Friday, April 26, 2013

रवींद्रनाथ ठाकुर का पूजा गीत (हिंदी काव्यानुवाद आचार्य संजीव सलिल द्वारा)

बाङ्ग्ला-हिंदी भाषा सेतु:
 पूजा गीत
रवीन्द्रनाथ ठाकुर  
* 
जीवन जखन छिल फूलेर मतो

पापडि ताहार छिल शत शत। 

बसन्ते से हत जखन दाता

 रिए दित दु-चारटि  तार पाता, 

तबउ जे तार बाकि रइत कत  

आज बुझि तार फल धरेछे, 

ताइ हाते ताहार अधिक किछु नाइ। 

हेमन्ते तार समय हल एबे  

पूर्ण करे आपनाके से देबे  

रसेर भारे ताइ से अवनत। 
* 
पूजा गीत:  रवीन्द्रनाथ ठाकुर 
 
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव 
 
फूलों सा खिलता जब जीवन  
 
पंखुरियां सौ-सौ झरतीं।
 
यह बसंत भी बनकर दाता  
 
रहा झराता कुछ पत्ती। 
 
संभवतः वह आज फला है  
 
इसीलिये खाली हैं हाथ।
 
अपना सब रस करो निछावर
 
हे हेमंत! झुककर माथ।
 
 *
इस बालकोचित प्रयास में हुई अनजानी त्रुटियों हेतु क्षमा प्रार्थना के साथ गुणिजनों से संशोधन हेतु निवेदन है.

Thursday, April 25, 2013

नैतिकता व धार्मिकता ही कर सकती है स्थाई चरित्र निर्माण

 
नैतिकता व धार्मिकता ही कर सकती है स्थाई चरित्र निर्माण
-विवेक रंजन श्रीवास्तव विनम्र 


     सदा से कोई भी ग़लत काम करने से समाज को कौन रोकता रहा है ?  या तो राज सत्ता का डर या फिर मरने के बाद ऊपर वाले को मुंह दिखाने की धार्मिकता , या आत्म नियंत्रण अर्थात स्वयं अपना डर ! सही ग़लत की पहचान ! अर्थात नैतिकता . 
          
     वर्तमान में भले ही क़ानून बहुत बन गये हों किन्तु वर्दी वालों को खरीद सकने की हकीकत तथा विभिन्न श्रेणी की अदालतों की अति लम्बी प्रक्रियाओं के चलते कड़े से कड़े क़ानून नाकारा साबित हो रहे हैं . राजनैतिक या आर्थिक रूप से सुसंपन्न लोग क़ानून को जेब में रखते हैं . फिर बलात्कार जैसे अपराध जो स्त्री पुरुष के द्विपक्षीय संबंध हैं , उनके लिये गवाह जुटाना कठिन होता है और अपराधी बच निकलते हैं . इससे अन्य अपराधी वृत्ति के लोग  प्रेरित भी होते हैं . 

        धर्म निरपेक्षता के नाम पर हमने विभिन्न धर्मों की जो  अवमानना की है , उसका दुष्परिणाम भी समाज पर पड़ा है . अब लोग भगवान से नहीं डरते . धर्म को हमने व्यक्तिगत उत्थान के साधन की जगह सामूहिक शक्ति प्रदर्शन का साधन बनाकर छोड़ दिया है . धर्म वोट बैंक बनकर रह गया है . अतः आम लोगों में बुरे काम करने से रोकने का धार्मिक  का डर नहीं रहा . एक बड़ी आबादी जो तमाम अनैतिक प्रलोभनों के बाद भी अपने काम आत्म नियंत्रण से करती थी अब मर्यादाहीन हो चली है . 
 
        पाश्चात्य संस्कृति के खुलेपन की सीमाओं व उसके  लाभ को समझे बिना नारी मुक्ति आंदोलनो की आड़ में स्त्रियां स्वयं ही स्वेच्छा से फिल्मों व इंटरनेट पर बंधन की सारी सीमायें लांघ रही हैं . पैसे कमाने की चाह में इसे व्यवसाय बनाकर नारी देह को वस्तु बना दिया गया है . 

