपाठी जी
Dhanyawad :)
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