भारतीय भाषाओं में
अंतरसंवाद हिंदी के माध्यम से ही संभवः बालशौरी रेड्डी
पत्रकारिता
विश्वविद्यालय में माखनलाल चतुर्वेदी स्मृति व्याख्यान का आयोजन
भोपाल, 4 अप्रैल
2013। हिंदी भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है, यदि हम भारतीय भाषाओं के
मध्य अतंरसंवाद करना चाहते हैं तो यह हिंदी के माध्यम से ही संभव हो सकता है।
आचार्य केशवचंद्र ने भी कहा था कि भारत की विभिन्न भाषाओं के मध्य संवाद की भाषा
हिंदी ही बन सकती है। यह विचार पत्रकारिता विश्वविद्यालय में आयोजित माखनलाल
चतुर्वेदी स्मृति व्याख्यान के अंतर्गत प्रख्यात हिंदी सेवी एवं चंदामामा के पूर्व
संपादक श्री बलशौरी रेड्डी ने व्यक्त किये।
पत्रकारिता
विश्वविद्यालय प्रतिवर्ष 4 अप्रैल को माखनलाल चतुर्वेदी के जन्मदिवस के अवसर पर
स्मृति व्याख्यान का आयोजन करता है। इस वर्ष इस आयोजन में मुख्य वक्ता के रूप में श्री
बालशौरी रेड्डी एवं मुख्य अतिथि के रूप में वरिष्ठ पत्रकार श्री रमेश नैयर उपस्थित
थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने
की।
श्री रेड्डी ने
अपने उदबोधन में कहा कि भारतीय मनीषा ने वसुधैव कुटुम्बकम का सिद्धांत देकर पूरे
विश्व को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया। यदि पूरे विश्व के लिए एक भाषा के
सिद्धांत पर विचार किया होता तो शायद आज भाषायी अंतरसंवाद की आवश्यकता ही नहीं
होती। पूरे विश्व की भाषा बनने की क्षमता हिंदी में है क्योंकि हिंदी एक वैज्ञानिक
भाषा है और इस भाषा में जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा भी जा सकता है।
श्री रेड्डी ने
कहा कि भारत की कोई राष्ट्रीय शिक्षा नीति नहीं है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाकर
ही हम हिंदी को पूरे राष्ट्र की भाषा बना सकते हैं। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति
की आवश्यकता है। महात्मा गांधी ने कहा था कि यदि भारत को राष्ट्रीय एकता के सूत्र
में पिरोना है तो हमें हिंदी को ही राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करना होगा।
गांधी जी के प्रयासों से दक्षिण भारत में हिंदी भाषा का प्रचार प्रसार हुआ। आज
दक्षिण भारतीय भाषाओं के बाद अंग्रेजी की तुलना में हिंदी 7 प्रतिशत अधिक बोली
जाती है।
कार्यक्रम के
मुख्य अतिथि श्री रमेश नैयर ने कहा कि भारतीय भाषाओं में अंतरसंवाद की जितनी
आवश्यकता आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। आज बाजार के कारण हिंदी एवं भारतीय भाषाओं
के समक्ष बड़ा संकट खड़ा हुआ है। आज भारत एक नये प्रकार के उपनिवेशवाद का शिकार हो
गया है। अपनी भाषा और संस्कृति पर बाजार हावी हो गया है। भाषा के कमजोर पड़ने से
संस्कृति व संस्कार भी कमजोर पड़ते हैं। भाषा, संस्कृति और संस्कारों का जब क्षरण
होता है तो देश की एकजुटता पर प्रश्नचिन्ह लगता है। वर्ष 2012 में बड़ोदरा में हुए
सम्मेलन में यह बात सामने आई कि आजादी के बाद भारत की छोटी बड़ी 400 भाषाएं लुप्त
हो गई हैं। बाजार के सामने आज हम भाषा एवं मूल्यों का बात नहीं कर सकते। पत्रकारिता
के माध्यम से भाषा एवं मूल्यों को बचाने का प्रयास करना चाहिए और इसके लिए भारतीय
भाषाओं के बीच अंतरसंवाद जरूरी है।
अध्यक्षीय उदबोधन
में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि भारतीय युवाओं में
भारतीयता तभी आएगी जब वे भाषायी संस्कारों के प्रति समर्पित रहेंगे। भारत की
संस्कृति और उप संस्कृतियों के मध्य संवाद खड़ा करने में हिंदी ने सबसे बड़ा
योगदान दिया है। आज युवाओं के चाहिए कि वे सभी भाषाओं का सम्मान करें और बहुभाषी
बनें। पं. माखनलाल चतुर्वेदी का विचार था कि भाषा के सम्मान से बढ़कर कोई और
सम्मान नहीं हो सकता।
कार्यक्रम के
दौरान आमंत्रित अतिथियों का शॉल श्रीफल एवं स्मृति चिन्ह से सम्मान किया गया।
कार्यक्रम के अंत में विश्वविद्यालय के कुलाधिसचिव प्रो. रामदेव भारद्वाज ने
आमंत्रित अतिथियों एवं उपस्थित लोगों के प्रति आभार व्यक्त किया। कार्यक्रम का
संचालन इलैक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. श्रीकांत सिंह ने किया। इस
अवसर पर विश्वविद्यालय के शिक्षकगण, अधिकारी, कर्मचारी एवं विद्यार्थियों के
अतिरिक्त नगर के गणमान्य नागरिक एवं मीडियाकर्मी उपस्थित थे।
-डॉ. पवित्र
श्रीवास्तव
प्रभारी जनसंपर्क
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