       ऐसे विषम समय में नारी शोषण की जो घटनायें रिपोर्ट हो रही हैं , उसके लिये मीडिया मात्र धन्यवाद का पात्र है . अभी भी ऐसे ढ़ेरो प्रकरण दबा दिये जाते हैं . 
 
        आज समाज नारी सम्मान हेतु जागृत हुआ है . जरूरी है कि आम लोगों का स्थाई चरित्र निर्माण हो . इसके लिये समवेत प्रयास किये जावें . धार्मिक भावना का विकास किया जावे . चरित्र निर्माण में तो एक पीढ़ी के विकास का समय लगेगा तब तक आवश्यक है कि क़ानूनी प्रक्रिया में असाधारण सुधार किया जावे . त्वरित न्याय हो . तुलसीदास जी ने लिखा है " भय बिन होय न प्रीत " ..ऐसी सज़ा जरूरी लगती है जिससे दुराचार की भावना पर सज़ा  का डर बलवती हो .
ओ बी ११ 
विद्युत मण्डल कालोनी रामपुर , जबलपुर 
मो ९४२५८०६२५२

Wednesday, April 24, 2013

प्रेमचंद की उपन्यास कला


शोध-आलेख
          
प्रेमचंद की उपन्यास कला

 * जी॰ अखिलांडेश्वरी
      प्रेमचंद ने कहा है "मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्रमात्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है"। उपन्यस में प्रमुख रूप से मानव जीवन का ही चित्रण होता है। प्रेमचंद की उपन्यास कला समझने से पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है, जैसे कि वे समझते थे, जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जगे, हमें आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शान्ति और गति न पैदा हो , हमारा सौन्दर्य-प्रेम न जागृत हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे वह हमारे लिये बेकार है; वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं । इस संबंध में उन्होंने स्पष्टता से घोषित किया है कि मुझे यह कहने में हिचक नहीं है कि मैं और चीजों की तरह कला को उपयोगिता की तुला पर तोलता हूँ । कलाकार अपनी कला में सौन्दर्य की सृष्टि करके परिस्थिति को विकास के उपयोगी बनाता है।
     कथानक उपन्यास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है। कथानक अपनी सीमा में जीवन की समग्रता को अंकित करता है। कथानक में घटनाओं की संयोजना इस कौशल से होती है कि आरंभ से अन्त तक घटनायें बराबर एक दूसरे से निकलती हुई तथा एक सूत्र में बँधी हुई दृष्टिगोचर होती हैं। प्रेमचंद के उपन्यासों के कथानक देखें तो कई बातें स्पष्ट हो जाती हैं। उनके कथानकों का अत्यन्त विस्तृत क्षेत्र होता है जिसमें समग्र मानवीय चेतनाओं के व्यापक आयामों को समेटने का प्रयास किया जाता है। इस प्रक्रिया में वे कला के जिन उपकरणों का आश्रय ग्रहण करते हैं, उनसे पाठकें का पूर्ण तादात्म्य रहता है । एक स्थान पर उन्होंने लिखा है कि कथा को बीच में शुरू करना या इस प्रकार शुरू करना कि जिसमें ड्रामा का चमत्कार पैदा हो जाय, मेरेलिये मुश्किल है"। इस कथन की सत्यता उनके उपन्यासों के कथानक प्रमाणित करते हैं, जिनके आदि, मध्य और अंत तथा घटनाओं की गति विधियाँ स्पष्ट रहती हैं ।  वे कभी तथ्यों को तोड़ते-मरोड़ते नहीं, और बातों को सीधे-सादे ढंग से स्पाष्ट कर देने में विश्वास रखते हैं ।  प्रेमचंद के कथानकों में पग-पग पर उनके सामाजिक दायित्व के निर्वाह की तीव्र भावना मिलती है । उन्होंने कहीं भी वैयक्तिकता को महत्व नहीं दिया है। इसलिए उनके कथानक समाज तथा समकालीन यथार्थ से घनिष्ठ रूप मे संबंध रखते हैं। उनके कथानकों में परिवार से लेकर विशाल राष्ट्र की व्यापक एवं गंभीर समस्यायें रहती हैं। उनके कथानकों में जीवन की विशद व्याख्या और जीवन का विशद चित्र पट रहता है । उन्होंने जीवन की कुरूपता पर भी सुन्दर भवन निर्मित किया है। इस संबंध में उनका आदर्शोन्मुख यथार्थवाद ही उभर आता है। उन्होंने मनोविज्ञान के आधार पर बल दिया है।
