स्मरण:
साज़ गया आवाज शेष है...
संजीव
*
सनातन सलिल नर्मदा तट पर पवित्र अग्नि के हवाले की गयी क्षीण काया चमकती आँखों और मीठी वाणी को हमेशा-हमेशा के लिए हम सबसे दूर ले गयी किन्तु उसका कलाम उसकी किताबों और हमारे ज़हनों में चिरकाल तक उसे जिंदा रखेगा. साज़ जबलपुरी एक ऐसी शख्सियत है जो नर्मदा के पानी को तरह का तरह पारदर्शी रहा. उसे जब जो ठीक लगा बेबाकी से बिना किसी की फ़िक्र किये कहा. आर्थिक-पारिवारिक-सामाजिक बंदिशें उसके कदम नहीं रोक सकीं.
उसने वह सब किया जो उसे जरूरी लगा... पेट पालने के लिए सरकारी नौकरी जिससे उसका रिश्ता तन के खाने के लिए तनखा जुटाने तक सीमित था, मन की बात कहने के लिए शायरी, तकलीफज़दा इंसानों की मदद और अपनी बात को फ़ैलाने के लिए पत्रकारिता, तालीम फ़ैलाने और कुछ पैसा जुगाड़ने के लिए एन.जी.ओ. और साहित्यिक मठाधीशों को पटखनी देने के लिए संस्था का गठन-किताबों का प्रकाशन. बिना शक साज़ किताबी आदर्शवादी नहीं, व्यवहारवादी था.
उसका नजरिया बिलकुल साफ़ था कि वह मसीहा नहीं है, आम आदमी है. उसे आगे बढ़ना है तो समय के साथ उसी जुबान में बोलना होगा जिसे समय समझता है. हाथ की गन्दगी साफ़ करने के लिए वह मिट्टी को हाथ पर पल सकता है लेकिन गन्दगी को गन्दगी से साफ़ नहीं किया जा सकता. उसका शायर उसके पत्रकार से कहीं ऊँचा था लेकिन उसके कलाम पर वाह-वाह करनेवाला समाज शायरी मुफ्त में चाहता है तो अपनी और समाज की संतुष्टि के लिए शायरी करते रहने के लिए उसे नौकरी, पत्रकारिता और एन. जी. ओ. से धन जुटाना ही होगा. वह जो कमाता है उसकी अदायगी अपनी काम के अलावा शायरी से भी कर देता है.
साज़ की इस बात से सहमति या असहमति दोनों उसके लिए एक बार सोचने से ज्यादा अहमियत नहीं रखती थीं. सोचता भी वह उन्हीं के मशविरे पर था जो उसके लिए निजी तौर पर मानी रखते थे. सियासत और पैसे पर अदबी रसूख को साज ने हमेशा ऊपर रखा. कमजोर, गरीब और दलित आदमी के लिए तहे-दिल से साज़ हमेशा हाज़िर था.
साज़ की एक और खासियत जुबान के लिए उसकी फ़िक्र थी. वह हिंदी और उर्दू को माँ और मौसी की तरह एक साथ सीने से लगाये रखता था. उसे छंद और बहर के बीच पुल बनाने की अहमियत समझ आती थी... घंटों बात करता था इन मुद्दों पर. कविता के नाम पर फ़ैली अराजकता और अभिव्यक्ति का नाम पर मानसिक वामन को किताबी शक्ल देने से उसे नफरत थी. चाहता तो किताबों का हुजूम लगा देता पर उसने बहुतों द्वारा बहुत बार बहुत-बहुत इसरार किये जाने पर अब जाकर किताबें छापना मंजूर किया.
साज़ की याद में मुक्तक :
*
लग्न परिश्रम स्नेह समर्पण, सतत मित्रता के पर्याय
दुबले तन में दृढ़ अंतर्मन, मौलिक लेखन के अध्याय
बहार-छंद, उर्दू-हिंदी के, सृजन सेतु सुदृढ़ थे तुम-
साज़ रही आवाज़ तुम्हारी, पर पीड़ा का अध्यवसाय
*
गीत दुखी है, गजल गमजदा, साज मौन कुछ बोले ना
रो रूबाई, दर्द दिलों का छिपा रही है, खोले ना
पत्रकारिता डबडबाई आँखों से फलक निहार रही
मिलनसारिता गँवा चेतना, जद है किंचित बोले ना
*
सम्पादक निष्णात खो गया, सुधी समीक्षक बिदा हुआ
'सलिल' काव्य-अमराई में, तन्हा- खोया निज मीत सुआ
आते-जाते अनगिन हर दिन, कुछ जाते जग सूनाकर
नैन न बोले, छिपा रहा, पर-पीड़ा कहता अश्रु चुआ
*
सूनी सी महफिल बहिश्त की, रब चाहे आबाद रहे
जीवट की जयगाथा, समय-सफों पर लिख नाबाद रहे
नखॊनेन से चट्टानों पर, कुआँ खोद पानी की प्यास-
आम आदमी के आँसू की कथा हमेश याद रहे
*
साज़ नहीं था आम आदमी, वह आमों में आम रहा
आडम्बर को खुली चुनौती, पाखंडों प्रति वाम रहा
कंठी-तिलक छोड़, अपनापन-सृजनधर्मिता के पथ पर
बन यारों का यार चला वह, करके अपना अनाम रहा
*
आपके और साज़ के बीच से हटते हुए पेश करता हूँ साज़ की शायरी के चंद नमूने:
अश'आर:
लोग नाखून से चट्टानों पे बनाते हैं कुआँ
और उम्मीद ये करते हैं कि पानी निकले
*
कत'आत
जिंदगी दर्द नहीं, सोज़ नहीं, साज़ नहीं
एक अंजामे-तमन्ना है ये आगाज़ नहीं
जिंदगी अहम् अगर है तो उसूलें से है-
सांस लेना ही कोई जीने का अंदाज़ नहीं
*
कोई बतलाये कि मेरे जिस्मो-जां में कौन है?
