Thursday, May 2, 2013

अबूझे को बूझता स्वर : 'आमचो बस्तर'



कृति चर्चा:
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
अबूझे को बूझता स्वर : 'आमचो बस्तर'
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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(कृति विवरण: आमचो बस्तर, उपन्यास, राजीव रंजन प्रसाद, डिमाई आकार, बहुरंगा पेपरबैक  आवरण, पृष्ठ ४१४, २९५ रु., यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली)

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राजीव रंजन प्रसाद

                  

                  आमचो बस्तर देश के उस भाग के गतागत पर केन्द्रित औपन्यासिक कृति है जिसे  बस्तर कहा जाता है, जिसका एक भाग अबूझमाड़ आज भी सहजगम्य नहीं है और जो नक्सलवाद की विभीषिका से सतत जूझ रहा है। रूढ़ अर्थों में इसे उपन्यास कहने से परहेज किया जा सकता है क्योंकि यह उपन्यास के कलेवर में अतीत का आकलन, वर्त्तमान का निर्माण तथा भावी के नियोजन की त्रिमुखी यात्रा एक साथ कराता है। इस कृति में उपन्यास, कहानियां, लघुकथाएं, वार्ता प्रसंग, रिपोर्ताज, यात्रा वृत्त, लोकजीवन, जन संस्कृति  तथा चिंतन के ९ पक्ष इस तरह सम्मिलित हैं कि पाठक पूरी तरह कथा का पात्र हो जाता है। हमारे पुराण साहित्य की तरह यह ग्रन्थ भी वास्तविकताओं का व्यक्तिपरक या घटनापरक वर्णन करते समय मानव मूल्यों, आदर्शों, भूलों आदि का तटस्थ भाव से आकलन ही नहीं करता है अपितु अँधेरे की सघनता से भयभीत हुए बिना प्रकाश की प्राप्ति के प्रति आश्वस्ति का भाव भी जगाता है। 

छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण के पश्चात् बस्तर तथा छत्तीसगढ़ के अन्य अंचलों के बारे में लिखने की होड़ सी लग गयी है। अधिकांश कृतियों में अपुष्ट अतिरेकी भावनात्मक लिजलिजाहट से बोझिल अपचनीय कथ्य, अप्रामाणिक तथ्य, विधा की न्यून समझ तथा भाषा की त्रुटियों से उन्हें पढ़ना किसी सजा की तरह लगता रहा है। आमचो बस्तर का वाचन पूर्वानुभवों के सर्वथा विपरीत प्रामाणिकता, रोचकता, मौलिकता, उद्देश्यपरकता तथा नव दृष्टि से परिपूर्ण होने के कारण सुखद ही नहीं अपनत्व से भरा भी लगा। 

लगभग ४० वर्ष पूर्व इस अंचल को देखने-घूमने की सुखद स्मृतियों के श्यामल-उज्जवल पक्ष कुछ पूर्व विदित होने पर भी यथेष्ठ नयी जानकारियाँ मिलीं। देखे जा चुके स्थलों को उपन्यासकार की नवोन्मेषी दृष्टि से देखने पर पुनः देखने की इच्छा जागृत होना कृति की सफलता है। अतीत के गौरव-गान के साथ-साथ त्रासदियों के कारकों का विश्लेषण, आम आदमी के नज़रिए से घटनाओं को समझने और चक्रव्यूहों को बूझने का लेखकीय कौशल राजीव रंजन का वैशिष्ट्य है। 

राजतन्त्र से प्रजातंत्र तक की यात्रा में लोकमानस के साथ सत्ताधीशों के खिलवाड़, पद-मोह के कारण देश के हितों की अदेखी, मूल निवासियों का सतत शोषण, कुंठित और आक्रोशित जन-मन के विद्रोह को बगावत कह कर कुचलने के कुप्रयास, भूलों से कुछ न सीखने की जिद, अपनों की तुलना में परायों पर भरोसा, अपनों द्वारा विश्वासघात और सबसे ऊपर आमजनों की लोक हितैषी कालजयी जिजीविषा - राजीव जी की नवोन्मेषी दृष्टि इन तानों-बानों से ऐसा कथा सूत्र बुनते हैं जो पाठक को सिर्फ बाँधे नहीं रखता अपितु प्रत्यक्षदर्शी की तरह घटनाओं का सहभागी होने की प्रतीति कराते हैं। 

बस्तर में नक्सलवाद का नासूर पैदा करनेवाले राजनेताओं और प्रशासकों को यह कृति परोक्षतः ही सही कटघरे में खड़ा करती है। पद-मद में लोकनायक प्रवीरचंद्र भंजदेव को गोलियों से भून्जकर जन-आस्था का क़त्ल करनेवाले काल की अदालत में दोषी हैं- इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि देश की आजादी के समय हैदराबाद और कुछ अन्य रियासतें अपना भारत में सम्मिलन के विरोध में थीं। प्रवीरचंद्र जी को बस्तर को स्वतंत्र राष्ट्र का दर्ज मांगने के लिए मनाने का प्रयास किया गया। उनहोंने न केवल प्रस्ताव ठुकराया अपितु अपने मित्र प्रसिद्ध  साहित्यकार  स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलाहरीवी' के माध्यम से द्वारिका प्रसाद मिश्र को सन्देश भिजवाया ताकि नेहरु-पटेल आदि को अवगत कराया जा सके। फलतः राजाओं का कुचक्र विफल हुआ। यही मिश्र मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हुए तो भंजदेव को अकारण राजनैतिक स्वार्थ वश गोलियों का शिकार बनवा दिया। केर-बेर का संग यह की कलेक्टर के रूप में भंजदेव की लोकमान्यता को अपने अहंकार पर चोट माननेवाले नरोन्हा ने कमिश्नर के रूप में सरकार को भ्रामक और गलत जानकारियां देकर गुमराह किया। जनश्रुति यह भी है कि इस षड्यंत्र में सहभागी निम्नताम से उच्चतम पदों पर आसीन हर एक को कुछ समय के भीतर नियति ने दण्डित किया, कोई भी सुखी नहीं रह सका। 

प्रशंसनीय है कि लेखक व्यक्तिगत सोच को परे रखकर निष्पक्ष-तटस्थ भाव से कथा कहा सका है। बस्तर निवासी होने पर भी वे पूर्वाग्रह या दुराग्रह से मुक्त होकर पूरी सहजता से कथ्य को सामने ला सके हैं। वस्तुतः युवा उपन्यासकार अपनी प्रौढ़ दृष्टि और संतुलित विवेचन के लिए साधुवाद का पात्र है। 

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