     प्रेमचंद ने कला का संबंध जीवन के साथ स्थापित किया । इसलिए उनके कथानकों में हमें एक विशेष युग का पूर्ण चित्र मिल जाता है। उन्होंने वर्ग संघर्ष का चित्रण अवश्य किया है किन्तु उस संघर्ष का पर्यवसान समन्वय की ओर है।
     पात्र एवं चरित्र चित्रण पर विचार करेंगे तो स्पष्ट होता है कि चरित्र चित्रण के संबंध में प्रेमचंद की अपनी धारण थी और उसी के आधार पर वे अपने पात्रों को जीवन के यथार्थ से चुनते थे । उनका विचार था कि उपन्यासों के चरित्रों का चित्रण जितना ही स्पष्ट और गहरा हो, उतना ही पाठकों पर उसका असर होता है।
     प्रेमचंद का चरित्र चित्रण अभिनयात्मक और विश्लेषणात्मक दोनों प्रकार का है। उनके पात्र जातीय (Type) अधिक है और वैयक्तिक कम । वे किसी न किसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं और उस युग की सारी विशेषताएं उन पात्रों में देखी जा सकती हैं।
     कथोपकथन आधुनिक उपन्यास कला का एक महत्व पूर्ण अंग माना जाता है। कथोपकथन जितने छोटे, व्यंग्य पूर्ण और सार्थक होते हैं, उपन्यास की सफलता उतनी ही बढ़ जाती है। प्रेमचंद के उपन्यासों के कथोपकथन पत्रों के शील और स्वभाव अर प्रकाश डालते हैं। उनके कथोपकथनों में संक्षिप्तता अधिकांश रूप में प्राप्त होती है। प्रेमचंद के कथोपकथनों में बड़ी स्वाभाविकता रहती है। वे उनको इस प्रकार पात्रानुकूल प्रस्तुत करते हैं कि वे अधिक यथार्थ लगते हैं। प्रेमाश्रम के प्रारंभ में देहातियों में जो वर्तालाप होता है वह इस बात का प्रमाण है।  देश्काल और वातावरण का चित्रण करने में प्रेमचंद सिद्धहस्त है।  उनके उपन्यासों में उनके समय का युग और समाज यथार्थ ढंग से प्रतिबिम्बित हो उठा है।
     उन्होंने स्थानीयता का पूर्ण ध्यान रखा है और भारतीय लोक परम्पराओं, संस्कृतियों एवं आदर्शों को उनके वास्तविक रूप में चित्रित करने का प्रयास किया है। यही कारण है कि उनके उपन्यासों को पढते समय ऐसा प्रतीत होता है कि हम अपने जीवन का सजीव चित्र अपनी आखों से देख रहे हैं, जिसमें कहीं भी अयथार्थता या कृत्रिमता नहीं है। प्रेमाचन्द की उपन्यास कला की यह एक महत्वपूर्ण सफलता है।
     भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा है । उपन्यास की भाषा रचना की सफलता में प्रमुख हाथ रखती है। भाषा जितनी ही सरल भावाभिव्यंजक एवं बोधगम्य रहती है वह उतनी ही प्रभावशाली होती है। प्रेमचंद के उपन्यास साधारण से साधारण पाठकों तक इसलिए पहुँच सके कि उनकी भाषा अत्यन्त सरल एवं सरस है। जिस काल का कथानक चुना जाता है भाषा उसी के अनुरूप होती है।
      प्रेमचंद भाषा में जनवादी तत्वों को महत्व देने के पक्षपाती थे। उन्होंने भाषा को सरल, बोधगम्य, सहज एवं मुहावरेदार बनाने की बराबर कोशिश की और इस दृष्टि से वे हिंदी के प्रथम उपन्यासकार है जिन्होंने भाषा को यथार्थ रूप देने की सफल चेष्टा की उनकी भाषा के संबंध में डॉ. धीरेन्द्रवर्मा ने ठीक ही लिखा है कि शैलीकार की दृष्टि से प्रेमचंद का स्थान हिंदी साहित्य में असाधारण है। सरल,सुबोध,मुहावरेदार सजीव गद्यशैली का अभ्यास उर्दु लेखक के रूप में वे पहले ही कर चुके हैं। अपने इस अभ्यास को वे अपने साथ ही हिंदी के क्षेत्र में  लेते आये हैं। उनकी भाषा वस्तु, पात्र, देशकाल तीनों के साथ सामंजस्य स्थापित किये हुए है। कभी-कभी उन्होंने कोमलता और मार्मिकता ग्रहण किये हुए काव्यानुकूल भाषा का भी प्रयोग किया है। उनकी भाषा कहावतों और मुहावरों से समन्वित है। पर कहीं भी उन्होंने भाषा को बोझिल होने नहीं दिया है।