बनके उनवां ज़िन्दगी की दास्तां में कौन है?
एक तो मैं खुद हूँ, इक तू और इक मर्जी तिरी-
सच नहीं ये तो बता, फिर दोजहां में कौन है?
*
गजल
या माना रास्ता गीला बहुत है
हमारा अश्म पथरीला बहुत है
ये शायद उनसे मिलके आ रहा है
फलक का चाँद चमकीला बहुत है
ये रग-रग में बिखरता जा रहा है
तुम्हारा दर्द फुर्तीला बहुत है
लबों तक लफ्ज़ आकर रुक गए हैं
हमारा प्यार शर्मीला बहुत है
न कोई पेड़, न साया, न सब्ज़ा
सफर जीवन का रेतीला बहुत है
कहो साँपों से बचकर भाग जाएं
यहाँ इन्सान ज़हरीला बहुत है
*
गजल
ऐसा न हो थामे हुए आंसू छलक पड़े,
रुखसत के वक्त मुझको न समझाइये जनाब।
मैं ''साज़'' हूँ ये याद रहे इसलिए कभी,
मेरे ही शे'र मुझको सुना जाइये जनाब।।
साज़ गया आवाज शेष है...
संजीव
*
सनातन सलिल नर्मदा तट पर पवित्र अग्नि के हवाले की गयी क्षीण काया चमकती आँखों और मीठी वाणी को हमेशा-हमेशा के लिए हम सबसे दूर ले गयी किन्तु उसका कलाम उसकी किताबों और हमारे ज़हनों में चिरकाल तक उसे जिंदा रखेगा. साज़ जबलपुरी एक ऐसी शख्सियत है जो नर्मदा के पानी को तरह का तरह पारदर्शी रहा. उसे जब जो ठीक लगा बेबाकी से बिना किसी की फ़िक्र किये कहा. आर्थिक-पारिवारिक-सामाजिक बंदिशें उसके कदम नहीं रोक सकीं.
उसने वह सब किया जो उसे जरूरी लगा... पेट पालने के लिए सरकारी नौकरी जिससे उसका रिश्ता तन के खाने के लिए तनखा जुटाने तक सीमित था, मन की बात कहने के लिए शायरी, तकलीफज़दा इंसानों की मदद और अपनी बात को फ़ैलाने के लिए पत्रकारिता, तालीम फ़ैलाने और कुछ पैसा जुगाड़ने के लिए एन.जी.ओ. और साहित्यिक मठाधीशों को पटखनी देने के लिए संस्था का गठन-किताबों का प्रकाशन. बिना शक साज़ किताबी आदर्शवादी नहीं, व्यवहारवादी था.
उसका नजरिया बिलकुल साफ़ था कि वह मसीहा नहीं है, आम आदमी है. उसे आगे बढ़ना है तो समय के साथ उसी जुबान में बोलना होगा जिसे समय समझता है. हाथ की गन्दगी साफ़ करने के लिए वह मिट्टी को हाथ पर पल सकता है लेकिन गन्दगी को गन्दगी से साफ़ नहीं किया जा सकता. उसका शायर उसके पत्रकार से कहीं ऊँचा था लेकिन उसके कलाम पर वाह-वाह करनेवाला समाज शायरी मुफ्त में चाहता है तो अपनी और समाज की संतुष्टि के लिए शायरी करते रहने के लिए उसे नौकरी, पत्रकारिता और एन. जी. ओ. से धन जुटाना ही होगा. वह जो कमाता है उसकी अदायगी अपनी काम के अलावा शायरी से भी कर देता है.
साज़ की इस बात से सहमति या असहमति दोनों उसके लिए एक बार सोचने से ज्यादा अहमियत नहीं रखती थीं. सोचता भी वह उन्हीं के मशविरे पर था जो उसके लिए निजी तौर पर मानी रखते थे. सियासत और पैसे पर अदबी रसूख को साज ने हमेशा ऊपर रखा. कमजोर, गरीब और दलित आदमी के लिए तहे-दिल से साज़ हमेशा हाज़िर था.
साज़ की एक और खासियत जुबान के लिए उसकी फ़िक्र थी. वह हिंदी और उर्दू को माँ और मौसी की तरह एक साथ सीने से लगाये रखता था. उसे छंद और बहर के बीच पुल बनाने की अहमियत समझ आती थी... घंटों बात करता था इन मुद्दों पर. कविता के नाम पर फ़ैली अराजकता और अभिव्यक्ति का नाम पर मानसिक वामन को किताबी शक्ल देने से उसे नफरत थी. चाहता तो किताबों का हुजूम लगा देता पर उसने बहुतों द्वारा बहुत बार बहुत-बहुत इसरार किये जाने पर अब जाकर किताबें छापना मंजूर किया.
साज़ की याद में मुक्तक :
*
लग्न परिश्रम स्नेह समर्पण, सतत मित्रता के पर्याय
दुबले तन में दृढ़ अंतर्मन, मौलिक लेखन के अध्याय
बहार-छंद, उर्दू-हिंदी के, सृजन सेतु सुदृढ़ थे तुम-
साज़ रही आवाज़ तुम्हारी, पर पीड़ा का अध्यवसाय
*
गीत दुखी है, गजल गमजदा, साज मौन कुछ बोले ना
रो रूबाई, दर्द दिलों का छिपा रही है, खोले ना
पत्रकारिता डबडबाई आँखों से फलक निहार रही
मिलनसारिता गँवा चेतना, जद है किंचित बोले ना
*
सम्पादक निष्णात खो गया, सुधी समीक्षक बिदा हुआ
'सलिल' काव्य-अमराई में, तन्हा- खोया निज मीत सुआ
आते-जाते अनगिन हर दिन, कुछ जाते जग सूनाकर
नैन न बोले, छिपा रहा, पर-पीड़ा कहता अश्रु चुआ
*
सूनी सी महफिल बहिश्त की, रब चाहे आबाद रहे
जीवट की जयगाथा, समय-सफों पर लिख नाबाद रहे
नखॊनेन से चट्टानों पर, कुआँ खोद पानी की प्यास-
आम आदमी के आँसू की कथा हमेश याद रहे
*
साज़ नहीं था आम आदमी, वह आमों में आम रहा
आडम्बर को खुली चुनौती, पाखंडों प्रति वाम रहा
कंठी-तिलक छोड़, अपनापन-सृजनधर्मिता के पथ पर
बन यारों का यार चला वह, करके अपना अनाम रहा
*
आपके और साज़ के बीच से हटते हुए पेश करता हूँ साज़ की शायरी के चंद नमूने:
अश'आर:
लोग नाखून से चट्टानों पे बनाते हैं कुआँ
और उम्मीद ये करते हैं कि पानी निकले
*
कत'आत
जिंदगी दर्द नहीं, सोज़ नहीं, साज़ नहीं
एक अंजामे-तमन्ना है ये आगाज़ नहीं
जिंदगी अहम् अगर है तो उसूलें से है-
सांस लेना ही कोई जीने का अंदाज़ नहीं
*
कोई बतलाये कि मेरे जिस्मो-जां में कौन है?
बनके उनवां ज़िन्दगी की दास्तां में कौन है?
एक तो मैं खुद हूँ, इक तू और इक मर्जी तिरी-
सच नहीं ये तो बता, फिर दोजहां में कौन है?
*
गजल
या माना रास्ता गीला बहुत है
हमारा अश्म पथरीला बहुत है
ये शायद उनसे मिलके आ रहा है
फलक का चाँद चमकीला बहुत है
ये रग-रग में बिखरता जा रहा है
तुम्हारा दर्द फुर्तीला बहुत है
लबों तक लफ्ज़ आकर रुक गए हैं
हमारा प्यार शर्मीला बहुत है
न कोई पेड़, न साया, न सब्ज़ा
सफर जीवन का रेतीला बहुत है
कहो साँपों से बचकर भाग जाएं
यहाँ इन्सान ज़हरीला बहुत है
*
गजल
तन्हा न अपने आप को अब पाइये जनाब,
मेरी ग़ज़ल को साथ लिए जाइये जनाब।
मेरी ग़ज़ल को साथ लिए जाइये जनाब।
ऐसा न हो थामे हुए आंसू छलक पड़े,
रुखसत के वक्त मुझको न समझाइये जनाब।
मैं ''साज़'' हूँ ये याद रहे इसलिए कभी,
मेरे ही शे'र मुझको सुना जाइये जनाब।।
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