 * जी॰ अखिलांडेश्वरी    कर्पगम विश्वविद्यालयकोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावति अम्माल के निर्देशन में शोधरत हैं ।

Tuesday, April 23, 2013

तमिलनाडु हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा जीवनोपलब्धि सम्मान समारोह संपन्न


तमिलनाडु हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा जीवनोपलब्धि सम्मान समारोह संपन्न
वाणी जयराम, श्याम सुंदर गोइन्का और रमेश गुप्त नीरद सम्मानित
 

तमिलनाडु हिंदी साहित्य द्वारा जीवनोपलब्धि सम्मान समारोह का भव्य आयोजन किया गया. जिसमें वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग के अध्यक्ष एवं मानव संसाधन मंत्रालय की इकाई केंद्रीय हिंदी निदेशालय के निदेशक प्रो. केशरीलाल वर्मा जी ने मुख्य अतिथि के पद को सुशोभित किया. कॉलीवुड के जेमिनी थिएयर के प्रथम फिल्म तकनीशियन तथा निर्माता-निर्देशक श्री एन कृष्णस्वामी जी विशिष्ट अतिथि थे.

कार्यक्रम का शुभारंभ मुख्य अतिथि प्रो. केशरीलाल वर्मा जी के कर-कमलों से दीप-प्रज्वलन हुआ. श्रीमती जयलक्ष्मी अजित और डॉ. अशोक दि्वेद्धी ने प्रार्थना की. अकादमी की अध्यक्षा डॉ. वत्सला किरण ने स्वागत भाषण दिया. महासचिव डॉ. निर्मला मौर्या ने संस्था का परिचय दिया. डॉ. मधु धवन, डॉ वत्सला किरण ने मुख्य अतिथि तथा विशिष्ट अतिथि को शाल, चाँदी का ब्रेसलेट , प्रेमोपहार तथा प्रतीक चिह्न प्रदान कर सम्मान किया.

डॉ. रनिता भाटिया ने वाणी जयराम का परिचय दिया, मंजू रुस्तगी ने क्षी श्याम सुंदर गोइन्का तथा श्री इस्वर करुण ने रमेशगुप्त जी का परिचय दिया मंच डॉ. कुलजीत कौर तथा आर.पार्वती संभाल रहीं थीं और संचालन श्रीमती सुधा त्रिवेदी कर रही थी.

इस समारोह में प्रसिद्ध पार्श्व गायिका श्रीमती वाणी जयराम को श्रीमती शकुंतला रानी चोपडा गायन शिरोमणि पुरस्कार, व्यग्य लेखक - कवि श्री श्याम सुंदर गोइन्का को श्री विजय-मधु व्यग्य-साहित्य शिरोमणि पुरस्कार तथा गीतकार-साहित्यकार श्री रमेश गुप्त नीरद को श्रीमती शकुंतला धवन साहित्य शिरोमणि पुरस्कार प्रदान किया गया. यह तीनों पुरस्कार इक्कीस-इक्कीस हजार नकद राशि के साथ रजत मुकुट, शाल, चॉकलेय की डलिया,प्रशस्ति पत्र तथा भव्य कीर्तिमान प्रतीक चिह्न प्रदान किया गया.

श्रीमती वाणी जयराम ने अपने वक्तव्य में तमिलनाडु साहित्य अकादमी के प्रति आभार प्रकट करते हुए कहा कि वे कला की साधना में अपना जीवन व्यतीत करती आई हैं. और सभी सभी कला-साधकों के प्रति श्रद्धाभाव रखती हैं .हिंदी से उनका जुडाव और लगाव हमेशा रहा है.वे स्वयं भी हिंदी में कविताएँ करती हैं. उन्होंने अपने दो गीत गाकर भी सुनाए.साथ ही श्रोताओं की माँग पर गुड्डी फिल्म का प्रसिद्ध गीत बोले रे पपीहरा.. भी गाकर सुनाया.जिसे सुनकर विशाल सभागार तालियों की गडगडाहट से गूँज उठा.

श्री श्याम सुंदर गोइन्का ने अपने वक्तव्य में सम्मान हेतु सभी चेन्नैवासियों के प्रति आभार प्रकट करते हुए कहा कि यह वही चेन्नै है जहाँ मैंने जीवन की शुरुआत की थी. आज उसी शहर में सम्मानित होकर वे अभिभूत हैं. अपनी साहित्य साधना के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि लोग भले ही उन्हें व्यवसायी कहे लेकिन उनकी असली यारी तो साहित्य से है.खासतौर पर से समाज की विद्रूपताओं पर प्रहार कर उनके सुधार के प्रयास करना उनका लक्ष्य है.अपनी व्यंग्य रचनाओं से सबको खूब हसाया और तालियाँ बटोरी.

श्री रमेशगुप्त नीरद ने सम्मान के उपरांत अपने भाव व्यक्त करते हुए अपने लंबे साहित्यिक सफर और पथ के संघर्षों को याद किया. उन्होंने अपने इस पथ के सभी साथियों को याद किया.

इस अवसर पर मुख्य अतिथि प्रो. केशरीलाल वर्मा ने हर्ष प्रकट करते हुए कहा कि संस्था की संस्थापिका डॉ. मधु धवन के निमंत्रण पर वे आए हैं. उन्होंने आश्वासन दिया कि उनके निदेशन में दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार-प्रसार में न केवल पूर्ववत सहयोग प्राप्त होता रहेगा अपितु नई योजनाओं के साथ नए आयाम भी जुडेंगे. उन्होंने वाणी जयराम के गीतों के प्रति अपने आकर्षण को प्रकट करते हुए सभी पुरस्कार प्राप्त कलासाधकों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्हें साधुवाद दिया..

इस अवसर पर अपने तमिल-हिंदी अनुवाद कार्यों से सम्मानित डॉ.गोविंदराजन,डॉ.आर.जमुना, कवयित्री तथा समाज सेवी श्रीमती मोहिनी चोराडिया. वयोवृद्ध हिंदी प्रचारक शौरिराजन, हिंदी के प्रचारार्थ संलग्न श्रीमती निर्मल भसीन, तमिल-हिंदी के सेतु का कार्य करनेवाले अनुवादक डॉ. पि.के.बालासुब्रमणियन को अंगवस्त्र, प्रतीक चिह्न तथा 1100 की नकद राशि द्वारा सम्मानित किया गया.

इस अवसर पर तमिलनाडु साहित्य बुलेटिन के प्रवेशांक का लोकार्पण मुख्य अतिथि के कर-कमलों से हुआ.जिसकी पहली प्रति वरिष्ठ कवि डॉ चुन्नीलाल शर्मा जी को प्रदान की गई.साथ ही डॉ.मधु धवन द्वारा संपादित पुस्तक
समरसता गवाक्ष के पार ( पुदुचेरी के उप-राज्यपाल महामहिमडॉ. इकबाल सिंह के 100 भाषणों का हिंदी अनुवाद है.) श्री रमेशगुप्त नीरद जी की चार पुस्तकें---चिंगारी के अंश समीक्षात्मक लेख-संपादकीय, खुली खिडकियाँ. (सामसामयिक निबंध)बहुत कुछ छुट गया. मेरे गीत तुम्हारे साथी - काव्य संग्रह का लोकार्पण किया गया.

इस समारोह को भांगडा नृत्य ने चार चाँद लगाए. अंत में संस्था के कोशाध्यक्ष डॉ. हुसैन वलि जी ने धन्यवाद ज्ञापित किया. राष्ट्र गान से समारोह का समापन हुआ.